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कंकाल जयशंकर प्रसाद

अनुक्रम

प्रथम खंड

द्वि�तीय खंड

तृतीय खंड चतुथ� खंड

अनुक्रम प्रथम खंड     आगे

(1)

प्रद्वितष्ठान के खँडहर में और गंगा-तट की सिसकता-भूमिम में अनेक सिशद्वि)र और फूस के झोंपडे़ खडे़ हैं। माघ की अमा)स्या की गोधूली में प्रयाग में बाँध पर प्रभात का-सा जनर) और कोलाहल तथा धम� लूटने की धूम कम हो गयी है; परन्तु बहुत-से घायल और कुचले हुए अध�मृतकों की आत�ध्)द्विन उस पा)न प्रदेश को आशी)ा�द दे रही है। स्)यं-से)क उन्हें सहायता पहुँचाने में व्यस्त हैं। यों तो प्रद्वित)र्ष� यहाँ पर जन-समूह एकत्र होता है, पर अब की बार कुछ द्वि)शेर्ष प)� की घोर्षणा की गयी थी, इससिलए भीड़ अमिधकता से हुई।

द्विकतनों के हाथ टूटे, द्विकतनों का सिसर फूटा और द्विकतने ही पससिलयों की हद्विCयाँ गँ)ाकर, अधोमुख होकर द्वित्र)ेणी को प्रणाम करने लगे। एक नीर) अ)साद संध्या में गंगा के दोनों तट पर खडे़ झोंपड़ी पर अपनी कासिलमा द्विबखेर रहा था। नंगी पीठ घोड़ों पर नंगे साधुओं के चढ़ने का जो उत्साह था, जो तल)ार की द्विफकैती दिदखलाने की स्पधा� थी, दश�क-जनता पर बालू की )र्षा� करने का जो उन्माद था, बडे़-बडे़ कारचोबी झंडों को आगे से चलने का जो आतंक था, )ह सब अब फीका हो चला था।

एक छायादार डोंगी जमुना के प्रशांत )क्ष को आकुसिलत करती हुई गंगा की प्रखर धारा को काटने लगी-उस पर चढ़ने लगी। माझिझयों ने कसकर दौड़ लगायी। ना) झूँसी के तट पर जा लगी। एक सम्भ्रान्त सज्जन और यु)ती, साथ में एक नौकर उस पर से उतरे। पुरुर्ष यौ)न में होने पर भी कुछ खिखन्न-सा था, यु)ती हँसमुख थी; परन्तु नौकर बड़ा ही गंभीर बना था। यह सम्भ)तः उस पुरुर्ष की प्रभा)शासिलनी सिशष्टता की सिशक्षा थी। उसके हाथ में एक बाँस की डोलची थी, झिजसमें कुछ फल और मिमठाइयाँ थीं। साधुओं के सिशद्वि)रों की पंसिW सामने थी, )े लोग उसकी ओर चले। सामने से दो मनुष्य बातें करते आ रहे थ-े

'ऐसी भव्य मूर्तित\ इस मेले भर में दूसरी नहीं है।'

'जैसे साक्षात् भग)ान् का अंश हो।'

'अजी ब्रह्मचय� का तेज है।'

'अ)श्य महात्मा हैं।'

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)े दोनों चले गये।

यह दल उसी सिशद्वि)र की ओर चल पड़ा, झिजधर से दोनों बातें करते आ रहे थे। पटमण्डप के समीप पहुँचने पर देखा, बहुत से दश�क खडे़ हैं। एक द्वि)सिशष्ट आसन पर एक बीस )र्ष� का यु)क हलके रंग का कार्षाय )स्त्र अंग पर डाले बैठा है। जटा-जूट नहीं था, कंधे तक बाल द्विबखरे थे। आँखें संयम के मद से भरी थीं। पुष्ट भुजाए ँऔर तेजोमय मुख-मण्डल से आकृद्वित बड़ी प्रभा)शासिलनी थी। सचमुच, )ह यु)क तपस्)ी भसिW करने योग्य था। आगन्तुक और उसकी यु)ती स्त्री ने द्वि)नम्र होकर नमस्कार द्विकया और नौकर के हाथ से लेकर उपहार सामने रखा। महात्मा ने सस्नेह मुस्करा दिदया। सामने बैठे हुए भW लोग कथा कहने )ाले एक साधु की बातें सुन रहे थे। )ह एक छन्द की व्याख्या कर रहा था-'तासों चुप है्व रद्विहये'। गँूगा गुड़ का स्)ाद कैसे बता)ेगा; नमक की पतली जब ल)ण-सिसनु्ध में द्विगर गई, द्विफर )ह अलग होकर क्या अपनी सत्ता बता)ेगी! ब्रह्म के सिलए भी )ैसे ही 'इदमिमत्यं' कहना असम्भ) है, इससिलए महात्मा ने कहा-'तासों चुप है्व रद्विहये'।

उपस्थिkत साधु और भWों ने एक-दूसरे का मुँह देखते हुए प्रसन्नता प्रकट की। सहसा महात्मा ने कहा, ऐसा ही उपद्विनर्षदों में भी कहा है। सम्भ्रान्त पुरुर्ष सुसिशक्षिक्षत था, उसके हृदय में यह बात समा गयी द्विक महात्मा )ास्तद्वि)क ज्ञान-सम्पन्न महापुरुर्ष हैं। उसने अपने साधु-दश�न की इच्छा की सराहना की और भसिWपू)�क बैठकर 'सत्संग' सुनने लगा।

रात हो गयी; जगह-जगह पर अला) धधक रहे थे। शीत की प्रबलता थी। द्विफर भी धम�-संग्राम के सेनापद्वित लोग सिशद्वि)रों में डटे रहे। कुछ ठहरकर आगन्तुक ने जाने की आज्ञा चाही। महात्मा ने पूछा, 'आप लोगों का शुभ नाम और परिरचय क्या है

'हम लोग अमृतसर के रहने )ाले हैं, मेरा नाम श्रीचन्द्र है और यह मेरी धम�पत्नी है।' कहकर श्रीचन्द्र ने यु)ती की ओर संकेत द्विकया। महात्मा ने भी उसकी ओर देखा। यु)ती ने उस दृमिष्ट से यह अथ� द्विनकाला द्विक महात्मा जी मेरा भी नाम पूछ रहे हैं। )ह जैसे द्विकसी पुरस्कार पाने की प्रत्याशा और लालच से पे्ररिरत होकर बोल उठी, 'दासी का नाम द्विकशोरी है।'

महात्मा की दृमिष्ट में जैसे एक आलोचक घूम गया। उसने सिसर नीचा कर सिलया और बोला, 'अच्छा द्वि)लम्ब होगा, जाइये। भग)ान् का स्मरण रखिखये।'

श्रीचन्द्र द्विकशोरी के साथ उठे। प्रणाम द्विकया और चले।

साधुओं का भजन-कोलाहल शान्त हो गया था। द्विनस्तब्धता रजनी के मधुर क्रोड़ में जाग रही थी। द्विनशीथ के नक्षत्र गंगा के मुकुल में अपना प्रद्वितद्विबम्ब देख रहे थे। शांत प)न का झोंका सबको आलिल\गन करता हुआ द्वि)रW के समान भाग रहा था। महात्मा के हृदय में हलचल थी। )ह द्विनष्पाप हृदय ब्रह्मचारी दुक्षिzन्ता से मसिलन, सिशद्वि)र छोड़कर कम्बल डाले, बहुत दूर गंगा की जलधारा के समीप खड़ा होकर अपने सिचरसंसिचत पुण्यों को पुकारने लगा।

)ह अपने द्वि)राग को उते्तझिजत करता; परन्तु मन की दुब�लता प्रलोभन बनकर द्वि)राग की प्रद्वित�खिन्�ता करने लगती और इसमें उसके अतीत की स्मृद्वित भी उसे धोखा दे रही थी, झिजन-झिजन सुखों को )ह त्यागने की लिच\ता करता, )े ही उसे धक्का देने का उद्योग करते। दूर सामने दिदखने )ाली कसिलन्दजा की गद्वित का अनुकरण करने के सिलए )ह मन को उत्साह दिदलाता; परन्तु गंभीर अर्द्ध�द्विनशीथ के पूण� उज्ज्)ल नक्षत्र बाल-काल की स्मृद्वित के सदृश मानस-पटल पर चमक उठते थे। अनन्त आकाश में जैसे अतीत की घटनाए ँरजताक्षरों से सिलखी हुई उसे दिदखाई पड़ने लगीं।

झेलम के द्विकनारे एक बासिलका और एक बालक अपने प्रणय के पौधे को अनेक क्रीड़ा-कुतूहलों के जल से सींच रहे हैं। बासिलका के हृदय में असीम अक्षिभलार्षा और बालक के हृदय में अदम्य उत्साह। बालक रंजन आठ )र्ष� का हो गया और बासिलका सात की। एक दिदन अकस्मात् रंजन को लेकर उसके माता-द्विपता हर�ार चल पडे़। उस समय द्विकशोरी ने उससे पूछा, 'रंजन, कब आओगे?'

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उसने कहा, 'बहुत ही जल्द। तुम्हारे सिलए अच्छा-अच्छी गुद्विड़या लेकर आऊँगा।'

रंजन चला गया। झिजस महात्मा की कृपा और आशी)ा�द से उसने जन्म सिलया था, उसी के चरणों में चढ़ा दिदया गया। क्योंद्विक उसकी माता ने सन्तान होने की ऐसी ही मनौती की थी।

द्विनषु्ठर माता-द्विपता ने अन्य सन्तानों के जीद्वि)त रहने की आशा से अपने ज्येष्ठ पुत्र को महात्मा का सिशष्य बना दिदया। द्विबना उसकी इच्छा के )ह संसार से-झिजसे उसने अभी देखा भी नहीं था-अलग कर दिदया गया। उसका गुरु�ारे का नाम दे)द्विनरंजन हुआ। )ह सचमुच आदश� ब्रह्मचारी बना। )ृर्द्ध गुरुदे) ने उसकी योग्यता देखकर उसे उन्नीस )र्ष� की ही अ)kा में गद्दी का अमिधकारी बनाया। )ह अपने संघ का संचालन अचे्छ ढंग से करने लगा।

हर�ार में उस न)ीन तपस्)ी की सुख्याद्वित पर बूढे़-बूढे़ बाबा ईष्या� करने लगे और इधर द्विनरंजन के मठ की भेंट-पूजा बढ़ गयी; परन्तु द्विनरंजन सब चढे़ हुए धन का सदुपयोग करता था। उसके सद्गणुों का गौर)-सिचत्र आज उसकी आँखों के सामने खिख\च गया और )ह प्रशंसा और सुख्याद्वित के लोभ दिदखाकर मन को इन नयी कल्पनाओं से हटाने लगा; परन्तु द्विकशोरी के मन में उसे बारह )र्ष� की प्रद्वितमा की स्मरण दिदला दिदया। उसने हर�ार आते हुए कहा था-द्विकशोरी, तेरे सिलए गुद्विड़या ले आऊँगा। क्या यह )ही द्विकशोरी है? अच्छा यही है, तो इसे संसार में खेलने के सिलए गुद्विड़या मिमल गयी। उसका पद्वित है, )ह उसे बहलायेगा। मुझ तपस्)ी को इससे क्या! जी)न का बुल्ला द्वि)लीन हो जायेगा। ऐसी द्विकतनी ही द्विकशोरिरयाँ अनन्त समुद्र में द्वितरोद्विहत हो जायेंगी। मैं क्यों लिच\ता करँू?

परन्तु प्रद्वितज्ञा? ओह )ह स्)प्न था, खिखल)ाड़ था। मैं कौन हूँ द्विकसी को देने )ाला, )ही अन्तया�मी सबको देता है। मूख� द्विनरंजन! सम्हल!! कहाँ मोह के थपेडे़ में झूमना चाहता है। परन्तु यदिद )ह कल द्विफर आयी तो? भागना होगा। भाग द्विनरंजन, इस माया से हारने के पहले युर्द्ध होने का अ)सर ही मत दे।

द्विनरंजन धीरे-धीरे अपने सिशद्वि)र को बहुत दूर छोड़ता हुआ, स्टेशन की ओर द्वि)चरता हुआ चल पड़ा। भीड़ के कारण बहुत-सी गाद्विड़याँ द्विबना समय भी आ-जा रही थीं। द्विनरंजन ने एक कुली से पूछा, 'यह गाड़ी कहाँ जायेगी?'

'सहारनपुर।' उसने कहा।

दे)द्विनरंजन गाड़ी में चुपचाप बैठ गया।

दूसरे दिदन जब श्रीचन्द्र और द्विकशोरी साधु-दश�न के सिलए द्विफर उसी kान पर पहुँचे, तब )हाँ अखाडे़ के साधुओं को बड़ा व्यग्र पाया। पता लगाने पर मालूम हुआ द्विक महात्माजी समामिध के सिलए हर�ार चले गये। यहाँ उनकी उपासना में कुछ द्वि)घ्न होता था। )े बडे़ त्यागी हैं। उन्हें गृहkों की बहुत झंझट पसन्द नहीं। यहाँ धन और पुत्र माँगने )ालों तथा कष्ट से छुटकारा पाने )ालों की प्राथ�ना से )े ऊब गये थे।

द्विकशोरी ने कुछ तीखे स्)र से अपने पद्वित से कहा, 'मैं पहले ही कहती थी द्विक तुम कुछ न कर सकोगे। न तो स्)यं कहा और न मुझे प्राथ�ना करने दी।'

द्वि)रW होकर श्रीचन्द्र ने कहा, 'तो तुमको द्विकसने रोका था। तुम्हीं ने क्यों न सन्तान के सिलए प्राथ�ना की! कुछ मैंने बाधा तो दी न थी।'

उते्तझिजत द्विकशोरी ने कहा, 'अच्छा तो हर�ार चलना होगा।'

'चलो, मैं तुम्हें )हाँ पहुँचा दँूगा। और अमृतसर आज तार दे दँूगा द्विक मैं हर�ार से होता हुआ आता हूँ; क्योंद्विक मैं व्य)साय इतने दिदनों तक यों ही नहीं छोड़ सकता।''

'अच्छी बात है; परन्तु मैं हर�ार अ)श्य जाऊँगी।'

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'सो तो मैं जानता हूँ।' कहकर श्रीचन्द्र ने मुँह भारी कर सिलया; परन्तु द्विकशोरी को अपनी टेक रखनी थी। उसे पूण� द्वि)श्वास हो गया था द्विक उन महात्मा से मुझे अ)श्य सन्तान मिमलेगी।

उसी दिदन श्रीचन्द्र ने हर�ार के सिलए प्रkान द्विकया और अखाडे़ के भण्डारी ने भी जमात लेकर हर�ार जाने का प्रबन्ध द्विकया।

हर�ार के समीप ही जाह्न)ी के तट पर तपो)न का स्मरणीय दृश्य है। छोटे-छोटे कुटीरों की श्रेणी बहुत दूर तक चली गयी है। खरस्त्रोता जाह्न)ी की शीतल धारा उस पा)न प्रदेश को अपने कल-नाद से गंुजरिरत करती है। तपस्)ी अपनी योगचया�-साधन के सिलए उन छोटे-छोटे कुटीरों में रहते हैं। बडे़-बडे़ मठों से अन्न-सत्र का प्रबन्ध है। )े अपनी क्षिभक्षा ले आते हैं और इसी द्विनभृत kान में बैठकर अपने पाप का प्रक्षालन करते हुए ब्रह्मानन्द का सुख भोगते हैं। सुन्दर सिशला-खण्ड, रमणीय लता-द्वि)तान, द्वि)शाल )ृक्षों की मधुर छाया, अनेक प्रकार के पक्षिक्षयों का कोमल कलर), )हाँ एक अद्भतु शान्तिन्त का सृजन करता है। आरण्यक-पाठ के उपयुW kान है।

गंगा की धारा जहाँ घूम गयी है, )ह छोटा-सा कोना अपने सब सासिथयों को आगे छोड़कर द्विनकल गया है। )हाँ एक सुन्दर कुटी है, जो नीचे पहाड़ी की पीठ पर जैसे आसन जमाये बैठी है। द्विनरंजन गंगा की धारा की ओर मुँह द्विकये ध्यान में द्विनमग्न है। यहाँ रहते हुए कई दिदन बीत गये, आसन और दृढ़ धारणा से अपने मन को संयम में ले आने का प्रयत्न लगातार करते हुए भी शांद्वित नहीं लौटी। द्वि)के्षप बराबर होता था। जब ध्यान करने का समय होता, एक बासिलका की मूर्तित\ सामने आ खड़ी होती। )ह उसे माया-आ)रण कहकर द्वितरस्कार करता; परन्तु )ह छाया जैसे ठोस हो जाती। अरुणोदय की रW द्विकरणें आँखों में घुसने लगती थीं। घबराकर तपस्)ी ने ध्यान छोड़ दिदया। देखा द्विक पगडण्डी से एक रमणी उस कुटीर के पास आ रही है। तपस्)ी को क्रोध आया। उसने समझा द्विक दे)ताओं को तप में प्रत्यूह डालने का क्यों अभ्यास होता है, क्यों )े मनुष्यों के समान ही �ेर्ष आदिद दुब�लताओं से पीद्विड़त हैं।

रमणी चुपचाप समीप चली आयी। साष्टांग प्रणाम द्विकया। तपस्)ी चुप था, )ह क्रोध से भरा हुआ था; परन्तु न जाने क्यों उसे द्वितरस्कार करने का साहस न हुआ। उसने कहा, 'उठो, तुम यहाँ क्यों आयीं?'

द्विकशोरी ने कहा, 'महाराज, अपना स्)ाथ� ले आया, मैंने आज तक सन्तान का मुँह नहीं देखा।'

द्विनरंजन ने गंभीर स्)र में पूछा, 'अभी तो तुम्हारी अ)kा अठारह-उन्नीस से अमिधक नहीं, द्विफर इतनी दुक्षिzन्ता क्यों?'

द्विकशोरी के मुख पर लाज की लाली थी; )ह अपनी )यस की नाप-तौल से संकुसिचत हो रही थी। परन्तु तपस्)ी का द्वि)चसिलत हृदय उसे क्रीड़ा समझने लगा। )ह जैसे लड़खड़ाने लगा। सहसा सम्भलकर बोला, 'अच्छा, तुमने यहाँ आकर ठीक नहीं द्विकया। जाओ, मेरे मठ में आना-अभी दो दिदन ठहरकर। यह एकान्त योद्विगयों की kली है, यहाँ से चली जाओ।' तपस्)ी अपने भीतर द्विकसी से लड़ रहा था।

द्विकशोरी ने अपनी स्)ाभाद्वि)क तृष्णा भरी आँखों से एक बार उस सूखे यौ)न का तीव्र आलोक देखा; )ह बराबर देख न सकी, छलछलायी आँखें नीची हो गयीं। उन्मत्त के समान द्विनरंजन ने कहा, 'बस जाओ!'

द्विकशोरी लौटी और अपने नौकर के साथ, जो थोड़ी ही दूरी पर खड़ा था, 'हर की पैड़ी' की ओर चल पड़ी। लिच\ता की अक्षिभलार्षा से उसका हृदय नीचे-ऊपर हो रहा था।

रात एक पहर गयी होगी, 'हर की पैड़ी' के पास ही एक घर की खुली खिखड़की के पास द्विकशोरी बैठी थी। श्रीचन्द्र को यहाँ आते ही तार मिमला द्विक तुरन्त चले आओ। व्य)साय-)ाक्षिणज्य के काम अटपट होते हैं; )ह चला गया। द्विकशोरी नौकर के साथ रह गयी। नौकर द्वि)श्वासी और पुराना था। श्रीचन्द्र की लाडली स्त्री द्विकशोरी मनस्विस्)नी थी ही।

ठंड का झोंका खिखड़की से आ रहा था; अब द्विकशोरी के मन में बड़ी उलझन थी-कभी )ह सोचती, मैं क्यों यहाँ रह गयी, क्यों न उन्हीं के संग चली गयी। द्विफर मन में आता, रुपये-पैसे तो बहुत हैं, जब उन्हें भोगने )ाला ही कोई नहीं,

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द्विफर उसके सिलए उद्योग न करना भी मूख�ता है। ज्योद्वितर्षी ने भी कह दिदया है, संतान बडे़ उद्योग से होगी। द्विफर मैंने क्या बुरा द्विकया?

अब शीत की प्रबलता हो चली थी, उसने चाहा, खिखड़की का पल्ला बन्द कर ले। सहसा द्विकसी के रोने की ध्)द्विन सुनायी दी। द्विकशोरी को उत्कंठा हुई, परन्तु क्या करे, 'बलदाऊ' बाजार गया था। चुप रही। थोडे़ ही समय में बलदाऊ आता दिदखाई पड़ा।

आते ही उसने कहा, 'बहुरानी कोई गरीब स्त्री रो रही है। यहीं नीचे पड़ी है।'

द्विकशोरी ही दुःखी थी। सं)ेदना से पे्ररिरत होकर उसने कहा, 'उसे सिल)ाते क्यों नहीं लाये, कुछ उसे दे आते।'

बलदाऊ सुनते ही द्विफर नीचे उतर गया। उसे बुला लाया। )ह एक यु)ती द्वि)ध)ा थी। द्विबलख-द्विबलखकर रो रही थी। उसके मसिलन )सन का अंचल तर हो गया था। द्विकशोरी के आश्वासन देने पर )ह सम्हली और बहुत पूछने पर उसने कथा सुना दी-द्वि)ध)ा का नाम रामा है, बरेली की एक ब्राह्मण-)धु है। दुराचार का लांछन लगाकर उसके दे)र ने उसे यहाँ छोड़ दिदया। उसके पद्वित के नाम की कुछ भूमिम थी, उस पर अमिधकार जमाने के सिलए उसने यह कुचक्र रचा है।

द्विकशोरी ने उसके एक-एक अक्षर का द्वि)श्वास द्विकया; क्योंद्विक )ह देखती है द्विक परदेश में उसके पद्वित ने उसे छोड़ दिदया और स्)यं चला गया। उसने कहा, 'तुम घबराओ मत, मैं यहाँ कुछ दिदन रहूँगी। मुझे एक ब्राह्मणी चाद्विहए ही, तुम मेरे पास रहो। मैं तुम्हें बहन के समान रखँूगी।'

रामा कुछ प्रसन्न हुई। उसे आश्रय मिमल गया। द्विकशोरी शैया पर लेट-लेटे सोचने लगी-पुरुर्ष बडे़ द्विनम�ही होते हैं, देखो )ाक्षिणज्य-व्य)साय का इतना लोभ है द्विक मुझे छोड़कर चले गये। अच्छा, जब तक )े स्)यं नहीं आ)ेंगे, मैं भी नहीं जाऊँगी। मेरा भी नाम 'द्विकशोरी' है!-यही लिच\ता करते-करते द्विकशोरी सो गयी।

दो दिदन तक तपस्)ी ने मन पर अमिधकार जमाने की चेष्टा की; परन्तु )ह असफल रहा। द्वि)�त्ता ने झिजतने तक� जगत को मिमथ्या प्रमाक्षिणत करने के सिलए थ,े उन्होंने उग्र रूप धारण द्विकया। )े अब समझते थ-ेजगत् तो मिमथ्या है ही, इसके झिजतने कम� हैं, )े भी माया हैं। प्रमाता जी) भी प्रकृद्वित है, क्योंद्विक )ह भी अपरा प्रकृद्वित है। द्वि)श्व मात्र प्राकृत है, तब इसमें अलौद्विकक अध्यात्म कहाँ, यही खेल यदिद जगत् बनाने )ाले का है, तो )ह मुझे खेलना ही चाद्विहए। )ास्त) में गृहk न होकर भी मैं )हीं सब तो करता हूँ जो एक संसारी करता है-)ही आय-व्यय का द्विनरीक्षण और उसका उपयुW व्य)हार; द्विफर सहज उपलब्ध सुख क्यों छोड़ दिदया जाए?

त्यागपूण� थोथी दाश�द्विनकता जब द्विकसी ज्ञानाभ्रास को स्)ीकार कर लेती है, तब उसका धक्का सम्हालना मनुष्य का काम नहीं।

उसने द्विफर सोचा-मठधारिरयों, साधुओं के सिलए सब पथ खुले होते हैं। यद्यद्विप प्राचीन आय� की धम�नीद्वित में इसीसिलए कुटीचर और एकान्त )ासिसयों का ही अनुमोदन है; प्राचीन संघबर्द्ध होकर बौर्द्धधम� ने जो यह अपना कूड़ा छोड़ दिदया है, उसे भारत के धार्मिम\क सम्प्रदाय अभी फें क नहीं सकते। तो द्विफर चले संसार अपनी गद्वित से।

दे)द्विनरंजन अपने द्वि)शाल मठ में लौट आया और महन्ती नये ढंग से देखी जाने लगी। भWों की पूजा और चढ़ा) का प्रबन्ध होने लगा। गद्दी और तद्विकये की देखभाल चली दो ही दिदन में मठ का रूप बदल गया।

एक चाँदनी रात थी। गंगा के तट पर अखाडे़ से मिमला हुआ उप)न था। द्वि)शाल )ृक्ष की छाया में चाँदनी उप)न की भूमिम पर अनेक सिचत्र बना रही थी। बसंत-समीर ने कुछ रंग बदला था। द्विनरंजन मन के उ�ेग से )हीं टहल रहा था। द्विकशोरी आयी। द्विनरंजन चौंक उठा। हृदय में रW दौड़ने लगा।

द्विकशोरी ने हाथ जोड़कर कहा, 'महाराज, मेरे ऊपर दया न होगी?'

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द्विनरंजन ने कहा, 'द्विकशोरी, तुम मुझको पहचानती हो?'

द्विकशोरी ने उस धुँधले प्रकाश में पहचानने की चेष्टा की; परन्तु )ह असफल होकर चुप रही।

द्विनरंजन ने द्विफर कहना आरम्भ द्विकया, 'झेलम के तट पर रंजन और द्विकशोरी नाम के दो बालक और बासिलका खेलते थे। उनमें बड़ा स्नेह था। रंजन अपने द्विपता के साथ हर�ार जाने लगा, परन्तु उसने कहा था द्विक द्विकशोरी मैं तेरे सिलए गुद्विड़या ले आऊँगा; परन्तु )ह झूठा बालक अपनी बाल-संद्विगनी के पास द्विफर न लौटा। क्या तुम )ही द्विकशोरी हो?'

उसका बाल-सहचर इतना बड़ा महात्मा!-द्विकशोरी की समस्त धमद्विनयों में हलचल मच गयी। )ह प्रसन्नता से बोल उठी, 'और क्या तुम )ही रंजन हो?'

लड़खड़ाते हुए द्विनरंजन ने उसका हाथ पकड़कर कहा, 'हाँ द्विकशोरी, मैं )हीं रंजन हूँ। तुमको ही पाने के सिलए आज तक तपस्या करता रहा, यह संसिचत तप तुम्हारे चरणों में द्विनछा)र है। संतान, ऐश्वय� और उन्नद्वित देने की मुझमें जो शसिW है, )ह सब तुम्हारी है।'

अतीत की स्मृद्वित, )त�मान की कामनाए ँद्विकशोरी को भुला)ा देने लगीं। उसने ब्रह्मचारी के चौडे़ )क्ष पर अपना सिसर टेक दिदया।

कई महीने बीत गये। बलदाऊ ने स्)ामी को पत्र सिलखा द्विक आप आइये, द्विबना आपके आये बहूरानी नहीं जातीं और मैं अब यहाँ एक घड़ी भी रहना उसिचत नहीं समझता।

श्रीचन्द्र आये। हठीली द्विकशोरी ने बड़ा रूप दिदखलाया। द्विफर मान-मना) हुआ। दे)द्विनरंजन को समझा-बुझाकर द्विकशोरी द्विफर आने की प्रद्वितज्ञा करके पद्वित के साथ चली गयी। द्विकशोरी का मनोरथ पूण� हुआ।

रामा )हाँ रह गयी। हर�ार जैसे पुण्यतीथ� में क्या द्वि)ध)ा को kान और आश्रय की कमी थी!

पन्द्रह बरस बाद काशी में ग्रहण था। रात में घाटों पर नहाने का बड़ा सुन्दर प्रबन्ध था। चन्द्रग्रहण हो गया। घाट पर बड़ी भीड़ थी। आकाश में एक गहरी नीसिलमा फैली नक्षत्रों में चौगुनी चमक थी; परन्तु खगोल में कुछ प्रसन्नता न थी। देखते-देखते एक अचे्छ सिचत्र के समान पूण�मासी का चन्द्रमा आकाश पट पर से धो दिदया गया। धार्मिम\क जनता में कोलाहल मच गया। लोग नहाने, द्विगरने तथा भूलने भी लगे। द्विकतनों का साथ छूट गया।

द्वि)ध)ा रामा अब सध)ा होकर अपनी कन्या तारा के साथ भण्डारीजी के साथ आयी थी। भीड़ के एक ही धक्के में तारा अपनी माता तथा सासिथयों से अलग हो गयी। यूथ से द्विबछड़ी हुई द्विहरनी के समान बड़ी-बड़ी आँखों से )ह इधर-उधर देख रही थी। कलेजा धक-धक करता था, आँखें छलछला रही थीं और उसकी पुकार उस महा कोलाहल में द्वि)लीन हुई जाती थी। तारा अधीर हो गयी थी। उसने पास आकर पूछा, 'बेटी, तुम द्विकसको खोज रही हो?'

तारा का गला रँुध गया, )ह उत्तर न दे सकी।

तारा सुन्दरी थी, होनदार सौंदय� उसके प्रत्येक अंग में सिछपा था। )ह यु)ती हो चली थी; परन्तु अनाघ्रात कुसुम के रूप में पंखुरिरयाँ द्वि)कसी न थीं। अधेड़ स्त्री ने स्नेह से उसे छाती से लगा सिलया और कहा, 'मैं अभी तेरी माँ के पास पहुँचा देती हूँ, )ह तो मेरी बहन है, मैं तुझे भलीभाँद्वित जानती हूँ। तू घबड़ा मत।'

द्विहन्दू स्कूल का एक स्)यंसे)क पास आ गया, उसने पूछा, 'क्या तुम भूल गयी हो?'

तारा रो रही थी। अधेड़ स्त्री ने कहा, 'मैं जानती हूँ, यहीं इसकी माँ है, )ह भी खोजती थी। मैं सिल)ा जाती हूँ।'

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स्)यंसे)क मंगल चुप रहा। यु)क छात्र एक यु)ती बासिलका के सिलए हठ न कर सका। )ह दूसरी ओर चला गया और तारा उसी स्त्री के साथ चली।

(2)

लखनऊ संयुWप्रान्त में एक द्विनराला नगर है। द्विबजली के प्रभा से आलोद्विकत सन्ध्या 'शाम-अ)ध' की सम्पूण� प्रद्वितभा है। पण्य में क्रय-द्वि)क्रय चल रहा है; नीचे और ऊपर से सुन्दरिरयों का कटाक्ष। चमकीली )स्तुओं का झलमला, फूलों के हार का सौरभ और रसिसकों के )सन में लगे हुए गन्ध से खेलता हुआ मुW प)न-यह सब मिमलकर एक उते्तझिजत करने )ाला मादक )ायुमण्डल बन रहा है।

मंगलदे) अपने साथी खिखलाद्विड़यों के साथ मैच खेलने लखनऊ आया था। उसका स्कूल आज द्वि)जयी हुआ है। कल )े लोग बनारस लौटेंगे। आज सब चौक में अपना द्वि)जयोल्लास प्रकट करने के सिलए और उपयोगी )स्तु क्रय करने के सिलए एकत्र हुए हैं।

छात्र सभी तरह के होते हैं। उसके द्वि)नोद भी अपने-अपने ढंग के; परन्तु मंगल इसमें द्विनराला था। उसका सहज सुन्दर अंग ब्रह्मचय� और यौ)न से प्रफुल्ल था। द्विनम�ल मन का आलोक उसके मुख-मण्डल पर तेज बना रहा था। )ह अपने एक साथी को ढँूढ़ने के सिलए चला आया; परन्तु )ीरेन्द्र ने उसे पीछे से पुकारा। )ह लौट पड़ा।

)ीरेन्द्र-'मंगल, आज तुमको मेरी एक बात माननी होगी!'

मंगल-'क्या बात है, पहले सुनँू भी।'

)ीरेन्द्र-'नहीं, पहले तुम स्)ीकार करो।'

मंगल-'यह नहीं हो सकता; क्योंद्विक द्विफर उसे न करने से मुझे कष्ट होगा।'

)ीरेन्द्र-'बहुत बुरी बात है; परन्तु मेरी मिमत्रता के नाते तुम्हें करना ही होगा।'

मंगल-'यही तो ठीक नहीं।'

)ीरेन्द्र-'अ)श्य ठीक नहीं, तो भी तुम्हें मानना होगा।'

मंगल-')ीरेन्द्र, ऐसा अनुरोध न करो।'

)ीरेन्द्र-'यह मेरा हठ है और तुम जानते हो द्विक मेरा कोई भी द्वि)नोद तुम्हारे द्विबना असम्भ) है, द्विनस्सार है। देखो, तुमसे स्पष्ट करता हूँ। उधर देखो-)ह एक बाल )ेश्या है, मैं उसके पास जाकर एक बार के)ल नयनाक्षिभराम रूप देखना चाहता हूँ। इससे द्वि)शेर्ष कुछ नहीं।'

मंगल-'यह कैसा कुतूहल! सिछः!'

)ीरेन्द्र-'तुम्हें मेरी सौगन्ध; पाँच मिमनट से अमिधक नहीं लगेगा, हम लौट आ)ेंगे, चलो, तुम्हें अ)श्य चलना होगा। मंगल, क्या तुम जानते हो द्विक मैं तुम्हें क्यों ले चल रहा हूँ?'

मंगल-'क्यों?'

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)ीरेन्द्र-'झिजससे तुम्हारे भय से मैं द्वि)चसिलत न हो सकँू! मैं उसे देखँूगा अ)श्य; परन्तु आगे डर से बचाने )ाला साथ रहना चाद्विहए। मिमत्र, तुमको मेरी रक्षा के सिलए साथ चलना ही चाद्विहए।'

मंगल ने कुछ सोचकर कहा, 'चलो।' परन्तु क्रोध से उनकी आँखें लाल हो गयी थीं।

)ह )ीरेन्द्र के साथ चल पड़ा। सीद्विड़यों से ऊपर कमरे में दोनों जा पहुँचे। एक र्षोडशी यु)ती सज ेहुए कमरे में बैठी थी। पहाड़ी रूखा सौंदय� उसके गेहुँए रंग में ओत-प्रोत है। सब भरे हुए अंगों में रW का )ेग)ान संचार कहता है द्विक इसका तारुण्य इससे कभी न छँटेगा। बीच में मिमली हुई भौंहों के नीचे न जाने द्विकतना अंधकार खेल रहा था! सहज नुकीली नाक उसकी आकृद्वित की स्)तन्त्रता सत्ता बनाये थी। नीचे सिसर द्विकये हुए उसने जब इन लोगों को देखा, तब उस समय उसकी बड़ी-बड़ी आँखों के कोन और भी खिख\चे हुए जान पडे़। घने काले बालों के गुचे्छ दोनों कानों के पास के कन्धों पर लटक रहे थे। बाए ँकपोल पर एक द्वितल उसके सरल सौन्दय� को बाँका बनाने के सिलए पया�प्त था। सिशक्षा के अनुसार उसने सलाम द्विकया; परन्तु यह खुल गया द्विक अन्यमनस्क रहना उसकी स्)ाभाद्वि)कता थी।

मंदलदे) ने देखा द्विक यह तो )ेश्या का रूप नहीं है।

)ीरेन्द्र ने पूछा, 'आपका नाम?'

उसके 'गुलेनार' कहने में कोई बना)ट न थी।

सहसा मंगल चौंक उठा, उसने पूछा, 'क्या हमने तुमको कहीं और भी देखा है?'

'यह अनहोनी बात नहीं है।'

'कई महीने हुए, काशी में ग्रहण की रात को जब मैं स्)यंसे)क का काम कर रहा था, मुझे स्मरण होता है, जैसे तुम्हें देखा हो; परन्तु तुम तो मुसलमानी हो।'

'हो सकता है द्विक आपने मुझे देखा हो; परन्तु उस बात को जाने दीझिजये, अभी अम्मा आ रही हैं।'

मंगलदे) कुछ कहना ही चाहता था द्विक 'अम्मा' आ गयी। )ह द्वि)लासजीण� दुष्ट मुखाकृद्वित देखते ही घृणा होती थी।

अम्मा ने कहा, 'आइये बाबू साहब, कद्विहये क्या हुक्म है

'कुछ नहीं। गुलेनार को देखने के सिलए चला आया था।' कहकर )ीरेन्द्र मुस्करा दिदया।

'आपकी लौंडी है, अभी तो तालीम भी अच्छी तरह नहीं लेती, क्या कहूँ बाबू साहब, बड़ी बोदी है। इसकी द्विकसी बात पर ध्यान न दीझिजयेगा।' अम्मा ने कहा।

'नहीं-नहीं, इसकी लिच\ता न कीझिजये। हम लोग तो परदेशी हैं। यहाँ घूम रहे थ,े तब इनकी मनमोद्विहनी छद्वि) दिदखाई पड़ी; चले आये।' )ीरेन्द्र ने कहा।

अम्मा ने भीतर की ओर पुकारते हुए कहा, 'अरे इलायची ले आ, क्या कर रहा है?'

'अभी आया।' कहता हुआ एक मुसलमान यु)क चाँदी की थाली में पान-इलायची ले आया। )ीरेन्द्र ने इलायची ले ली और उसमें दो रुपये रख दिदये। द्विफर मंगलदे) की ओर देखकर कहा, 'चलो भाई, गाड़ी का भी समय देखना होगा, द्विफर कभी आया जायेगा। प्रद्वितज्ञा भी पाँच मिमनट की है।'

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'अभी बैदिठये भी, क्या आये और क्या चले।' द्विफर सक्रोध गुलेनार को देखती हुई अम्मा कहने लगी, 'क्या कोई बैठे और क्यों आये! तुम्हें तो कुछ बोलना ही नहीं है और न कुछ हँसी-खुशी की बातें ही करनी हैं, कोई क्यों ठहरे अम्मा की त्योरिरयाँ बहुत ही चढ़ गयी थीं। गुलेनार सिसर झुकाये चुप थी।

मंगलदे) जो अब तक चुप था, बोला, 'मालूम होता है, आप दोनों में बनती बहुत कम है; इसका क्या कारण है?'

गुलेनार कुछ बोलना ही चाहती थी द्विक अम्मा बीच में बोल उठी, 'अपने-अपने भाग होते हैं बाबू साहब, एक ही बेटी, इतने दुलार से पाला-पोसा, द्विफर भी न जाने क्यों रूठी रहती है।' कहती हुई बुड्ढी के दो आँसू भी द्विनकल पडे़। गुलेनार की )ाक्शसिW जैसे बन्दी होकर तड़फड़ा रही थी। मंगलदे) ने कुछ-कुछ समझा। कुछ उसे सन्देह हुआ। परन्तु )ह सम्भलकर बोला, 'सब आप ही ठीक हो जाएगा, अभी अल्हड़पन है।'

'अच्छा द्विफर आऊँगा।'

)ीरेन्द्र और मंगलदे) उठे, सीढी की ओर चले। गुलेनार ने झुककर सलाम द्विकया; परन्तु उसकी आँखें पलकों का पल्ला पसारकर करुणा की भीख माँग रही थीं। मंगलदे) ने-चरिरत्र)ान मंगलदे) ने-जाने क्यो एक रहस्यपूण� संकेत द्विकया। गुलेनार हँस पड़ी, दोनों नीचे उतर गये।

'मंगल! तुमने तो बडे़ लम्बे हाथ-पैर द्विनकाले-कहाँ तो आते ही न थ,े कहाँ ये हरकतें!' )ीरेन्द्र ने कहा।

')ीरेन्द्र! तुम मुझे जानते हो; परन्तु मैं सचमुच यहँाा आकर फँस गया। यही तो आzय� की बात है।'

'आzय� काहे का, यही तो काजल की कोठरी है।'

'हुआ करे, चलो ब्यालू करके सो रहें। स)ेरे की टे्रन पकड़नी होगी।''

'नहीं )ीरेन्द्र! मैंने तो कैर्निंन\ग कॉलेज में नाम सिलखा लेने का द्विनzय-सा कर सिलया है, कल मैं नहीं चल सकता।'' मंगल ने गंभीरता से कहा।

')ीरेन्द्र जैसे आzय�चद्विकत हो गया। उसने कहा, 'मंगल, तुम्हारा इसमें कोई गूढ़ उदे्दश्य होगा। मुझे तुम्हारे ऊपर इतना द्वि)श्वास है द्विक मैं कभी स्)प्न में भी नहीं सोच सकता द्विक तुम्हारा पद-स्खलन होगा; परन्तु द्विफर भी मैं कम्पिम्पत हो रहा हूँ।'

सिसर नीचा द्विकये मंगल ने कहा, 'और मैं तुम्हारे द्वि)श्वास की परीक्षा करँूगा। तुम तो बचकर द्विनकल आये; परन्तु गुलेनार को बचाना होगा। )ीरेन्द्र मैं द्विनzयपू)�क कहता हूँ द्विक यही )ह बासिलका है, झिजसके सम्बन्ध में मैं ग्रहण के दिदनों में तुमसे कहता था द्विक मेरे देखते ही एक बासिलका कुटनी के चंगुल में फँस गयी और मैं कुछ न कर सका।'

'ऐसी बहुत सी अभाद्विगन इस देश में हैं। द्विफर कहाँ-कहाँ तुम देखोगे?'

'जहाँ-जहाँ देख सकँूगा।'

'सा)धान!'

मंगल चुप रहा।

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)ीरेन्द्र जानता था द्विक मंगल बड़ा हठी है, यदिद इस समय मैं इस घटना को बहुत प्रधानता न दँू, तो सम्भ) है द्विक )ह इस काय� से द्वि)रW हो जाये, अन्यथा मंगल अ)श्य )ही करेगा, झिजससे )ह रोका जाए; अतए) )ह चुप रहा। सामने ताँगा दिदखाई दिदया। उस पर दोनों बैठ गये।

दूसरे दिदन सबको गाड़ी पर बैठाकर अपने एक आ)श्यक काय� का बहाना कर मंगल स्)यं लखनऊ रह गया। कैनिन\ग कॉलेज के छात्रों को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई द्विक मंगल )हीं पढे़गा। उसके सिलए kान का भी प्रबन्ध हो गया। मंगल )हीं रहने लगा।

दो दिदन बाद मंगल अमीनाबाद की ओर गया। )ह पाक� की हरिरयाली में घूम रहा था। उसे अम्मा दिदखाई पड़ी और )ही पहले बोली, 'बाबू साहब, आप तो द्विफर नहीं आये।'

मंगल दुद्वि)धा में पड़ गया। उसकी इच्छा हुई द्विक कुछ उत्तर न दे। द्विफर सोचा-अरे मंगल, तू तो इसीसिलए यहाँ रह गया है! उसने कहाँ, 'हाँ-हाँ, कुछ काम में फँस गया था, आज मैं अ)श्य आता; पर क्या करँू मेरे एक मिमत्र साथ में हैं। )ह मेरा आना-जाना नहीं जानते। यदिद )े चले गये, तो आज ही आऊँगा, नहीं तो द्विफर द्विकसी दिदन।'

'नहीं-नहीं, आपको गुलेनार की कसम, चसिलए )ह तो उसी दिदन से बड़ी उदास रहती है।'

'आप मेरे साथ चसिलये, द्विफर जब आइयेगा, तो उनसे कह दीझिजयेगा-मैं तो तुम्हीं को ढँूढ़ता रहा, इससिलए इतनी देर हुई, और तब तक तो दो बातें करके चले आएगेँ।'

'कत�व्यद्विनष्ठ मंगल ने द्वि)चार द्विकया-ठीक तो है। उसने कहा, 'अच्छी बात है।'

मंगल गुलेनार की अम्मा के पीछे-पीछे चला।

गुलेनार बैठी हुई पान लगा रही थी। मंगलदे) को देखते ही मुस्कराई; जब उसके पीछे अम्मा की मूर्तित\ दिदखलाई पड़ी, )ह जैसे भयभीत हो गयी। अम्मी ने कहा, 'बाबू साहब बहुत कहने-सुनने से आये हैं, इनसे बातें करो। मैं मीर साहब से मिमलकर आती हूँ, देखँू, क्यों बुलाया है?'

गुलेनार ने कहा, 'कब तक आओगी?'

'आधे घण्टे में।' कहती अम्मा सीदिढ़याँ उतरने लगी।

गुलेनार ने सिसर नीचे द्विकये हुए पूछा, 'आपके सिलए पान बाजार से मँग)ाना होगा न?'

मंगल ने कहा, 'उसकी आ)श्यकता नहीं, मैं तो के)ल अपना कुतूहल मिमटाने आया हूँ-क्या सचमुच तुम )ही हो, झिजसे मैंने ग्रहण की रात काशी में देखा था?'

'जब आपको के)ल पूछना ही है तो मैं क्यो बताऊँ जब आप जान जायेंगे द्विक मैं )ही हूँ, तो द्विफर आपको आने की आ)श्यकता ही न रह जायेगी।'

मंगल ने सोचा, संसार द्विकतनी शीघ्रता से मनुष्य को चतुर बना देता है। 'अब तो पूछने का काम ही नहीं है।'

'क्यों?'

'आ)श्यकता ने सब परदा खोल दिदया, तुम मुसलमानी कदाद्विप नहीं हो।'

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'परन्तु मैं मुसलमानी हूँ।'

'हाँ, यही तो एक भयानक बात है।'

'और यदिद न होऊँ

'तब की बात तो दूसरी है।'

'अच्छा तो मैं )हीं हूँ, झिजसका आपको भ्रम है।'

'तुम द्विकस प्रकार यहाँ आ गयी हो

')ह बड़ी कथा है।' यह कहकर गुलेनार ने लम्बी साँस ली, उसकी आँखें आँसू से भर गयीं।

'क्या मैं सुन सकता हूँ

'क्यों नहीं, पर सुनकर क्या कीझिजयेगा। अब इतना ही समझ लीझिजये द्विक मैं एक मुसलमानी )ेश्या हूँ।'

'नहीं गुलेनार, तुम्हारा नाम क्या है, सच-सच बताओ।'

'मेरा नाम तारा है। मैं हरिर�ार की रहने )ाली हूँ। अपने द्विपता के साथ काशी में ग्रहण नहाने गयी थी। बड़ी कदिठनता से मेरा द्वि))ाह ठीक हो गया था। काशी से लौटते हुए मैं एक कुल की स्)ामिमनी बनती; परन्तु दुभा�ग्य...!' उसकी भरी आँखों से आँसू द्विगरने लगे।

'धीरज धरो तारा! अच्छा यह तो बताओ, यहाँ कैसे कटती है?'

'मेरा भग)ान् जानता है द्विक कैसे कटती है! दुष्टों के चंगुल में पड़कर मेरा आचार-व्य)हार तो नष्ट हो चुका, के)ल स)�नाश होना बाकी है। उसमें कारण है अम्मा का लोभ और मेरा कुछ आने )ालों से ऐसा व्य)हार भी होता है द्विक अभी )ह झिजतना रुपया चाहती हैं, नहीं मिमलता। बस इसी प्रकार बची जा रही हूँ; परन्तु द्विकतने दिदन!' गुलेनार सिससकने लगी।

मंगल ने कहा, 'तारा, तुम यहाँ से क्यों नहीं द्विनकल भागती?'

गुलेनार ने पूछा, 'आप ही बताइये, द्विनकलकर कहाँ जाऊँ और क्या करँू

'अपने माता-द्विपता के पास। मैं पहुँचा दँूगा, इतना मेरा काम है।'

बड़ी भोली दृमिष्ट से देखते हुए गुलेनार ने कहा, 'आप जहाँ कहें मैं चल सकती हूँ।'

'अच्छा पहले यह तो बताओ द्विक कैसे तुम काशी से यहाँ पहुँच गयी हो?'

'द्विकसी दूसरे दिदन सुनाऊँगी, अम्मा आती होगी।'

'अच्छा तो आज मैं जाता हूँ।'

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'जाइये, पर इस दुखिखया का ध्यान रखिखये। हाँ, अपना पता तो बताइए, मुझे कोई अ)सर मिमला, तो मैं कैसे सूसिचत करँूगी?'

मंगल ने एक सिचट पर पता सिलखकर दे दिदया और कहा, 'मैं भी प्रबन्ध करता रहूँगा। जब अ)सर मिमले, सिलखना; पर एक दिदन पहले।'

अम्मा के पैरों का शब्द सीदिढ़यों पर सुनाई पड़ा और मंगल उठ खड़ा हुआ। उसके आते ही उसने पाँच रुपये हाथ पर धर दिदये।

अम्मा ने कहा, 'बाबू साहब, चले कहाँ! बैदिठये भी।'

'नहीं, द्विफर द्विकसी दिदन आऊँगा, तुम्हारी बेगम साहेबा तो कुछ बोलती ही नहीं, इनके पास बैठकर क्या करँूगा!'

मंगल चला गया। अम्मा क्रोध से दाँत पीसती हुई गुलेनार को घूरने लगी।

दूसरे-तीसरे दिदन मंगल गुलेनार के यहाँ जाने लगा; परन्तु )ह बहुत सा)धान रहता। एक दुzरिरत्र यु)क उन्हीं दिदनों गुलेनार के यहाँ आता। कभी-कभी मंगल की उससे मुठभेड़ हो जाती; परन्तु मंगल ऐसे कैडे़ से बात करता द्विक )ह मान गया। अम्मा ने अपने स्)ाथ� साधन के सिलए इन दोनों में प्रद्वित�खिन्�ता चला दी। यु)क शरीर से हृष्ट-पुष्ट कसरती था, उसके ऊपर के होंठ मसूड़ों के ऊपर ही रह गये थे। दाँतों की श्रेणी सदै) खुली रहती, उसकी लम्बी नाक और लाल आँखें बड़ी डरा)नी और रोबीली थीं; परन्तु मंगल की मुस्कराहट पर )ह भौचका-सा रह जाता और अपने व्य)हार से मंगल को मिमत्र बनाये रखने की चेष्टा द्विकया करता। गुलेनार अम्मा को यह दिदखलाती द्विक )ह मंगल से बहुत बोलना नहीं चाहती।

एक दिदन दोनों गुलेनार के पास बैठे थे। यु)क ने, जो अभी अपने एक मिमत्र के साथ दूसरी )ेश्या के यहाँ से आया था-अपना डींग हाँकते हुए मिमत्र के सिलए कुछ अपशब्द कहे, द्विफर उसने मंगल से कहा, ')ह न जाने क्यों उस चुडै़ल के यहाँ जाता है। और क्यों कुरूप म्पिस्त्रयाँ )ेश्या बनती हैं, जब उन्हें मालूम है द्विक उन्हें तो रूप के बाजार में बैठना है।' द्विफर अपनी रसिसकता दिदखाते हुए हँसने लगा।

'परन्तु मैं तो आज तक यही नहीं समझता द्विक सुन्दरी म्पिस्त्रयाँ क्यों )ेश्या बनें! संसार का सबसे सुन्दर जी) क्यों सबसे बुरा काम करे कहकर मंगल ने सोचा द्विक यह स्कूल की द्वि))ाद-सभा नहीं है। )ह अपनी मूख�ता पर चुप हो गया। यु)क हँस पड़ा। अम्मा अपनी जीद्वि)का को बहुत बुरा सुनकर तन गयी। गुलेनार सिसर नीचा द्विकये हँस रही थी। अम्मा ने कहा-

'द्विफर ऐसी जगह बाबू आते ही क्यों हैं?'

मंगल ने उते्तझिजत होकर कहा, 'ठीक है, यह मेरी मूख�ता है

यु)क अम्मा को लेकर बातें करने लगा, )ह प्रसन्न हुआ द्विक प्रद्वित�न्�ी अपनी ही ठोकर से द्विगरा, धक्का देने की आ)श्यकता ही न पड़ी। मंगल की ओर देखकर धीरे से गुलेनार ने कहा, 'अच्छा हुआ; पर जल्द...!'

मंगल उठा और सीदिढ़याँ उतर गया।

शाह मीना की समामिध पर गायकों की भीड़ है। सा)न का हरिरयाली के्षत्र पर और नील मेघमाला आकाश के अंचल में फैल रही है। प)न के आन्दोलन से द्विबजली के आलोक में बादलों का हटना-बढ़ना गगन समुद्र में तरंगों का सृजन कर रहा है। कभी फूही पड़ जाती है, समीर का झोंका गायकों को उन्मत्त बना देता है। उनकी इकहरी तानें द्वितरही हो जाती हैं। सुनने )ाले झूमने लगते हैं। )ेश्याओं का दश�कों के सिलए आकर्ष�क समारोह है।

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एक घण्टा रात बीत गयी है।

अब रसिसकों के समाज में हलचल मची, बँूदें लगातार पड़ने लगीं। लोग द्विततर-द्विबतर होने लगे। गुलेनार यु)क और अम्मा के साथ आती थीं, )ह यु)क से बातें करने लगी। अम्मा भीड़ में अलग हो गयी, दोनों और आगे बढ़ गये। सहसा गुलेनार ने कहा, 'आह! मेरे पाँ) में चटक हो गयी, अब मैं एक पल चल नहीं सकती, डोली ले आओ।' )ह बैठ गयी। यु)क डोली लेने चला।

गुलेनार ने इधर-उधर देखा, तीन तासिलयाँ बजीं। मंगल आ गया, उसने कहा, 'ताँगा ठीक है।'

गुलेनार ने कहा, 'द्विकधर?'

'चलो!' दोनों हाथ पकड़कर बढे़। चक्कर देखकर दोनों बाहर आ गये, ताँगे पर बैठे और )ह ताँगे)ाला कौ)ालों की तान 'झिजस-झिजस को दिदया चाहें' दुहराता हुआ चाबुक लगाता घोडे़ को उड़ा ले चला। चारबाग स्टेशन पर देहरादून जाने )ाली गाड़ी खड़ी थी। ताँगे )ाले को पुरस्कार देकर मंगल सीधे गाड़ी में जाकर बैठ गया। सीटी बजी, सिसगनल हुआ, गाड़ी खुल गयी।

'तारा, थोड़ा भी द्वि)लम्ब से गाड़ी न मिमलती।'

'ठीक समय से पाती आ गया। हाँ, यह तो कहो, मेरा पत्र कब मिमला?'

'आज नौ बजे। मैं समान ठीक करके संध्या की बाट देख रहा था। दिटकट ले सिलये थ ेऔर ठीक समय पर तुमसे भेंट हुई।'

'कोई पूछे तो क्या कहा जायेगा?'

'अपने )ेश्यापन के दो-तीन आभूर्षण उतार दो और द्विकसी के पूछने पर कहना-अपने द्विपता के पास जा रही हूँ, ठीक पता बताना।'

तारा ने फुरती से )ैसा ही द्विकया। )ह एक साधारण गृहk बासिलका बन गयी।

)हाँ पूरा एकान्त था, दूसरे यात्री न थे। देहरादून एक्सपे्रस )ेग से जा रही थी।

मंगल ने कहा, 'तुम्हें सूझी अच्छी। उस तुम्हारी दुष्ट अम्मा को यही द्वि)श्वास होगा द्विक कोई दूसरा ही ले गया। हमारे पास तक तो उसका सन्देह भी न पहुँचेगा।'

'भग)ान् की दया से नरक से छुटकारा मिमला। आह कैसी नीच कल्पनाओं से हृदय भर जाता था-सन्ध्या में बैठकर मनुष्य-समाज की अशुभ कामना करना, उस नरक के पथ की ओर चलने का संकेत बताना, द्विफर उसी से अपनी जीद्वि)का!'

'तारा, द्विफर भी तुमने धम� की रक्षा की। आzय�!'

'यही कभी-कभी मैं भी द्वि)चारती हूँ द्विक संसार दूर से, नगर, जनपद सौध-श्रेणी, राजमाग� और अट्टासिलकाओं से झिजतना शोभन दिदखाई पड़ता है, )ैसा ही सरल और सुन्दर भीतर से नहीं है। झिजस दिदन मैं अपने द्विपता से अलग हुई, ऐसे-ऐसे द्विनल�ज्ज और नीच मनो)ृक्षित्तयों के मनुष्यों से सामना हुआ, झिजन्हें पशु भी कहना उन्हें मद्विहमान्तिन्)त करना है!'

'हाँ-हाँ, यह तो कहो, तुम काशी से लखनऊ कैसे आ गयीं?'

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'तुम्हारे सामने झिजस दुष्टा ने मुझे फँसाया, )ह म्पिस्त्रयों का व्यापार करने )ाली एक संkा की कुटनी थी। मुझे ले जाकर उन सबों ने एक घर में रखा, झिजसमें मेरी ही जैसी कई अभाद्विगनें थीं, परन्तु उनमें सब मेरी जैसी रोने )ाली न थीं। बहुत-सी स्)ेच्छा से आयी थीं और द्विकतनी ही कलंक लगने पर अपने घर )ालों से ही मेले में छोड़ दी गई थीं! मैं अलग बैठी रोती थी। उन्हीं में से कई मुझे हँसाने का उद्योग करतीं, कोई समझाती, कोई झिझड़द्विकयाँ सुनाती और कोई मेरी मनो)ृक्षित्त के कारण मुझे बनाती! मैं चुप होकर सुना करती; परन्तु कोई पथ द्विनकलने का न था। सब प्रबन्ध ठीक हो गया था, हम लोग पंजाब भेजी जाने )ाली थीं। रेल पर बैठने का समय हुआ, मैं सिससक रही थी। स्टेशन के द्वि)श्रामगृह में एक भीड़-सी लग रही थी, परन्तु मुझे कोई न पूछता था। यही दुष्टा अम्मा )हाँ आई और बडे़ दुलार से बोली-चल बेटी, मैं तुझे तेरी माँ के पास पहुँचा दँूगी। मैंने उन सबों को ठीक कर सिलया है। मैं प्रसन्न हो गयी। मैं क्या जानती थी द्विक चूल्हे से द्विनकलकर भाड़ में जाऊँगी। बात भी कुछ ऐसी थी। मुझे उपद्र) मचाते देखकर उन लोगों ने अम्मा से रुपया लेकर मुझे उसके साथ कर दिदया, मैं लखनऊ पहुँची।'

'हाँ-हाँ, ठीक है, मैंने सुना है पंजाब में म्पिस्त्रयों की कमी है, इसीसिलए और प्रान्तों से म्पिस्त्रयाँ )हाँ भेजी जाती हैं, जो अचे्छ दामों पर द्विबकती हैं। क्या तुम भी उन्हीं के चंगुल में...

'हाँ, दुभा�ग्य से!'

स्टेशन पर गाड़ी रुक गयी। रजनी की गहरी नीसिलमा के नभ में तारे चमक रहे थे। तारा उन्हें खिखड़की से देखने लगी। इतने में उस गाड़ी में एक पुरुर्ष यात्री ने प्र)ेश द्विकया। तारा घूँघट द्विनकालकर बैठ गयी। और )ह पुरुर्ष मुँह फेरकर सो गया है; परन्तु अभी जगे रहने की सम्भा)ना थी। बातें आरम्भ न हुईं। कुछ देर तक दोनों चुपचाप थे। द्विफर झपकी आने लगी। तारा ऊँघने लगी। मंगल भी झपकी लेने लगा। गंभीर रजनी के अंचल से उस चलती हुई गाड़ी पर पंखा चल रहा था। आमने-सामने बैठे हुए मंगल और तारा द्विनद्रा)श होकर झूम रहे थे। मंगल का सिसर टकराया। उसकी आँखें खुली। तारा का घूँघट उलट गया था। देखा, तो गले का कुछ अंश, कपोल, पाली और द्विनद्राद्विनमीसिलत पद्यापलाशलोचन, झिजस पर भौंहों की काली सेना का पहरा था! )ह न जाने क्यों उसे देखने लगा। सहसा गाड़ी रुकी और धक्का लगा! तारा मंगलदे) के अंक में आ गयी। मंगल ने उसे सम्हाल सिलया। )ह आँखें खोलती हुई मुस्कुराई और द्विफर सहारे से दिटककर सोने लगी। यात्री जो अभी दूसरे स्टेशन पर चढ़ा था, सोते-सोते )ेग से उठ पड़ा और सिसर खिखड़की से बाहर द्विनकालकर )मन करने लगा। मंगल स्)यंसे)क था। उसने जाकर उसे पकड़ा और तारा से कहा, 'लोटे में पानी होगा, दो मुझे!'

तारा ने जल दिदया, मंगल ने यात्री का मुँह धुलाया। )ह आँखों को जल से ठंडक पहुँचाते हुए मंगल के प्रद्वित कृद्वितज्ञता प्रकट करना ही चाहता था द्विक तारा और उसकी आँखें मिमल गयीं। तारा पैर पकड़कर रोने लगी। यात्री ने द्विनद�यता से झिझटकार दिदया। मंगल अ)ाक् था।

'बाबू जी, मेरा क्या अपराध है मैं तो आप लोगों को खोज रही थी।'

'अभाद्विगनी! खोज रही थी मुझे या द्विकसी और को?'

'द्विकसको बाबूजी द्विबलखते हुए तारा ने कहा।

'जो पास में बैठा है। मुझे खोजना चाहती है, तो एक पोस्टकाड� न डाल देती कलंद्विकनी, दुष्ट! मुझे जल द्विपला दिदया, प्रायक्षिzत्त करना पडे़गा!'

अब मंगल के समझ में आया द्विक )ह यात्री तारा का द्विपता है, परन्तु उसे द्वि)श्वास न हुआ द्विक यही तारा का द्विपता है। क्या द्विपता भी इतना द्विनद�य हो सकता है उसे अपने ऊपर द्विकये गये वं्यग्य का भी बड़ा दुख हुआ, परन्तु क्या करे, इस कठोर अपमान को तारा का भद्वि)ष्य सोचकर )ह पी गया। उसने धीरे-से सिससकती हुई तारा से पूछा, 'क्या )ही तुम्हारे द्विपता हैं?'

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'हाँ, परन्तु मैं अब क्या करँू बाबूजी, मेरी माँ होती तो इतनी कठोरता न करती। मैं उन्हीं की गोद में जाऊँगी।' तारा फूट-फूटकर रो रही थी।

'तेरी नीचता से दुखी होकर महीनों हुआ, )ह मर गयी, तू न मरी-कासिलख पोतने के सिलए जीती रही!' यात्री ने कहा।

मंगल से रहा न गया, उसने कहा, 'महाशय, आपका क्रोध व्यथ� है। यह स्त्री कुचद्विक्रयों के फेर में पड़ गयी थी, परन्तु इसकी पद्वि)त्रता में कोई अन्तर नहीं पड़ा, बड़ी कदिठनता से इसका उर्द्धार करके मैं इसे आप ही के पास पहुँचाने के सिलए जाता था। भाग्य से आप मिमल गये।'

'भाग्य नहीं, दुभा�ग्य से!' घृणा और क्रोध से यात्री के मुँह का रंग बदल रहा था।

'तब यह द्विकसकी शरण में जायेगी? अभाद्विगनी की कौन रक्षा करेगा मैं आपको प्रमाण दँूगा द्विक तारा द्विनरपरामिधनी है। आप इसे...'

बीच ही में यात्री ने रोककर कहा, 'मूख� यु)क! ऐसी स्)ैरिरणी को कौन गृहk अपनी कन्या कहकर सिसर नीचा करेगा। तुम्हारे जैसे इनके बहुत-से संरक्षक मिमलेंगे। बस अब मुझसे कुछ न कहो।' यात्री का दम्भ उसके अधरों में सु्फरिरत हो रहा था। तारा अधीर होकर रो रही थी और यु)क इस कठोर उत्तर को अपने मन में तौल रहा था।

गाड़ी बीच के छोटे स्टेशन पर नहीं रुकी। स्टेशन की लालटेनें जल रही थीं। तारा ने देखा, एक सजा-सजाया घर भागकर सिछप गया। तीनों चुप रहे। तारा क्रोध पर ग्लाद्विन से फूल रही थी। द्विनराशा और अन्धकार में द्वि)लीन हो रही थी। गाड़ी स्टेशन पर रुकी। सहसा यात्री उतर गया।

मंगलदे) कत�व्य लिच\ता में व्यस्त था। तारा भद्वि)ष्य की कल्पना कर रही थी। गाड़ी अपनी धुन में गंभीर तम का भेदन करती हुई चलने लगी।

(3)

हर�ार की बस्ती से अलग गंगा के तट पर एक छोटा-सा उप)न है। दो-तीन कमरे और दालानों का उससे लगा हुआ छोटा-सा घर है। दालान में बैठी हुई तारा माँग सँ)ार रही है। अपनी दुबली-पतली लम्बी काया की छाया प्रभात के कोमल आतप से डालती हुई तारा एक कुल)धू के समान दिदखाई पड़ती है। बालों से लपेटकर बँधा हुआ जूड़ा छलछलायी आँखें, नमिमत और ढीली अंगलता, पतली-पतली लम्बी उँगसिलयाँ, जैसे द्वि)सिचत्र सजी) होकर काम कर रहा है। पख)ारों में तारा के कपोलों के ऊपर भौंहों के नीचे श्याम-मण्डल पड़ गया है। )ह काम करते हुए भी, जैसे अन्यमनस्क-सी है। अन्यमनस्क रहना ही उसका स्)ाभाद्वि)कता है। आज-कल उसकी झुकी हुई पलकें काली पुतसिलयों को सिछपाये रखती हैं। आँखें संकेत से कहती हैं द्विक हमें कुछ न कहो, नहीं बरसने लगेंगी।

पास ही तून की छाया में पत्थर पर बैठा हुआ मंगल एक पत्र सिलख रहा है। पत्र समाप्त करके उसने तारा की ओर देखा और पूछा, 'मैं पत्र छोड़ने जा रहा हूँ। कोई काम बाजार का हो तो करता आऊँ।'

तारा ने पूण� ग्रद्विहणी भा) से कहा, 'थोडा कड़)ा तेल चाद्विहए और सब )स्तुए ँहैं।' मंगलदे) जाने के सिलए उठ खड़ा हुआ। तारा ने द्विफर पूछा, 'और नौकरी का क्या हुआ?'

'नौकरी मिमल गयी है। उसी की स्)ीकृद्वित-सूचना सिलखकर पाठशाला के अमिधकारी के पास भेज रहा हूँ। आय�-समाज की पाठशाला में व्यायाम-सिशक्षक का काम करँूगा।'

')ेतन तो थोड़ा ही मिमलेगा। यदिद मुझे भी कोई काम मिमल जाये, तो देखना, मैं तुम्हारा हाथ बँटा लँूगी।'

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मंगलदे) ने हँस दिदया और कहा, 'म्पिस्त्रयाँ बहुत शीघ्र उत्साद्विहत हो जाती हैं। और उतने ही अमिधक परिरणाम में द्विनराशा)ादिदनी भी होती हैं। भला मैं तो पहले दिटक जाऊँ! द्विफर तुम्हारी देखी जायेगी।' मंगलदे) चला गया। तारा ने उस एकान्त उप)न की ओर देखा-शरद का द्विनरभ्र आकाश छोटे-से उप)न पर अपने उज्ज्)ल आतप के मिमस हँस रहा था। तारा सोचने लगी-

'यहाँ से थोड़ी दूर पर मेरा द्विपतृगृह है, पर मैं )हाँ नहीं जा सकती। द्विपता समाज और धम� के भय से त्रस्त हैं। ओह, द्विनषु्ठर द्विपता! अब उनकी भी पहली-सी आय नहीं, महन्तजी प्रायः बाहर, द्वि)शेर्षकर काशी रहा करते हैं। मठ की अ)kा द्विबगड़ गयी है। मंगलदे)-एक अपरिरसिचत यु)क-के)ल सत्साहस के बल पर मेरा पालन कर रहा है। इस दास)ृक्षित्त से जी)न द्विबताने से क्या )ह बुरा था, झिजसे छोड़कर मैं आयी। द्विकस आकर्ष�ण ने यह उत्साह दिदलाया और अब )ह क्या हुआ, जो मेरा मन ग्लाद्विन का अनुभ) करता है, परतन्त्रता से नहीं, मैं भी स्)ा)लम्पिम्बनी बनूँगी; परन्तु मंगल! द्विनरीह द्विनष्पाप हृदय!'

तारा और मंगल-दोनों के मन के संकल्प-द्वि)कल्प चल रहे थे। समय अपने माग� चल रहा था। दिदन छूटते जाते थे। मंगल की नौकरी लग गयी। तारा गृहkी चलाने लगी।

धीरे-धीरे मंगल के बहुत से आय� मिमत्र बन गये। और कभी-कभी देद्वि)याँ भी तारा से मिमलने लगीं। आ)श्यकता से द्वि))श होकर मंगल और तारा ने आय� समाज का साथ दिदया था। मंगल स्)तंत्र द्वि)चार का यु)क था, उसके धम� सम्बन्धी द्वि)चार द्विनराले थ,े परन्तु बाहर से )ह पूण� आय� समाजी था। तारा की सामाझिजकता बनाने के सिलये उसे दूसरा माग� न था।

एक दिदन कई मिमत्रों के अनुरोध से उसने अपने यहाँ प्रीद्वितभोज दिदया। श्रीमती प्रकाश दे)ी, सुभद्रा, अम्बासिलका, पीलोमी आदिद नामांद्विकत कई देद्वि)याँ, अक्षिभमन्यु, )ेदस्)रूप, ज्ञानदत्त और )रुणद्विप्रय, भीष्मव्रत आदिद कई आय�सभ्य एकद्वित्रत हुए।

)ृक्ष के नीचे कुर्सिस\याँ पड़ी थीं। सब बैठे थे। बातचीत हो रही थी। तारा अद्वितसिथयों के स्)ागत में लगी थी। भोजन बनकर प्रस्तुत था। ज्ञानदत्त ने कहा, 'अभी ब्रह्मचारी जी नहीं आये!'

अरुण, 'आते ही होंगे!'

)ेद-'तब तक हम लोग संध्या कर लें।'

इन्द-'यह प्रस्ता) ठीक है; परन्तु लीझिजये, )ह ब्रह्मचारी जी आ रहे हैं।'

एक घुटनों से नीचा लम्बा कुता� डाले, लम्बे बाल और छोटी दाढ़ी )ाले गौर)पूण� यु)क को देखते ही नमस्ते की धूम मच गई। ब्रह्मचारी जी बैठे। मंगलदे) का परिरचय देते हुए )ेदस्)रूप ने कहा, 'आपका शुभ नाम मंगलदे) है! उन्होंने ही इन दे)ी का य)नों के चंगुल से उर्द्धार द्विकया है।' तारा ने नमस्ते द्विकया, ब्रह्मचारी ने पहले हँस कर कहा, 'सो तो होना चाद्विहए, ऐसे ही न)यु)कों से भारत)र्ष� को आशा है। इस सत्साह के सिलए मैं धन्य)ाद देता हूँ आप समाज में कब से प्रद्वि)ष्ट हुए हैं?'

'अभी तो मैं सभ्यों में नहीं हूँ।' मंगल ने कहा।

'बहुत शीघ्र जाइये, द्विबना क्षिभक्षित्त के कोई घर नहीं दिटकता और द्विबना नीं) की कोई क्षिभक्षित्त नहीं। उसी प्रकार सद्वि�चार के द्विबना मनुष्य की स्थिkद्वित नहीं और धम�-संस्कारों के द्विबना सद्वि�चार दिटकाऊ नहीं होते। इसके सम्बन्ध में मैं द्वि)शेर्ष रूप से द्विफर कहूँगा। आइये, हम लोग सन्ध्या-)न्दन कर लें।'

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सन्ध्या और प्राथ�ना के समय मंगलदे) के)ल चुपचाप बैठा रहा। थासिलयाँ परसी गईं। भोजन करने के सिलए लोग आसन पर बैठे। )ेदस्)रूप ने कहना आरम्भ द्विकया, 'हमारी जाद्वित में धम� के प्रद्वित इतनी उदासीनता का कारण है एक कस्थिल्पत ज्ञान; जो इस देश के प्रत्येक प्रणाली )ाणी के सिलए सुलभ हो गया है। )स्तुतः उन्हें ज्ञानभा) होता है और )े अपने साधारण द्विनत्यकम� से )ंसिचत होकर अपनी आध्याम्पित्मक उन्नद्वित करने में भी असमथ� होते हैं।'

ज्ञानदत्त-'इससिलए आय� का कम�)ाद संसार के सिलए द्वि)लक्षण कल्याणदायक है-ईश्वर के प्रद्वित द्वि)श्वास करते हुए भी स्)ा)लम्बन का पाठ पढ़ाता है। यह ऋद्विर्षयों का दिदव्य अनुसंधान है।'

ब्रह्मचारी ने कहा, 'तो अब क्या द्वि)लम्ब है, बातें भी चला करेंगी।'

मंगलदे) ने कहा, 'हाँ, हाँ आरम्भ कीझिजये।'

ब्रह्मचारी ने गंभीर स्)र में प्रण)ाद द्विकया और दन्त-अन्न का युर्द्ध प्रारम्भ हुआ।

मंगलदे) ने कहा, 'परन्तु संसार की अभा)-आ)श्यकताओं को देखकर यह कहना पड़ता है द्विक कम�)ाद का सृजन करके द्विहन्दू-जाद्वित ने अपने सिलए असंतोर्ष और दौड़-धूप, आशा और संकल्प का फन्दा बना सिलया है।'

'कदाद्विप नहीं, ऐसा समझना भ्रम है महाशयजी! मनुष्यों को पाप-पुण्य की सीमा में रखने के सिलए इससे बढ़कर कोई उपाय जाग्रत नहीं मिमला।'

सुभद्रा ने कहा।

'श्रीमती! मैं पाप-पुण्य की परिरभार्षा नहीं समझता; परन्तु यह कहूँगा द्विक मुसलमान धम� इस ओर बड़ा दृढ़ है। )ह सम्पूण� द्विनराशा)ादी होते हुए, भौद्वितक कुल शसिWयों पर अद्वि)श्वास करते हुए, के)ल ईश्वर की अनुकम्पा पर अपने को द्विनभ�र करता है। इसीसिलए उनमें इतनी दृढ़ता होती है। उन्हें द्वि)श्वास होता है द्विक मनुष्य कुछ नहीं कर सकता, द्विबना परमात्मा की आज्ञा के। और के)ल इसी एक द्वि)श्वास के कारण )े संसार में संतुष्ट हैं।'

परसने )ाले ने कहा, 'मूँग का हल)ा ले आऊँ। खीर में तो अभी कुछ द्वि)लम्ब है।'

ब्रह्मचारी ने कहा, 'भाई हम जी)न को सुख के अचे्छ उपकरण ढँूढ़ने में नहीं द्विबताना चाहते। जो कुछ प्राप्त है, उसी में जी)न सुखी होकर बीते, इसी की चेष्टा करते हैं, इससिलए जो प्रस्तुत हो, ले आओ।'

सब लोग हँस पडे़।

द्विफर ब्रह्मचारी ने कहा, 'महाशय जी, आपने एक बडे़ धम� की बात कही है। मैं उसका कुछ द्विनराकरण कर देना चाहता हूँ। मुसलमान-धम� द्विनराशा)ादी होते हुए भी क्यों इतना उन्नद्वितशील है, इसका कारण तो आपने स्)यं कहा द्विक 'ईश्वर में द्वि)श्वास' परन्तु इसके साथ उनकी सफलता का एक और भी रहस्य है। )ह है उनकी द्विनत्य-द्विक्रया की द्विनयम-बर्द्धता; क्योंद्विक द्विनयमिमत रूप से परमात्मा की कृपा का लाभ उठाने के सिलए प्राथ�ना करनी आ)श्यक है। मान)-स्)भा) दुब�लताओं का संकलन है, सत्यकम� द्वि)शेर्ष होने पाते नहीं, क्योंद्विक द्विनत्य-द्विक्रयाओं �ारा उनका अभ्यास नहीं। दूसरी ओर ज्ञान की कमी से ईश्वर द्विनष्ठा भी नहीं। इसी अ)kा को देखते हुए ऋद्विर्ष ने यह सुगम आय�-पथ बनाया है। प्राथ�ना द्विनयमिमत रूप से करना, ईश्वर में द्वि)श्वास करना, यही तो आय�-समाज का संदेश है। यह स्)ा)लम्बपूण� है; यह दृढ़ द्वि)श्वास दिदलाता है द्विक हम सत्यकम� करेंगे, तो परमात्मा की असीम कृपा अ)श्य होगी।'

सब लोगों ने उन्हें धन्य)ाद दिदया। ब्रह्मचारी ने हँसकर सबका स्)ागत द्विकया। अब एक क्षणभर के सिलए द्वि))ाद kद्विगत हो गया और भोजन में सब लोग दत्तसिचत्त हुए। कुछ भी परसने के सिलए जब पूछा जाता तो )े 'हूँ' कहते। कभी-कभी न लेने के सिलए उसी का प्रयोग होता। परसने )ाला घबरा जाता और भ्रम से उनकी थाली में कुछ-न-कुछ डाल देता;

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परन्तु )ह सब यथाkान पहुँच जाता। भोजन समाप्त करके सब लोग यथाkान बैठे। तारा भी देद्वि)यों के साथ द्विहल-मिमल गयी।

चाँदनी द्विनकल आयी थी। समय सुन्दर था। ब्रह्मचारी ने प्रसंग छेड़ते हुए कहा, 'मंगलदे) जी! आपने एक आय�-बासिलका का य)नों से उर्द्धार करके बड़ा पुण्यकम� द्विकया है, इसके सिलए आपको हम सब लोग बधाई देते हैं।'

)ेदस्)रूप-'और इस उत्तम प्रीद्वितभोज के सिलए धन्य)ाद।'

द्वि)दुर्षी सुभद्रा ने कहा, 'परमात्मा की कृपा से तारादे)ी के शुभ पाक्षिणग्रहण के अ)सर पर हम लोग द्विफर इसी प्रकार सम्पिम्मसिलत हों।'

मंगलदे), ने जो अभी तक अपनी प्रशंसा का बोझ सिसर नीचे द्विकये उठा रहा था, कहा, 'झिजस दिदन इतनी हो जाये, उसी दिदन मैं अपने कत�व्य का पूरा कर सकँूगा।'

तारा सिसर झुकाए रही। उसके मन में इन सामाझिजकों की सहानुभूद्वित ने एक नई कल्पना उत्पन्न कर दी। )ह एक क्षण भर के सिलए अपने भद्वि)ष्य से द्विनक्षिzन्त-सी हो गयी।

उप)न के बाहर तक तारा और मंगलदे) ने अद्वितसिथयों को पहुँचाया। लोग द्वि)दा हो गये। मंगलदे) अपनी कोठरी में चला गया और तारा अपने कमरे में जाकर पलंग पर लेट गयी। उसने एक बार आकाश के सुकुमार सिशशु को देखा। छोटे-से चन्द्र की हलकी चाँदनी में )ृक्षों की परछाईं उसकी कल्पनाओं को रंझिजत करने लगी। )ह अपने उप)न का मूक दृश्य खुली आँखों से देखने लगी। पलकों में नींद न थी, मन में चैन न था, न जाने क्यों उसके हृदय में धड़कन बढ़ रही थी। रजनी के नीर) संसार में )ह उसे साफ सुन रही थी। जागते-जागते दोपहर से अमिधक चली गयी। चझिन्द्रका के अस्त हो जाने से उप)न में अँधेरा फैल गया। तारा उसी में आँख गड़ाकर न जाने क्या देखना चाहती थी। उसका भूत, )त�मान और भद्वि)ष्य-तीनों अन्धकार में कभी सिछपते और कभी तारों के रूप में चमक उठते। )ह एक बार अपनी उस )ृक्षित्त को आह्वान करने की चेष्टा करने लगी, झिजसकी सिशक्षा उसे )ेश्यालय से मिमली थी। उसने मंगल को तब नहीं, परन्तु अब खींचना चाहा। रसीली कल्पनाओं से हृदय भर गया। रात बीत चली। उर्षा का आलोक प्राची में फैल रहा था। उसने खिखड़की से झाँककर देखा तो उप)न में चहल-पहल थी। जूही की प्यासिलयों में मकरन्द-मदिदरा पीकर मधुपों की टोसिलयाँ लड़खड़ा रही थीं और दक्षिक्षणप)न मौलसिसरी के फूलों की कौद्विड़याँ फें क रहा था। कमर से झुकी हुई अलबेली बेसिलयाँ नाच रही थीं। मन की हार-जीत हो रही थी।

मंगलदे) ने पुकारा, 'नमस्कार!'

तारा ने मुस्कुराते हुए पलंग पर बैठकर दोनों हाथ सिसर से लगाते हुए कहा, 'नमस्कार!'

मंगल ने देखा-कद्वि)ता में )र्णिण\त नामियका जैसे प्रभात की शैया पर बैठी है।

समय के साथ-साथ अमिधकामिधक गृहkी में चतुर और मंगल परिरश्रमी होता जाता था। स)ेरे जलपान बनाकर तारा मंगल को देती, समय पर भोजन और ब्यालू। मंगल के )ेतन में सब प्रबन्ध हो जाता, कुछ बचता न था। दोनों को बचाने की लिच\ता भी न थी, परन्तु इन दोनों की एक बात नई हो चली। तारा मंगल के अध्ययन में बाधा डालने लगी। )ह प्रायः उसके पास ही बैठ जाती। उसकी पुस्तकों को उलटती, यह प्रकट हो जाता द्विक तारा मंगल से अमिधक बातचीत करना चाहती है और मंगल कभी-कभी उससे घबरा उठता।

)सन्त का प्रारम्भ था, पत्ते देखते ही देखते ऐंठते जाते थ ेऔर पतझड़ के बीहड़ समीर से )े झड़कर द्विगरते थे। दोपहर था। कभी-कभी बीच में कोई पक्षी )ृक्षों की शाखाओं में सिछपा हुआ बोल उठता। द्विफर द्विनस्तब्धता छा जाती। दिद)स द्वि)रस हो चले थे। अँगड़ाई लेकर तारा ने )ृक्ष के नीचे बैठे हुए मंगल से कहा, 'आज मन नहीं लगता है।'

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'मेरा मन भी उचाट हो रहा है। इच्छा होती है द्विक कहीं घूम आऊँ; परन्तु तुम्हारा ब्याह हुए द्विबना मैं कहीं नहीं जा सकता।'

'मैं तो ब्याह न करँूगी।'

'क्यों?'

'दिदन तो द्विबताना ही है, कहीं नौकरी कर लँूगी। ब्याह करने की क्या आ)श्यकता है?'

'नहीं तारा, यह नहीं हो सकता। तुम्हारा द्विनक्षिzत लक्ष्य बनाये द्विबना कत�व्य मुझे मिधक्कार देगा।'

'मेरा लक्ष्य क्या है, अभी मैं स्)यं स्थिkर नहीं कर सकी।'

'मैं स्थिkर करँूगा।'

'क्यों ये भार अपने ऊपर लेते हो मुझे अपनी धारा में बहने दो।'

'सो नहीं हो सकेगा।'

'मैं कभी-कभी द्वि)चारती हूँ द्विक छायासिचत्र-सदृश जलस्रोत में द्विनयद्वित प)न के थपेडे़ लगा रही है, )ह तरंग-संकुल होकर घूम रहा है। और मैं एक द्वितनके के सदृश उसी में इधर-उधर बह रही हूँ। कभी भँ)र में चक्कर खाती हूँ, कभी लहरों में नीचे-ऊपर होती हूँ। कहीं कूल-द्विकनारा नहीं।' कहते-कहते तारा की आँखें छलछला उठीं।

'न घबड़ाओ तारा, भग)ान् सबके सहायक हैं।' मंगल ने कहा। और जी बहलाने के सिलए कहीं घूमने का प्रस्ता) द्विकया।

दोनों उतरकर गंगा के समीप के सिशला-खण्डों से लगकर बैठ गये। जाह्न)ी के स्पश� से प)न अत्यन्त शीतल होकर शरीर में लगता है। यहाँ धूप कुछ भली लगती थी। दोनों द्वि)लम्ब तक बैठे चुपचाप द्विनसग� के सुन्दर दृश्य देखते थे। संध्या हो चली। मंगल ने कहा, 'तारा चलो, घर चलें।' तारा चुपचाप उठी। मंगल ने देखा, उसकी आँखें लाल हैं। मंगल ने पूछा, 'क्या सिसर दद� है?'

'नहीं तो।'

दोनों घर पहुँचे। मंगल ने कहा, 'आज ब्यालू बनाने की आ)श्यकता नहीं, जो कहो बाजार से लेता आऊँ।'

'इस तरह कैसे चलेगा। मुझे क्या हुआ है, थोड़ा दूध ले आओ, तो खीर बना दँू, कुछ पूरिरयाँ बची हैं।'

मंगलदे) दूध लेने चला गया।

तारा सोचने लगी-मंगल मेरा कौन है, जो मैं इतनी आज्ञा देती हूँ। क्या )ह मेरा कोई है। मन में सहसा बड़ी-बड़ी अक्षिभलार्षाए ँउदिदत हुईं और गंभीर आकाश के शून्य में ताराओं के समान डूब गई। )ह चुप बैठी रही।

मंगल दूध लेकर आया। दीपक जला। भोजन बना। मंगल ने कहा, 'तारा आज तुम मेरे साथ ही बैठकर भोजन करो।'

तारा को कुछ आzय� न हुआ, यद्यद्विप मंगल ने कभी ऐसा प्रस्ता) न द्विकया था; परन्तु )ह उत्साह के साथ सम्पिम्मसिलत हुई।

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दोनों भोजन करके अपने-अपने पलंग पर चले गये। तारा की आँखों में नींद न थी, उसे कुछ शब्द सुनाई पड़ा। पहले तो उसे भय लगा, द्विफर साहस करके उठी। आहट लगी द्विक मंगल का-सा शब्द है। )ह उसके कमरे में जाकर खड़ी हो गई। मंगल सपना देख रहा था, बरा�ता था-'कौन कहता है द्विक तारा मेरी नहीं है मैं भी उसी का हूँ। तुम्हारे हत्यारे समाज की मैं लिच\ता नहीं करता... )ह दे)ी है। मैं उसकी से)ा करँूगा...नहीं-नहीं, उसे मुझसे न छीनो।'

तारा पलंग पर झुक गयी थी, )सन्त की लहरीली समीर उसे पीछे से ढकेल रही थी। रोमांच हो रहा था, जैसे कामना-तरंद्विगनी में छोटी-छोटी लहरिरयाँ उठ रही थीं। कभी )क्षkल में, कभी कपोलों पर स्)ेद हो जाते थे। प्रकृद्वित प्रलोभन में सजी थी। द्वि)श्व एक भ्रम बनकर तारा के यौ)न की उमंग में डूबना चाहता था।

सहसा मंगल ने उसी प्रकार सपने में बरा�ते हुए कहा, 'मेरी तारा, प्यारी तारा आओ!' उसके दोनों हाथ उठ रहे थ ेद्विक आँख बन्द कर तारा ने अपने को मंगल के अंक में डाल दिदया?'

प्रभात हुआ, )ृक्षों के अंक में पक्षिक्षयों का कलर) होने लगा। मंगल की आँखें खुलीं, जैसे उसने रातभर एक मनोहर सपना देखा हो। )ह तारा को छोड़कर बाहर द्विनकल आया, टहलने लगा। उत्साह से उसके चरण नृत्य कर रहे थे। बड़ी उते्तझिजत अ)kा में टहल रहा था। टहलते-टहलते एक बार अपनी कोठरी में गया। जंगले से पहली लाल द्विकरणें तारा के कपोल पर पड़ रही थी। मंगल ने उसे चूम सिलया। तारा जाग पड़ी। )ह लजाती हुई मुस्कुराने लगी। दोनों का मन हलका था।

उत्साह में दिदन बीतने लगे। दोनों के व्यसिWत्) में परिर)त�न हो चला। अब तारा का )ह द्विनःसंकोच भा) न रहा। पद्वित-पत्नी का सा व्य)हार होने लगा। मंगल बडे़ स्नेह से पूछता, )ह सहज संकोच से उत्तर देती। मंगल मन-ही-मन प्रसन्न होता। उसके सिलए संसार पूण� हो गया था-कहीं रिरWता नहीं, कहीं अभा) नहीं।

तारा एक दिदन बैठी कसीदा काढ़ रही थी। धम-धम का शब्द हुआ। दोपहर था, आँख उठाकर देखा... एक बालक दौड़ा हुआ आकर दालान में सिछप गया। उप)न के द्विक)ाड़ तो खुले ही थ,े और भी दो लड़के पीछे-पीछे आये। पहला बालक सिसमटकर सबकी आँखों की ओट हो जाना चाहता था। तारा कुतूहल से देखने लगी। उसने संकेत से मना द्विकया द्विक बता)े न। तारा हँसने लगी। दोनों के खोजने )ाले लड़के ताड़ गये। एक ने पूछा, 'सच बताना रामू यहाँ आया है पड़ोस के लड़के थ,े तारा ने हँस दिदया, रामू पकड़ गया। तारा ने तीनों को एक-एक मिमठाई दी। खूब हँसी होती रही।

कभी-कभी कल्लू की माँ आ जाती। )ह कसीदा सीखती। कभी बल्लो अपनी द्विकताब लेकर आती, तारा उसे कुछ बताती। द्वि)दुर्षी सुभद्रा भी प्रायः आया करती। एक दिदन सुभद्रा बैठी थी, तारा ने कुछ उससे जलपान का अनुरोध द्विकया। सुभद्रा ने कहा, 'तुम्हारा ब्याह झिजस दिदन होगा, उसी दिदन जलपान करँूगी।'

'और जब तक न होगा, तुम मेरे यहाँ जल न पीओगी?'

'जब तक क्यों तुम क्यों द्वि)लम्ब करती हो?'

'मैं ब्याह करने की आ)श्यकता न समझँू तो?'

'यह तो असम्भ) है। बहन आ)श्यकता होती ही है।'

सुभद्रा रुक गयी। तारा के कपोल लाल हो गये। उसकी ओर कनखिखयों से देख रही थी। )ह बोली, 'क्या मंगलदे) ब्याह करने पर प्रस्तुत नहीं होते?'

'मैंने तो कभी प्रस्ता) द्विकया नहीं।'

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'मैं करँूगी बहन! संसार बड़ा खराब है। तुम्हारा उर्द्धार इससिलए नहीं हुआ है द्विक तुम यों ही पड़ी रहो! मंगल में यदिद साहस नहीं है, तो दूसरा पात्र ढँूढ़ा जायेगा; परन्तु सा)धान! तुम दोनों को इस तरह रहना कोई भी समाज हो, अच्छी आँखों से नहीं देखेगा। चाहे तुम दोनों द्विकतने ही पद्वि)त्र हो!'

तारा को जैसे द्विकसी ने चुटकी काट ली। उसने कहा, 'न देखे समाज भले ही, मैं द्विकसी से कुछ चाहती तो नहीं; पर मैं अपने ब्याह का प्रस्ता) द्विकसी से नहीं कर सकती।'

'भूल है प्यारी बहन! हमारी म्पिस्त्रयों की जाद्वित इसी में मारी जाती है। )े मुँह खोलकर सीधा-सादा प्रस्ता) नहीं कर सकतीं; परन्तु संकेतों से अपनी कुदिटल अंग-भंद्विगयों के �ारा प्रस्ता) से अमिधक करके पुरुर्षों को उत्साद्विहत द्विकया करती हैं। और बुरा न मानना, तब )े अपना स)�स्) अनायास ही नष्ट कर देती हैं। ऐसी द्विकतनी घटनाए ँजानी गयी हैं।'

तारा जैसे घबरा गयी। )ह कुछ भारी मुँह द्विकये बैठी रही। सुभद्रा भी कुछ समय बीतने पर चली गयी।

मंगलदे) पाठशाला से लौटा। आज उसके हाथ में एक भारी गठरी थी। तारा उठ खड़ी हुई। पूछा, 'आज यह क्या ले आये?'

हँसते हुए मंगल ने कहा, 'देख लो।'

गठरी खुली-साबुन, रूमाल, काँच की चूद्विड़याँ, इतर और भी कुछ प्रसाधन के उपयोगी पदाथ� थे। तारा ने हँसते हुए उन्हें अपनाया।

मंगल ने कहा, 'आज समाज में चलो, उत्स) है। कपडे़ बदल लो।' तारा ने स्)ीकार सूचक सिसर द्विहला दिदया। कपडे़ का चुना) होने लगा। साबुन लगा, कंघी फेरी गई। मंगल ने तारा की सहायता की, तारा ने मंगल की। दोनों नयी सू्फर्तित\ से पे्ररिरत होकर समाज-भ)न की ओर चले।

इतने दिदनों बाद तारा आज ही हर�ार के पथ पर बाहर द्विनकलकर चली। उसे गसिलयों का, घाटों का, बाल्यकाल का दृश्य स्मरण हो रहा था-यहाँ )ह खेलने आती, )हाँ दश�न करती, )हाँ पर द्विपता के साथ घूमने आती। राह चलते-चलते उसे स्मृद्वितयों ने अक्षिभभूत कर दिदया। अकस्मात् एक प्रौढ़ा स्त्री उसे देखकर रुकी और साक्षिभप्राय देखने लगी। )ह पास चली आयी। उसने द्विफर आँखें गड़ाकर देखा, 'तारा तो नहीं।'

'हाँ, चाची!'

'अरी तू कहाँ?'

'भाग्य!'

'क्या तेरे बाबूजी नहीं जानते!'

'जानते हैं चाची, पर मैं क्या करँू

'अच्छा तू कहाँ है? मैं आऊँगी।'

'लालाराम की बगीची में।'

चाची चली गयी। ये लोग समाज-भ)न की ओर चले।

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कपडे़ सूख चले थे। तारा उन्हें इकट्ठा कर रही थी। मंगल बैठा हुआ उनकी तह लगा रहा था। बदली थी। मंगल ने कहा, 'आज खूब जल बरसेगा।'

'क्यों?'

'बादल भींग रहे हैं, प)न रुका है। पे्रम का भी पू)� रूप ऐसा ही होता है। तारा! मैं नहीं जानता था द्विक पे्रम-कादम्पिम्बनी हमारे हृदयाकाश में कब से अड़ी थी और तुम्हारे सौन्दय� का प)न उस पर घेरा डाले हुए था।'

'मैं जानती थी। झिजस दिदन परिरचय की पुनरा)ृक्षित्त हुई, मेरे खारे आँसुओं के पे्रमघन बन चुके थे। मन मत)ाला हो गया था; परन्तु तुम्हारी सौम्य-संयत चेष्टा ने रोक रखा था; मैं मन-ही-मन महसूस कर जाती। और इससिलए मैंने तुम्हारी आज्ञा मानकर तुम्हें अपने जी)न के साथ उलझाने लगी थी।'

'मैं नहीं जानता था, तुम इतनी चतुर हो। अजगर के श्वास में खिख\चे हुए मृग के समान मैं तुम्हारी इच्छा के भीतर द्विनगल सिलया गया।'

'क्या तुम्हें इसका खेद है?'

'तद्विनक भी नहीं प्यारी तारा, हम दोनों इससिलए उत्पन्न हुए थे। अब मैं उसिचत समझता हूँ द्विक हम लोग समाज के प्रचसिलत द्विनयमों में आबर्द्ध हो जायें, यद्यद्विप मेरी दृमिष्ट में सत्य-पे्रम के सामने उसका कुछ मूल्य नहीं।'

'जैसी तुम्हारी इच्छा।'

अभी ये लोग बातें कर रहे थ ेद्विक उस दिदन की चाची दिदखलाई पड़ी। तारा ने प्रसन्नता से उसका स्)ागत द्विकया। उसका चादर उतारकर उसे बैठाया। मंगलदे) बाहर चला गया।

'तारा तुमने यहाँ आकर अच्छा नहीं द्विकया।' चाची ने कहा।

'क्यों चाची! जहाँ अपने परिरसिचत होते हैं, )हीं तो लोग जाते हैं। परन्तु दुना�म की अ)kा में उसे जगह से अलग जाना चाद्विहए।'

'तो क्या तुम लोग चाहती हो द्विक मैं यहाँ न रहूँ

'नहीं-नहीं, भला ऐसा भी कोई कहेगा।' जीभ दबाते हुए चाची ने कहा।

'द्विपताजी ने मेरा द्वितरस्कार द्विकया, मैं क्या करती चाची।' तारा रोने लगी।

चाची ने सान्त्)ना देते हुए कहा, 'न रो तारा!'

समझाने के बाद द्विफर तारा चुप हुई; परन्तु )ह फूल रही थी। द्विफर मंगल के प्रद्वित संकेत करते हुए चाची ने पूछा, 'क्या यह पे्रम ठहरेगा तारा, मैं इससिलए सिचन्तिन्तत हो रही हूँ, ऐसे बहुत से पे्रमी संसार में मिमलते हैं; पर द्विनभाने )ाले बहुत कम होते हैं। मैंने तेरी माँ को ही देखा है।' चाची की आँखों में आँसू भर आये; पर तारा को अपनी माता का इस तरह का स्मरण द्विकया जाना बहुत बुरा लगा। )ह कुछ न बोली। चाची को जलपान कराना चाहा; पर )ह जाने के सिलए हठ करने लगी। तारा समझ गयी और बोला, 'अच्छा चाची! मेरे ब्याह में आना। भला और कोई नहीं, तो तुम तो अकेली अभाद्विगन पर दया करना।'

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चाची को जैसे ठोकर सी लग गयी। )ह सिसर उठाकर कहने लगी, 'कब है अच्छा-अच्छा आऊँगी।' द्विफर इधर-उधर की बातें करके )ह चली गयी।

तारा से सशंक होकर एक बार द्विफर द्वि)लक्षण चाची को देखा, झिजसे पीछे से देखकर कोई नहीं कह सकता था द्विक चालीस बरस की स्त्री है। )ह अपनी इठलाती हुई चाल से चली जा रही थी। तारा ने मन में सोचा-ब्याह की बात करके मैंने अच्छा नहीं द्विकया; परन्तु करती क्या, अपनी स्थिkद्वित साफ करने के सिलए दूसरा उपाय ही न था।

मंगल जब तक लौट न आया, )ह सिचन्तिन्तत बैठी रही।

चाची अब प्रायः द्विनत्य आती। तारा के द्वि))ाहोत्स)-सम्बन्ध की )स्तुओं की सूची बनाती। तारा उत्साह में भर गयी थी। मंगलदे) से जो कहा जाता, )ही ले आता। बहुत शीघ्रता से काम आरम्भ हुआ। चाची को अपना सहायक पाकर तारा और मंगल दोनों की प्रसन्न थे। एक दिदन तारा गंगा-स्नान करने गयी थी। मंगल चाची के कहने पर आ)श्यक )स्तुओं की तासिलका सिलख रहा था। )ह सिसर नीचा द्विकये हुए लेखनी चला ता था और आगे बढ़ने के सिलए 'हूँ' कहता जाता था। सहसा चाची ने कहा, 'परन्तु यह ब्याह होगा द्विकस रीत से मैं जो सिलखा रही हूँ, )ह तो पुरानी चाल के ब्याह के सिलए है।'

'क्या ब्याह भी कई चाल के होते हैं?' मंगल ने कहा।

'क्यों नहीं।' गम्भीरता से चाची बोली।

'मैं क्या जानँू, आय�-समाज के कुछ लोग उस दिदन द्विनमंद्वित्रत होंगे और )ही लोग उसे कर)ायेंगे। हाँ, उसमें पूजा का टंट-घंट )ैसा न होगा, और सब तो )ैसा ही होगा।'

'ठीक है।' मुस्कुराती हुए चाची ने कहा, 'ऐसे )र-)धू का ब्याह और द्विकस रीद्वित से होगा।'

'क्यों आzय� से मंगल उसका मुँह देखने लगा। चाची के मुँह पर उस समय बड़ा द्वि)सिचत्र भा) था। द्वि)लास-भरी आँखें, मचलती हुई हँसी देखकर मंगल को स्)यं संकोच होने लगा। कुस्थित्सत म्पिस्त्रयों के समान )ह दिदल्लगी के स्)र में बोली, 'मंगल बड़ा अच्छा है, ब्याह जल्द कर लो, नहीं तो बाप बन जाने के पीछे ब्याह करना ठीक नहीं होगा।'

मंगल को क्रोध और लज्जा के साथ घृणा भी हुई। चाची ने अपना आँचल सँभालते हुए तीखे कटाक्षों से मंगल की ओर देखा। मंगल ममा�हत होकर रह गया। )ह बोला, 'चाची!'

और भी हँसती हुई चाची ने कहा, 'सच कहती हूँ, दो महीने से अमिधक नहीं टले हैं।'

मंगल सिसर झुकाकर सोचने के बाद बोला, 'चाची, हम लोगों का सब रहस्य तुम जानती हो तो तुमसे बढ़कर हम लोगों का शुभसिचन्तक और मिमत्र कौन हो सकता है, अब जैसा तुम कहो )ैसा करें।'

चाची अपनी द्वि)जय पर प्रसन्न होकर बोली, 'ऐसा प्रायः होता है। तारा की माँ ही कौन कहीं की भण्डारजी की ब्याही धम�पत्नी थी! मंगल, तुम इसकी लिच\ता मत करो, ब्याह शीघ्र कर लो, द्विफर कोई न बोलेगा। खोजने में ऐसों की संख्या भी संसार में कम न होगी।'

चाची अपनी )Wृता झाड़ रही थी। उधर मंगल तारा की उत्पक्षित्त के सम्बन्ध में द्वि)चारने लगा। अभी-अभी उस दुष्टा चाची ने एक मार्मिम\क चोट उसे पहुँचायी। अपनी भूल और अपने अपराध मंगल को नहीं दिदखाई पडे़; परन्तु तारा की माँ भी दुराचारिरणी!-यह बात उसे खटकने लगी। )ह उठकर उप)न की ओर चला गया। चाची ने बहुत चाहा द्विक उसे अपनी बातों में लगा ले; पर )ह दुखी हो गया था। इतने में तारा लौट आयी। बड़ा आग्रह दिदखाते हुए चाची ने कहा,

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'तारा, ब्याह के सिलए परसों का दिदन अच्छा है। और देखो, तुम नहीं जानती हो द्विक तुमने अपने पेट में एक जी) को बुला सिलया है; इससिलए ब्याह का हो जाना अत्यन्त आ)श्यक है।'

तारा चाची की गम्भीर मूर्तित\ देखकर डर गयी। )ह अपने मन में सोचने लगी-जैसा चाची कहती है )ही ठीक है। तारा सशंक हो चली!

चाची के जाने पर मंगल लौट आया। तारा और मंगल दोनों का हृदय उछल रहा था। साहस करके तारा ने पूछा, 'कौन दिदन ठीक हुआ?'

सिसर झुकाते हुए मंगल ने कहा, 'परसों। द्विफर )ह अपना कोट पहनने हुए उप)न के बाहर हो गया।?'

तारा सोचने लगी-क्या सचमुच मैं एक बच्चे की माँ हो चली हूँ। यदिद ऐसा हुआ तो क्या होगा। मंगल का पे्रम ही रहेगा-)ह सोचते-सोचते लेट गयी। सामान द्विबखरे रहे।

परसों के आते द्वि)लम्ब न हुआ।

घर में ब्याह का समारोह था। सुभद्रा और चाची काम में लगी हुई थीं। होम के सिलए )ेदी बन चुकी थी। तारा का प्रसाधन हो रहा था; परन्तु मंगलदे) स्नान करने हर की पैड़ी गया था। )ह स्नान करके घाट पर आकर बैठ गया। घर लौटने की इच्छा न हुई। )ह सोचने लगा-तारा दुराचारिरणी की संतान है, )ह )ेश्या के यहाँ रही है, द्विफर मेरे साथ भाग आयी, मुझसे अनुसिचत सम्बन्ध हुआ और अब )ह गभ�)ती है। आज मैं ब्याह करके कई कुकम� की कलुद्विर्षत सन्तान का द्विपता कहलाऊँगा! मैं क्या करने जा रहा हूँ!-घड़ी भर की लिच\ता में )ह द्विनमग्न था। अन्त में इसी समय उसके ध्यान में एक ऐसी बात आ गयी द्विक उसके सत्साहस ने उसका साथ छोड़ दिदया। )ह स्)यं समाज की लाँछना सह सकता था; परन्तु भा)ी संतान के प्रद्वित समाज की कस्थिल्पत लांछना और अत्याचार ने उसे द्वि)चसिलत द्विकया। )ह जैसे एक भा)ी द्वि)प्ल) के भय से त्रस्त हो गया। भगोडे़ समान )ह स्टेशन की ओर अग्रसर हुआ। उसने देखा, गाड़ी आना ही चाहती है। उसके कोट की जेब में कुछ रुपये थे। पूछा, 'इस गाड़ी से बनारस पहुँच सकता हूँ?'

उत्तर मिमला, 'हाँ, लसकर में बदलकर, )हाँ दूसरी टे्रन तैयार मिमलेगी।'

दिटकट लेकर )ह दूर से हरिरयाली में द्विनकलते हुए धुए ँको चुपचाप देख रहा था, जो उड़ने )ाले अजगर के समान आकाश पर चढ़ रहा था। उसके मस्तक में काई बात जमती न थी। )ह अपराधी के समान हर�ार से भाग जाना चाहता था। गाड़ी आते ही उस पर चढ़ गया। गाड़ी छूट गयी।

इधर उप)न में मंगलदे) के आने की प्रतीक्षा हो रही थी। ब्रह्मचारी जी और दे)स्)रूप तथा और दो सज्जन आये। कोई पूछता था-मंगलदे) जी कहाँ हैं कोई कहता-समय हो गया। कोई कहता-द्वि)लम्ब हो रहा है। परन्तु मंगलदे) कहाँ?'

तारा का कलेजा धक-धक करने लगा। )ह न जाने द्विकस अनागत भय से डरने लगी! रोने-रोने हो रही थी। परन्तु मंगल में रोना नहीं चाद्विहए, )ह खुलकर न रो सकती थी।

जो बुलाने गया, )ही लौट आया। खोज हुई, पता न चला। सन्ध्या हो आयी; पर मंगल न लौटा। तारा अधीर होकर रोने लगी। ब्रह्मचारी जी मंगल को भला-बुरा कहने लगे। अन्त में उन्होने यहाँ तक कह डाला द्विक यदिद मुझे यह द्वि)दिदत होता द्विक मंगल इतना नीच है, तो मैं द्विकसी दूसरे से यह सम्बन्ध करने का उद्योग करता। सुभद्रा तारा को एक ओर ले जाकर सान्त्)ना दे रही थी। अ)सर पाकर चाची ने धीरे से कहा, ')ह भाग न जाता तो क्या करता, तीन महीने का गभ� )ह अपने सिसर पर ओढ़कर ब्याह करता?'

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'ऐ परमात्मन्, यह भी है।' कहते हुए ब्रह्मचारीजी लम्बी डग बढ़ाते उप)न के बाहर चले गये। धीरे-धीरे सब चले गये। चाची ने यथा पर)श होकर सामान बटोरना आरम्भ द्विकया और उससे छुट्टी पाकर तारा के पास जाकर बैठ गयी।

तारा सपना देख रही थी-झूले के पुल पर )ह चल रही है। भीर्षण प)�त-श्रेणी! ऊपर और नीचे भयानक खC! )ह पैर सम्हालकर चल रही है। मंगलदे) पुल के उस पार खड़ा बुला रहा है। नीचे )ेग से नदी बह रही है। बरफ के बादल मिघर रहे हैं। अचानक द्विबजली कड़की, पुल टूटा, तारा भयानक )ेग ने नीचे द्विगर पड़ी। )ह सिचल्लाकर जाग गयी। देखा, तो चाची उसका सिसर सहला रही है। )ह चाची की गोद में सिसर रखकर सिससकने लगी।

(4)

पहाड़ जैसे दिदन बीतती ही न थे। दुःख की रातें जाडे़ की रात से भी लम्बी बन जाती हैं। दुखिखया तारा की अ)kा शोचनीय थी। मानसिसक और आर्सिथ\क लिच\ताओं से )ह जज�र हो गयी। गभ� के बढ़ने से शरीर से भी कृश हो गयी। मुख पीला हो चला। अब उसने उप)न में रहना छोड़ दिदया। चाची के घर में जाकर रहने लगी। )हीं सहारा मिमला। खच� न चल सकने के कारण )ह दो-चार दिदन के बाद एक )स्तु बेचती। द्विफर रोकर दिदन काटती। चाची ने भी उसे अपने ढंग से छोड़ दिदया। )हीं तारा टूटी चारपाई पर पड़ी कराहा करती।

अँधेरा हो चला था। चाची अभी-अभी घूमकर बाहर से आयी थी। तारा के पास आकर बैठ गयी। पूछा, 'तारा, कैसी हो?'

'क्या बताऊँ चाची, कैसी हूँ! भग)ान जानते हैं, कैसी बीत रही है!'

'यह सब तुम्हारी चाल से हुआ।'

'सो तो ठीक कह रही हो।'

'नहीं, बुरा न मानना। देखो यदिद मुझे पहले ही तुम अपना हाल कह देतीं, तो मैं ऐसा उपाय कर देती द्विक यह सब द्वि)पक्षित्त ही न आने पाती।'

'कौन उपाय चाची?'

')ही जब दो महीने का था, उसका प्रबन्ध हो जाता। द्विकसी को कानो-कान खबर भी न होती। द्विफर तुम और मंगल एक बने रहते।'

'पर क्या इसी के सिलए मंगल भाग गया? कदाद्विप नहीं, उसके मन से मेरा पे्रम ही चला गया। चाची, जो द्विबना द्विकसी लोभ के मेरी इतनी सहायता करता था, )ह मुझे इस द्विनस्सहाय अ)kा में इससिलए छोड़कर कभी नहीं जाता। इसमें काई दूसरा ही कारण है।'

'होगा, पर तुम्हें यह दुःख देखना न पड़ता और उसके चले जाने पर भी एक बार मैंने तुमसे संकेत द्विकया; पर तुम्हारी इच्छा न देखकर मैं कुछ न बोली। नहीं तो अब तक मोहनदास तुम्हारे पैरों पर नाक रगड़ता। )ह कई बार मुझसे कह भी चुका है।'

'बस करो चाची, मुझसे ऐसी बातें न करो। यदिद ऐसा ही करना होगा, तो मैं द्विकसी कोठे पर जा बैठँूगी; पर यह टट्टी की ओट में सिशकार करना नहीं जानती। तारा ने ये बातें कुछ क्रोध में कहीं। चाची का पारा चढ़ गया। उसने द्विबगड़कर कहा, 'देखो द्विनगोड़ी, मुझी को बातें सुनाती है। करम आप करे और आँखें दिदखा)े दूसरे को!'

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तारा रोने लगी। )ह खुरा�ट चाची से लड़ना न चाहती थी; परन्तु अक्षिभप्राय न सधने पर चाची स्)यं लड़ गयी। )ह सोचती थी द्विक अब उसका सामान धीरे-धीरे ले ही सिलया, दाल-रोटी दिदन में एक बार खिखला दिदया करती थी। जब इसके पास कुछ बचा ही नहीं और आगे की कोई आशा भी न रही, तब इसका झंझट क्यों अपने सिसर रखँू। )ह क्रोध से बोली, 'रो मत राँड़ कहीं की। जा हट, अपना दूसरा उपाय देख। मैं सहायता भी करँू और बातें भी सुनँू, यह नहीं हो सकता। कल मेरी कोठरी खाली कर देना। नहीं तो झाड़ू मारकर द्विनकाल दँूगी।'

तारा चुपचाप रो रही थी, )ह कुछ न बोली। रात हो चली। लोग अपने-अपने घरों में दिदन भर के परिरश्रम का आस्)ाद लेने के सिलए द्विक)ाड़ें बन्द करने लगे; पर तारा की आँखें खुली थीं। उनमें अब आँसू भी न थे। उसकी छाती में मधु-द्वि)हीन मधुच्रक-सा एक नीरस कलेजा था, झिजसमे )ेदना की ममासिछयों की भन्नाहट थी। संसार उसकी आँखों मे घूम जाता था, )ह देखते हुए भी कुछ न देखती, चाची अपनी कोठरी में जाकर खा-पीकर सो रही। बाहर कुत्ते भौंक रहे थे। आधी रात बीत रही थी। रह-रहकर द्विनस्तब्धता का झोंका आ जाता था। सहसा तारा उठ खड़ी हुई। उन्मादिदनी के समान )ह चल पड़ी। फटी धोती उसके अंग पर लटक रही थी। बाल द्विबखरे थ,े बदन द्वि)कृत। भय का नाम नहीं। जैसे कोई यंत्रचासिलत श) चल रहा हो। )ह सीधे जाह्न)ी के तट पर पहुँची। तारों की परछाईं गंगा के )क्ष मे खुल रही थी। स्रोत में हर-हर की ध्)द्विन हो रही थी। तारा एक सिशलाखण्ड पर बैठ गयी। )ह कहने लगी-मेरा अब कौन रहा, झिजसके सिलए जीद्वि)त रहूँ। मंगल ने मुझे द्विनरपराध ही छोड़ दिदया, पास में पाई नही, लांछनपूण� जी)न, कहीं धंधा करके पेट पालने के लायक भी नहीं रही। द्विफर इस जी)न को रखकर क्या करँू! हाँ, गभ� में कुछ है, )ह क्या है, कौन जाने! यदिद आज न सही, तो भी एक दिदन अनाहार से प्राण छटपटाकर जायेगा ही-तब द्वि)लम्ब क्यों?'

मंगल! भग)ान् ही जानते होंगे द्विक तुम्हारी शय्या पद्वि)त्र है। कभी स्)प्न में भी तुम्हें छोड़कर इस जी)न में द्विकसी से पे्रम नहीं द्विकया, और न तो मैं कलुद्विर्षत हुई। यह तुम्हारी पे्रम-क्षिभखारिरनी पैसे की भीख नहीं माँग सकती और न पैसे के सिलए अपनी पद्वि)त्रता बेच सकती है तब दूसरा उपाय ही क्या मरण को छोड़कर दूसरा कौन शरण देगा भग)ान्! तुम यदिद कहीं हो, तो मेरे साक्षी रहना!

)ह गंगा में जा ही चुकी थी द्विक सहसा एक बसिलष्ठ हाथ ने उसे पकड़कर रोक सिलया। उसने छटपटाकर पूछा, 'तुक कौन हो, जो मेरे मरने का भी सुख छीनना चाहते हो?'

'अधम� होगा, आत्महत्या पाप है?' एक लम्बा संन्यासी कह रहा था।

'पाप कहाँ! पुण्य द्विकसका नाम है मैं नहीं जानती। सुख खोजती रही, दुख मिमला; दुःख ही यदिद पाप है, तो मैं उससे छूटकर सुख की मौत मर रही हूँ-पुण्य कर रही हूँ, करने दो!'

'तुमको अकेले मरने का अमिधकार चाहे हो भी; पर एक जी)-हत्या तुम और करने जा रही हो, )ह नहीं होगा। चलो तुम अभी, यही पण�शाला है, उसमें रात भर द्वि)श्राम करो। प्रातःकाल मेरा सिशष्य आ)ेगा और तुम्हें अस्पताल ले जायेगा। )हाँ तुम अन्न लिच\ता से भी द्विनक्षिzन्त रहोगी। बालक उत्पन्न होने पर तुम स्)तंन्त्र हो, जहाँ चाहे चली जाना।' संन्यासी जैसे आत्मानुभूद्वित से दृड़ आज्ञा भरे शब्दों में कह रहा था। तारा को बात दोहराने का साहस न हुआ। उसके मन में बालक का मुख देखने की अक्षिभलार्षा जाग गयी। उसने भी संकल्प कर सिलया द्विक बालक का अस्पताल में पालन हो जायेगा; द्विफर मैं चली जाऊँगी।

)ह संन्यासी के संकेत द्विकये हुए कुटीर की ओर चली। अस्पताल की चारपाई पर पड़ी हुई तारा अपनी दशा पर द्वि)चार कर रही थी। उसका पीला मुख, धँसी हुई आँखें, करुणा की सिचत्रपटी बन रही थीं। मंगल का इस प्रकार छोड़कर चले जाना सब कष्टों से अमिधक कसकता था। दाई जब साबूदाना लेकर उसके पास आती, तब )ह बडे़ कष्ट से उठकर थोड़ा-सा पी लेती। दूध कभी-कभी मिमलता था, क्योंद्विक अस्पताल झिजन दीनों के सिलए बनते हैं, )हाँ उनकी पूछ नहीं, उसका लाभ भी सम्पन्न ही उठाते हैं। झिजस रोगी के अक्षिभभा)कों से कुछ मिमलता, उसकी से)ा अच्छी तरह होती, दूसरे के कष्टों की द्विगनती नहीं। दाई दाल का पानी और हलकी रोटी लेकर आयी। तारा का मुँह खिखड़की की ओर था।

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दाई ने कहा, 'लो कुछ खा लो।'

'अभी मेरी इच्छा नहीं।' मुहँ फेरे ही तारा ने कहा।

'तो क्या कोई तुम्हारी लौंड़ी लगी है, जो ठहरकर ले आ)ेगी। लेना हो तो अभी ले ले।'

'मुझे भूख नहीं दाई!' तारा ने करुण स्)र में कहा।

'क्यों आज क्या है?'

'पेट में बड़ा दद� हो रहा है।' कहते-कहते तारा कहारने लगी। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। दाई ने पास आकर देखा, द्विफर चली गयी। थोड़ी देर मे डॉक्टर के साथ दाई आयी। डॉक्टर ने परीक्षा की। द्विफर दाई से कुछ संकेत द्विकया। डॉक्टर चला गया। दाई ने कुछ समान लाकर )हाँ रखा, और भी एक दूसरी दाई आ गयी। तारा की व्यथा बढ़ने लगी-)ही कष्ट झिजसे म्पिस्त्रयाँ ही झेल सकती हैं, तारा के सिलए असह्य हो उठा, )ह प्रस) पीड़ा से मूर्च्छिच्छ\त हो गयी। कुछ क्षणों में चेतना हुई, द्विफर पीड़ा होने लगी। दाई ने अ)kा भयानक होने की सूचना डॉक्टर को दी। )ह प्रस) कराने के सिलए प्रस्तुत होकर आया। सहसा बडे़ कष्ट से तारा ने पुत्र-प्रस) द्विकया। डॉक्टर ने भीतर आने की आ)श्यकता न समझी, )ह लौट गया। सूद्वितका-कम� में सिशक्षिक्षत दाइयों ने सिशशु सँभाला।

तारा जब सचेत हुई, न)जात सिशशु को देखकर एक बार उसके मुख पर मुस्कराहट आ गयी।

तारा रुग्ण थी, उसका दूध नहीं द्विपलाया जाता। )ह दिदन में दो बार बच्चे को गोद में ले पाती; पर गोद में लेते ही उसे जैसे सिशशु से घृणा हो जाती। मातृस्नेह उमड़ता; परन्तु उसके कारण तारा की जो दुद�शा हुई थी, )ह सामने आकर खड़ी हो जाती। तारा काँप उठती। महीनों बीत गये। तारा कुछ चलने-द्विफरने योग्य हुई। उसने सोचा-महात्मा ने कहा था द्विक बालक उत्पन्न होने पर तुम स्)तंत्र हो, जो चाहे कर सकती हो। अब मैं अब अपना जी)न क्यों रखँू। अब गंगा माई की गोद में चलँू। इस दुखःमय जी)न से छुटकारा पाने का दूसरा उपाय नहीं।

तीन पहर रात बीत चुकी थी। सिशशु सो रहा था, तारा जाग रही थी। उसने एक बार उसके मुख का चुम्बन द्विकया, )ह चौंक उठा, जैसे हँस रहा हो। द्विफर उसे थपद्विकयाँ देने लगी। सिशशु द्विनधड़क हो गया। तारा उठी, अस्पताल से बाहर चली आयी। पगली की तरह गंगा की ओर चली। द्विनस्तब्ध रजनी थी। प)न शांत था। गंगा जैसे सो रही थी। तारा ने उसके अंक में द्विगरकर उसे चौंका दिदया। स्नेहमयी जननी के समान गंगा ने तारा को अपने )क्ष में ले सिलया।

हर�ार की बस्ती से कई कोस दूर गंगा-तट पर बैठे हुए एक महात्मा अरुण को अघ्य� दे रहे थे। सामने तारा का शरीर दिदखलाई पड़ा, अंजसिल देकर तुरन्त महात्मा ने जल मे उतरकर उसे पकड़ा। तारा जीद्वि)त थी। कुछ परिरश्रम के बाद जल पेट से द्विनकला। धीरे-धीरे उसे चेतना हुई। उसने आँख खोलकर देखा द्विक एक झोंपड़ी में पड़ी है। तारा की आँखों से भी पानी द्विनकलने लगा-)ह मरने जाकर भी न मर सकी। मनुष्य की कठोर करुणा को उसने मिधक्कार दिदया।

परन्तु महात्मा की शुश्रूर्षा से )ह कुछ ही दिदनों में स्)k हो गयी। अभाद्विगनी ने द्विनzय द्विकया द्विक गंगा का द्विकनारा न छोडँ़ूगी-जहाँ यह भी जाकर द्वि)लीन हो जाती है, उस समुद्र में झिजसका कूल-द्विकनारा नहीं, )हाँ चलकर डूबूँगी, देखँू कौन बचाता है। )ह गंगा के द्विकनारे चली। जंगली फल, गाँ)ों की क्षिभक्षा, नदी का जल और कन्दराए ँउसकी यात्रा में सहायक थे। )ह दिदन-दिदन आगे बढती जाती थी।

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जब हर�ार से श्रीचन्द्र द्विकशोरी को सिल)ा ले गये और छः महीने बाद एक पुत्र उत्पन्न हुआ, तब से द्विकशोरी के प्रद्वित उनकी घृणा बढ़ गयी। )े अपने भा), समाज में तो प्रकट न कर सके, पर मन में दरार पड़ गयी। बहुत सोचने पर श्रीचन्द्र ने यही स्थिkर द्विकया द्विक द्विकशोरी काशी जाकर अपनी जारज-संतान के साथ रहे और उसके खच� के सिलए )ह कुछ भेजा करें।

पुत्र पाकर द्विकशोरी पद्वित से )ंसिचत हुई, और )ह काशी के एक सुद्वि)स्तृत गृह में रहने लगी। अमृतसर में यह प्रसिसर्द्ध द्विकया गया द्विक यहाँ माँ-बेटों का स्)ास्थ्य ठीक नहीं रहता।

श्रीचन्द्र अपने कार-बार में लग गये, )ैभ) का परदा बहुत मोटा होता है।

द्विकशोरी के भी दिदन अच्छी तरह बीतने लगे। दे)द्विनरंजन भी कभी-कभी काशी आ जाते। और उन दिदनों द्विकशोरी की नयी सहेसिलयाँ भी इकट्ठी हो जातीं।

बाबा जी की काशी में बड़ी धूम थी। प्रायः द्विकशोरी के घर पर भण्डारा होता। बड़ी सुख्याद्वित फैल चली। द्विकशोरी की प्रद्वितष्ठा बढ़ी। )ह काशी की एक भद्र मद्विहला द्विगनी जाने लगी। ठाकुर जी की से)ा बडे़ ठाट से होती। धन की कमी न थी, द्विनरंजन और श्रीचन्द्र दोनों ही रुपये भेजते रहते।

द्विकशोरी के ठाकुर झिजस कमरे में रहते थ,े उसके आगे दालान था। संगमरमर की चौकी पर स्)ामी दे)द्विनरंजन बैठते। सिचकें लगा दी जातीं। भW मद्विहलाओं का भी समारोह होता। कीत�न, उपासना और गीत की धूम मच जाती। उस समय द्विनरंजन सचमुच भW बन जाता, उसका अ�ैत ज्ञान उसे द्विनस्सार प्रतीत होता, क्योंद्विक भसिW में भग)ान का अ)लम्बन रहता है। सांसारिरक सब आपदा-द्वि)पदाओं के सिलए कच्चे ज्ञानी को अपने ही ऊपर द्विनभ�र करने में बड़ा कष्ट होता है। इससिलए गृहkों के सुख में फँसे हुए द्विनरंजन को बाध्य होकर भW बनना पड़ा। आभूर्षणों से लदी हुई )ैभ)-मूर्तित\ के सामने उसका कामनापूण� हृदय झुक जाता। उसकी अपराध में लदी हुई आत्मा अपनी मुसिW के सिलए दूसरा उपाय न देखती। बडे़ ग)� से द्विनरंजन लोगों को गृहk बने रहने का उपदेश देता, उसकी )ाणी और भी प्रखर हो जाती। जब )ह गाह�स्थ्य जी)न का समथ�न करने लगता, )ह कहता द्विक 'भग)ान स)�भूत द्विहते रत हैं, संसार-यात्रा गाह�स्थ्य जी)न में ही भग)ान् की स)�भूतद्विहत कामना के अनुसार हो सकती है। दुखिखयों की सहायता करना, सुखी लोगों को देखकर प्रसन्न होना, सबकी मंगलकामना करना, यह साकार उपासना के प्र)ृक्षित्त-माग� के ही साध्य हैं।' इन काल्पद्विनक दाश�द्विनकताओं से उसे अपने सिलए बड़ी आशा थी। )ह धीरे-धीरे हृदय से द्वि)श्वास करने लगा द्विक साधु-जी)न असंगत है, ढोंग है। गृहk होकर लोगों का अभा)-मोचन करना भी भग)ान की कृपा के सिलये यथेष्ट है। प्रकट में तो नहीं, पर द्वि)जयचन्द्र पर पुत्र का-सा, द्विकशोरी पर स्त्री का-सा द्वि)चार रखने का उसे अभ्यास हो चला।

द्विकशोरी अपने पद्वित को भूल-सी गयी। जब रुपयों का बीमा आता, तब ऐसा भासता, मानो उसका कोई मुनीम अमृतसर का कार-बार देखता हो और उसे कोठी से लाभ का अंश भेजा करता हो। घर के काम-काज में )ह बड़ी चतुर थी। अमृतसर के आये हुए सब रुपये उसके बचते थे। उसमें बराबर kा)र सम्पक्षित्त खरीदी जाने लगी। द्विकशोरी को द्विकसी बात की कमी न रह गयी।

द्वि)जयचन्द्र स्कूल में बडे़ ठाट से पढ़ने जाता था। स्कूल के मिमत्रों की कमी न थी। )ह आये दिदन अपने मिमत्रों को द्विनमंत्रण देकर बुल)ाता था। स्कूल में उसकी बड़ी धाक थी।

द्वि)द्यालय के समाने शस्य-श्यामल समतल भूमिम पर छात्रों का झुंड इधर-उधर घूम रहा था। दस बजने में कुछ द्वि)लम्ब था। शीतकाल की धूप छोड़कर क्लास के कमरों में घुसने के सिलए अभी द्वि)द्याथ¶ प्रस्तुत न थे।

'द्वि)जय ही तो है।' एक ने कहा।

'घोड़ा उसके )श में नहीं है, अब द्विगरा ही चाहता है।' दूसरे ने कहा।

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प)न से द्वि)जय के बाल द्विबखर रहे थ,े उसका मुख भय से द्वि))ण� था। उसे अपने द्विगर जाने की द्विनक्षिzत आशंका थी। सहसा एक यु)क दौड़ता हुआ आगे बढ़ा, बड़ी तत्परता से घोडे़ की लगाम पकड़कर उसके नथुने पर सबल घूँसा मारा। दूसरे क्षण )ह उचंृ्छखल अश्व सीधा होकर खड़ा हो गया। द्वि)जय का हाथ पकड़कर उसने धीरे से उतार सिलया। अब तो और भी कई लड़के एकत्र हो गये। यु)क का हाथ पकडे़ हुए द्वि)जय उसके होस्टल की ओर चला। )ह एक सिसनेमा का-सा दृश्य था। यु)क की प्रशंसा में तासिलयाँ बजने लगीं।

द्वि)जय उस यु)क के कमरे में बैठा हुआ द्विबखरे हुए सामानों को देख रहा था। सहसा उसने पूछा, 'आप यहाँ द्विकतने दिदनों से हैं?'

'थोडे़ ही दिदन हुए हैं?'

'यह द्विकस सिलद्विप का लेख है?'

'मैंने पाली का अध्ययन द्विकया है।'

इतने में नौकर ने चाय की प्याली समाने रख दी। इस क्षक्षिणक घटना ने दोनों को द्वि)द्यालय की मिमत्रता के पाश्व� में बाँध दिदया; परन्तु द्वि)जय बड़ी उत्सुकता से यु)क के मुख की ओर देख रहा था, उसकी रहस्यपूण� उदासीन मुखकान्तिन्त द्वि)जय के अध्ययन की )स्तु बन रही थी।

'चोट तो नहीं लगी?' अब जाकर यु)क ने पूछा।

कृतज्ञ होते हुए द्वि)जय ने कहा, 'आपने ठीक समय पर सहायता की, नहीं तो आज अंग-भंग होना द्विनक्षिzत था।'

')ाह, इस साधारण आतंक में ही तुम अपने को नहीं सँभाल सकते थ,े अचे्छ स)ार हो!' यु)क हँसने लगा।

'द्विकस शुभनाम से आपका स्मरण करँूगा?'

'तुम द्वि)सिचत्र जी) हो, स्मरण करने की आ)श्यकता क्या, मैं तो प्रद्वितदिदन तुमसे मिमल सकता हूँ।' कहकर यु)क जोर से हँसने लगा।

द्वि)जय उसके स्)च्छन्द व्य)हार और स्)तन्त्र आचरण को चद्विकत होकर देख रहा था। उसके मन में इस यु)क के प्रद्वित अकारण श्रर्द्धा उत्पन्न हुई। उसकी मिमत्रता के सिलए )ह चंचल हो उठा। उसने पूछा, 'आपके यहाँ आने में कोई बाधा तो नहीं।'

यु)क ने कहा, 'मंगलदे) की कोठरी में आने के सिलए द्विकसी को भी रोक-टोक नहीं, द्विफर तुम तो आज से मेरे अक्षिभन्न हो गये हो!'

समय हो गया था। होस्टल से द्विनकलकर दोनों द्वि)द्यालय की ओर चले। क्षिभन्न-क्षिभन्न कक्षाओं से पढ़ते हुए दोनों का एक बार मिमल जाना अद्विन)ाय� होता। द्वि)द्यालय के मैदान में हरी-हरी धूप पर आमने-सामने लेटे हुए दोनों बड़ी देर तक प्रायः बातें द्विकया करते। मंगलदे) कुछ कहता था और द्वि)जय बड़ी उत्सुकता से सुनते हुए अपना आदश� संकलन करता।

कभी-कभी होस्टल से मंगलदे) द्वि)जय के घर पर आ जाता, )हाँ से घर का-सा सुख मिमलता। स्नेह-सरल स्नेह ने उन दोनों के जी)न में गाँठ दे दी।

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द्विकशोरी के यहाँ शरदपूर्णिण\मा का शंृगार था। ठाकुर जी चझिन्द्रका में रत्न-आभूर्षणों से सुशोक्षिभत होकर शंृगार-द्वि)ग्रह बने थे। चमेली के फूलों की बहार थी। चाँदनी में चमेली का सौरभ मिमल रहा था। द्विनरंजन रास की राका-रजनी का द्वि))रण सुना रहा था। गोद्विपयों ने द्विकस तरह उमंग से उन्मत्त होकर कासिलन्दी-कूल में कृष्णाचन्द्र के साथ रास-क्रीड़ा में आनन्द द्वि)ह्वल होकर शुल्क दासिसयों के समान आत्मसमपण� द्विकया था, उसका मादक द्वि))रण म्पिस्त्रयों के मन को बेसुध बना रहा था। मंगलगान होने लगा। द्विनरंजन रमक्षिणयों के कोद्विकल कंठ में अक्षिभभूत होकर तद्विकये के सहारे दिटक गया। रातभर गीत-)ाद्य का समारोह चला।

द्वि)जय ने एक बार आकर देखा, दश�न द्विकया, प्रसाद लेकर जाना चाहता था द्विक समाने बैठी हुई सुन्दरिरयों के झुण्ड पर सहसा दृमिष्ट पड़ गयी। )ह रुक गया। उसकी इच्छा हुई द्विक बैठ जाये; परन्तु माता के सामने बैठने का साहस न हुआ। जाकर अपने कमरे में लेटा रहा। अकस्मात् उसके मन में मंगलदे) का स्मरण हो गया। )ह रहस्यपूण� यु)क के चारों ओर उसके द्वि)चार सिलपट गये; परन्तु )ह मंगल के सम्बन्ध में कुछ द्विनक्षिzत नहीं कर सका, के)ल एक बात उसके मन में जग रही थी-मंगल की मिमत्रता उसे )ांसिछत है। )ह सो गया। स्कूल में पढ़ने )ाला द्वि)जय इस अपने उत्स)ों की प्रामाक्षिणकता की जाँच स्)प्न में करने लगा। मंगल से इसके सम्बन्ध में द्वि))ाद चलता रहा। )ह कहता द्विक-मन एकाग्र करने के सिलए द्विहन्दुओं के यहाँ यह एक अच्छी चाल है। द्वि)जय तीव्र से द्वि)रोध करता हुआ कह उठा-इसमें अनेक दोर्ष हैं, के)ल एक अचे्छ फल के सिलए बहुत से दोर्ष करते रहना अन्याय है। मंगल ने कहा-अच्छा द्विफर द्विकसी दिदन समझाऊँगा।

द्वि)जय की आँख खुली, स)ेरा हो गया था। उसके घर में हलचल मची हुई थी। उसने दासी से पूछा, 'क्या बात है?'

दासी ने कहा, 'आज का भण्डारा है।'

द्वि)जय द्वि)रW होकर अपनी द्विनत्यद्विक्रया में लगा। साबुन पर क्रोध द्विनकालने लगा, तौसिलये की दुद�शा हो गयी। कल का पानी बेकार द्विगर रहा था; परन्तु )ह आज नहाने की कोठरी से बाहर द्विनकलना ही नहीं चाहता था। तो भी समय पर स्कूल चला गया। द्विकशोरी ने कहा भी, 'आज न जा, साधुओं का भोजन है, उनकी से)ा...।'

बीच ही में बात काटकर द्वि)जय ने कहा, 'आज फुटबॉल है, मुझे शीघ्र जाना है।'

द्वि)जय बड़ी उते्तझिजत अ)kा में स्कूल चला गया।

मंगल के कमरे का जंगला खुला था। चमकीली धूप उसमें प्रकाश फैलाये थी। )ह अभी तक चद्दर लपेटे पड़ा था। नौकर ने कहा, 'बाबूजी, आज भी भोजन न कीझिजयेगा।'

द्विबना मुँह खोले मंगल ने कहा, 'नहीं।'

भीतर प्र)ेश करते हुए द्वि)जय ने पूछा, 'क्यों क्या। आज जी नहीं आज तीसरा दिदन है।'

नौकर ने कहा, 'देखिखये बाबूजी, तीन दिदन हो गये, कोई द)ा भी नहीं करते, न कुछ खाते ही हैं।'

द्वि)जय ने चद्दर के भीतर हाथ डालकर बदन टटोलते हुए कहा, 'ज्)र तो नहीं है।'

नौकर चला गया। मंगल ने मुँह खोला, उसका द्वि))ण� मुख अभा) और दुब�लता का क्रीड़ा-kल बना था। द्वि)जय उसे देखकर स्तब्ध रह गया। सहसा उसने मंगल का हाथ पकड़कर घबराते हुए स्)र में पूछा, 'क्या सचमुच कोई बीमारी है?'

मंगलदे) ने बडे़ कष्ट के साथ आँखों में आँसू रोककर कहा, 'द्विबना बीमारी के भी कोई यों ही पड़ा रहता है।'

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द्वि)जय को द्वि)श्वास न हुआ। उसने कहा, 'मेरे सिसर की सौगन्ध, कोई बीमारी नहीं है, तुम उठो, आज मैं तुम्हें द्विनमंत्रण देने आया हूँ, मेरे यहाँ चलना होगा।'

मंगल ने उसके गाल पर चपत लगाते हुए कहा, 'आज तो मैं तुम्हारे यहाँ ही पथ्य लेने )ाला था। यहाँ के लोग पथ्य बनाना नहीं जानते। तीन दिदन के बाद इनके हाथ का भोजन द्विबल्कुल असंगत है।'

मंगल उठ बैठा। द्वि)जय ने नौकर को पुकारा और कहा, 'बाबू के सिलए जल्दी चाय ले आओ।' नौकर चाय लेने गया।

द्वि)जय ने जल लाकर मुँह धुलाया। चाय पीकर, मंगल चारपाई छोड़कर खड़ा हो गया। तीन दिदन के उप)ास के बाद उसे चक्कर आ गया और )ह बैठ गया। द्वि)जय उसका द्विबस्तर लपेटने लगा। मंगल ने कहा, 'क्या करते हो द्वि)जय ने द्विबस्तर बाँधते हुए कहा, 'अभी कई दिदन तुम्हें लौटना न होगा; इससिलए सामान बाँधकर दिठकाने से रख दँू।'

मंगल चुप बैठा रहा। द्वि)जय ने एक कुचला हुआ सोने का टुकड़ा उठा सिलया और उसे मंगलदे) को दिदखाकर कहा, 'यह क्या द्विफर साथ ही सिलपटा हुआ एक भोजपत्र भी उसके हाथ लगा। दोनों को देखकर मंगल ने कहा, 'यह मेरा रक्षा क)च है, बाल्यकाल से उसे मैं पहनता था। आज इसे तोड़ देने की इच्छा हुई।'

द्वि)जय ने उसे जेब में रखते हुए कहा, 'अच्छा, मैं ताँगा ले आने जाता हूँ।'

थोड़ी ही देर में ताँगा लेकर द्वि)जय आ गया। मंगल उसके साथ ताँगे पर जा बैठा, दोनों मिमत्र हँसना चाहते थे। पर हँसने में उन्हें दुःख होता था।

द्वि)जय अपने बाहरी कमरे में मंगलदे) को द्विबठाकर घर में गया। सब लोग व्यस्त थ,े बाज ेबज रहे थे। साधु-ब्राह्मण खा-पीकर चले गये थे। द्वि)जय अपने हाथ से भोजन का सामान ले गया। दोनों मिमत्र बैठकर खाने-पीने लगे।

दासिसयाँ जूठी पत्तल बाहर फें क रही थीं। ऊपर की छत से पूरी और मिमठाइयों के टुकड़ों से लदी हुई पत्तलें उछाल दी थीं। नीचे कुछ अछूत डोम और डोमद्विनयाँ खड़ी थीं, झिजनके सिसर पर टोकरिरयाँ थीं, हाथ में डंडे थ-ेझिजनसे )े कुत्तों को हटाते थ ेऔर आपस में मार-पीट, गाली-गलौज करते हुए उस उस्थिच्छष्ट की लूट मचा रहे थ-े)े पुश्त-दर-पुश्त के भूखे!

मालद्विकन झरोखे से अपने पुण्य का यह उत्स) देख रही थी-एक राह की थकी हुई दुल�ब यु)ती भी। उसी भूख की, झिजससे )ह स्)यं अशW हो रही थी, यह )ीभत्स लीला थी! )ह सोच रही थी-क्या संसार भर में पेट की ज्)ाला मनुष्य और पशुओं को एक ही समान सताती है ये भी मनुष्य हैं और इसी धार्मिम\क भारत के मनुष्य जो कुत्तों के मुँह के टुकडे़ भी छीनकर खाना चाहते हैं। भीतर जो पुण्य के नाम पर, धम� के नाम पर गुरछर· उड़ रहे हैं, उसमें )ास्तद्वि)क भूखों का द्विकतना भाग है, यह पत्तलों के लूटने का दृश्य बतला रहा है। भग)ान्! तुम अन्तया�मी हो।

यु)ती द्विनब�लता से न चल सकती थी। )ह साहस करके उन पत्तल लूटने )ालों के बीच में से द्विनकल जाना चाहती थी। )ह दृश्य असह्य था, परन्तु एक डोमिमन ने समझा द्विक यह उसी का भाग छीनने आयी है। उसने गन्दी गासिलयाँ देते हुए उस पर आक्रमण करना चाहा, यु)ती पीछे हटी; परन्तु ठोकर लगते ही द्विगर पड़ी।

उधर द्वि)जय और मंगल में बातें हो रही थीं। द्वि)जय ने मंगल से कहा, 'यही तो इस पुण्य धम� का दृश्य है! क्यों मंगल! क्या और भी द्विकसी देश में इसी प्रकार का धम�-संचय होता है झिजन्हें आ)श्यकता नहीं, उनको द्विबठाकर आदर से भोजन कराया जाये, के)ल इस आशा से द्विक परलोक में )े पुण्य-संचय का प्रमाण-पत्र देंगे, साक्षी देंगे और इन्हें, झिजन्हें पेट ने सता रखा है, झिजनको भूख ने अधमरा बना दिदया है, झिजनकी आ)श्यकता नंगी होकर )ीभत्स नृत्य कर रही है-)े मनुष्य कुत्तों के साथ जूठी पत्तलों के सिलए लड़ें, यही तो तुम्हारे धम� का उदाहरण है!'

द्विकशोरी को उस पर ध्यान देते देखकर द्वि)जय अपने कमरे में चला गया। द्विकशोरी ने पूछा, 'कुछ खाओगी।'

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यु)ती ने कहा, 'हाँ, मैं भूखी अनाथ हूँ।'

द्विकशोरी को उसकी छलछलाई आँखें देखकर दया आ गयी। कहा, 'दुखी न हो, तुम यहीं रहा करो।'

'द्विफर मुँह सिछपाकर पड़ गए! उठो, मैं अपने बनाये हुए कुछ सिचत्र दिदखाऊँ।'

'बोलो मत द्वि)जय! कई दिदन के बाद भोजन करने पर आलस्य मालूम हो रहा है।'

'पडे़ रहने से तो और भी सुस्ती बढे़गी।'

'मैं कुछ घण्टों तक सोना चाहता हूँ।'

द्वि)जय चुप रह गया। मंगलदे) के व्य)हार पर उसे कुतूहल हो रहा था। )ह चाहता था द्विक बातों में उसके मन की अ)kा जान ले; परन्तु उसे अ)सर न मिमला। )ह भी चुपचाप सो रहा।

नींद खुली, तब लम्प जला दिदये गये थे। दूज का चन्द्रमा पीला होकर अभी द्विनस्तेज था, हल्की चाँदनी धीरे-धीरे फैलने लगी। प)न में कुछ शीतलता थी। द्वि)जय ने आँखें खोलकर देखा, मंगल अभी पड़ा था। उसने जगाया और हाथ-मुँह धोने के सिलए कहा।

दोनों मिमत्र आकर पाई-बाग में पारिरजात के नीचे पत्थर पर बैठ गये। द्वि)जय ने कहा, 'एक प्रश्न है।'

मंगल ने कहा, 'प्रत्येक प्रश्न के उत्तर भी हैं, कहो भी।'

'क्यों तुमने रक्षा-क)च तोड़ डाला क्या उस पर से द्वि)श्वास उठ गया

'नहीं द्वि)जय, मुझे उस सोने की आ)श्यकता थी।' मंगल ने बड़ी गम्भीरता से कहा,'क्यों?'

'इसके सिलए घण्टों का समय चाद्विहए, तब तुम समझ सकोगे। अपनी )ह रामकहानी पीछे सुनाऊँगा, इस समय के)ल इतना ही कहे देता हूँ द्विक मेरे पास एक भी पैसा न था, और तीन दिदन इसीसिलए मैंने भोजन भी नहीं द्विकया। तुमसे यह कहने में मुझे लज्जा नहीं।'

'यह तो बडे़ आzय� की बात है!'

'आzय� इसमें कौन-सा अभी तुमने देखा है द्विक इस देश की दरिरद्रता कैसी द्वि)कट है-कैसी नृशंस है! द्विकतने ही अनाहार से मरते हैं! द्विफर मेरे सिलए आzय� क्यों इससिलए द्विक मैं तुम्हारा मिमत्र हूँ?'

'मंगलदे)! दुहाई है, घण्टों नहीं मैं रात-भर सुनँूगा। तुम अपना रहस्यपूण� )ृत्तांत सुनाओ। चलो, कमरे में चलें। यहाँ ठंड लग रही है।'

'भीतर तो बैठे ही थ,े द्विफर यहाँ आने की क्या आ)श्यकता थी अच्छा चलो; परन्तु एक प्रद्वितज्ञा करनी होगी।'

')ह क्या?'

'मेरा सोना बेचकर कुछ दिदनों के सिलए मुझे द्विनक्षिzन्त बना दो।'

'अच्छा भीतर तो चलो।'

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कमरे में पहुँचकर दोनों मिमत्र पहुँचे ही थ ेद्विक दर)ाजे के पास से द्विकसी ने पूछा, 'द्वि)जय, एक दुखिखया स्त्री आयी है, मुझे आ)श्यकता भी है, तू कहे तो उसे रख लँू।'

'अच्छी बात है माँ! )ही ना जो बेहोश हो गयी थी!'

'हाँ )ही, द्विबल्कुल अनाथ है।'

'उसे अ)श्य रख लो।' एक शब्द हुआ, मालूम हुआ द्विक पूछने )ाली चली गयी थी, तब द्वि)जय ने मंगलदे) से कहा, 'अब कहो!'

मंगलदे) ने कहना प्रारम्भ द्विकया, 'मुझे एक अनाथालय से सहायता मिमलती थी, और मैं पढ़ता था। मेरे घर कोई है द्विक नहीं यह भी मुझे मालूम नही; पर जब मै से)ा समिमद्वित के काम से पढ़ाई छोड़कर हर�ार चला गया, तब मेरी )ृक्षित्त बंद हो गयी। मैं घर लौट आया। आय�समाज से भी मेरा कुछ सम्पक� था; परन्तु मैंने देखा द्विक )ह खण्डनात्मक है; समाज में के)ल इसी से काम नहीं चलता। मैंने भारतीय समाज का ऐद्वितहासिसक अध्ययन करना चाहा और इससिलए पाली, प्राकृत का पाठ्यक्रम स्थिkर द्विकया। भारतीय धम� और समाज का इद्वितहास तब तक अधूरा रहेगा, जब तक पाली और प्राकृत का उससे सम्बन्ध न हो; परन्तु मैं बहुत चेष्टा करके भी सहायता प्राप्त न कर सका, क्योंद्विक सुनता हूँ द्विक )ह अनाथालय भी टूट गया।'

द्वि)जय-'तुमने रहस्य की बात तो कही ही नहीं।'

मंगल-'द्वि)जय! रहस्य यही द्विक मै द्विनध�न हूँ; मैं अपनी सहायता नहीं कर सकता। मैं द्वि)श्वद्वि)द्यालय की द्विडग्री के सिलए नहीं पढ़ रहा हूँ। के)ल कुछ महीनों की आ)श्यकता है द्विक मैं अपनी पाली की पढ़ाई प्रोफेसर दे) से पूरी कर लँू। इससिलए मैं यह सोना बेचना चाहता हूँ।'

द्वि)जय ने उस यंत्र को देखा, सोना तो उसने एक ओर रख दिदया। परन्तु भोजपत्र के छोटे से बंडल को, जो उसके भीतर था, द्वि)जय ने मंगल का मुँह देखते-देखते कुतूहल से खोलना आरम्भ द्विकया। उसका कुछ अंश खुलने पर दिदखाई दिदया द्विक उसमें लाल रंग के अष्टगंध से कुछ स्पष्ट प्राचीन सिलद्विप है। द्वि)जय ने उसे खोलकर फें कते हुए कहा, 'लो यह द्विकसी दे)ी, दे)ता का पूरा स्तोत्र भरा पड़ा है।'

मंगल ने उसे आzय� से उठा सिलया। )ह सिलद्विप को पढ़ने की चेष्टा करने लगा। कुछ अक्षरों को )ह पढ़ भी सका; परन्तु )ह प्राकृत न थी, संस्कृत थी। मंगल ने उसे समेटकर जेब में रख सिलया। द्वि)जय ने पूछा, 'क्या है कुछ पढ़ सके?'

'कल इसे प्रोफेसर दे) से पढ़)ाऊँगा। यह तो कोई शासन-पत्र मालूम पड़ता है।'

'तो क्या इसे तुम नहीं पढ़ सकते?'

'मैंने तो अभी प्रारम्भ द्विकया है, कुछ पढ़ देते हैं।'

'अच्छा मंगल! एक बात कहूँ, तुम मानोगे मेरी भी पढ़ाई सुधर जाएगी।'

'क्या?'

'तुम मेरे साथ रहा करो, अपना सिचत्रों का रोग मैं छुड़ाना चाहता हूँ।'

'तुम स्)तंत्र नहीं हो द्वि)जय! क्षक्षिणक उमंग में आकर हमें )ह काम नहीं करना चाद्विहए, झिजससे जी)न के कुछ ही लगातार दिदनों के द्विपरोये जाने की संभा)ना हो, क्योंद्विक उमंग की उड़ान नीचे आया करती है।'

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'नहीं मंगल! मै माँ से पूछ लेता हूँ।' कहकर द्वि)जय तेजी से चला गया। मंगल हाँ-हाँ ही कहता रह गया। थोड़ी देर में ही हँसता हुआ लौट आया और बोला, 'माँ तो कहती हैं द्विक उसे यहाँ से न जाने दँूगी।'

)ह चुपचाप द्वि)जय के बनाये कलापूण� सिचत्रों को, जो उसके कमरे मे लगे थ,े देखने लगा। इसमें द्वि)जय की प्राथमिमक कृद्वितयाँ थीं। अपूण� मुखाकृद्वित, रंगों के छीटे से भरे हुए कागज तक चौखटों में लगे थे।

आज से द्विकशोरी की गृहkी में दो व्यसिW और बढे़।

(6)

आज बड़ा समारोह है। द्विनरंजन चाँदी के पात्र द्विनकालकर दे रहा है-आरती, फूल, चंगेर, धूपदान, नै)ेद्यपात्र और पंचपात्र इत्यादिद माँज-धोकर साफ द्विकये जा रहे हैं। द्विकशोरी मे)ा, फल, धूप, बत्ती और फूलों की रासिश एकत्र द्विकये उसमें सजा रही है। घर के सब दास-दासिसयाँ व्यस्त हैं। न)ागत यु)ती घूँघट द्विनकाले एक ओर खड़ी है।

द्विनरंजन ने द्विकशोरी से कहा, 'लिस\हासन के नीचे अभी धुला नहीं है, द्विकसी से कह दो द्विक )ह स्)च्छ कर दे।'

द्विकशोरी ने यु)ती की ओर देखकर कहा, 'जा उसे धो डाल!'

यु)ती भीतर पहुँच गयी। द्विनरंजन ने उसे देखा और द्विकशोरी से पूछा, 'यह कौन है?'

द्विकशोरी ने कहा, ')ही जो उस दिदन रखी गयी है।'

द्विनरंजन ने झिझड़ककर कहा, 'ठहर जा, बाहर चल।' द्विफर कुछ क्रोध से द्विकशोरी की ओर देखकर कहा, 'यह कौन है, कैसी है, दे)गृह में जाने योग्य है द्विक नहीं, समझ सिलया है या यों ही झिजसको हुआ कह दिदया।'

'क्यों, मैं उसे तो नहीं जानती।'

'यदिद अछूत हो, अंत्यज हो, अपद्वि)त्र हो?'

'तो क्या भग)ान् उसे पद्वि)त्र नहीं कर देंगे आप तो कहते हैं द्विक भग)ान् पद्वितत-पा)न हैं, द्विफर बडे़-बडे़ पाद्विपयों को जब उर्द्धार की आशा है, तब इसको क्यों )ंसिचत द्विकया जाये कहते-कहते द्विकशोरी ने रहस्य भरी मुस्कान चलायी।

द्विनरंजन कु्षब्ध हो गया, परन्तु उसने कहा, 'अच्छा शास्त्राथ� रहने दो। इसे कहो द्विक बाहर चली जाये।' द्विनरंजन की धम�-हठ उते्तझिजत हो उठी थी।

द्विकशोरी ने कुछ कहा नहीं, पर यु)ती दे)गृह के बाहर चली गई और एक कोने में बैठकर सिससकने लगी। सब अपने काय� में व्यस्त थे। दुखिखया के रोने की द्विकसे सिचन्ता थी! )ह भी जी हल्का करने के सिलए खुलकर रोने लगी। उसे जैसे ठेस लगी थी। उसका घूँघट हट गया था। आँखों से आँसू की धारा बह रही थी। द्वि)जय, जो दूर से यह घटना देख रहा था, इस यु)ती के पीछे-पीछे चला आया था-कुतूहल से इस धम� के कू्रर दम्भ को एक बार खुलकर देखने और तीखे द्वितरस्कार से अपने हृदय को भर लेने के सिलए; परन्तु देखा तो )ह दृश्य, जो उसके जी)न में न)ीन था-एक कष्ट से सताई हुई सुन्दरी का रुदन!

द्वि)जय के )े दिदन थ,े झिजसे लोग जी)न बसंत कहते हैं। जब अधूरी और अशुर्द्ध पद्वित्रकाओं के टूटे-फूटे शब्दों के सिलए हृदय में शब्दकोश प्रस्तुत रहता है। जो अपने साथ बाढ़ में बहुत-सी अच्छी )स्तु ले आता है और जो संसार को प्यारा देखने का चश्मा लगा देता है। शैश) से अभ्यस्त सौन्दय� को खिखलौना समझकर तोड़ना ही नहीं, )रन् उसमें हृदय

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देखने की चाट उत्पन्न करता है। झिजसे यौ)न कहते हैं-शीतकाल में छोटे दिदनों में घनी अमराई पर द्विबछलती हुई हरिरयाली से तर धूर के समान म्पिस्नग्ध यौ)न!

इसी समय मान)-जी)न में झिजज्ञासा जगती है। स्नेह, सं)ेदना, सहानुभूद्वित का ज्)ार आता है। द्वि)जय का द्वि)प्ल)ी हृदय चंचल हो गया। उसमें जाकर पूछा, 'यमुना, तुम्हें द्विकसी ने कुछ कहा है?'

यमुना द्विनःसंकोच भा) से बोली, 'मेरा अपराध था।'

'क्या अपराध था यमुना?'

'मैं दे)-मझिन्दर में चली गयी थी।'

'तब क्या हुआ?'

'बाबाजी द्विबगड़ गये।'

'रो मत, मैं उनसे पूछँूगा।'

'मैं उनके द्विबगड़ने पर नहीं रोती हूँ, रोती हूँ तो अपने भाग्य पर और द्विहन्दू समाज की अकारण द्विनषु्ठरता पर, जो भौद्वितक )स्तुओं में तो बंटा लगा ही चुका है, भग)ान पर भी स्)तंत्र भाग का साहस रखता है!'

क्षणभर के सिलए द्वि)जय द्वि)स्मय-द्वि)मुग्ध रहा, यह दासी-दीन-दुखिखया, इसके हृदय में इतने भा) उसकी सहानुभूद्वित उचंृ्छखल हो उठी, क्योंद्विक यह बात उसके मन की थी। द्वि)जय ने कहा, 'न रो यमुना! झिजसके भग)ान् सोने-चाँदी से मिघरे रहते हैं, उनको रख)ाली की आ)श्यकता होती है।'

यमुना की रोती आँखें हँस पड़ीं, उसने कृतज्ञता की दृमिष्ट से द्वि)जय को देखा। द्वि)जय भूलभुलैया में पड़ गया। उसने स्त्री की-एक यु)ती स्त्री की-सरल सहानुभूद्वित कभी पाई न थी। उसे भ्रम हो गया जैसे द्विबजली कौंध गयी हो। )ह द्विनरंजन की ओर चला, क्योंद्विक उसकी सब गम¶ द्विनकालने का यही अ)सर था।

द्विनरंजन अन्नकूट के सम्भार में लगा था। प्रधान याजक बनकर उत्स) का संचालन कर रहा था। द्वि)जय ने आते ही आक्रमण कर दिदया, 'बाबाजी आज क्या है?'

द्विनरंजन उते्तझिजत तो था ही, उसने कहा, 'तुम द्विहन्दू हो द्विक मुसलमान नहीं जानते, आज अन्नकूट है।'

'क्यों, क्या द्विहन्दू होना परम सौभाग्य की बात है? जब उस समाज का अमिधकांश पददसिलत और दुद�शाग्रस्त है, जब उसके अक्षिभमान और गौर) की )स्तु धरापृष्ठ पर नहीं बची-उसकी संस्कृद्वित द्वि)डम्बना, उसकी संkा सारहीन और राष्ट्र-बौर्द्धों के सदृश बन गया है, जब संसार की अन्य जाद्वितयाँ सा)�जद्विनक भ्रातृभा) और साम्य)ाद को लेकर खड़ी हैं, तब आपके इन खिखलौनों से भला उसकी सन्तुमिष्ट होगी?'

'इन खिखलौनों'-कहते-कहते इसका हाथ दे)द्वि)ग्रह की ओर उठ गया था। उसके आके्षपों का जो उत्तर द्विनरंजन देना चाहता था, )ह क्रोध के )ेग में भूल गया और सहसा उसने कह दिदया, 'नास्विस्तक! हट जा!'

द्वि)जय की कनपटी लाल हो गयी, बरौद्विनयाँ तन गयीं। )ह कुछ बोलना ही चाहता था द्विक मंगल ने सहसा आकर हाथ पकड़ सिलया और कहा, 'द्वि)जय!'

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द्वि)द्रोही )हाँ से हटते-हटते भी मंगल से यह कहे द्विबना नहीं रहा, धम� के सेनापद्वित द्वि)भीद्विर्षका उत्पन्न करके साधारण जनता से अपनी )ृक्षित्त कमाते हैं और उन्हीं को गासिलयाँ भी सुनाते हैं, गुरुडम द्विकतने दिदनों तक चलेगा, मंगल?'

मंगल द्वि))ाद को बचाने के सिलए उसे घसीटता ले चला और कहने लगा, 'चलो, हम तुम्हारा शास्त्राथ�-द्विनमंत्रण स्)ीकार करते हैं।' दोनों अपने कमरे की ओर चले गये।

द्विनरंजन पल भर में आकाश से पृथ्)ी पर आ गया। )ास्तद्वि)क )ाता)रण में क्षोभ और क्रोध, लज्जा और मानसिसक दुब�लता ने उसे चैतन्य कर दिदया। द्विनरंजन को उद्वि�ग्न होकर उठते देख द्विकशोरी, जो अब तक स्तब्ध हो रही थी, बोल उठी, 'लड़का है!'

द्विनरंजन ने )हाँ से जाते-जाते कहा, 'लड़का है तो तुम्हारा है, साधुओं को इसकी लिच\ता क्या?' उसे अब भी अपने त्याग पर द्वि)श्वास था।

द्विकशोरी द्विनरंजन को जानती थी, उसने उन्हें रोकने का प्रयत्न नहीं द्विकया। )ह रोने लगी।

मंगल ने द्वि)जय से कहा, 'तुमको गुरुजनों का अपमान नहीं करना चाद्विहए। मैंने बहुत स्)ाधीन द्वि)चारों को काम में ले आने की चेष्टा की है, उदार समाजों में घूमा-द्विफरा हूँ; पर समाज के शासन-प्रश्न पर और असुद्वि)धाओं में सब एक ही से दिदख पडे़। मैं समाज में बहुत दिदनों तक रहा, उससे स्)तंत्र होकर भी रहा; पर सभी जगह संकीण�ता है, शासन के सिलए; क्योंद्विक काम चलाना पड़ता है न! समाज में एक-से उन्नत और एक-सी मनो)ृक्षित्त )ाले मनुष्य नहीं, सबको संतुष्ट और धम�शील बनाने के सिलए धार्मिम\क समस्याए ँकुछ-न-कुछ उपाय द्विनकाला करती हैं।'

'पर द्विहन्दुओं के पास द्विनर्षेध के अद्वितरिरW और भी कुछ है? यह मत करो, )ह मत करो, पाप है। झिजसका फल यह हुआ द्विक द्विहन्दुओं को पाप को छोड़कर पुण्य कहीं दिदखलायी ही नहीं पड़ता।' द्वि)जय ने कहा।

'द्वि)जय! प्रत्येक संkाओं का कुछ उदे्दश्य है, उसे सफल करने के सिलए कुछ द्विनयम बनाये जाते हैं। द्विनयम प्रातः द्विनर्षेधात्मक होते हैं, क्योंद्विक मान) अपने को सब कुछ करने का अमिधकारी समझता है। कुल थोडे़-से सुकम� है और पाप अमिधक हैं; जो द्विनर्षेध के द्विबना नहीं रुक सकते। देखो, हम द्विकसी भी धार्मिम\क संkा से अपना सम्बन्ध जोड़ लें, तो हमें उसकी कुछ परम्पराओं का अनुकरण करना ही पडे़गा। मूर्तित\पूजा के द्वि)रोमिधयों ने भी अपने-अपने अद्विहन्दू सम्प्रदायों में धम�-भा)ना के केन्द्र स्)रूप कोई-न-कोई धम�-सिचह्न रख छोड़ा है। झिजन्हें )े चूमते हैं, सम्मान करते हैं और उसके सामने सिसर झुकाते हैं। द्विहन्दुओं ने भी अपनी भा)ना के अनुसार जन-साधारण के हृदय में भेदभा) करने का माग� चलाया है। उन्होंने मान) जी)न में क्रम-द्वि)कास का अध्ययन द्विकया है। )े यह नहीं मानते द्विक हाथ-पैर, मुँह-आँख और कान समान होने से हृदय भी एक-सा होगा। और द्वि)जय! धम� तो हृदय से आचरिरत होता है न, इससिलए अमिधकार भेद है।'

'तो द्विफर उसमें उच्च द्वि)चार )ाले लोगों को kान नहीं, क्योंद्विक समता और द्वि)र्षमता का �न्� उसके मूल में )त�मान है।'

'उनसे तो अच्छा है, जो बाहर से साम्य की घोर्षणा करके भी भीतर से घोर द्वि)क्षिभन्न मत के हैं और )ह भी स्)ाथ� के कारण! द्विहन्दू समाज तुमको मूर्तित\-पूजा करने के सिलए बाध्य नहीं करता, द्विफर तुमको वं्यग्य करने का कोई अमिधकार नहीं। तुम अपने को उपयुW समझते हो, तो उससे उच्चतर उपासना-प्रणाली में सम्पिम्मसिलत हो जाओ। देखो, आज तुमने घर में अपने इस काण्ड के �ारा भयानक हलचल मचा दी है। सारा उत्स) द्विबगड़ गया है।'

अब द्विकशोरी भीतर चली गयी, जो बाहर खड़ी हुई दोनों की बातें सुन रही थी। )ह बोली, 'मंगल ने ठीक कहा है। द्वि)जय, तुमने अच्छा काम नहीं द्विकया। सब लोगों का उत्साह ठण्डा पड़ गया। पूजा का आयोजन अस्त-व्यस्त हो गया।' द्विकशोरी की आँखें भर आयी थीं, उसे बड़ा क्षोभ था; पर दुलार के कारण द्वि)जय को )ह कुछ कहना नहीं चाहती थी।

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मंगल ने कहा, 'माँ! द्वि)जय को साथ लेकर हम इस उत्स) को सफल बनाने का प्रयत्न करेंगे, आप अपने को दुःखी न कीझिजये।'

द्विकशोरी प्रसन्न हो गयी। उसने कहा, 'तुम तो अचे्छ लड़के हो। देख तो द्वि)जय! मंगल की-सी बुझिर्द्ध सीख!'

द्वि)जय हँस पड़ा। दोनों दे) मझिन्दर की ओर चले।

नीचे गाड़ी की हरहराहट हुई, मालूम हुआ द्विनरंजन स्टेशन चला गया।

उत्स) में द्वि)जय ने बडे़ उत्साह से भाग सिलया; पर यमुना सामने न आयी, तो द्वि)जय के सम्पूण� उत्साह के भीतर यह ग)� हँस रहा था द्विक मैंने यमुना का अच्छा बदला द्विनरंजन से सिलया।

द्विकशोरी की गृहkी नये उत्साह से चलने लगी। यमुना के द्विबना )ह पल भर भी नहीं रह सकती। झिजसको जो कुछ माँगना होता, यमुना से कहता। घर का सब प्रबन्ध यमुना के हाथ में था। यमुना प्रबन्धकारिरणी और आत्मीय दासी भी थी।

द्वि)जयचन्द्र के कमरे का झाड़-पोंछ और रखना-उठाना सब यमुना स्)यं करती थी। कोई दिदन ऐसा न बीतता द्विक द्वि)जय को उसकी नयी सुरुसिच का परिरचय अपने कमरे में न मिमलता। द्वि)जय के पान खाने का व्यसन बढ़ चला था। उसका कारण था यमुना के लगाये स्)ादिदष्ट पान। )ह उप)न से चुनकर फूलों की माला बना लेती। गुचे्छ सजाकर फूलदान में लगा देती। द्वि)जय की आँखों में उसका छोटे-से-छोटा काम भी कुतूहल मिमक्षिश्रत प्रसन्नता उत्पन्न करता; पर एक बात से अपने को सदै) बचाती रही-उसने अपना सामना मंगल से न होने दिदया। जब कभी परसना होता-द्विकशोरी अपने सामने द्वि)जय और मंगल, दोनों को खिखलाने लगती। यमुना अपना बदन समेटकर और लम्बा घूँघट काढे़ हुए परस जाती। मंगल ने कभी उधर देखने की चेष्टा भी न की, क्योंद्विक )ह भद्र कुटुम्ब के द्विनयमों को भली-भाँद्वित जानता था। इसके द्वि)रुर्द्ध द्वि)जयचन्द्र ऊपर से न कहकर, सदै) चाहता द्विक यमुना से मंगल परिरसिचत हो जाये और उसकी यमुना की प्रद्वितदिदन की कुशलता की प्रकट प्रशंसा करने का अ)सर मिमले।

द्वि)जय को इन दोनों रहस्यपूण� व्यसिWयों के अध्ययन का कुतूहल होता। एक ओर सरल, प्रसन्न, अपनी व्य)kा से संतुष्ट मंगल, दूसरी ओर सबको प्रसन्न करने की चेष्टा करने )ाली यमुना का रहस्यपूण� हँसी। द्वि)जय द्वि)स्विस्मत था। उसके यु)क-हृदय को दो साथी मिमले थ-ेएक घर के भीतर, दूसरा बाहर। दोनों ही संयत भा) के और फँूक-फँूककर पैर रखने )ाले! इन दोनों से मिमल जाने की चेष्टा करता।

एक दिदन मंगल और द्वि)जय बैठे हुए भारतीय इद्वितहास का अध्ययन कर रहे थे। कोस� तैयार करना था। द्वि)जय ने कहा, 'भाई मंगल! भारत के इद्वितहास में यह गुप्त-)ंश भी बड़ा प्रभा)शाली था; पर उसके मूल पुरुर्ष का पता नही चलता।'

'गुप्त-)ंश भारत के द्विहन्दू इद्वितहास का एक उज्ज्)ल पृष्ठ है। सचमुच इसके साथ बड़ी-बड़ी गौर)-गाथाओं का सम्बन्ध है।' बड़ी गंभीरता से मंगल ने कहा।

'परन्तु इसके अभ्युदय में सिलस्थिच्छद्वि)यों के नाश का बहुत कुछ अंश है, क्या सिलस्थिच्छद्वि)यों के साथ इन लोगों ने द्वि)श्वासघात नहीं द्विकया?' द्वि)जय ने पूछा।

'हाँ, )ैसा ही उनका अन्त भी तो हुआ। देखो, थानेसर के एक कोने से एक साधारण सामन्त-)ंश गुप्त सम्राटों से सम्बन्ध जोड़ लेने में कैसा सफल हुआ। और क्या इद्वितहास इसका साक्षी नहीं है द्विक मगध के गुप्त सम्राटों को बड़ी सरलता से उनके मान)ीय पद से हटाकर ही हर्ष�)ध�न उत्तरा-पथेश्वर बन गया था। यह तो ऐसे ही चला करता है।' मंगल ने कहा।

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'तो ये उनसे बढ़कर प्रतारक थ;े )ह )ध�न-)ंश भी-' द्वि)जय और कुछ कहना चाहता ही था द्विक मंगल ने रोककर कहा, 'ठहरो द्वि)जय! )ध�नों के प्रद्वित ऐसे शब्द कहना कहाँ तक संगत है तुमको मालूम है द्विक ये अपना पाप सिछपाना भी नहीं चाहते। देखो, यह )ही यंत्र है, झिजसे तुमने फें क दिदया था। जो कुछ इसका अथ� प्रोफेसर दे) ने द्विकया है, उसे देखो तो-' कहते-कहते मंगल ने जेब से द्विनकालकर अपना यंत्र और उसके साथ एक कागज फें क दिदया। द्वि)जय ने यंत्र तो न उठाया, कागज उठाकर पढ़ने लगा-'शकमण्डले)र महाराजपुत्र राज्य)ध�न इस लेख के �ारा यह स्)ीकार करते हैं द्विक चन्द्रलेखा का हमारा द्वि))ाह-सम्बन्ध न होते हुए भी यह परिरणीता )धु के समान पद्वि)त्र और हमारे स्नेह की सुन्दर कहानी है, इससिलए इसके )ंशधर साम्राज्य में )ही सम्मान पा)ेंगे, जो मेरे )ंशधरों को साधारणतः मिमलता है।'

द्वि)जय के हाथ से पत्र द्विगर पड़ा। द्वि)स्मय से उसकी आँखें बड़ी हो गयीं। )ह मंगल की ओर एक टक द्विनहारने लगा। मंगल ने कहा, 'क्या है द्वि)जय?'

'पूछते हो क्या है! आज एक बड़ा भारी आद्वि)ष्कार हुआ है, तुम अभी तक नहीं समझ सके। आzय� है! क्या इससे यह द्विनष्कर्ष� नहीं द्विनकल सकता द्विक तुम्हारी नसों में )ही रW है, जो हर्ष�)ध�न की धमद्विनयों में प्र)ाद्विहत था?'

'यह अच्छी दूर की सूझी! कहीं मेरे पू)�-पुरुर्षों को यह मंगल-सूचक यंत्र में समझाकर द्विबना जाने-समझे तो नहीं दे दिदया गया था इसमें...'

'ठहरो, यदिद मैं इस प्रकार समझँू, तो क्या बुरा द्विक यह चन्द्रलेखा के )ंशधरों के पास )ंशानुक्रम से चला आया हो और पीछे यह शुभ समझकर उस कुल के बच्चों को ब्याह होने तक पहनाया जाता रहा हो। तुम्हारे यहाँ उसका व्य)हार भी तो इसी प्रकार रहा है।'

मंगल के सिसर में द्वि)लक्षण भा)नाओं की गम¶ से पसीना चमकने लगा। द्विफर उसने हँसकर कहा, ')ाह द्वि)जय! तुम भी बडे़ भारी परिरहास रसिसक हो!' क्षण भर में भारी गंभीरता चली गयी, दोनों हँसने लगे।

(7)

रजनी के बालों में द्विबखरे हुए मोती बटोरने के सिलए प्राची के प्रांगण में उर्षा आयी और इधर यमुना उप)न में फूल चुनने के सिलए पहुँची। प्रभात की फीकी चाँदनी में बचे हुए एक-दो नक्षत्र अपने को दक्षिक्षण-प)न के झोंकों में द्वि)लीन कर देना चाहते हैं। कुन्द के फूल थले के श्यामल अंचल पर कसीदा बनाने लगे थे। गंगा के मुW )क्षkल पर घूमती हुई, मझिन्दरों के खुलने की, घण्टों की प्रद्वितध्)द्विन, प्रभात की शान्त द्विनस्तब्धता में एक संगीत की झनकार उत्पन्न कर रही थी। अन्धकार और आलोक की सीमा बनी हुई यु)ती के रूप को अस्त होने )ाला पीला चन्द्रमा और लाली फें कने )ाली उर्षा, अभी स्पष्ट दिदखला सकी थी द्विक )ह अपनी डाली फूलों से भर चुकी और उस कड़ी सद» में भी यमुना मालती-कंुज की पत्थर की चौकी पर बैठी हुई, देर से आते हुए शहनाई के मधुर-स्)र में अपनी हृदयतंत्री मिमला रही थी।

संसार एक अँगड़ाई लेकर आँख खोल रहा था। उसके जागरण में मुस्कान थी। नीड़ में से द्विनकलते हुए पक्षिक्षयों के कलर) को )ह आzय� से सुन रही थी। )ह समझ न सकती थी द्विक उन्हें उल्लास है! संसार में प्र)ृत्त होने की इतनी प्रसन्नता क्यों दो-दो दाने बीनकर ले आने और जी)न को लम्बा करने के सिलए इतनी उत्कंठा! इतना उत्साह! जी)न इतने सुख की )स्तु है

टप...टप...टप...टप...! यमुना चद्विकत होकर खड़ी हो गयी। खिखल-खिखलाकर हँसने का शब्द हुआ। यमुना ने देखा-द्वि)जय खड़ा है! उसने कहा, 'यमुना, तुमने तो समझा होगा द्विक द्विबना बादलों की बरसात कैसी ?'

'आप ही थ-ेमालती-लता से ओस की बँूदें द्विगराकर बरसात का अक्षिभनय करने )ाले! यह जानकर मैं तो चौंक उठी थी।'

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'हाँ यमुना! आज तो हम लोगों का रामनगर चलने का द्विनzय है। तुमने तो सामान आदिद बाँध सिलये होंगे-चलोगी न?'

'बहूजी की जैसी आज्ञा होगी।'

इस बेबसी के उत्तर पर द्वि)जय के मन मे बड़ी सहानुभूद्वित उत्पन्न हुई। उसने कहा, 'नहीं यमुना, तुम्हारे द्विबना तो मेरा, कहते-कहते रुककर कहा, 'प्रबन्ध ही न हो सकेगा-जलपान, पान स्नान सब अपूण� रहेगा।'

'तो मैं चलँूगी।' कहकर यमुना कंुज से बाहर आयी। )ह भीतर जाने लगी। द्वि)जय ने कहा, 'बजरा कब का ही घाट आ गया होगा, हम लोग चलते हैं। माँ को सिल)ाकर तुरन्त आओ।'

भागीरथी के द्विनम�ल जल पर प्रभात का शीतल प)न बालकों के समान खेल रहा था-छोटी छोटी लहरिरयों के घरौंदे बनते-द्विबगडते थे। उस पार के )ृक्षों की श्रेणी के ऊपर एक भारी चमकीला और पीला द्विबम्ब था। रेत में उसकी पीली छाया और जल में सुनहला रंग, उड़ते हुए पक्षिक्षयों के झुण्ड से आक्रान्त हो जाता था। यमुना बजरे की खिखड़की में से एकटक इस दृश्य को देख रही थी और छत पर से मंगलदे) उसकी लम्बी उँगसिलयों से धारा का कटना देख रहा था। डाँडों का छप-छप शब्द बजरे की गद्वित में ताल दे रहा था। थोड़ी ही देर में द्वि)जय माझी को हटाकर पत)ार थामकर जा बैठा। यमुना सामने बैठी हुई डाली में फूल सँ)ारने लगी, द्वि)जय औरों की आँख बचाकर उसे देख सिलया करता।

बजरा धारा पर बह रहा था। प्रकृद्वित-सिचतेरी संसार का नया सिचह्न बनाने के सिलए गंगा के ईर्षत् नील जल में सफेदा मिमला रही थी। धूप कड़ी हो चली थी। मंगल ने कहा, 'भाई द्वि)जय! इस ना) की सैर से अच्छा होगा द्विक मुझे उस पार की रेत में उतार दो। )हाँ दो-चार )ृक्ष दिदखायी दे रहे हैं, उन्हीं की छाया में सिसर ठण्डा कर लँूगा।'

'हम लोगों को तो अभी स्नान करना है, चलो )हीं ना) लगाकर हम लोग भी द्विनपट लें।'

माझिझयों ने उधर की ओर ना) खेना आरम्भ द्विकया। ना) रेत से दिटक गयी। बरसात उतरने पर यह �ीप बन गया था। अच्छा एकान्त था। जल भी )हाँ स्)च्छ था। द्विकशोरी ने कहा, 'यमुना, चलो हम लोग भी नहा लें।'

'आप लोग आ जायें, तब मैं जाऊँगी।' यमुना ने कहा। द्विकशोरी उसकी सचेष्टता पर प्रसन्न हो गयी। )ह अपनी दो सहेसिलयों के साथ बजरे में उतर गयी।

मंगलदे) पहले ही कूद पड़ा था। द्वि)जय भी कुछ इधर-उधर करके उतरा। �ीप के द्वि)स्तृत द्विकनारों पर )े लोग फैल गये। द्विकशोरी और उनकी सहेसिलयाँ स्नान करके लौट आयीं, अब यमुना अपनी धोती लेकर बजरे में उतरी और बालू की एक ऊँची टोकरी के कोने में चली गयी। यह कोना एकान्त था। यमुना गंगा के जल में पैर डालकर कुछ देर तक चुपचाप बैठी हुई, द्वि)स्तृत जलधारा के ऊपर सूय� की उज्ज्)ल द्विकरणों का प्रद्वितद्विबम्ब देखने लगी। जैसे रात के तारों की फूल-अंजली जाह्न)ी के शीतल )ृक्ष कर द्विकसी ने द्विबखेर दी हो।

पीछे द्विनज�न बालू का �ीप और सामने दूर पर नगर की सौध-श्रेणी, यमुना की आँखों में द्विनzेष्ट कुतूहल का कारण बन गयी। कुछ देर में यमुना ने स्नान द्विकया। ज्यों ही )ह सूखी धोती पहनकर सूखे बालों को समेट रही थी, मंगलदे) सामने आकर खड़ा हो गया। समान भा) से दोनों पर आकस्विस्मक आने )ाली द्वि)पद को देखकर परस्पर शत्रुओं के समान मंगलदे) और यमुना एक क्षण के सिलए स्तब्ध थे।

'तारा! तुम्हीं हो!' बडे़ साहस से मंगल ने कहा।

यु)ती की आँखों में द्विबजली दौड़ गयी। )ह तीखी दृमिष्ट से मंगलदे) को देखती हुई बोली, 'क्या मुझे अपनी द्वि)पक्षित्त के दिदन भी द्विकसी तरह न काटने दोगे। तारा मर गयी, मैं उसकी पे्रतात्मा यमुना हूँ।'

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मंगलदे) ने आँखें नीचे कर लीं। यमुना अपनी गीली धोती लेकर चलने को उद्यत हुई। मंगल ने हाथ जोड़कर कहा, 'तारा मुझे क्षमा करो।'

उसने दृढ़ स्)र में कहा, 'हम दोनों का इसी में कल्याण है द्विक एक-दूसरे को न पहचानें और न ही एक-दूसरे की राह में अड़ें। तुम द्वि)द्यालय के छात्र हो और मैं दासी यमुना-दोनों को द्विकसी दूसरे का अ)लम्ब है। पापी प्राण की रक्षा के सिलए मैं प्राथ�ना करती हूँ द्विक, क्योंद्विक इसे देकर मैं न दे सकी।'

'तुम्हारी यही इच्छा है तो यही सही।' कहकर ज्यों ही मंगलदे) ने मुँह द्विफराया, द्वि)जय ने टेकरी की आड़ से द्विनकलकर पुकारा, 'मंगल! क्या अभी जलपान न करोगे?'

यमुना और मंगल ने देखा द्विक द्वि)जय की आँखें क्षण-भर में लाल हो गयीं; परन्तु तीनों चुपचाप बजरे की ओर लौटे। द्विकशोरी ने खिखड़की से झाँककर कहा, 'आओ जलपान कर लो, बड़ा द्वि)लम्ब हुआ।'

द्वि)जय कुछ न बोला, जाकर चुपचाप बैठ गया। यमुना ने जलपान लाकर दोनों को दिदया। मंगल और द्वि)जय लड़कों के समान चुपचाप मन लगाकर खाने लगे। आज यमुना का घूँघट कम था। द्विकशोरी ने देखा, कुछ बेढब बात है। उसने कहा, 'आज न चलकर द्विकसी दूसरे दिदन रामनगर चला जाय, तो क्या हाद्विन है दिदन बहुत बीत चुका, चलते-चलते संध्या हो जाएगी। द्वि)जय, कहो तो घर ही लौट चला जाए?'

द्वि)जय ने सिसर द्विहलाकर अपनी स्)ीकृद्वित दी।

माझिझयों ने उसी ओर खेना आरम्भ कर दिदया।

दो दिदन तक मंगलदे) और द्वि)जयचन्द से भेंट ही न हुई। मंगल चुपचाप अपनी द्विकताब में लगा रहता है और समय पर स्कूल चला जाता। तीसरे दिदन अकस्मात् यमुना पहले-पहल मंगल के कमरे में आयी। मंगल सिसर झुकाकर पढ़ रहा था, उसने देखा नहीं, यमुना ने कहा, 'द्वि)जय बाबू ने तद्विकये से सिसर नहीं उठाया, ज्)र बड़ा भयानक होता जा रहा है। द्विकसी अचे्छ डॉक्टर को क्यों नहीं सिल)ा लाते।'

मंगल ने आzय� से सिसर उठाकर द्विफर देखा-यमुना! )ह चुप रह गया। द्विफर सहसा अपना कोट लेते हुए उसने कहा, 'मैं डॉक्टर दीनानाथ के यहाँ जाता हूँ।' और )ह कोठरी से बाहर द्विनकल गया।

द्वि)जयचन्द्र पलंग पर पड़ा कर)ट बदल रहा था। बड़ी बेचैनी थी। द्विकशोरी पास ही बैठी थी। यमुना सिसर सहला रही थी। द्वि)जय कभी-कभी उसका हाथ पकड़कर माथे से सिचपटा लेता था।

मंगल डॉक्टर को सिलये हुए भीतर चला आया। डॉक्टर ने देर तक रोगी की परीक्षा की। द्विफर सिसर उठाकर एक बार मंगल की ओर देखा और पूछा, 'रोगी को आकस्विस्मक घटना से दुःख तो नहीं हुआ है?'

मंगल ने कहा, 'ऐसा तो यों कोई कारण नहीं है। हाँ, इसके दो दिदन पहले हम लोगों ने गंगा में पहरों स्नान द्विकया और तैरे थे।'

डॉक्टर ने कहा, 'कुछ लिच\ता नहीं। थोड़ा यूडीक्लोन सिसर पर रखना चाद्विहए, बेचैनी हट जायेगी और द)ा सिलखे देता हूँ। चार-पाँच दिदन में ज्)र उतरेगा। मुझे टेम्परेचर का समाचार दोनों समय मिमलना चाद्विहए।'

द्विकशोरी ने कहा, 'आप स्)यं दो बार दिदन में देख सिलया कीझिजये तो अच्छा हो!'

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डॉक्टर बहुत ही स्पष्ट)ादी और सिचड़सिचडे़ स्)भा) का था और नगर में अपने काम में एक ही था। उसने कहा, 'मुझे दोनों समय देखने का अ)काश नहीं, और आ)श्यकता भी नहीं। यदिद आप लोगों से स्)यं इतना भी नहीं हो सकता, तो डॉक्टर की द)ा करनी व्यथ� है।'

'जैसा आप कहेंगे )ैसा ही होगा। आपको समय पर ठीक समाचार मिमलेगा। डॉक्टर साहब दया कीझिजये।' यमुना ने कहा।

डॉक्टर ने रुमाल द्विनकालकर सिसर पोंछा और मंगल के दिदये हुए कागज पर और्षमिध सिलखी। मंगल ने द्विकशोरी से रुपया सिलया और डॉक्टर के साथ ही )ह और्षमिध लेने चला गया।

मंगल और यमुना की अद्वि)राम से)ा से आठ)ें दिदन द्वि)जय उठ बैठा। द्विकशोरी बहुत प्रसन्न हुई। द्विनरंजन भी तार �ारा समाचार पाकर चले आये थे। ठाकुर जी की से)ा-पूजा की धूम एक बार द्विफर मच गयी।

द्वि)जय अभी दुब�ल था। पन्द्रह दिदनों में ही )ह छः महीने का रोगी जान पड़ता था। यमुना आजकल दिदन-रात अपने अन्नदाता द्वि)जय के स्)ास्थ्य की रख)ाली करती थी, और जब द्विनरंजन के ठाकुर जी की ओर जाने का उसे अ)सर ही न मिमलता था।

झिजस दिदन द्वि)जय बाहर आया, )ह सीधे मंगल के कमरे में गया। उसके मुख पर संकोच और आँखों में क्षमा थी। द्वि)जय के कुछ कहने के पहले ही मंगल ने उखडे़ हुए शब्दों में कहा, 'द्वि)जय, मेरी परीक्षा भी समाप्त हो गयी और नौकरी का प्रबन्ध भी हो गया। मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। आज ही जाऊँगा, आज्ञा दो।'

'नहीं मंगल! यह तो नहीं हो सकता।' कहते-कहते द्वि)जय की आँखें भर आयीं।

'द्वि)जय! जब मैं पेट की ज्)ाला से दग्ध हो रहा था, जब एक दाने का कहीं दिठकाना नहीं था, उस समय मुझे तुमने अ)लम्ब दिदया; परन्तु मैं उस योग्य न था। मैं तुम्हारा द्वि)श्वासपात्र न रह सका, इससिलए मुझे छुट्टी दो।'

'अच्छी बात है, तुम पराधीन नहीं हो। पर माँ ने दे)ी के दश�न की मनौती की है, इससिलए हम लोग )हाँ तक तो साथ ही चलें। द्विफर जैसी तुम्हारी इच्छा।'

मंगल चुप रहा।

द्विकशोरी ने मनौती की सामग्री जुटानी आरम्भ की। सिशसिशर बीत रहा था। यह द्विनzय हुआ द्विक न)रात्र में चला जाये। मंगल को तब तक चुपचाप रहना दुःसह हो उठा। उसके शान्त मन में बार-बार यमुना की से)ा और द्वि)जय की बीमारी-ये दोनों बातें लड़कर हलचल मचा देती थीं। )ह न जाने कैसी कल्पना से उन्मत्त हो उठता। निह\सक मनो)ृक्षित्त जाग जाती। उसे दमन करने में )ह असमथ� था। दूसरे ही दिदन द्विबना द्विकसी से कहे-सुने मंगल चला गया।

द्वि)जय को खेद हुआ, पर दुःख नहीं। )ह बड़ी दुद्वि)धा में पड़ा था। मंगल जैसे उसकी प्रगद्वित में बाधा स्)रूप हो गया था। स्कूल के लड़कों को जैसी लम्बी छुट्टी की प्रसन्नता मिमलती है, ठीक उसी तरह द्वि)जय के हृदय में प्रफुल्लता भरने लगी। बडे़ उत्साह से )ह भी अपनी तैयारी में लगा। फेसक्रीम, पोमेड, टूथ पाउडर, ब्रश आकर उसके बैग में जुटने लगे। तौसिलयों और सुगन्धों की भरमार से बैग ठसाठस भर गया।

द्विकशोरी भी अपने सामान में लगी थी। यमुना कभी उसके कभी द्वि)जय के साधनों में सहायता करती। )ह घुटनों के बल बैठकर द्वि)जय की सामग्री बडे़ मनोयोग से हैंडबेग में सजा रही थी। द्वि)जय कहता, 'नहीं यमुना! तौसिलया तो इस बैग में अ)श्य रहनी चाद्विहए।' यमुना कहती, 'इतनी सामग्री इस छोटे पात्र में समा नहीं सकती। )ह ट्रक में रख दी जायेगी।'

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द्वि)जय ने कहा, 'मैं अपने अत्यंत आ)श्यक पदाथ� अपने समीप रखना चाहता हूँ।'

'आप अपनी आ)श्यकताओं का ठीक अनुमान नहीं कर सकते। संभ)तः आपका सिचट्ठा बड़ा हुआ रहता है।'

'नहीं यमुना! )ह मेरी द्विनतान्त आ)श्यकता है।'

'अच्छा तो सब )स्तु आप मुझसे माँग लीझिजयेगा। देखिखये, जब कुछ भी घटे।'

द्वि)जय ने द्वि)चारकर देखा द्विक यमुना भी तो मेरी सबसे बढ़कर आ)श्यकता की )स्तु है। )ह हताश होकर सामान से हट गया। यमुना और द्विकशोरी ने ही मिमलकर सब सामान ठीक कर सिलए।

द्विनक्षिzत दिदन आ गया। रेल का प्रबन्ध पहले ही ठीक कर सिलया गया था। द्विकशोरी की कुछ सहेसिलयाँ भी जुट गयी थीं। द्विनरंजन थ ेप्रधान सेनापद्वित। )ह छोटी-सी सेना पहाड़ पर चढ़ाई करने चली।

चैत का सुन्दर एक प्रभात था। दिदन आलस से भरा, अ)साद से पूण�, द्विफर भी मनोरंजकता थी। प्र)ृक्षित्त थी। पलाश के )ृक्ष लाल हो रहे थे। नयी-नयी पक्षित्तयों के आने पर भी जंगली )ृक्षों में घनापन न था। प)न बौखलाया हुआ सबसे धक्कम-धुक्की कर रहा था। पहाड़ी के नीचे एक झील-सी थी, जो बरसात में भर जाती है। आजकल खेती हो रही थी। पत्थरों के ढोकों से उनकी समानी बनी हुई थी, )हीं एक नाले का भी अन्त होता था। यमुना एक ढोके पर बैठ गयी। पास ही हैंडबैग धरा था। )ह द्विपछड़ी हुई औरतों के आने की बाट जोह रही थी और द्वि)जय शैलपथ से ऊपर सबके आगे चढ़ रहा था।

द्विकशोरी और उसकी सहेसिलयाँ भी आ गयीं। एक सुन्दर झुरमुट था, झिजसमें सौन्दय� और सुरुसिच का समन्)य था। शहनाई के द्विबना द्विकशोरी का कोई उत्साह पूरा न होता था, बाजे-गाजे से पूजा करने की मनौती थी। )े बाज े)ाले भी ऊपर पहुँच चुके थे। अब प्रधान आक्रमणकारिरयों का दल पहाड़ी पर चढ़ने लगा। थोड़ी ही देर में पहाड़ी पर संध्या के रंग-द्विबरंगे बादलों का दृश्य दिदखायी देने लगा। दे)ी का छोटा-सा मझिन्दर है, )हीं सब एकत्र हुए। कपूरी, बादामी, द्विफरोजी, धानी, गुलेनार रंग के घूँघट उलट दिदये गये। यहाँ परदे के आ)श्यकता न थी। भैर)ी के स्)र, मुW होकर पहाड़ी के झरनों की तरह द्विनकल रहे थे। सचमुच, )सन्त खिखल उठा। पूजा के साथ ही स्)तंत्र रूप से ये सुन्दरिरयाँ भी गाने लगीं। यमुना चुपचाप कुरैये की डाली के नीचे बैठी थी। बेग का सहारा सिलये )ह धूप में अपना मुख बचाये थी। द्विकशोरी ने उसे हठ करके गुलेनार चादर ओढ़ा दी। पसीने से लगकर उस रंग ने यमुना के मुख पर अपने सिचह्न बना दिदये थे। )ह बड़ी सुन्दर रंगसाजी थी। यद्यद्विप उसके भा) आँखों के नीचे की कासिलमा में करुण रंग में सिछप रहे थ;े परन्तु उस समय द्वि)लक्षण आकर्ष�ण उसके मुख पर था। सुन्दरता की होड़ लग जाने पर मानसिसक गद्वित दबाई न जा सकती थी। द्वि)जय जब सौन्दय� में अपने को अलग न रख सका, )ह पूजा छोड़कर उसी के समीप एक द्वि)शालखण्ड पर जा बैठा। यमुना भी सम्भलकर बैठ गयी थी।

'क्यों यमुना! तुमको गाना नहीं आता बातचीत आरम्भ करने के ढंग से द्वि)जय ने कहा।

'आता क्यों नहीं, पर गाना नहीं चाहती हूँ।'

'क्यों?'

'यों ही। कुछ करने का मन नहीं करता।'

'कुछ भी?'

'कुछ नहीं, संसार कुछ करने योग्य नहीं।'

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'द्विफर क्या?'

'इसमें यदिद दश�क बनकर जी सके, तो मनुष्य के बडे़ सौभाग्य की बात है।'

'परन्तु मैं के)ल इसे दूर से नहीं देखना चाहता।'

'अपनी-अपनी इच्छा है। आप अक्षिभनय करना चाहते हैं, तो कीझिजये; पर यह स्मरण रखिखये द्विक सब अक्षिभनय सबके मनोनुकूल नहीं होते।'

'यमुना, आज तो तुमने रंगीन साड़ी पहनी है, बड़ी सुन्दर लग रही है!'

'क्या करँू द्वि)जय बाबू! जो मिमलेगा )हीं न पहनँूगी।' द्वि)रW होकर यमुना ने कहा।

द्वि)जय को रुखाई जान पड़ी, उसने भी बात बदल दी। कहा, 'तुमने तो कहा था द्विक तुमको झिजस )स्तु की आ)श्यकता होगी, मैं दँूगी, यहाँ मुझे कुछ आ)श्यकता है।'

यमुना भयभीत होकर द्वि)जय के आतुर मुख का अध्ययन करने लगी। कुछ न बोली। द्वि)जय ने सहमकर कहा, 'मुझे प्यास लगी है।'

यमुना ने बैग से एक छोटी-सी चाँदी की लुदिटया द्विनकाली, झिजसके साथ पतली रंगीन डोरी लगी थी। )ह कुरैया के झुरमुट के दूसरी ओर चली गई। द्वि)जय चुपचाप सोचने लगा; और कुछ नहीं, के)ल यमुना के स्)च्छ कपोलों पर गुलेनार रंग की छाप। उन्मत्त हृदय-द्विकशोर हृदय स्)प्न देखने लगा-ताम्बूल राग-रंझिजत, चंुबन अंद्विकत कपोलों का! )ह पागल हो उठा।

यमुना पानी लेकर आयी, बैग से मिमठाई द्विनकालकर द्वि)जय के सामने रख दी। सीधे लड़के की तरह द्वि)जय ने जलपान द्विकया, तब पूछा, 'पहाड़ी के ऊपर ही तुम्हें जल मिमला, यमुना?'

'यहीं तो, पास ही एक कुण्ड है।'

'चलो तुम दिदखला दो।'

दोनों कुरैये के झुरमुट की ओट में चले। )हाँ सचमुच एक चौकोर पत्थर का कुण्ड था, उसमें जल लबालब भरा था। यमुना ने कहा, 'मुझसे यही एक टंडे ने कहा है द्विक यह कुण्डा जाड़ा, गम¶, बरसात सब दिदनों में बराबर भरा रहता है; झिजतने आदमी चाहें इसमें जल द्विपयें, खाली नहीं होता। यह दे)ी का चमत्कार है। इसी में नि)\ध्य)ासिसनी दे)ी से कम इन पहाड़ी झीलों की दे)ी का मान नहीं है। बहुत दूर से लोग यहाँ आते हैं।'

'यमुना, है बडे़ आzय� की बात! पहाड़ी के इतने ऊपर भी यह जल कुण्ड सचमुच अद्भतु है; परन्तु मैंने और भी ऐसा कुण्ड देखा है, झिजसमें द्विकतने ही जल द्विपयें, )ह भरा ही रहता है!'

'सचमुच! कहाँ पर द्वि)जय बाबू?'

'सुन्दरी में रूप का कूप!' कहकर द्वि)जय यमुना के मुख को उसी भाँद्वित देखने लगा, जैसे अनजान में ढेला फें ककर बालक चोट लगने )ाले को देखता है।

')ाह द्वि)जय बाबू! आज-कल साद्विहत्य का ज्ञान बढ़ा हुआ देखती हूँ!' कहते हुए यमुना ने द्वि)जय की ओर देखा, जैसे कोई बड़ी-बूढ़ी नटखट लड़के को संकेत से झिझड़कती हो।

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द्वि)जय लस्थिज्जत हो उठा। इतने में 'द्वि)जय बाबू' की पुकार हुई, द्विकशोरी बुला रही थी। )े दोनों दे)ी के सामने पहुँचे। द्विकशोरी मन-ही-मन मुस्कुराई। पूजा समाप्त हो चुकी थी। सबको चलने के सिलए कहा गया। यमुना ने बैग उठाया। सब उतरने लगे। धूप कड़ी हो गयी थी, द्वि)जय ने अपना छाता खोल सिलया। उसकी बार-बार इच्छा होती थी द्विक )ह यमुना से इसी की छाया में चलने को कहे; पर साहस न होता। यमुना की एक-दो लटें पसीने से उसके सुन्दर भाल पर सिचपक गयी थीं। द्वि)जय उसकी द्वि)सिचत्र सिलद्विप को पढ़ते-पढ़ते पहाड़ी से नीचे उतरा।

सब लोग काशी लौट आये।

(1)

एक ओर तो जल बरस रहा था, पुर)ाई से बँूदें द्वितरछी होकर द्विगर रही थीं, उधर पक्षिzम में चौथे पहर की पीली धूप उनमें केसर घोल रही थी। मथुरा से )ृन्दा)न आने )ाली सड़क पर एक घर की छत पर यमुना चादर तान रही थी। दालान में बैठा हुआ द्वि)जय एक उपन्यास पढ़ रहा था। द्विनरंजन से)ा-कंुज में दश�न करने गया था। द्विकशोरी बैठी हुई पान लगा रही थी। तीथ�यात्रा के सिलए श्रा)ण से ही लोग दिटके थे। झूले की बहार थी; घटाओं का जमघट।

उपन्यास पूरा करते हुए द्वि)श्राम की साँस लेकर द्वि)जय ने पूछा, 'पानी और धूप से बचने के सिलए एक पतली चादर क्या काम देगी यमुना?'

'बाबाजी के सिलए मघा का जल संचय करना है। )े कहते हैं द्विक इस जल से अनेक रोग नष्ट होते हैं।'

'रोग चाहे नष्ट न हो; पर )ृन्दा)न के खारे कूप-जल से तो यह अच्छा ही होगा। अच्छा एक द्विगलास मुझे भी दो।'

'द्वि)जय बाबू, काम )ही करना, पर उसकी बड़ी समालोचना के बाद, यह तो आपका स्)भा) हो गया है। लीझिजये जल।' कहकर यमुना ने पीने के जल दिदया।

उसे पीकर द्वि)जय ने कहा, 'यमुना, तुम जानती हो द्विक मैंने कॉलेज में एक संशोधन समाज kाद्विपत द्विकया है। उसका उदे्दश्य है-झिजन बातों में बुझिर्द्ध)ाद का उपयोग न हो सके, उसका खण्डन करना और तदनुकूल आचरण करना। देख रही हो द्विक मैं छूत-छात का कुछ द्वि)चार नहीं करता, प्रकट रूप से होटलों तक में खाता भी हूँ। इसी प्रकार इन प्राचीन कुसंस्कारों का नाश करना मैं अपना कत�व्य समझता हूँ, क्योंद्विक ये ही रूदिढ़याँ आगे चलकर धम� का रूप धारण कर लेती हैं। जो बातें कभी देश, काल, पात्रानुसार प्रचसिलत हो गयी थीं, )े सब माननीय नहीं, द्विहन्दू-समाज के पैरों में बेद्विड़याँ हैं।' इतने में बाहर सड़क पर कुछ बालकों के मधुर स्)र सुनायी पडे़, द्वि)जय उधर चौंककर देखने लगा, छोटे-छोटे ब्रह्मचारी दण्ड, कमण्डल और पीत )सन धारण द्विकये समस्)र में गाये जा रहे थ-े

कस्यसिचखित्कमद्विपनोहरणीयं मम्म�)ाक्यमद्विपनोच्चरणीयम्,

श्रीपतेःपदयुगस्मणीयं लीलयाभ)जलतरणीयम्।

उन सबों के आगे छोटी दाढ़ी और घने बालों )ाला एक यु)क सफेद चद्दर, धोती पहने जा रहा था। गृहk लोग उन ब्रह्मचारिरयों की झोली में कुछ डाल देते थे। द्वि)जय ने एक दृमिष्ट से देखकर मुँह द्विफराकर यमुना से कहा, 'देखो यह बीस)ीं शताब्दी में तीन हजार बी.सी. का अक्षिभनय! समग्र संसार अपनी स्थिkद्वित रखने के सिलए चंचल है, रोटी का प्रश्न सबके सामने है, द्विफर भी मूख� द्विहन्दू अपनी पुरानी असभ्यताओं का प्रदश�न कराकर पुण्य-संचय द्विकया चाहते हैं।'

'आप तो पाप-पुण्य कुछ मानते ही नहीं, द्वि)जय बाबू!'

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'पाप और कुछ नहीं है यमुना, झिजन्हें हम सिछपाकर द्विकया चाहते हैं, उन्हीं कम� को पाप कह सकते हैं; परन्तु समाज का एक बड़ा भाग उसे यदिद व्य)हाय� बना दे, तो )हीं कम� पुण्य हो जाता है, धम� हो जाता है। देखती नहीं हो, इतने द्वि)रुर्द्ध मत रखने )ाले संसार के मनुष्य अपने-अपने द्वि)चारों में धार्मिम\क बने हैं। जो एक के यहाँ पाप है, )ही दूसरे के सिलए पुण्य है।'

द्विकशोरी चुपचाप इन लोगों की बात सुन रही थी। )ह एक स्)ाथ� से भरी चतुर स्त्री थी। स्)तन्त्रता से रहना चाहती थी, इससिलए लड़के को भी स्)तन्त्र होने में सहायता देती थी। कभी-कभी यमुना की धार्मिम\कता उसे असह्य हो जाती है; परन्तु अपना गौर) बनाये रखने के सिलए )ह उसका खण्डन न करती, क्योंद्विक बाह्य धमा�चरण दिदखलाना ही उसके दुब�ल चरिरत्र का आ)रण था। )ह बराबर चाहती थी द्विक यमुना और द्वि)जय में गाढ़ा परिरचय बढे़ और उसके सिलए )ह अ)सर भी देती। उसने कहा, 'द्वि)जय इसी से तुम्हारे हाथ का भी खाने लगा है, यमुना।'

'यह कोई अच्छी बात तो नहीं है बहूजी।'

'क्या करँू यमुना, द्वि)जय अभी लड़का है, मानता नहीं। धीरे-धीरे समझ जायेगा।' अप्रद्वितम होकर द्विकशोरी ने कहा।

इतने में एक सुन्दर तरुण बासिलका अपना हँसता हुआ मुख सिलए भीतर आते ही बोली, 'द्विकशोरी बहू, शाहजी के मझिन्दर में आरती देखने चलोगी न?'

'तू आ गयी घण्टी! मैं तेरी प्रतीक्षा में ही थी।'

'तो द्विफर द्वि)लम्ब क्यों कहते हुए घण्टी ने अल्हड़पन से द्वि)जय की ओर देखा।

द्विकशोरी ने कहा, 'द्वि)जय तू भी चलेगा न?'

'यमुना और द्वि)जय को यहीं झाँकी मिमलती है, क्यों द्वि)जय बाबू?' बात काटते हुए घण्टी ने कहा।

'मैं तो जाऊँगा नहीं, क्योंद्विक छः बज ेमुझे एक मिमत्र से मिमलने जाना है; परन्तु घण्टी, तुम तो हो बड़ी नटखट!' द्वि)जय ने कहा।

'यह ब्रज है बाबूजी! यहाँ के पत्ते-पत्ते में पे्रम भरा है। बंसी )ाले की बंसी अब भी से)ा-कंुज में आधी रात को बजती है। लिच\ता द्विकस बात की?'

द्वि)जय के पास सरककर धीरे-से हँसते हुए उस चंचल द्विकशोरी ने कहा। घण्टी के कपोलों में हँसते समय गडे्ढ पड़ जाते थे। भोली मत)ाली आँखें गोद्विपयों के छायासिचत्र उतारतीं और उभरती हुई )यस-संमिध से उसकी चंचलता सदै) छेड़-छाड़ करती रहती। )ह एक क्षण के सिलए भी स्थिkर न रहती, कभी अंगड़ाई लेती, तो कभी अपनी उँगसिलया चटकाती, आँखें लज्जा का अक्षिभनय करके जब पलकों की आड़ में सिछप जातीं तब भी भौंहें चला करतीं, द्वितस पर भी घण्टी एक बाल-द्वि)ध)ा है। द्वि)जय उसके सामने अप्रद्वितभ हो जाता, क्योंद्विक )ह कभी-कभी स्)ाभाद्वि)क द्विनःसंकोच परिरहास कर दिदया करती। यमुना को उसका वं्यग्य असह्य हो उठता; पर द्विकशोरी को )ह छेड़-छाड़ अच्छी लगती-बड़ी हँसमुख लड़की है!-यह कहकर बात उड़ा दिदया करती।

द्विकशोरी ने अपनी चादर ले ली थी। चलने को प्रस्तुत थी। घण्टी ने उठते-उठते कहा, 'अच्छा तो आज लसिलता की ही द्वि)जय है, राधा लौट जाती है!' हँसते-हँसते )ह द्विकशोरी के साथ घर से बाहर द्विनकल गयी।

)र्षा� बन्द हो गयी थी; पर बादल मिघरे थे। सहसा द्वि)जय उठा और )ह भी नौकर को सा)धान रहने के सिलए कहकर चला गया।

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यमुना के हृदय में भी द्विनरुदिद्दष्ट पथ)ाले लिच\ता के बादल मँडरा रहे थे। )ह अपनी अतीत-लिच\ता में द्विनमग्न हो गयी। बीत जाने पर दुखदायी घटना भी सुन्दर और मूल्य)ान हो जाती है। )ह एक बार तारा बनकर मन-ही-मन अतीत का द्विहसाब लगाने लगी, स्मृद्वितयाँ लाभ बन गयीं। जल )ेग से बरसने लगा, परन्तु यमुना के मानस में एक सिशशु-सरोज लहराने लगा। )ह रो उठी।

कई महीने बीत गये। द्विकशोरी, द्विनरंजन और द्वि)जय बैठे हुए बातें कर रहे थ,े द्विनरंजन दास का मत था द्विक कुछ दिदन गोकुल में चलकर रहा जाय, कृष्णचन्द्र की बाललीला से अलंकृत भूमिम में रहकर हृदय आनन्दपूण� बनाया जाय। द्विकशोरी भी सहमत थी; द्विकन्तु द्वि)जय को इसमें कुछ आपक्षित्त थी।

इसी समय एक ब्रह्मचारी ने भीतर आकर सबको प्रणाम द्विकया। द्वि)जय चद्विकत हो गया और द्विनरंजन प्रसन्न।

'क्या उन ब्रह्मचारिरयों के साथ तुम्हीं घूमते हो?' मंगल द्वि)जय ने आzय� भरी प्रसन्नता से पूछा।

'हाँ द्वि)जय बाबू!' मैंने यहाँ पर एक ऋद्विर्षकुल खोल रखा है। यह सुनकर द्विक आप लोग यहाँ आये हैं, मैं कुछ क्षिभक्षा लेने आया हूँ।'

'मंगल! मैंने तो समझा था द्विक तुमने कहीं अध्यापन का काम आरम्भ द्विकया होगा; पर तुमने तो यह अच्छा ढोंग द्विनकाला।'

')ही तो करता हूँ द्वि)जय बाबू! पढ़ाता ही तो हूँ। कुछ करने की प्र)ृक्षित्त तो थी ही, )ह भी समाज-से)ा और सुधार; परन्तु उन्हें द्विक्रयात्मक रूप देने के सिलए मेरे पास और कौन साधन था?'

'ऐसे काम तो आय�समाज करती ही थी, द्विफर उसके जोड़ में अक्षिभनय करने की क्या आ)श्यकता थी। उसी में सम्पिम्मसिलत हो जाते।'

'आय�समाज कुछ खण्डनात्मक है और मैं प्राचीन धम� की सीमा के भीतर ही सुधार का पक्षपाती हूँ।'

'यह क्यों नहीं कहते द्विक तुम समाज के स्पष्ट आदश� का अनुकरण करने में असमथ� थ,े परीक्षा में ठहर न सके थे। उस द्वि)मिधमूलक व्या)हारिरक धम� को तुम्हारे समझ-बूझकर चलने )ाले स)�तोभद्र हृदय ने स्)ीकार द्विकया, और तुम स्)यं प्राचीन द्विनर्षेधात्मक धम� के प्रचारक बन गये। कुछ बातों के न करने से ही यह प्राचीन धम� सम्पादिदत हो जाता है-छुओ मत, खाओ मत, ब्याहो मत, इत्यादिद-इत्यादिद। कुछ भी दामियत्) लेना नहीं चाहते और बात-बात में शास्त्र तुम्हारे प्रमाणस्)रूप हैं। बुझिर्द्ध)ाद का कोई उपाय नहीं।' कहते-कहते द्वि)जय हँस पड़ा।

मंगल की सौम्य आकृद्वित तन गयी। )ह संयत और मधुर भार्षा में कहने लगा, 'द्वि)जय बाबू, यह और कुछ नहीं के)ल उचंृ्छखलता है। आत्मशासन का अभा)-चरिरत्र की दुब�लता द्वि)द्रोह कराती है। धम� मान)ीय स्)भा) पर शासन करता है, न कर सके तो मनुष्य और पशु में भेद क्या रह जाय आपका मत यह है द्विक समाज की आ)श्यकता देखकर धम� की व्य)kा बनाई जाए, नहीं तो हम उसे न मानेंगे। पर समाज तो प्र)ृक्षित्तमूलक है। )ह अमिधक से अमिधक आध्याम्पित्मक बनाकर, तप और त्याग के �ारा शुर्द्ध करके उच्च आदश� तक पहुँचाया जा सकता है। इझिन्द्रयपराय पशु के दृमिष्टकोण से मनुष्य की सब सुद्वि)धाओं के द्वि)चार नहीं द्विकये जा सकते, क्योंद्विक द्विफर तो पशु और मनुष्य में साधन-भेद रह जाता है। बातें )े ही हैं मनुष्य की असुद्वि)धाओं का, अनन्त साधनों के रहते, अन्त नहीं, )ह उचंृ्छखल होना ही चाहता है।'

द्विनरंजन को उसकी युसिWयाँ परिरमार्जिज\त और भार्षा प्रांजल देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई, उसका पक्ष लेते हुए उसने कहा, 'ठीक कहते हो मंगलदे)!'

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द्वि)जय और भी गरम होकर आक्रमण करते हुए बोला, 'और उन ढकोसलों में क्या तथ्य है?' उसका संकेत मंदिदरों के सिशखरों की ओर था।

'हमारे धम� मुख्यतः एकेश्वर)ादी हैं। द्वि)जय बाबू! )ह ज्ञान-प्रधान है; परन्तु अ�ैत)ाद की दाश�द्विनक युसिWयों को स्)ीकार करते हुए कोई भी )ण�माला का द्वि)रोधी बन जाए, ऐसा तो कारण नहीं दिदखाई पड़ता। मूर्तित\पूजा इत्यादिद उसी रूप में है। पाठशाला मे सबके सिलए एक कक्षा होती, इससिलए अमिधकारी-भेद है। हम लोग स)�व्यापी भग)ान् की सत्ता को नदिदयों के जल में, )ृक्षों में, पत्थरों में, स)�त्र स्)ीकार करने की परीक्षा देते हैं।'

'परन्तु हृदय में नहीं मानते, चाहे अन्यत्र सब जगह मान लें।' तक� न करके द्वि)जय ने वं्यग्य द्विकया। मंगल ने हताश होकर द्विकशोरी की ओर देखा।

'तुम्हारा ऋद्विर्षकुल कैसा चल रहा है?' मंगल द्विकशोरी ने पूछा

'दरिरद्र द्विहन्दुओं के ही लड़के मुझे मिमलते हैं। मैं उनके साथ द्विनत्य भीख माँगता हूँ। जो अन्न-)स्त्र मिमलता है। उसी में सबका द्विन)ा�ह होता है। मैं स्)यं उन्हे संस्कृत पढ़ाता हूँ। एक ग्रहk ने अपना उजड़ा हुआ उप)न दे दिदया है। उसमें एक और लम्बी सी दालान है और पाँच-सात )ृक्ष हैं; उतने में सब काम चल जाता है। शीत और )र्षा� में कुछ कष्ट होता है, क्योद्विक दरिरद्र हैं तो क्या, हैं तो लड़के ही न!'

'द्विकतने लड़के हैं?' मंगल द्विनरंजन ने पूछा।

'आठ लड़के हैं, आठ बरस से लेकर सोलह बरस तक के।'

'मंगल! और चाहे जो हो, तुम्हारे इस परिरश्रम और कष्ट की सत्यद्विनष्ठा पर कोई अद्वि)श्वास नहीं कर सकता। मैं भी नहीं।' द्वि)जय ने कहा।

मंगल मिमत्र से मुख से यह बात सुनकर प्रसन्न हो उठा, )ह कहने लगा, 'देखिखये द्वि)जय बाबू! मेरे पास यही धोती और अँगोछा है। एक चादर भी है। मेरा सब काम इतने में चल जाता है। कोई असुद्वि)धा नहीं होती। एक लम्बा टाट है। उसी पर सब सो रहते हैं। दो-तीन बरतन है और पाठ्य-पुस्तकों की एक-एक प्रद्वितयाँ। इतनी ही तो मेरे ऋद्विर्षकुल की सम्पक्षित्त है।' कहते-कहते )ह हँस पड़ा।

यमुना भीतर पीलीभीत के चा)ल बीन रही थी-खीर बनाने के सिलए। उसके रोए ँखडे़ हो गये। मंगल क्या दे)ता है! उसी समय उसे द्वितरस्कृत हृदय-द्विपण्ड का ध्यान आ गया। उसने मन में सोचा-पुरुर्ष को उसकी क्या लिच\ता हो सकती है, )ह तो अपना सुख द्वि)सर्जिज\त कर देता है; झिजसे अपने रW से उस सुख को खींचना पड़ता है, )ही तो उसकी व्यथा जानेगा! उसने कहा, 'मंगल ही नहीं, सब पुरुर्ष राक्षस हैं; दे)ता कदाद्विप नहीं हो सकते।' )ह दूसरी ओर उठकर चली गयी।

कुछ समय चुप रहने के बाद द्वि)जय ने कहा, 'जो तुम्हारे दान के अमिधकारी हैं, धम� के ठेकेदार हैं, उन्हें इससिलए तो समाज देता है द्विक )े उसका सदुपयोग करें; परन्तु )े मझिन्दरों में, मठों में बैठ मौज उड़ाते हैं, उन्हें क्या लिच\ता द्विक समाज के द्विकतने बच्चे भूखे-नंगे और असिशक्षिक्षत हैं। मंगलदे)! चाहे मेरा मत तुमसे न मिमलता हो, परन्तु तुम्हारा उदे्दश्य सुन्दर है।'

निन\रजन जैसे सचेत हो गया। एक बार उसने द्वि)जय की ओर देखा; पर बोला नहीं। द्विकशोरी ने कहा, 'मंगलदे)! मैं परदेश मे हूँ, इससिलए द्वि)शेर्ष सहायता नही कर सकती; हाँ, तुम लोगों के सिलए )स्त्र और पाठ्य-पुस्तकों की झिजतनी आ)श्यकता हो, मैं दँूगी।'

'और शीत, )र्षा�-द्विन)ारण के योग्य साधारण गृह बन)ा देने का भार मैं लेता हूँ मंगल!' द्विनरंजन ने कहा।

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'मंगल! मैं तुम्हारी इस सफलता पर बधाई देता हूँ।' हँसते हुए द्वि)जय ने कहा, 'कल मैं तुम्हारे ऋद्विर्षकुल में आऊँगा।'

द्विनरंजन और द्विकशोरी ने कहा, 'हम लोग भी।'

मंगल कृतज्ञता से लद गया। प्रणाम करके चला गया।

सबका मन इस घटना से हल्का था; पर यमुना अपने भारी हृदय से बार-बार यही पूछती थी-इन लोगों ने मंगल को जलपान करने तक के सिलए न पूछा, इसका कारण क्या उसका प्राथ¶ होकर आना है?

यमुना कुछ अनमनी रहने लगी। द्विकशोरी से यह बात सिछपी न रही। घण्टी प्रायः इन्ही लोगों के पास रहती। एक दिदन द्विकशोरी ने कहा, 'द्वि)जय, हम लोगों को ब्रज आये बहुत दिदन हो गये, अब घर चलना चाद्विहए। हो सके तो ब्रज की परिरक्रमा भी कर लें।'

द्वि)जय ने कहा, 'मैं नही जाऊँगा।'

'तू सब बातों में आडे़ आ जाता है।'

')ह कोई आ)श्यक बात नहीं द्विक मैं भी पुण्य-संचय करँू।' द्वि)रW होकर द्वि)जय ने कहा, 'यदिद इच्छा हो तो आप चली जा सकती हैं, मैं तब तक यहीं बैठा रहूँगा।'

'तो क्या तू यहाँ अकेला रहेगा?'

'नहीं, मंगल के आश्रम में जा रहूँगा। )हाँ मकान बन रहा है, उसे भी देखँूगा, कुछ सहायता भी करँूगा और मन भी बहलेगा।'

')ह आप ही दरिरद्र है, तू उसके यहाँ जाकर उसे और भी दुख देगा।'

'तो मैं क्या उसके सिसर पर रहूँगा।'

'यमुना! तू चलेगी?'

'द्विफर द्वि)जय बाबू को खिखला)ेगा कौन बहू जी, मैं तो चलने के सिलए प्रस्तुत हूँ।'

द्विकशोरी मन-ही-मन हँसी थी, प्रसन्न भी हुई और बोली, 'अच्छी बात है। तो मैं परिरक्रमा कर आऊँ, क्योंद्विक होली देखकर अ)श्य घर लौट चलना है।'

द्विनरंजन और द्विकशोरी परिरक्रमा करने चले। एक दासी और जमादार साथ गया।

)ृदां)न में यमुना और द्वि)जय अकेले रहे। के)ल घण्टी कभी-कभी आकर हँसी की हलचल मचा देती। द्वि)जय कभी-कभी दूर यमुना के द्विकनारे चला जाता और दिदन-दिदन भर पर लौटता। अकेली यमुना उस हँसोड़ के वं्यग्य से जज�रिरत हो जाती। घण्टी परिरहास करने में बड़ी द्विनद�य थी।

एक दिदन दोपहर की कड़ी धूप थी। सेठजी के मझिन्दर में कोई झाँकी थी। घण्टी आई और यमुना को दश�न के सिलए पकड़ ले गयी। दश�न से लौटते हुए यमुना ने देखा, एक पाँच-सात )ृक्षों का झुरमुट और घनी छाया, उसने समझा कोई दे)ालय है। )ह छाया के लालच से टूटी हुई दी)ार लाँघकर भीतर चली गयी। देखा तो अ)ाक् रह गयी-मंगल कच्ची मिमट्टी का गारा बना रहा है, लड़के ईंटें ढो रहे हैं, दो राज उस मकान की जोड़ाई कर रहे हैं। परिरश्रम से मुँह

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लाल था। पसीना बह रहा था। मंगल की सुकुमार देह द्वि))श थी। )ह दिठठककर खड़ी हो गयी। घण्टी ने उसे धक्का देते हुए कहा, 'चल यमुना, यह तो ब्रह्मचारी है, डर काहे का!' द्विफर ठठाकर हँस पड़ी।

यमुना ने एक बार द्विफर उसकी ओर क्रोध से देखा। )ह चुप भी न हो सकी थी द्विक फरसा रखकर सिसर से पसीना पोंछते हुए मंगल ने घूमकर देखा, 'यमुना!'

ढीठ घण्टी से अब कैसे रहा जाय, )ह झटककर बोली, 'ग्)ासिलनी! तुम्हें कान्ह बुला)े री!' यमुना गड़ गयी, मंगल ने क्या समझा होगा )ह घण्टी को घसीटती हुई बाहर द्विनकल आयी। यमुना हाँफ रही थी। पसीने-पसीने हो रही थी। अभी )े दोनों सड़क पर पहुँची भी न थीं द्विक दूर से द्विकसी ने पुकारा, 'यमुना!'

यमुना मन में संकल्प-द्वि)कल्प कर रही थी द्विक मंगल पद्वि)त्रता और आलोक से मिघरा हुआ पाप है द्विक दुब�लताओं में सिलपटा हुआ एक दृढ़ सत्य उसने समझा द्विक मंगल पुकार रहा है, )ह और लम्बे डग बढ़ाने लगी। घण्टी ने कहा, 'अरी यमुना! )ह तो द्वि)जय बाबू हैं। पीछे-पीछे आ रहे हैं।'

यमुना एक बार काँप उठी-न जाने क्यों, पर खड़ी हो गयी, द्वि)जय घूमकर आ रहा था। पास आ जाने पर द्वि)जय ने एक बार यमुना को ऊपर से नीचे तक देखा।

कोई कुछ बोला नहीं, तीनों घर लौट आये।

बसंत की संध्या सोने की धूल उड़ा रही थी। )ृक्षों के अन्तराल से आती हुए सूय�प्रभा उड़ती हुई गद� को भी रंग देती थी। एक अ)साद द्वि)जय के चारों ओर फैल रहा था। )ह द्विनर्ति)\कार दृमिष्ट से बहुत सी बातें सोचते हुए भी द्विकसी पर मन स्थिkर नहीं कर सकती। घण्टी और मंगल के परदे में यमुना अमिधक स्पष्ट हो उठी थी। उसका आकर्ष�ण अजगर की साँस के समान उसे खींच रहा था। द्वि)जय का हृदय प्रद्वितनिह\सा और कुतूहल से भर गया था। उसने खिखड़की से झाँककर देखा, घण्टी आ रही है। )ह घर से बाहर ही उससे जा मिमला।

'कहाँ द्वि)जय बाबू?' घण्टी ने पूछा।

'मंगलदे) के आश्रम तक, चलोगी?'

'चसिलये।'

दोनों उसी पथ पर बढे़। अँधेरा हो चला था। मंगल अपने आश्रम में बैठा हुआ संध्यापासन कर रहा था। पीपल के )ृक्ष के नीचे सिशला पर पद्मासन लगाये )ह बोमिधसत्त्) की प्रद्वितमूर्तित\ सा दिदखता था। द्वि)जय क्षण भर देखता रहा, द्विफर मन ही मन कह उठा-पाखण्ड आँख खोलते हुए सहसा आचमन लेकर मंगल ने धुँधले प्रकाश में देखा-द्वि)जय! और दूर कौन है, एक स्त्री )ह पल भर के सिलए अस्त-व्यस्त हो उठा। उसने पुकारा, 'द्वि)जय बाबू!'

द्वि)जय और घण्टी )हीं लौट पडे़, परन्तु उस दिदन मंगल के पुरुर्ष सूW का पाठ न हो सका। दीपक जल जाने पर जब )ह पाठशाला में बैठा, तब प्राकृत प्रकाश के सूत्र उसे बीहड़ लगे। व्याख्या अस्पष्ट हो गयी। ब्रह्मचारिरयों ने देखा-गुरुजी को आज क्या हो गया है।

द्वि)जय घर लौट आया। यमुना रसोई बनाकर बैठी थी। हँसती हुई घण्टी को उसने साथ ही आते देखा। )ह डरी। और न जाने क्यों उसने पूछा। द्वि)जय बाबू, द्वि)देश में एक द्वि)ध)ा तरुणी को सिलए इस तरह घूमना क्या ठीक है?'

'यह बात आज क्यों पूछती हो यमुना घण्टी! इसमें तुम्हारी क्या सम्मद्वित है?' शान्त भा) से द्वि)जय ने कहा।

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'इसका द्वि)चार तो यमुना को स्)यं करना चाद्विहए। मैं तो ब्रज)ासिसनी हूँ, हृदय की बंसी को सुनने से कभी रोका नहीं जा सकता।'

यमुना वं्यग्य से ममा�हत होकर बोली, 'अच्छा, भोजन कर लीझिजए।'

द्वि)जय भोजन करने बैठा, पर अरुसिच थी। शीघ्र उठ गया। )ह लैम्प के सामने जा बैठा। सामने ही दरी के कोने पर बैठी यमुना पान लगाने लगी। पान द्वि)जय के सामने रखकर चली गयी, द्विकन्तु द्वि)जय ने उसे छुआ भी नहीं, यह यमुना ने लौट आने पर देखा। उसने दृढ़ स्)र में पूछा, 'द्वि)जय बाबू, पान क्यों नहीं खाया आपने?'

'अब पान न खाऊँगा, आज से छोड़ दिदया।'

'पान छोड़ने मे क्या सुद्वि)धा है?'

'मैं बहुत जल्दी ही ईसाई होने )ाला हूँ, उस समाज में इसका व्य)हार नहीं। मुझे यह दम्भपूण� धम� बोझ के समान दबाये है, अपनी आत्मा के द्वि)रुर्द्ध रहने के सिलए मैं बाध्य द्विकया जा रहा हूँ।'

'आपके सिलए तो कोई रोक-टोक नहीं, द्विफर भी।'

'यह मैं जानता हूँ, कोई रोक-टोक नहीं, पर मैं यह भी अनुभ) करता हूँ द्विक मैं कुछ द्वि)रुर्द्ध आचरण कर रहा हूँ। इस द्वि)रुर्द्धता का खटका लगा रहता है। मन उत्साहपूण� होकर कत�व्य नहीं करता। यह सब मेरे द्विहन्दू होने के कारण है। स्)तंत्रता और द्विहन्दू धम� दोनों द्वि)रुर्द्ध)ाची शब्द हैं।'

'पर ऐसी बहुत-सी बातें तो अन्य धमा�नुयायी मनुष्यों के जी)न में भी आ सकती हैं। सबका काम सब मनुष्य तो नहीं कर सकते।'

'तो भी बहुत-सी बातें ऐसी हैं, जो द्विहन्दू धम� में रहकर नहीं की जा सकतीं; द्विकन्तु मेरे सिलए द्विनतान्त आ)श्यक हैं।'

'जैसे?'

'तुमसे ब्याह कर लेना!'

यमुना ने ठोकर लगने की दशा में पड़कर पूछा, 'क्यों द्वि)जय बाबू! क्या दासी होकर रहना द्विकसी भी भद्र मद्विहला के सिलए अपमान का पया�प्त कारण हो जाता है?'

'यमुना! तुम दासी हो कोई दूसरा हृदय खोलकर पूछ देखे, तुम मेरी आराध्य दे)ी हो-स)�स्) हो!' द्वि)जय उते्तझिजत था।

'मै आराध्य दे)ता बना चुकी हूँ, मैं पद्वितत हो चुकी हूँ, मुझे...'

'यह मैंने अनुमान कर सिलया था, परन्तु इन अपद्वि)त्राओं में भी मैं तुम्हें पद्वि)त्र उज्ज्)ल और ऊज�स्विस्)त पाता हूँ-जैसे मसिलन )सन में हृदयहारी सौन्दय�।'

'द्विकसी के हृदय की शीतलता और द्विकसी के यौ)न की उष्णता-मैं सब झेल चुकी हूँ। उसमें सफल हुई, उसकी साध भी नहीं रही। द्वि)जय बाबू! मैं दया की पात्री एक बहन होना चाहती हूँ-है द्विकसी के पास इतनी द्विनःस्)ाथ� स्नेह-सम्पक्षित्त, जो मुझे दे सके कहते-कहते यमुना की आँखों से आँसू टपक पडे़।

द्वि)जय थप्पड़ खाये हुए लड़के के समान घूम पड़ा, 'मैं अभी आता हूँ...' कहता हुआ )ह घर से बाहर द्विनकल गया।

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(2)

कई दिदन हो गये, द्वि)जय द्विकसी से कुछ बोलता नहीं। समय पर भोजन कर लेता और सो रहता। अमिधक समय उसका मकान के पास ही करील की झाद्विड़यों की टट्टी के भीतर लगे हुए कदम्ब के नीचे बीतता है। )हाँ बैठकर )ह कभी उपन्यास पढ़ता और कभी हारमोद्विनयम बजाता है।

अँधेरा हो गया था, )ह कदम्ब के नीचे बैठा हारमोद्विनयम बजा रहा था। चंचल घण्टी चली आयी। उसने कहा, 'बाबूजी आप तो बड़ा अच्छा हारमोद्विनयम बजाते है।' पास ही बैठ गयी।

'तुम कुछ गाना जानती हो?'

'ब्रज)ासिसनी और कुछ चाहे ना जाने, द्विकन्तु फाग गाना तो उसी के द्विहस्से का है।'

'अच्छा तो कुछ गाओ, देखँू मैं बजा सकता हूँ

ब्रजबाला घण्टी एक गीत सुनाने लगी-

'द्विपया के द्विहया में परी है गाँठ

मैं कौन जतन से खोलँू

सब सखिखयाँ मिमसिल फाग मना)त

मै बा)री-सी डोलँू!

अब की फागुन द्विपया भये द्विनरमोद्विहया

मैं बैठी द्वि)र्ष घोलँू।

द्विपया के-'

दिदल खोलकर उसने गाया। मादकता थी उसके लहरीले कण्ठ स्)र में, और व्याकुलता थी। द्वि)जय की परदों पर दौड़ने )ाली उँगसिलयों में! )े दोनों तन्मय थे। उसी तरह से गाता हुआ मंगल-धार्मिम\क मंगल-भी, उस हृदय द्रा)क संगीत से द्वि)मुग्ध होकर खड़ा हो गया। एक बार उसे भ्रम हुआ, यमुना तो नहीं है। )ह भीतर चला गया। देखते ही चंचल घण्टी हँस पड़ी! बोली, 'आइए ब्रह्मचारीजी!'

द्वि)जय ने कहा, 'बैठोगे या घर के भीतर चलँू?'

'नही द्वि)जय! मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ। घण्टी, तुम घर जा रही हो न!'

द्वि)जय ने सहमते हुए पूछा, 'क्या कहना चाहते हो?'

'तुम इस लड़की को साथ लेकर इस स्)तन्त्रता से क्यों बदनाम हुआ चाहते हो?'

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'यद्यद्विप मैं इसका उत्तर देने को बाध्य नहीं मंगल, एक बात मैं भी तुमसे पूछना चाहता हूँ-बताओ तो, मैं यमुना के साथ भी एकान्त में रहता हूँ, तब तुमको सन्देह क्यों नहीं होता!'

'मुझे उसके चरिरत्र पर द्वि)श्वास है।'

'इससिलए द्विक तुम उसे भीतर से पे्रम करते हो! अच्छा, यदिद मैं घण्टी से ब्याह करना चाहूँ, तो तुम पुरोद्विहत बनोगे?'

'द्वि)जय तुम अद्वित)ादी हो, उदात्त हो!'

'अच्छा हुआ द्विक मैं )ैसा संयतभार्षी कपटाचारी नहीं हूँ, जो अपने चरिरत्र की दुब�लता के कारण मिमत्र से भी मिमलने में संकोच करता है। मेरे यहाँ प्रायः तुम्हारे न आने का यही कारण है द्विक तुम यमुना की...'

'चुप रहो द्वि)जय! उचंृ्छखलता की भी एक सीमा होती है।'

'अच्छा जाने दो। घण्टी के चरिरत्र पर द्वि)श्वास नहीं, तो क्या समाज और धम� का यह कत�व्य नहीं द्विक उसे द्विकसी प्रकार अ)लम्ब दिदया जाये, उसका पथ सरल कर दिदया जाये यदिद मैं घण्टी से ब्याह करँू तो तुम पुरोद्विहत बनोगे बोलो, मैं इसे करके पाप करँूगा या पुण्य?'

'यह पाप हो या पुण्य, तुम्हारे सिलए हाद्विनकारक होगा।'

'मैं हाद्विन उठाकर भी समाज के एक व्यसिW का कल्याण कर सकँू तो क्या पाप करँूगा उत्तर दो, देखें तुम्हारा धम� क्या व्य)kा देता है।' द्वि)जय अपनी द्विनक्षिzत द्वि)जय से फूल रहा था।

')ह )ृंदा)न की एक कुख्यात बाल-द्वि)ध)ा है, द्वि)जय।'

सहज में पच आने )ाला धीरे से गले उतर जाने )ाला म्पिस्नग्ध पदाथ� सभी आत्मसात् कर लेते हैं। द्विकन्तु कुछ त्याग-सो भी अपनी महत्ता का त्याग-जब धम� के आदश� ने नहीं, तब तुम्हारे धम� को मैं क्या कहूँ, मंगल।'

'द्वि)जय! मैं तुम्हारा इतना अद्विनष्ट नहीं देख सकता। इसे त्याग तुम भले ही समझ लो; पर इसमें क्या तुम्हारी दुब�लता का स्)ाथ�पूण� अंश नहीं है। मैं यह मान भी लँू द्विक द्वि)ध)ा से ब्याह करके तुम एक धम� सम्पादिदत करते हो, तब भी घण्टी जैसी लड़की से तुमको जी)न से झिजए परिरण्य सूत्र बाँधने के सिलए मैं एक मिमत्र के नाते प्रस्तुत नहीं।'

'अच्छा मंगल! तुम मेरे शुभसिचन्तक हो; यदिद मैं यमुना से ब्याह करँू? )ह तो...'

'तुम द्विपशाच हो!' कहते हुए मंगल उठकर चला गया।

द्वि)जय ने कू्रर हँसी हँसकर अपने आप कहा, 'पकडे़ गये दिठकाने पर!' )ह भीतर चला गया।

दिदन बीत रहे थे। होली पास आती जाती थी। द्वि)जय का यौ)न उचंृ्छखल भा) से बढ़ रहा था। उसे ब्रज की रहस्यमयी भूमिम का )ाता)रण और भी जदिटल बना रहा था। यमुना उससे डरने लगी। )ह कभी-कभी मदिदरा पीकर एक बार ही चुप हो जाता। गम्भीर होकर दिदन-ब-दिदन द्विबता दिदया करता। घण्टी आकर उसमें सजी)ता ले आने का प्रयत्न करती; परन्तु )ैसे ही जैसे एक खँडहर की द्विकसी भग्न प्राचीर पर बैठा हुआ पपीहा कभी बोल दे!

फाल्गुन के शुक्लपक्ष की एकादशी थी। घर के पास )ाले कदम्ब के नीचे द्वि)जय बैठा था। चाँदनी खिखल रही थी। हारमोद्विनयम, बोतल और द्विगलास पास ही थे। द्वि)जय कभी-कभी एक-दो घूँट पी लेता और कभी हारमोद्विनयम में एक तान द्विनकाल लेता। बहुत द्वि)लम्ब हो गया था। खिखड़की में से यमुना चुपचाप यह दृश्य देख रही थी। उसे अपने हर�ार

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के दिदन स्मरण हो आये। द्विनरभ्र गगन में चलती हुई चाँदनी-गंगा के )क्ष पर लोटती हुई चाँदनी-कानन की हरिरयाली में हरी-भरी चाँदनी! और स्मरण हो रही थी। मंगल के प्रणय की पीयूर्ष )र्तिर्ष\णी चझिन्द्रका एक ऐसी ही चाँदनी रात थी। जंगल की उस छोटी कोठरी में ध)ल मधुर आलोक फैल रहा था। तारा लेटी थी, उसकी लटें तद्विकया पर द्विबखर गयी थीं, मंगल उस कुन्तल-स्त)क को मुट्ठी में लेकर सँूघ रहा था। तृन्तिप्त थी द्विकन्तु उस तृन्तिप्त को स्थिkर रखने के सिलए लालच का अन्त न था। चाँदनी खिखसकती जाती थी। चन्द्रमा उस शीतल आलिल\गन को देखकर लस्थिज्जत होकर भाग रहा था। मकरन्द से लदा हुआ मारुत चझिन्द्रका-चूण� के साथ सौरभ रासिश द्विबखेर देता था।

यमुना पागल हो उठी। उसने देखा-सामने द्वि)जय बैठा हुआ अभी पी रहा है। रात पहर-भर जा चुकी है। )ृन्दा)न में दूर से फगुहारों की डफ की गम्भीर ध्)द्विन और उन्मत्त कण्ठ से रसीले फागों की तुमुल तानें उस चाँदनी में, उस प)न में मिमली थीं। एक स्त्री आई, करील की झाद्विड़यों से द्विनकलकर द्वि)जय के पीछे खड़ी हो गयी। यमुना एक बार सहम उठी, द्विफर उसने देखा-उस स्त्री ने हाथ का लोटा उठाया और उसका तरल पदाथ� द्वि)जय के सिसर पर उडे़ल दिदया।

द्वि)जय के उष्ण मस्तक को कुछ शीतलता भली लगी। घूमकर देखा तो घण्टी खिखलखिखलाकर हँस रही थी। )ह आज इझिन्द्रय-जगत् के )ैदु्यत प्र)ाह के चक्कर खाने लगा, चारों ओर द्वि)दु्यत-कण चमकते, दौड़ते थे। यु)क द्वि)जय अपने में न रह सका, उसने घण्टी का हाथ पकड़कर पूछा, 'ब्रजबाले, तुम रंग उडे़लकर उसकी शीतलता दे सकती हो द्विक उस रंग की-सी ज्)ाला-लाल ज्)ाला! ओह, जलन हो रही है घण्टी! आत्मसंयम भ्रम है बोलो!'

'मैं, मेरे पास दाम न था, रंग फीका होगा द्वि)जय बाबू!'

हाड़-मांस के )ास्तद्वि)क जी)न का सत्य, यौ)न आने पर उसका आना न जानकर बुलाने की धुन रहती है। जो चले जाने पर अनुभूत होता है, )ह यौ)न, धी)र के लहरीले जाल में फँसे हुए म्पिस्नग्ध मत्स्य-सा तड़फड़ाने )ाला यौ)न, आसन से दबा हुआ पंच)र्ष¶य चपल तुरंग के समान पृथ्)ी को कुरेदने-)ाला त्)रापूण� यौ)न, अमिधक न सम्हल सका, द्वि)जय ने घण्टी को अपनी मांसल भुजाओं में लपेट सिलया और एक दृढ़ तथा दीघ� चुम्बन से रंग का प्रद्वित)ाद द्विकया।

यह सजी) और उष्ण आलिल\गन द्वि)जय के यु)ा जी)न का प्रथम उपहार था, चरम लाभ था। कंगाल को जैसे द्विनमिध मिमली हो! यमुना और न देख सकी, उसने खिखड़की बन्द कर दी। उस शब्द ने दोनों को अलग कर दिदया। उसी समय इक्कों के रुकने का शब्द बाहर हुआ। यमुना नीचे उतर आयी द्विक)ाड़ खोलने। द्विकशोरी भीतर आयी।

अब घण्टी और द्वि)जय आस-पास बैठ गये थे। द्विकशोरी ने पूछा, 'द्वि)जय कहाँ है?' यमुना कुछ न बोली। डाँटकर द्विकशोरी ने कहा, 'बोलती क्यों नहीं यमुना?'

यमुना ने कुछ न कहकर खिखड़की खोल दी। द्विकशोरी ने देखा-द्विनखरी चाँदनी में एक स्त्री और पुरुर्ष कदम्ब के नीचे बैठे हैं। )ह गरम हो उठी। उसने )हीं से पुकारा, 'घण्टी!'

घण्टी भीतर आयी। द्वि)जय का साहस न हुआ, )ह )हीं बैठा रहा। द्विकशोरी ने पूछा, 'घण्टी, क्या तुम इतनी द्विनल�ज्ज हो!'

'मैं क्या जानँू द्विक लज्जा द्विकसे कहते हैं। ब्रज में तो सभी होली में रंग डालती हैं, मैं भी रंग डाल आयी। द्वि)जय बाबू को रंग से चोट तो न लगी होगी द्विकशोरी बहू!' द्विफर हँसने के ढंग से कहा, 'नहीं, पाप हुआ हो तो इन्हें भी ब्रज-परिरक्रमा करने के सिलए भेज दीझिजये!'

द्विकशोरी को यह बात तीर-सी लगी। उसने झिझड़कते हुए कहा, 'चलो जाओ, आज से मेरे घर कभी न आना!'

घण्टी सिसर नीचा द्विकये चली गयी।

द्विकशोरी ने द्विफर पुकारा, 'द्वि)जय!'

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द्वि)जय लड़खड़ाता हुआ भीतर आया और द्वि))श बैठ गया। द्विकशोरी से मदिदरा की गन्ध सिछप न सकी। उसने सिसर पकड़ सिलया। यमुना ने द्वि)जय को धीरे से सिलटा दिदया। )ह सो गया।

द्वि)जय ने अपने सम्बन्ध की निक\)दन्तिन्तयों को और भी जदिटल बना दिदया, )ह उन्हें सुलझाने की चेष्टा भी न करता था। द्विकशोरी ने बोलना छोड़ दिदया था। द्विकशोरी कभी-कभी सोचती-यदिद श्रीचन्द्र इस समय आकर लड़के को सम्हाल लेते! परन्तु )ह बड़ी दूर की बात थी।

एक दिदन द्वि)जय और द्विकशोरी की मुठभेड़ हो गयी। बात यह थी द्विक द्विनरंजन ने इतना ही कहा द्विक मद्यपों के संसग� में रहना हमारे सिलए असंभ) है! द्वि)जय ने हँसकर कहा, 'अच्छी बात है, दूसरा kान खोज लीझिजये। ढोंग से दूर रहना मुझे भी रुसिचकर है।' द्विकशोरी आ गयी, उसने कहा, 'द्वि)जय, तुम इतने द्विनल�ज्ज हो! अपने अपराधों को समझकर लस्थिज्जत क्यों नहीं होते नशे की खुमारी से भरी आँखों को उठाकर द्वि)जय ने द्विकशोरी की ओर देखा और कहा, 'मैं अपने कम� पर हँसता हूँ, लस्थिज्जत नहीं होता। झिजन्हें लज्जा बड़ी द्विप्रय हो, )े उसे अपने कामों में खोजें।'

द्विकशोरी ममा�हत होकर उठ गयी, और अपना सामान बँध)ाने लगी। उसी दिदन काशी लौट जाने का उसका दृढ़ द्विनzय हो गया। यमुना चुपचाप बैठी थी। उससे द्विकशोरी ने पूछा, 'यमुना, क्या तुम न चलोगी?'

'बहूजी, मैं अब कहीं नहीं जाना चाहती; यहीं )ृन्दा)न में भीख माँगकर जी)न द्विबता लँूगी!'

'यमुना, खूब समझ लो!'

'मैंने कुछ रुपये इकटे्ठ कर सिलए हैं, उन्हें द्विकसी के मझिन्दर में चढ़ा दँूगी और दो मुट्ठी भर भात खाकर द्विन)ा�ह कर लँूगी।'

'अच्छी बात है!' द्विकशोरी रूठकर उठी।

यमुना की आँखों से आँसू बह चले। )ह भी अपनी गठरी लेकर द्विकशोरी के जाने के पहले ही उस घर से द्विनकलने के सिलए प्रस्तुत थी।

सामान इक्कों पर धरा जाने लगा। द्विकशोरी और द्विनरंजन ताँगे पर जा बैठे। द्वि)जय चुपचाप बैठा रहा, उठा नहीं, जब यमुना भी बाहर द्विनकलने लगी, तब उससे रहा न गया; द्वि)जय ने पूछा, 'यमुना, तुम भी मुझे छोड़कर चली जाती हो!' पर यमुना कुछ न बोली। )ह दूसरी ओर चली; ताँगे और इक्के स्टेशन की ओर। द्वि)जय चुपचाप बैठा रहा। उसने देखा द्विक )ह स्)यं द्विन)ा�सिसत है। द्विकशोरी का स्मरण करके एक बार उसका हृदय मातृस्नेह से उमड़ आया, उसकी इच्छा हुई द्विक )ह भी स्टेशन की राह पकडे़; पर आत्माक्षिभमान ने रोक दिदया। उसके सामने द्विकशोरी की मातृमूर्तित\ द्वि)कृत हो उठी। )ह सोचने लगा-माँ मुझे पुत्र के नाते कुछ भी नहीं समझती, मुझे भी अपने स्)ाथ�, गौर) और अमिधकार-दम्भ के भीतर ही देखना चाहती है। संतान स्नेह होता तो यों ही मुझे छोड़कर चली जाती )ह स्तब्ध बैठा रहा। द्विफर कुछ द्वि)चारकर अपना सामान बाँधने लगा, दो-तीन बैग और बण्डल हुए। उसने एक ताँगे )ाले को रोककर उस पर अपना सामान रख दिदया, स्)यं भी चढ़ गया और उसे मथुरा की ओर चलने के सिलए कह दिदया। द्वि)जय का सिसर सन-सन कर रहा था। ताँगा अपनी राह पर चल रहा था; पर द्वि)जय को मालूम होता था द्विक हम बैठे हैं और पटरी पर के घर और )ृक्ष सब हमसे घृणा करते हुए भाग रहे हैं। अकस्मात् उसके कान में एक गीत का अंश सुनाई पड़ा-

'मैं कौन जतन से खोलँू!'

उसने ताँगे)ाले को रुकने के सिलये कहा। घण्टी गाती जा रही थी। अँधेरा हो चला था। द्वि)जय ने पुकारा, 'घण्टी!'

घण्टी ताँगे के पास चली आयी। उसने पूछा, 'कहाँ द्वि)जय बाबू?'

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'सब लोग बनारस लौट गये। मैं अकेला मथुरा जा रहा हूँ। अच्छा हुआ, तुमसे भेंट हो गयी!'

'अहा द्वि)जय बाबू! मथुरा मैं भी चलने को थी; पर कल आऊँगी।'

'तो आज क्यों नहीं चलती बैठ जाओ, ताँगे पर जगह तो है।'

इतना कहते हुए द्वि)जय ने बैग ताँगे)ाले के बगल में रख दिदया, घण्टी पास जाकर बैठ गयी।

(3)

मथुरा में चच� के पास एक छोटा-सा, परन्तु साफ-सुथरा बँगला है। उसके चारों ओर तारों से मिघरी हुई ऊँची, जुरांटी की बड़ी घनी टट्टी है। भीतर कुछ फलों के )ृक्ष हैं। हरिरयाली अपनी घनी छाया में उस बँगले को शीतल करती है। पास ही पीपल का एक बड़ा सा )ृक्ष है। उसके नीचे बेंत की कुस¶ पर बैठे हुए मिमस्टर बाथम के सामने एक टेबल पर कुछ कागज द्विबखरे हैं। )ह अपनी धुन में काम में व्यस्त है।

बाथम ने एक भारतीय रमणी से ब्याह कर सिलया है। )ह इतना अल्पभार्षी और गंभीर है द्विक पड़ोस के लोग बाथम को साधु साहब कहते हैं, उससे आज तक द्विकसी से झगड़ा नहीं हुआ, और न उसे द्विकसी ने क्रोध करते देखा। बाहर तो अ)श्य योरोपीय ढंग से रहता है, सो भी के)ल )स्त्र और व्य)हार के सम्बन्ध में; परन्तु उसके घर के भीतर पूण� द्विहन्दू आचार हैं। उसकी स्त्री मारगरेट लद्वितका ईसाई होते हुए भी भारतीय ढंग से रहती है। बाथम उससे प्रसन्न है; )ह कहता है द्विक गृहणीत्) की जैसी सुन्दर योजना भारतीय स्त्री को आती है, )ह अन्यत्र दुल�भ है। इतना आकर्ष�क, इतना माया-ममतापूण� स्त्री-हृदय सुलभ गाह�स्थ्य जी)न और द्विकसी समाज में नहीं। कभी-कभी अपने इन द्वि)चारों के कारण उसे अपने योरोपीय मिमत्रों के सामने बहुत लस्थिज्जत होना पड़ता है; परन्तु उसका यह दृढ़ द्वि)श्वास है। उसका चच� के पादरी पर भी अनन्य प्रभा) है। पादरी जॉन उसके धम�-द्वि)श्वास का अन्यतम समथ�क है। लद्वितका को )ह बूढ़ा पादरी अपनी लड़की के समान प्यार करता है। बाथम चालीस और लद्वितका तीस की होगी। सत्तर बरस का बूढ़ा पादरी इन दोनों को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होता है।

अभी दीपक नहीं जलाये गये थे। कुबड़ी टेकता हुआ बूढ़ा जॉन आ पहुँचा। बाथम उठ खड़ा हुआ, हाथ मिमलाकर बैठते हुए जॉन ने पूछा, 'मारगरेट कहाँ है तुम लोगों को देखकर अत्यन्त प्रसन्नता होती है।'

'हाँ द्विपताजी, हम लोग भी साथ ही चलेंगे।' कहते हुए बाथम भीतर गया और कुछ मिमनटों में लद्वितका एक सफेद रेशमी धोती पहने बाथम के साथ बाहर आ गयी। बूढे़ पादरी ने लद्वितका से सिसर पर हाथ फेरते हुए कहा, 'चलती हो मारगरेट?'

बाथम और जान भी लद्वितका को प्रसन्न रखने के सिलए भारतीय संस्कृद्वित से अपनी पूण� सहानुभूद्वित दिदखाते। )े आपस में बात करने के सिलए प्रायः द्विहन्दी में ही बोलते।

'हाँ द्विपता! मुझे आज द्वि)लम्ब हुआ, अन्यथा मैं ही इनसे चलने के सिलए पहले अनुरोध करती। मेरी रसोईदारिरन आज कुछ बीमार है, मैं उसकी सहायता कर रही थी, इसी से आपको कष्ट करना पड़ा।'

'ओहो! उस दुखिखया सरला को कहती हो। लद्वितका! इसके बपद्वितस्मा न लेने पर भी मैं उस पर बड़ी श्रर्द्धा करता हूँ। )ह एक जीती-जागती करुणा है। उसके मुख पर मसीह की जननी के अंचल की छाया है। उसे क्या हुआ है बेटी?'

'नमस्कार द्विपता! मुझे तो कुछ नहीं हुआ है। लद्वितका रानी के दुलार का रोग कभी-कभी मुझे बहुत सताता है।' कहती हुई एक पचास बरस की प्रौढ़ा स्त्री ने बूढे़ पादरी के सामने आकर सिसर झुका दिदया।

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'ओहो, मेरी सरला! तुम अच्छी हो, यह जानकर मैं बहुत सुखी हुआ। कहो, तुम प्राथ�ना तो करती हो न पद्वि)त्र आत्मा तुम्हारा कल्याण करे। लद्वितका के हृदय में यीशु की प्यारा करुणा है, सरला! )ह तुम्हें बहुत प्यार करती है।' पादरी ने कहा।

'मुझ दुखिखया पर दया करके इन लोगों ने मेरा बड़ा उपकार द्विकया है साहब! भग)ान् इन लोगों का मंगल करे।' प्रौढ़ा ने कहा।

'तुम बपद्वितस्मा क्यों नहीं लेती हो, सरला! इस असहाय लोक में तुम्हारे अपराधों को कौन ऊपर लेगा तुम्हारा कौन उर्द्धार करेगा पादरी ने कहा।

'आप लोगों से सुनकर मुझे यह द्वि)श्वास हो गया है द्विक मसीह एक दयालु महात्मा थे। मैं उनमें श्रर्द्धा करती हूँ, मुझे उनकी बात सुनकर ठीक भाग)त के उस भW का स्मरण हो आता है, झिजसने भग)ान का )रदान पाने को संसार-भर के दुःखों को अपने सिलए माँगा था-अहा! )ैसा ही हृदय महात्मा ईशा का भी था; परन्तु द्विपता! इसके सिलए धम� परिर)त�न करना तो दुब�लता है। हम द्विहन्दुओं का कम�)ाद में द्वि)श्वास है। अपने-अपने कम�फल तो भोगने ही पड़ेंगे।'

पादरी चौंक उठा। उसने कहा, 'तुमने ठीक नहीं समझा। पापों का पzात्ताप �ारा प्रायक्षिzत्त होने पर शीघ्र ही उन कम� को यीशु क्षमा करता है, और इसके सिलए उसने अपना अद्विग्रम रW जमा कर दिदया है।'

'द्विपता! मैं तो यह समझती हूँ द्विक यदिद यह सत्य हो, तो भी इसका प्रचार न होना चाद्विहए; क्योंद्विक मनुष्य को पाप करने का आश्रय मिमलेगा। )ह अपने उत्तरदामियत्) से छुट्टी पा जाएगा।' सरला ने दृढ़ स्)र में कहा।

एक क्षण के सिलए पादरी चुप रहा। उसका मुँह तमतमा उठा। उसने कहा, 'अभी नहीं सरला! कभी तुम इस सत्य को समझोगी। तुम मनुष्य के पzात्ताप के एक दीघ� द्विनःश्वास का मूल्य नहीं जानती हो, प्राथ�ना से झुकी हुई आँखों के आँसू की एक बँूद का रहस्य तुम नहीं समझती।'

'मैं संसार की सताई हूँ, ठोकर खाकर मारी-मारी द्विफरती हूँ। द्विपता! भग)ान के क्रोध को, उनके न्याय को मैं आँचल पसारकर लेती हूँ। मुझे इसमें कायरता नहीं सताती। मैं अपने कम�फल को सहन करने के सिलए )ज्र के समान सबल, कठोर हूँ। अपनी दुब�लता के सिलए कृतज्ञता का बोझ लेना मेरी द्विनयद्वित ने मुझे नहीं सिसखाया। मैं भग)ान् से यही प्राथ�ना करती हूँ द्विक यदिद तेरी इच्छा पूण� हो गयी, इस हाड़-मांस में इस चेतना को रखने के सिलए दण्ड की अ)मिध पूरी हो गयी, तो एक बार हँस दे द्विक मैंने तुझे उत्पन्न करके भर पाया।' कहते-कहते सरला के मुख पर एक अलौद्विकक आत्मद्वि)श्वास, एक सतेज दीन्तिप्त नाच उठी। उसे देखकर पादरी भी चुप हो गया। लद्वितका और बाथम भी स्तब्ध रहे।

सरला के मुख पर थोडे़ ही समय में पू)� भा) लौट आया। उसने प्रकृद्वितk होते हुए द्वि)नीत भा) से पूछा, 'द्विपता! एक प्याली चाय ले आऊँ!'

बाथम ने भी बात बदलने के सिलए सहसा कहा, 'द्विपता! जब तक आप चाय द्विपयें, तब तक पद्वि)त्र कुमारी का एक सुन्दर सिचत्र, जो संभ)तः द्विकसी पुत�गाली सिचत्र की, द्विकसी द्विहन्दुस्तानी मुसव्)र की बनायी प्रद्वितकृद्वित है, लाकर दिदखलाऊँ, सैकड़ों बरस से कम का न होगा।'

'हाँ, यह तो मैं जानता हूँ द्विक तुम प्राचीन कला-सम्बन्धी भारतीय )स्तुओं का व्य)साय करते हो। और अमरीका तथा जम�नी में तुमने इस व्य)साय में बड़ी ख्याद्वित पायी है; परन्तु आzय� है द्विक ऐसे सिचत्र भी तुमको मिमल जाते हैं। मैं अ)श्य देखँूगा।' कहकर पादरी कुरसी से दिटक गया।

सरला चाय लाने गयी और बाथम सिचत्र। लद्वितका ने जैसे स्)प्न देखकर आँख खोली। सामने पादरी को देखकर )ह एक बार द्विफर आपे में आयी। बाथम ने सिचत्र लद्वितका के हाथ में देकर कहा, 'मैं लैंप लेता आऊँ!'

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बूढे़ पादरी ने उत्सुकता दिदखलाते हुए संध्या के मसिलन आलोक में ही उस सिचत्र को लद्वितका के हाथ से लेकर देखना आरम्भ द्विकया था द्विक बाथम ने एक लैम्प लाकर टेबुल पर रख दिदया। )ह ईसा की जननी मरिरयम का सिचत्र था। उसे देखते ही जॉन की आँखें भसिW से पूण� हो गयीं। )ह बड़ी प्रसन्नता से बोला, 'बाथम! तुम बडे़ भाग्य)ान हो।' और बाथम कुछ बोलना ही चाहता था द्विक रमणी की कातर ध्)द्विन उन लोगों को सुनाई पड़ी, 'बचाओ-बचाओ!'

बाथम ने देखा-एक स्त्री दौड़ती-हाँफती हुई चली आ रही है, उसके पीछे दो मनुष्य भी। बाथम ने उस स्त्री को दौड़कर अपने पीछे कर सिलया और घूँसा तानते हुए कड़ककर कहा, 'आगे बढे़ तो जान ले लँूगा।' पीछा करने )ालों ने देखा, एक गोरा मुँह! )े उल्टे पैर लौटकर भागे। सरला ने तब तक उस भयभीत यु)ती को अपनी गोद में ले सिलया था। यु)ती रो रही थी। सरला ने पूछा, 'क्या हुआ है घबराओ मत, अब तुम्हारा कोई कुछ न कर सकेगा।'

यु)ती ने कहा, 'द्वि)जय बाबू को इन सबों ने मारकर द्विगरा दिदया है।' )ह द्विफर रोने लगी।

अबकी लद्वितका ने बाथम की ओर देखकर कहा, 'रामदास को बुलाओ, लालटेन लेकर देखे द्विक बात क्या है?'

बाथम ने पुकारा-'रामदास!'

)ह भी इधर ही दौड़ा हुआ आ रहा था। लालटेन उसके हाथ में थी। बाथम उसके साथ चला गया। बँगले से द्विनकलते ही बायीं ओर मोड़ पड़ता था। )हाँ सड़क की नाली तीन फुट गहरी है, उसी में एक यु)क द्विगरा हुआ दिदखायी पड़ा। बाथम ने उतरकर देखा द्विक यु)क आँखें खोल रहा है। सिसर में चोट आने से )ह क्षण भर मे सिलए मूर्च्छिच्छ\त हो गया था। द्वि)जय पूण� स्)स्थ्य यु)क था। पीछे की आकस्विस्मक चोट ने उसे द्वि))श कर दिदया, अन्यथा दो के सिलए कम न था। बाथम के सहारे )ह उठ खड़ा हुआ। अभी उसे चक्कर आ रहा था, द्विफर भी उसने पूछा, 'घण्टी कहाँ है

')ह मेरे बँगले में हैं, घबराने की आ)श्यकता नहीं। चलो!'

द्वि)जय धीरे-धीरे बँगले में आया और एक आरामकुस¶ पर बैठ गया। इतने में चच� का घण्टा बजा। पादरी ने चलने की उत्सुकता प्रकट की, लद्वितका ने कहा, 'द्विपता! बाथम प्राथ�ना करने जाएगँे; मुझे आज्ञा हो, तो इस द्वि)पन्न मनुष्यों की सहायता करँू, यह भी तो प्राथ�ना से कम नहीं है।'

जान ने कुछ न कहकर कुबड़ी उठायी। बाथम उसके साथ-साथ चला।

अब लद्वितका और सरला द्वि)जय और घण्टी की से)ा में लगी। सरला ने कहा, 'चाय ले आऊँ, उसे पीने से सू्फर्तित\ आ जायेगी।'

द्वि)जय ने कहाँ, 'नहीं धन्य)ाद। अब हम लोग चले जा सकते हैं।'

'मेरी सम्मद्वित है द्विक आज की रात आप लोग इसी बँगले पर द्विबता)ें, संभ) है द्विक )े दुष्ट द्विफर कहीं घात में लगे हों।' लद्वितका ने कहा।

सरला लद्वितका के इस प्रस्ता) से प्रसन्न होकर घण्टी से बोली, 'क्यों बेटी! तुम्हारी क्या सम्मद्वित है तुम लोगों का घर यहाँ से द्विकतनी दूर है?' कहकर रामदास को कुछ संकेत द्विकया।

द्वि)जय ने कहा, 'हम लोग परदेशी हैं, यहाँ घर नहीं। अभी यहाँ आये एक सप्ताह से अमिधक नहीं हुआ है। आज मैं इनके साथ एक ताँगे पर घूमने द्विनकला। दो-तीन दिदन से दो-एक मुसलमान गुण्डे हम लोगों को प्रायः घूम-द्विफरते देखते थे। मैंने उस पर कुछ ध्यान नहीं दिदया था, आज एक ताँगे )ाला मेरे कमरे के पास ताँगा रोककर बड़ी देर तक द्विकसी से बातें करता रहा। मैंने देखा, ताँगा अच्छा है। पूछा, द्विकराये पर चलोगे! उसने प्रसन्नता से स्)ीकार कर सिलया। संध्या हो चली थी। हम लोगों ने घूमने के द्वि)चार से चलना द्विनक्षिzत द्विकया और उस पर जा बैठे।'

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इतने में रामदास चाय का सामान लेकर आया। द्वि)जय ने पीकर कृतज्ञता प्रकट करते हुए द्विफर कहना आरम्भ द्विकया, 'हम लोग बहुत दूर-दूर घूमकर एक चच� के पास पहुँचे। इच्छा हुई द्विक घर लौट चलें, पर उस ताँगे )ाले ने कहा-बाबू साहब, यह चच� अपने ढंग का एक ही है, इसे देख तो लीझिजये। हम लोग कुतूहल से पे्ररिरत होकर इसे देखने के सिलए चले। सहसा अँधेरी झाड़ी में से )े ही दोनों गुण्डे द्विनकल आये और एक ने पीछे से मेरे सिसर पर डंडा मारा। मैं आकस्विस्मक चोट से द्विगर पड़ा। इसके बाद मैं नहीं जानता द्विक क्या हुआ, द्विफर जैसे यहाँ पहुँचा, )ह सब तो आप लोग जानती हैं।'

घण्टी ने कहा, 'मैं यह देखते ही भागी। मुझसे जैसे द्विकसी ने कहा द्विक ये सब मुझे ताँगे पर द्विबठाकर ले भागेंगे। आप लोगों की कृपा से हम लोगों की रक्षा हो गयी।'

सरला घण्टी का हाथ पकड़कर भीतर ले गयी। उसे कपड़ा बदलने को दिदया दूसरी धोती पहनकर जब )ह बाहर आयी, तब सरला ने पूछा, 'घण्टी! ये तुम्हारे पद्वित हैं द्विकतने दिदन बीते ब्याह हुए?'

घण्टी ने सिसर नीचा कर सिलया। सरला के मुँह का भा) क्षण-भर मे परिर)र्तित\त हो गया, पर )ह आज के अद्वितसिथयों की अभ्यथ�ना में कोई अन्तर नहीं पड़ने देना चाहती थी। )ह अपनी कोठरी, जो बँगले से हटकर उसी बाग में थोड़ी दूर पर थी, साफ करने लगी। घण्टी दालान में बैठी हुई थी। सरला ने आकर द्वि)जय से पूछा, 'भोजन तो करिरयेगा, मैं बनाऊँ?'

द्वि)जय ने कहा, 'आपकी बड़ी कृपा है। मुझे कोई संकोच नहीं।'

इधर सरला को बहुत दिदनों पर दो अद्वितसिथ मिमले।

दूसरे दिदन प्रभात की द्विकरणों ने जब द्वि)जय की कोठरी में प्र)ेश द्विकया, तब सरला भी द्वि)जय को देख रही थी। )ह सोच रही थी-यह भी द्विकसी माँ का पुत्र है-अहा! कैसे स्नेह की सम्पद्वित है। दुलार ने यह डाँटा नहीं गया, अब अपने मन का हो गया।

द्वि)जय की आँख खुली। अभी सिसर में पीड़ा थी। उसने तद्विकये से सिसर उठाकर देखा-सरला का )ात्सल्यपूण� मुख। उसने नमस्कार द्विकया। बाथम )ायु से)न कर लौटा आ रहा था, उसने भी पूछा, 'द्वि)जय बाबू, अब पीड़ा तो नहीं है?'

'अब )ैसी तो नहीं है, इस कृपा के सिलए धन्य)ाद।'

'धन्य)ाद की आ)श्यकता नहीं। हाथ-मुँह धोकर आइये, तो कुछ दिदखाऊँगा। आपकी आकृद्वित से प्रकट है द्विक हृदय में कला-सम्बंधी सुरुसिच है।' बाथम ने कहा।

'मैं अभी आता हूँ।' कहता हुआ द्वि)जय कोठरी से बाहर चला आया। सरला ने कहा, 'देखा, इसी कोठरी के दूसरे भाग में सब सामान मिमलेगा। झटपट चाय के समय में आ जाओ।' द्वि)जय उधर गया।

पीपल के )ृक्ष के नीचे मेज पर एक फूलदान रखा है। उसमें आठ-दस गुलाब के फूल लगे हैं। बाथम, लद्वितका, घण्टी और द्वि)जय बैठे हैं। रामदास चाय ले आया। सब लोगों ने चाय पीकर बातें आरम्भ कीं। द्वि)जय और घण्टी के संबंध में प्रश्न हुए और उनका चलता हुआ उत्तर मिमला-द्वि)जय काशी का एक धनी यु)क है और घण्टी उसकी मिमत्र है। यहाँ दोनों घूमने-द्विफरने आये हैं।

बाथम एक पक्का दुकानदार था। उसने मन में द्वि)चारा द्विक मुझे इससे क्या, सम्भ) है द्विक ये कुछ सिचत्र खरीद लें, परन्तु लद्वितका को घण्टी की ओर देखकर आzय� हुआ, उसने पूछा, 'क्या आप लोग द्विहन्दू हैं?'

द्वि)जय ने कहा 'इसमें भी कोई सन्देह है?'

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सरला दूर खड़ी इन लोगों की बातें सुन रही थी। उसको एक प्रकार की प्रसन्नता हुई। बाथम ने कमरे में द्वि)क्रय के सिचत्र और कलापूण� सामान सजाये हुए थे। )ह कमरा छोटी-सी एक प्रदश�नी थीं। दो-चार सिचत्रों पर द्वि)जय ने अपनी सम्मद्वित प्रकट की, झिजसे सुनकर बाथम बहुत ही प्रसन्न हुआ। उसने द्वि)जय से कहा, 'आप तो सचमुच इस कला के मम�ज्ञ हैं, मेरा अनुमान ठीक ही था।'

द्वि)जय ने हँसते हुए कहा, 'मैं सिचत्रकला से बड़ा पे्रम रखता हूँ। मैंने बहुत से सिचत्र बनाये भी हैं। और महाशय, यदिद आप क्षमा करें, तो मैं यहाँ तक कह सकता हूँ द्विक इनमें से द्विकतने सुन्दर सिचत्र, झिजन्हें आप प्राचीन और बहुमूल्य कहते हैं, )े असली नहीं हैं।'

'बाथम को कुछ क्रोध और आzय� हुआ। पूछा, 'आप इसका प्रमाण दे सकते हैं?'

'प्रमाण नहीं, मैं एक सिचत्र की प्रद्वितसिलद्विप कर दँूगा। आप देखते नहीं, इन सिचत्रों के रंग ही कह रहे हैं द्विक )े आजकल के हैं-प्राचीन समय में )े बनते ही कहाँ थ,े और सोने की न)ीनता कैसी बोल रही है। देखिखये न!' इतना कहकर एक सिचत्र बाथम के हाथ में उठाकर दिदया। बाथम ने ध्यान से देखकर धीरे-धीरे टेबुल पर रख दिदया और द्विफर हँसते हुए द्वि)जय के दोनों हाथ पकड़कर हाथ द्विहला दिदया और कहा, 'आप सच कहते हैं। इस प्रकार से मैं स्)यं ठगा गया और दूसरे को भी ठगता हूँ। क्या कृपा करके आप कुछ दिदन और मेरे अद्वितसिथ होंगे आप झिजतने दिदन मथुरा में रहें। मेरे ही यहाँ रहें-यह मेरी हार्दिद\क प्राथ�ना है। आपके मिमत्र को कोई भी असुद्वि)धा न होगी। सरला द्विहन्दुस्तानी रीद्वित से आपके सिलए सब प्रबन्ध करेगी।'

लद्वितका आzय� में थी और घण्टी प्रसन्न हो रही थी। उसने संकेत द्विकया। द्वि)जय मन में द्वि)चारने लगा-क्या उत्तर दँू, द्विफर सहसा उसे स्मरण हुआ द्विक मथुरा में एक द्विनस्सहाय और कंगाल मनुष्य है। जब माता ने छोड़ दिदया है, तब उसे कुछ करके ही जी)न द्विबताना होगा। यदिद यह काम कर सका, तो...)ह झटपट बोल उठा, 'आप जैसे सज्जन के साथ रहने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी, परन्तु मेरा थोड़ा-सा सामान है, उसे ले आना होगा।'

'धन्य)ाद! आपके सिलए तो मेरा यही छोटा-सा कमरा आद्विफस का होगा और आपकी मिमत्र मेरी स्त्री के साथ रहेगी।'

बीच में ही सरला ने कहा, 'यदिद मेरी कोठरी में कष्ट न हो, तो )हीं रह लेंगी।'

घण्टी मुस्कराई। द्वि)जय ने कहा, 'हाँ ठीक ही तो होगा।'

सहसा इस आश्रय के मिमल जाने से उन दोनों को द्वि)चार करने का अ)सर नहीं मिमला।

बाथम ने कहा, 'नहीं-नहीं, इसमें मैं अपना अपमान समझँूगा।' घण्टी हँसने लगी। बाथम लस्थिज्जत हो गया; परन्तु लद्वितका ने धीरे से बाथम को समझा दिदया द्विक घण्टी को सरला के साथ रहने में द्वि)शेर्ष सुद्वि)धा होगी।

द्वि)जय और घण्टी का अब )हीं रहना द्विनक्षिzत हो गया।

बाथम के यहाँ रहते द्वि)जय को महीनों बीत गये। उसमे काम करने की सू्फर्तित\ और परिरश्रम ही उत्कण्ठा बढ़ गयी है। सिचत्र सिलए )ह दिदन भर तूसिलका चलाया करता है। घंटों बीतने पर )ह एक बार सिसर उठाकर खिखड़की से मौलसिसरी )ृक्ष की हरिरयाली देख लेता। )ह नादिदरशाह का एक सिचत्र अंद्विकत कर रहा था, झिजसमें नादिदरशाह हाथी पर बैठकर उसकी लगाम माँग रहा था। मुगल दरबार के चापलूस सिचत्रकार ने यद्यद्विप उसे मूख� बनाने के सिलए ही यह सिचत्र बनाया था, परन्तु इस साहसी आक्रमणकारी के मुख से भय नहीं, प्रत्युत पराधीन स)ारी पर चढ़ने की एक शंका ही प्रकट हो रही है। सिचत्रकार ने उसे भयभीत सिचद्वित्रत करने का साहस नहीं हुआ। संभ)तः उस आँधी के चले जाने के बाद मुहम्मदशाह उस सिचत्र को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ होगा। प्रद्वितसिलद्विप ठीक-ठीक हो रही थी। बाथम उस सिचत्र को देखकर बहुत प्रसन्न हो रहा था। द्वि)जय की कला-कुशलता में उसका पूरा द्वि)श्वास हो चला था-)ैसे ही पुराने रंग-मसाले, )ैसी ही अंकन-शैली थी।'

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कोई भी उसे देखकर यह नहीं कह सकता था द्विक यह प्राचीन दिदल्ली कलम का सिचत्र नहीं है।

आज सिचत्र पूरा हुआ है। अभी )ह तूसिलका हाथ से रख ही रहा था द्विक दूर पर घण्टी दिदखाई दी। उसे जैसे उते्तजना की एक घूँट मिमली, थका)ट मिमट गयी। उसने तर आँखों से घण्टी का अल्हड़ यौ)न देखा। )ह इतना अपने काम में ल)लीन था द्विक उसे घण्टी का परिरचय इन दिदनों बहुत साधारण हो गया था। आज उसकी दृमिष्ट में न)ीनता थी। उसने उल्लास से पुकारा, 'घण्टी!'

घण्टी की उदासी पलभर में चली गयी। )ह एक गुलाब का फूल तोड़ती हुई उस खिखड़की के पास आ पहुँची। द्वि)जय ने कहा, 'मेरा सिचत्र पूरा हो गया।'

'ओह! मैं तो घबरा गयी थी द्विक सिचत्र कब तक बनेगा। ऐसा भी कोई काम करता है। न न द्वि)जय बाबू, अब आप दूसरा सिचत्र न बनाना-मुझे यहाँ लाकर अचे्छ बन्दीगृह में रख दिदया! कभी खोज तो लेते, एक-दो बात भी तो पूछ लेते!' घण्टी ने उलाहनों की झड़ी लगा दी। द्वि)जय ने अपनी भूल का अनुभ) द्विकया। यह द्विनक्षिzत नहीं है द्विक सौन्दय� हमें सब समय आकृष्ट कर ले। आज द्वि)जय ने एक क्षण के सिलए आँखें खोलकर घण्टी को देखा-उस बासिलका में कुतूहल छलक रहा है। सौन्दय� का उन्माद है। आकर्ष�ण है!

द्वि)जय ने कहा, 'तुम्हें बड़ा कष्ट हुआ, घण्टी!'

घण्टी ने कहा, 'आशा है, अब कष्ट न दोगे!'

पीछे से बाथम ने प्र)ेश करते हुए कहा, 'द्वि)जय बाबू, बहुत सुन्दर 'मॉडल' है। देखिखये, यदिद आप नादिदरशाह का सिचत्र पूरा कर चुके हो तो एक मौसिलक सिचत्र बनाइये।'

द्वि)जय ने देखा, यह सत्य है। एक कुशल सिशल्पी की बनायी हुई प्रद्वितमा-घण्टी खड़ी रही। बाथम सिचत्र देखने लगा। द्विफर दोनों सिचत्रों को मिमलाकर देखा। उसने सहसा कहा, 'आzय�! इस सफलता के सिलए बधाई।'

द्वि)जय प्रसन्न हो रहा था। उसी समय बाथम ने द्विफर कहा, 'द्वि)जय बाबू, मैं घोर्षणा करता हूँ द्विक आप भारत के एक प्रमुख सिचत्रकार होंगे! क्या आप मुझे आज्ञा देंगे द्विक मैं इस अ)सर पर आपके मिमत्र को कुछ उपहार दँू?'

द्वि)जय हँसने लगा। बाथम ने अपनी उँगली से हीरे की अँगूठी द्विनकाली और घण्टी की ओर बढ़ानी चाही। )ह द्विहचक रहा था। घण्टी हँस रही थी। द्वि)जय ने देखा, चंचल घण्टी की आँखों में हीरे का पानी चमकने लगा था। उसने समझा, यह बासिलका प्रसन्न होगी। सचमुच दोनों हाथों में सोने की एक-एक पतली चूद्विड़यों के अद्वितरिरW और कोई आभूर्षण घण्टी के पास न था। द्वि)जय ने कहा, 'तुम्हारी इच्छा हो तो पहन सकती हो।' घण्टी ने हाथ फैलाकर ले ली।

व्यापारी बाथम ने द्विफर गला साफ करते हुए कहा, 'द्वि)जय बाबू, स्)तन्त्र व्य)साय और स्)ा)लम्बन का महत्त्) आप लोग कम समझते हैं, यही कारण है द्विक भारतीयों के उत्तम गुण दबे रह जाते हैं। मैं आज आप से यह अनुरोध करता हूँ द्विक आपके माता-द्विपता चाहे झिजतने धन)ान हों, परन्तु उस कला को व्य)साय की दृमिष्ट से कीझिजये। आप सफल होंगे, मैं इसमें आपका सहायक हूँ। क्या आप इस नये मॉडल पर एक मौसिलक सिचत्र बनायेंगे?'

द्वि)जय ने कहा, 'आज द्वि)श्राम करँूगा, कल आपसे कहूँगा।'

(4)

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आज द्विकतने दिदनों बाद द्वि)जय सरला की कोठरी में बैठा है। घण्टी लद्वितका के साथ बातें करने चली गयी। द्वि)जय को सरला ने अकेले पाकर कहा, 'बेटा, तुम्हारी भी माँ होगी, उसको तुम एक बारगी भूलकर इस छोकरी के सिलए इधर-उधर मारे-मारे क्यों द्विफर रहे हो आह, )ह द्विकतनी दुखी होगी!'

द्वि)जय सिसर नीचा द्विकये चुप रहा। सरला द्विफर कहने लगी, 'द्वि)जय! कलेजा रोने लगता है। हृदय कचोटने लगता है, आँखें छटपटाकर उसे देखने के सिलए बाहर द्विनकलने लगती हैं, उत्कण्ठा साँस बनकर दौड़ने लगती है। पुत्र का स्नेह बड़ा पागल स्नेह है, द्वि)जय! म्पिस्त्रयाँ ही स्नेह की द्वि)चारक हैं। पद्वित के पे्रम और पुत्र के स्नेह में क्या अंतर है, यह उनको ही द्वि)दिदत है। अहा, तुम द्विनषु्ठर लड़के क्या जानोगे! लौट जाओ मेरे बच्चे! अपनी माँ की सूनी गोद में लौट जाओ।' सरला का गम्भीर मुख द्विकसी व्याकुल आकांक्षा में इस समय द्वि)कृत हो रहा था।

द्वि)जय को आzय� हुआ। उसने कहा, 'क्या आप के भी कोई पुत्र था?'

'था द्वि)जय, बहुत सुन्दर था। परमात्मा के )रदान के समान शीतल, शान्तिन्तपूण� था। हृदय की अकांक्षा के सदृश गम�। मलय-प)न के समान कोमल सुखद स्पश�। )ह मेरी द्विनमिध, मेरा स)�स्) था। नहीं, मैं कहती हूँ द्विक कहीं है! )ह अमर है, )ह सुन्दर है, )ही मेरा सत्य है। आह द्वि)जय! पचीस बरस हो गये उसे देखे हुए पचीस बरस! दो युग से कुछ ऊपर! पर मैं उसे देखकर मरँूगी।' कहते-कहते सरला की आँखों से आँसू द्विगरने लगे।

इतने में एक अन्धा लाठी टेकते हुए सरला के �ार पर आया। उसे देखते ही सरला गरज उठी, 'आ गया! द्वि)जय, यही है उसे ले भागने )ाला! पूछो इसी से पूछो!'

उस अन्धे ने लकड़ी रखकर अपना मस्तक पृथ्)ी पर टेक दिदया, द्विफर सिसर ऊँचा कर बोला, 'माता! भीख दो! तुमसे भीख लेकर जो पेट भरता हूँ, )ही मेरा प्रायक्षिzत्त है। मैं अपने कम� का फल भोगने के सिलए भग)ान की आज्ञा से तुम्हारी ठोकर खाता हूँ। क्या मुझे और कहीं भीख नहीं मिमलती नहीं, यही मेरा प्रायक्षिzत्त है। माता, अब क्षमा की भीख दो, देखती नहीं हो, द्विनयद्वित ने इस अन्धे को तुम्हारे पास तक पहुँचा दिदया! क्या )ही तुमको-आँखों )ाली को-तुम्हारे पुत्र तक न पहुँचा देगा?'

द्वि)जय द्वि)स्मय देख रहा था द्विक अंधे की फूटी आँखों से आँसू बह रहे हैं। उसने कहा, 'भाई, मुझे अपनी राम कहानी तो सुनाओ।'

घण्टी )हीं आ गयी थी। अब अन्धा सा)धान होकर बैठ गया।

उसने कहना तो आरम्भ द्विकया-'हमारा घराना एक प्रद्वितमिष्ठत धम�गुरुओं का था। बीसों गाँ) के लोग हमारे यहाँ आते-जाते थे। हमारे पू)�जों की तपस्या और त्याग से, यह मया�दा मुझे उत्तरामिधकार में मिमली थी। )ंशानुक्रम से हम लोग मंत्रोपदेष्टा होते आये थे। हमारे सिशष्य सम्प्रदाय में यह द्वि)श्वास था द्विक सांसारिरक आपदाए ँद्विन)ारण करने की हम लोगों की बहुत बड़ी रहस्यपूण� शसिW है। रही होगी मेरे पू)�जों में, परन्तु मैं उन सब गुणों से रद्विहत था। मैं परले सिसरे का धूत� था। मुझे मंत्रों पर द्वि)श्वास न था, झिजतना अपने चुटकुलों पर। मैं चालाकी से भूत उतार देता, रोग अचे्छ कर देता। )न्ध्या को संतान देता, ग्रहों की आकाश गद्वित में परिर)त�न कर देता, व्य)साय में लक्ष्मी की )र्षा� कर देता। चाहे सफलता एक-दो को ही मिमलती रही हो, परन्तु धाक में कमी नहीं थी। मैं कैसे क्या-क्या करता, उन सब घृक्षिणत बातों को न कहकर, के)ल सरला के पुत्र की बात सुनाता हूँ-पाली गाँ) में मेरा एक सिशष्य था। उसने एक महीने की लड़की और अपनी यु)ती द्वि)ध)ा को छोड़कर अकाल में ही स्)ग� यात्रा की। )ह द्वि)ध)ा धनी थी, उसे पुत्र की बड़ी लालसा थी; परन्तु पद्वित थ ेनहीं, पुनर्ति)\)ाह असम्भ) था। उसके मन में द्विकसी तरह यह बात बैठ गयी द्विक बाबाजी चाहे तो यही पुत्री पुत्र बन जायेगी। अपने इस प्रस्ता) को लेकर बडे़ प्रलोभन के साथ )ह मेरे पास आयी। मैंने देखा द्विक सुयोग है। उसने कहा-तुम द्विकसी से कहना मत, एक महीने बाद मकर-संक्रांद्वित के योग में यह द्विकया जा सकता है। )हीं पर गंगा समुद्र हो जाती है, द्विफर लड़की से लड़का क्यों नहीं होगा, उसके मन में यह बात बैठ गयी। हम लोग ठीक समय पर गंगा सागर पहुँचे। मैंने अपना लक्ष्य ढँूढ़ना आरम्भ द्विकया। उसे मन ही मन में ठीक कर सिलया। उस द्वि)ध)ा से लड़की लेकर मैं सिसझिर्द्ध के सिलए एकांत में गया-)न में द्विकनारे पर जा पहुँच गया। पुसिलस उधर लोगों को

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जाने नहीं देती। उसकी आँखों से बचकर मै जंगल की हरिरयाली में चला गया। थोड़ी देर में दौड़ता हुआ मेले की ओर आया और उस समय में बराबर सिचल्ला रहा था, 'बाघ! बाघ! लोग भयभीत होकर भागने लगे। मैंने देखा द्विक मेरा द्विनक्षिzत बालक )हीं पड़ा है। उसकी माँ अपने सासिथयों को उसे दिदखाकर द्विकसी आ)श्यक काम से दो चार मिमनट के सिलए हट गयी थी। उसी क्षण भगदड़ का प्रारम्भ हुआ था। मैंने झट उस लडकी को )हीं रखकर लड़के को उठा सिलया और द्विफर कहने लगा-देखो, यह द्विकसकी लड़की है। पर उस भीड़ में कौन द्विकसकी सुनता था। मैं एक ही साँस में अपनी झोंपड़ी की ओर आया-और हँसते-हँसते द्वि)ध)ा की गोद में लड़की के बदले लड़का देकर अपने को सिसर्द्ध प्रमास्थिण्त कर सका। यहाँ पर कहने की आ)श्यकता नहीं द्विक )ह स्त्री द्विकस प्रकार उस लड़के को ले आयी। बच्चा भी छोटा था, ढँककर द्विकसी प्रकार हम लोग द्विनर्ति)\घ्न लौट आये। द्वि)ध)ा को मैंने समझा दिदया था द्विक तीन दिदन तक कोई इसका मुँह न देख सके, नहीं तो द्विफर लड़की बन जाने की संभा)ना है। मैं बराबर उस मेले मे घूमता रहा और अब उस लड़की की खोज मे लग गया। पुसिलस ने भी खोज की; पर उसका कोई लेने )ाला नहीं मिमला। मैंने देखा द्विक एक द्विनस्संतान चौबे की द्वि)ध)ा ने उस लड़की को पुसिलस )ालों से पालने के सिलए माँग सिलया। और अब मैं इसके साथ चला, उसे दूसरे स्टीमर में द्विबठाकर ही मैंने साँस ली। सन्तान-प्रान्तिप्त में मैं उसका सहायक था। मैंने देखा द्विक यही सरला, जो आज मुझे क्षिभक्षा दे रही है, लड़के के सिलए बराबर रोती रही; पर मेरा हृदय पत्थर था, न द्विपघला। लोगों ने बहुत कहा द्विक तू उस लड़की को पाल-पोस, पर उसे तो गोद्वि)न्दी चौबाइन की गोद में रहना था।

घण्टी अकस्मात् चौक उठी, 'क्या कहा! गोद्वि)न्दी चौबाइन?'

'हाँ गोद्वि)न्दी, उस चौबाइन का नाम गोद्वि)न्दी था! झिजसने उस लड़की को अपनी गोद में सिलया।' अंधे ने कहा।

घण्टी चुप हो गयी। द्वि)जय ने पूछा, 'क्या है घण्टी?'

घण्टी ने कहा, 'गोद्वि)न्दी तो मेरी माँ का नाम था। और )ह यह कहा करती तुझे मैंने अपनी ही लड़की-सा पाला है।'

सरला ने कहा, 'क्या तुमको गोद्वि)न्दी से कहीं से पाकर ही पाल-पोसकर बड़ा द्विकया, )ह तुम्हारी माँ नहीं थी।'

घण्टी-'नहीं )ह आप भी यजमानों की भीख पर जी)न व्यतीत करती रही और मुझे भी दरिरद्र छोड़ गयी।'

द्वि)जय ने कौतुक से कहा, 'तब तो घण्टी तुम्हारी माँ का पता लग सकता है क्यों जी बुडे्ढ! तुम यदिद इसको )ही लड़की समझो, झिजसका तुमने बदला द्विकया था, तो क्या इसकी माँ का पता बता सकते हो?'

'ओह! मैं उसे भली-भाँद्वित जानता हूँ; पर अब )ह कहाँ है, कह नहीं सकता। क्योंद्विक उस लड़के को पाकर भी )ह खुशी नहीं रह सकी। उसे राह से ही सन्देह हो गया द्विक यह मेरी लड़की से लड़का नहीं बना, )स्तुतः कोई दूसरा लड़का है; पर मैंने उसे डाँटकर समझा दिदया द्विक अब अगर द्विकसी से कहेगी, तो लड़का चुराने के अक्षिभयोग में सजा पा)ेगी। )ह लड़का रोते हुए दिदन द्विबताता। कुछ दिदन बाद हर�ार का एक पंडा गाँ) में आया। )ह उसी द्वि)ध)ा के घर में ठहरा। उन दोनों में गुप्त पे्रम हो गया। अकस्मात् )ह एक दिदन लड़के को सिलए मेरे पास आयी और बोली-इसे नगर के द्विकसी अनाथालय में रख दो, मैं अब हर�ार जाती हूँ। मैंने कुछ प्रद्वित)ाद न द्विकया, क्योंद्विक उसका अपने गाँ) के पास से टल जाना ही अच्छा समझता था। मैं सहमत हुआ। और )ह द्वि)ध)ा उस पंडे के साथ ही हर�ार चली गयी। उसका नाम था नन्दा।'

अंधा कहकर चुप हुआ।

द्वि)जय ने कहा, 'बुडे्ढ! तुम्हारी यह दशा कैसे हुई?'

')ह सुनकर क्या करोगे। अपनी करनी का फल भोग रहा हूँ, इसिससिलए मैं अपनी पाप कथा सबसे कहता द्विफरता हूँ, तभी तो इनसे भेंट हुई। भीख दो माता, अब हम जायें।' अंधे ने कहा।

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सरला ने कहा, 'अच्छा एक बात बताओगे?'

'क्या?'

'उस बालक के गले में एक सोने का बड़ा-सा यंत्र था, उसे भी तुमने उतार सिलया होगा सरला ने उत्कण्ठा से पूछा।

'न, न, न। )ह बालक तो उसे बहुत दिदनों तक पहने था, और मुझे स्मरण है, )ह तब तक न था जब मैंने उसे अनाथालय में सौंपा था। ठीक स्मरण है, )हाँ के अमिधकारी से मैंने कहा था-इसे सुरक्षिक्षत रखिखए, सम्भ) है द्विक इसकी यही पहचान हो, क्योंद्विक उस बालक पर मुझे दया आयी; परन्तु )ह दया द्विपशाच की दया थी।'

सहसा द्वि)जय ने पूछा, 'क्या आप बता सकती हैं-)ह कैसा यंत्र था?'

)ह यंत्र हम लोगों के )ंश का प्राचीन रक्षा-क)च था, न जाने कब से मेरे कुल के सब लड़कों को )ह एक बरस की अ)kा तक पहनाया जाता था। )ह एक द्वित्रकोण स्)ण�-यंत्र था।' कहते-कहते सरला के आँसू बहने लगे।

अन्धे को भीख मिमली। )ह चला गया। सरला उठकर एकांत में चली गयी। घण्टी कुछ काल तक द्वि)जय को अपनी ओर आकर्तिर्ष\त करने के चुटकुले छोड़ती रही; परन्तु द्वि)जय एकान्त लिच\ता-द्विनमग्न बना रहा।

(5)

द्वि)चार सागर में डूबती-उतराती हुई घण्टी आज मौलसिसरी के नीचे एक सिशला-खण्ड पर बैठी है। )ह अपने मन से पूछती थी-द्वि)जय कौन है, जो मैं उसे रसाल)ृक्ष समझकर लता के समान सिलपटी हूँ। द्विफर उसे आप ही आप उत्तर मिमलता-तो और दूसरा कौन है मेरा लता का तो यही धम� है द्विक जो समीप अ)लम्ब मिमले, उसे पकड़ ले और इस सृमिष्ट में सिसर ऊँचा करके खड़ी हो जाये। अहा! क्या मेरी माँ जीद्वि)त है

पर द्वि)जय तो सिचत्र बनाने में लगा है। )ह मेरा ही तो सिचत्र बनाता है, तो भी मैं उसके सिलए द्विनज¶) प्रद्वितमा हूँ, कभी-कभी )ह सिसर उठाकर मेरी भौंहों के झुका) को, कपोलों के गहरे रंग को देख लेता है और द्विफर तूसिलका की माज�नी से उसे हृदय के बाहर द्विनकाल देता है। यह मेरी आराधना तो नहीं है। सहसा उसके द्वि)चारों में बाधा पड़ी। बाथम ने आकर घण्टी से कहा, 'क्या मैं पूछ सकता हूँ?'

'कद्विहए।' सिसर का कपड़ा सम्हालते हुए घण्टी ने कहा।

'द्वि)जय से आपकी द्विकतने दिदनों की जान-पहचान है?'

'बहुत थोडे़ दिदनों की-यही )ृदा)न से।'

'तभी )ह कहता था...'

'कौन क्या कहता था?'

'दरोगा, यद्यद्विप उसका साहस नहीं था द्विक मुझसे कुछ अमिधक कहे; पर इसका अनुमान है द्विक आपको द्वि)जय कहीं से भगा लाया है।'

'घण्टी द्विकसी की कोई नहीं है; जो उसकी इच्छा होगी )ही करेगी! मैं आज ही द्वि)जय बाबू से कहूँगी द्विक )ह मुझे लेकर कहीं दूसरे घर में चलें।'

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'बाथम ने देखा द्विक )ह स्)तन्त्र यु)ती तनकर खड़ी हो गयी। उसकी नसें फूल रही थीं। इसी समय लद्वितका ने )हाँ पहुँचकर एक काण्ड उपस्थिkत कर दिदया। उसने बाथम की ओर तीक्ष्ण दृमिष्ट से देखते हुए पूछा, 'तुम्हारा क्या अक्षिभप्राय था?'

सहसा आक्रान्त होकर बाथम ने कहा, 'कुछ नहीं। मैं चाहता था द्विक यह ईसाई होकर अपनी रक्षा कर लें, क्योद्विक इसके...'

बात काटकर लद्वितका ने कहा, 'और यदिद मैं द्विहन्दू हो जाऊँ?'

बाथम ने फँसे हुए गले से कहा, 'दोनों हो सकते हैं। पर तुम मुझे क्षमा करोगी लद्वितका?'

बाथम के चले जाने पर लद्वितका ने देखा द्विक अकस्मात् अन्धड़ के समान यह बातों का झोंका आया और द्विनकल गया।

घण्टी रो रही थी। लद्वितका उसके आँसू पूछती थी। बाथम के हाथ की हीरे की अँगूठी सहसा घण्टी की उँगसिलयों में लद्वितका ने देखी, )ह चौंक उठी। लद्वितका का कोमल हृदय कठोर कल्पनाओं से भर गया। )ह उसे छोड़कर चली गयी।

चाँदनी द्विनकलने पर घण्टी आपे में आयी। अब उसकी द्विनस्सहाय अ)kा सपष्ट हो गयी। )ृदा)न की गसिलयों में यों ही द्विफरने )ाली घण्टी कई महीनों की द्विनक्षिzत जी)नचया� में एक नागरिरक मद्विहला बन गयी थी। उसके रहन-सहन बदल गये थे। हाँ, एक बात और उसके मन में खटकने लगी थी-)ह अन्धे की कथा। क्या सचमुच उसकी माँ जीद्वि)त है उसका मुW हृदय लिच\ताओं की उमस )ाली संध्या में प)न के समान द्विनरुर्द्ध हो उठा। )ह द्विनरीह बासिलका के समान फूट-फूटकर रोने लगी।

सरला ने आकर उसे पुकारा, 'घण्टी क्या यहीं बैठी रहोगी उसने सिसर नीचा द्विकए हुए उत्तर दिदया, 'अभी आती हूँ।' सरला चली गयी। कुछ काल तक )ह बैठी रही, द्विफर उसी पत्थर पर अपने पैर समेटकर )ह लेट गयी। उसकी इच्छा हुई-आज ही यह घर छोड़ दे। पर )ह )ैसा नहीं कर सकी। द्वि)जय को एक बार अपनी मनोव्यथा सुना देने की उसे बड़ी लालसा थी। )ह लिच\ता करते-करते सो गयी।

द्वि)जय अपने सिचत्रों को रखकर आज बहुत दिदनों पर मदिदरा से)न कर रहा था। शीशे के एक बडे़ द्विगलास में सोडा और बरफ से मिमली हुई मदिदरा सामने मेज से उठाकर )ह कभी-कभी दो घूँट पी लेता है। धीरे-धीरे नशा गहरा हो चला, मुँह पर लाली दौड़ गयी। )ह अपनी सफलताओं से उते्तझिजत था। अकस्मात् उठकर बँगले से बाहर आया; बगीचे में टहलने लगा, घूमता हुआ घण्टी के पास जा पहुँचा। अनाथ-सी घण्टी अपने दुःखों में सिलपटी हुई दोनों हाथों से अपने घुटने लपेटे हुए पड़ी थी। )ह दीनता की प्रद्वितमा थी। कला )ाली आँखों ने चाँदनी रात में यह देखा। )ह उसके ऊपर झुक गया। उसे प्यार करने की इच्छा हुई, द्विकसी )ासना से नहीं, )रन् एक सहृदयता से। )ह धीरे-धीरे अपने होंठ उसके कपोल के पास तक ले गया। उसकी गरम साँसों की अनुभूद्वित घण्टी को हुई। )ह पल भर के सिलए पुलद्विकत हो गयी, पर आँखें बंद द्विकये रही। द्वि)जय ने प्रमोद से एक दिदन उसके रंग डालने के अ)सर पर उसका आलिल\गन करके घण्टी के हृदय में न)ीन भा)ों की सृमिष्ट कर दी थी। )ह उसी प्रमोद का आँख बंद करके आह्वान करने लगी; परन्तु नशे में चूर द्वि)जय ने जाने क्यों सचेत हो गया। उसके मुँह से धीरे से द्विनकल पड़ा, 'यमुना!' और )ह हटकर खड़ा हो गया।

द्वि)जय सिचन्तिन्तत भा) से लौट पड़ा। )ह घूमते-घूमते बँगले से बाहर द्विनकल आया और सड़क पर यों ही चलने लगा। आधे घन्टे तक )ह चलता गया, द्विफर उसी सड़क से लौटने लगा। बडे़-बडे़ )ृक्षों की छाया ने सड़क पर चाँदनी को कहीं-कहीं सिछपा सिलया है। द्वि)जय उसी अन्धकार में से चलना चाहता है। यह चाँदनी से यमुना और अँधेरी से घण्टी की तुलना करता हुआ अपने मन के द्वि)नोद का उपकरण जुटा रहा है। सहसा उसके कानों में कुछ परिरसिचत स्)र सुनाई पडे़। उसे स्मरण हो आया-उसी इक्के )ाले का शब्द। हाँ ठीक है, )ही तो है। द्वि)जय दिठठककर खड़ा हो गया।

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साइद्विकल पकडे़ एक सब-इंसे्पक्टर और साथ में )ही ताँगे )ाला, दोनों बातें करते हुए आ रहे है-सब-इसे्पक्टर, 'क्यों न)ाब! आजकल कोई मामला नहीं देते हो?'

ताँगे)ाला-'इतने मामले दिदये, मेरी भी खबर आप ने ली?'

सब-इसे्पक्टर-'तो तुम रुपया चाहते हो न?'

ताँगे)ाला-'पर यह इनाम रुपयों में न होगा!'

सब-इसे्पक्टर-'द्विफर क्या?'

ताँगे)ाला-'रुपया आप ले लीझिजए, मुझे तो )ह बुत मिमल जाना चाद्विहए। इतना ही करना होगा।'

सब-इसे्पक्टर-'ओह! तुमने द्विफर बड़ी बात छेड़ी, तुम नहीं जानते हो, यह बाथम एक अग्रेज है और उसकी उन लोगों पर मेहरबानी है। हाँ, इतना हो सकता है द्विक तुम उसको अपने हाथों में कर लो, द्विफर मैं तुमको फँसने न दँूगा।'

ताँगे)ाला-'यह तो जान जोखिखम का सौदा है।'

सब-इन्से्पक्टर-'द्विफर मैं क्या करँू पीछे लगे रहो, कभी तो हाथ लग जायेगी। मैं सम्हाल लँूगा। हाँ, यह तो बताओ, उस चौबाइन का क्या हुआ, झिजसे तुम द्विबन्दरा)न की बता रहे थे। मुझे नहीं दिदखलाया, क्यों?'

ताँगे)ाला-')ही तो )हाँ है! यह परदेसी न जाने कहाँ से कूद पड़ा। नहीं तो अब तक...'

दोनों बातें करते अब आगे बढ़ गये। द्वि)जय ने पीछा करके बातों को सुनना अनुसिचत समझा। )ह बँगले की ओर शीघ्रता से चल पड़ा।

कुरसी पर बैठे )ह सोचने लगा-सचमुच घण्टी एक द्विनस्सहाय यु)ती है, उसकी रक्षा करनी ही चाद्विहए। उसी दिदन से द्वि)जय ने घण्टी से पू)�)त् मिमत्रता का बता�) प्रारम्भ कर दिदया-)ही हँसना-बोलना, )ही साथ घूमना-द्विफरना।

द्वि)जय एक दिदन हैण्डबैग की सफाई कर रहा था। अकस्मात् उसी मंगल का )ह यन्त्र और सोना मिमल गया। उसने एकान्त में बैठकर उसे द्विफर बनाने का प्रयत्न द्विकया और यह कृतकाय� भी हुआ-सचमुच )ह एक द्वित्रकोण स्)ण�-यन्त्र बन गया। द्वि)जय के मन में लड़ाई खड़ी हो गयी-उसने सोचा द्विक सरला से उसके पुत्र को मिमला दँू, द्विफर उसे शंका हुई, सम्भ) है द्विक मंगल उसका पुत्र न हो! उसने असा)धानता से उस प्रश्न को टाल दिदया। नहीं कहा जा सकता द्विक इस द्वि)चार में मंगल के प्रद्वित द्वि)�ेर्ष ने भी कुछ सहायता की थी या नहीं।

बहुत दिदनों की पड़ी हुई एक सुन्दर बाँसुरी भी उसके बैग में मिमल गयी, )ह उसे लेकर बजाने लगा। द्वि)जय की दिदनचया� द्विनयमिमत हो चली। सिचत्र बनाना, )ंशी बजाना और कभी-कभी घण्टी के साथ बैठकर ताँगे पर घूमने चले जाना, इन्हीं कामों में उसका दिदन सुख से बीतने लगा।

(6)

)ृन्दा)न से दूर एक हरा-भरा टीला है, यमुना उसी से टकराकर बहती है। बडे़-बडे़ )ृक्षों की इतनी बहुतायत है द्विक )ह टीला दूर से देखने पर एक बड़ा छायादार द्विनकंुज मालूम पड़ता है। एक ओर पत्थर की सीदिढ़याँ हैं, झिजनमें चढ़कर ऊपर जाने पर श्रीकृष्ण का एक छोटा-सा मझिन्दर है और उसके चारों ओर कोठरी तथा दालानें हैं।

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गोस्)ामी श्रीकृष्ण उस मझिन्दर के अध्यक्ष एक साठ-पैंसठ बरस के तपस्)ी पुरुर्ष हैं। उनका स्)च्छ )स्त्र, ध)ल केश, मुखमंडल की अरुक्षिणमा और भसिW से भरी आँखें अलौद्विकक प्रभा का सृजन करती हैं। मूर्तित\ के सामने ही दालान में )े प्रातः बैठे रहते हैं। कोठरिरयों में कुछ )ृर्द्ध साधु और )यस्का म्पिस्त्रयाँ रहती हैं। सब भग)ान का सास्वित्त्)क प्रसाद पाकर सन्तुष्ट और प्रसन्न हैं। यमुना भी यहीं रहती है।

एक दिदन कृष्ण शरण बैठे हुए कुछ सिलख कहे थे। उनके कुशासन पर लेखन सामग्री पड़ी थी। एक साधु बैठा हुआ उन पत्रों को एकत्र कर रहा था। प्रभात अभी तरुण नहीं हुआ था, बसन्त का शीतल प)न कुछ )स्त्रों की आ)श्यकता उत्पन्न कर रहा था। यमुना उस प्रांगण में झाड़ू दे रही थी। गोस्)ामी ने सिलखना बन्द करके साधु से कहा, 'इन्हें समेटकर रख दो।' साधु ने सिलद्विपपत्रों को बाँधते हुए पूछा, 'आज तो एकादशी है, भारत का पाठ न होगा?'

'नहीं।'

साधु चला गया। यमुना अभी झाड़ू लगा रही थी। गोस्)ामी ने सस्नेह पुकारा, 'यमुने!'

यमुना झाड़ू रखकर, हाथ जोड़कर सामने आयी। कृष्णशरण ने पूछा-

'बेटी! तुझे कोई कष्ट तो नहीं है?'

'नहीं महाराज!'

'यमुने! भग)ान दुखिखयों से अत्यंत स्नेह करते हैं। दुःख भग)ान का सास्वित्त्)क दान है-मंगलमय उपहार है। इसे पाकर एक बार अन्तःकरण के सच्चे स्)र से पुकारने का, सुख अनुभ) करने का अभ्यास करो। द्वि)श्राम का द्विनःश्वास के)ल भग)ान् के नाम के साथ ही द्विनकलता है बेटी!'

यमुना गद्गद हो रही थी। एक दिदन भी ऐसा नहीं बीतता, झिजस दिदन गोस्)ामी आश्रम)ासिसयों को अपनी सान्त्)नामयी )ाणी से सन्तुष्ट न करते। यमुना ने कहा, 'महाराज, और कोई से)ा हो तो आज्ञा दीझिजए।'

'मंगल इत्यादिद ने मुझसे अनुरोध द्विकया है द्विक मैं स)�साधारण के लाभ के सिलए आश्रम में कई दिदनों तक सा)�जद्विनक प्र)चन करँू। यद्यद्विप मैं इसे अस्)ीकार करता रहा, द्विकन्तु बाध्य होकर मुझे करना ही पडे़गा। यहाँ पूरी स्)च्छता रहनी चाद्विहए, कुछ बाहरी लोगों के आने की संभा)ना है।'

यमुना नमस्कार करके चली गयी।

कृष्णशरण चुपचाप बैठे रहे। )े एकटक कृष्णचन्द्र की मूर्तित\ की ओर देख रहे थे। यह मूर्तित\ )ृन्दा)न की और मूर्तित\यों से द्वि)लक्षण थी। एक श्याम, ऊज�स्विस्)त, )यस्क और प्रसन्न गंभीर मूर्तित\ खड़ी थी। बायें हाथ से कदिट से आबर्द्ध नन्दक खड्ग की मूड पर बल दिदये दाद्विहने हाथ की अभय मुद्रा से आश्वासन की घोर्षणा करते हुए कृष्णचन्द्र की यह मूर्तित\ हृदय की हलचलों को शान्त कर देती थी। सिशल्पी की कला सफल थी।'

कृष्णशरण एकटक मूर्तित\ को देख रहे थे। गोस्)ामी की आँखों से उस समय द्विबजली द्विनकल रही थी, जो प्रद्वितमा को सजी) बना रही थी। कुछ देर बाद उसकी आँखों से जलधारा बहने लगी। और )े आप-ही-आप कहने लगे, 'तुम्हीं ने प्रण द्विकया था द्विक जब-जब धम� की ग्लाद्विन होगी, हम उसका उर्द्धार करने के सिलए आ)ेंगे! तो क्या अभी द्वि)लम्ब है तुम्हारे बाद एक शान्तिन्त का दूत आया था, )ह दुःख को अमिधक स्पष्ट बनाकर चला गया। द्वि)रागी होकर रहने का उपदेश दे गया; परन्तु उस शसिW को स्थिkर रखने के सिलए शसिW कहाँ रही द्विफर से बब�रता और निह\सा ताण्ड)-नृत्य करने लगी है, क्या अब भी द्वि)लम्ब है?'

जैसे मूर्तित\ द्वि)चसिलत हो उठी।

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एक ब्रह्मचारी ने आकर नमस्कार द्विकया। )े भी आशी)ा�द देकर उसकी ओर घूम पडे़। पूछा, 'मंगल दे)! तुम्हारे ब्रह्मचारी कहाँ हैं?'

'आ गये हैं गुरुदे)!'

'उन सबों को काम बाँट दो और कर्�तव्य समझा दो। आज प्रायः बहुत से लोग आ)ेंगे।'

'जैसी आज्ञा हो, परन्तु गुरुदे)! मेरी एक शंका है।'

'मंगल, एक प्र)चन में अपनी अनुभूद्वित सुनाऊँगा, घबराओ मत। तुम्हारी सब शंकाओं का उत्तर मिमलेगा।'

मंगलदे) ने सन्तोर्ष से द्विफर झुका दिदया। )ह लौटकर अपने ब्रह्मचारिरयों के पास चला आया।

आश्रम में दो दिदनों से कृष्ण-कथा हो रही थी। गोस्)ामी जी बाल चरिरत्र कहकर उसका उपसंहार करते हुए बोले-'धम� और राजनीद्वित से पीद्विड़त याद)-जनता का उर्द्धार करके भी श्रीकृष्ण ने देखा द्विक याद)ों को ब्रज में शांद्वित न मिमलेगी।

प्राचीनतंत्र के पक्षपाती नृशंस राजन्य-)ग� मन्)न्तर को मानने के सिलए प्रस्तुत न थ;े )ह मनन की द्वि)चारधारा सामूद्विहक परिर)त�न करने )ाली थी। क्रमागत रूदिढ़याँ और अमिधकार उसके सामने काँप रहे थे। इन्द्र पूजा बन्द हुई, धम� का अपमान! राजा कंस मारा गया, राजनीद्वितक उलट-फेर!! ब्रज पर प्रलय के बादल उमडे़। भूखे भेद्विड़यों के समान, प्राचीनता के समथ�क याद)ों पर टूट पडे़। बार-बार शत्रुओं को पराझिजत करके भी श्रीकृष्ण ने द्विनzय द्विकया द्विक ब्रज को छोड़ देना चाद्विहए।

)े यदुकुल को लेकर न)ीन उपद्विन)ेश की खोज में पक्षिzम की ओर चल पडे़। गोपाल ने ब्रज छोड़ दिदया। यही ब्रज है। अत्याचारिरयों की नृशंसता से यदुकुल के अक्षिभजात-)ग� ने ब्रज को सूना कर दिदया। द्विपछले दिदनों में ब्रज में बसी हुई पशुपालन करने )ाली गोद्विपयाँ, झिजनके साथ गोपाल खेले थ,े झिजनके सुख को सुख और दुःख समझा, झिजनके साथ झिजये, बडे़ हुए, झिजनके पशुओं के साथ )े कड़ी धूप में घनी अमराइयों में करील के कंुजों में द्वि)श्राम करते थ-े)े गोद्विपयाँ, )े भोली-भाली सरल हृदय अकपट स्नेह )ाली गोद्विपयाँ, रW-मांस के हृदय )ाली गोद्विपयाँ, झिजनके हृदय में दया थी, आशा थी, द्वि)श्वास था, पे्रम का आदान-प्रदान था, इसी यमुना के कछारों में )ृक्षों के नीचे, बसन्त की चाँदनी में, जेठ की धूप में छाँह लेती हुई, गोरस बेचकर लौटती हुई, गोपाल की कहाद्विनयाँ कहतीं। द्विन)ा�सिसत गोपाल की सहानुभूद्वित से उस क्रीड़ा के स्मरण से, उन प्रकाशपूण� आँखों की ज्योद्वित से, गोरिरयों की स्मृद्वित इन्द्रधनुर्ष-सी रंग जाती। )े कहाद्विनयाँ पे्रम से अद्वितरंझिजत थीं, स्नेह से परिरप्लुत थीं, आदर से आद्र� थीं, सबको मिमलाकर उनमें एक आत्मीयता थी, हृदय की )ेदना थी, आँखों का आँसू था! उन्हीं को सुनकर, इस छोडे़ हुए ब्रज में उसी दुःख-सुख की अतीत सहानुभूद्वित से सिलपटी हुई कहाद्विनयों को सुनकर आज भी हम-तुम आँसू बहा देते हैं! क्यों )े पे्रम करके, पे्रम सिसखलाकर, द्विनम�ल स्)ाथ� पर हृदयों में मान)-पे्रम को द्वि)कसिसत करके ब्रज को छोड़कर चले गये सिचरकाल के सिलए। बाल्यकाल की लीलाभूमिम ब्रज का आज भी इससिलए गौर) है। यह )ही ब्रज है। )ही यमुना का द्विकनारा है!'

कहते-कहते गोस्)ामी की आँखों से अद्वि)रल अश्रुधारा बहने लगी। श्रोता भी रो रहे थे।

गोस्)ामी चुप होकर बैठ गये। श्रोताओं ने इधर-उधर होना आरम्भ द्विकया। मंगल दे) आश्रम में ठहरे हुए लोगों के प्रबन्ध में लग गया। परन्तु यमुना )ह दूर एक मौलसिसरी के )ृक्ष की नीचे चुपचाप बैठी थी। )ह सोचती थी-ऐसे भग)ान भी बाल्यकाल में अपनी माता से अलग कर दिदये गये थ!े उसका हृदय व्याकुल हो उठा। )ह द्वि)स्मृत हो गयी द्विक उसे शान्तिन्त की आ)श्यकता है। डेढ़ सप्ताह के अपने हृदय के टुकडे़ के सिलए )ह मचल उठी-)ह अब कहाँ है क्या जीद्वि)त है उसका पालन कौन करता होगा )ह झिजयेगा अ)श्य, ऐसे द्विबना यत्न के बालक जीते हैं, इसका तो इतना प्रमाण मिमल गया है! हाँ, और )ह एक नर रत्न होगा, )ह महान होगा! क्षण-भर में माता का हृदय मंगल-कामना से भर उठा। इस समय उसकी आँखों में आँसू न थे। )ह शान्त बैठी थी। चाँदनी द्विनखर रही थी! मौलसिसरी के पत्तों के

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अन्तराल से चन्द्रमा का आलोक उसके बदन पर पड़ रहा था! म्पिस्नग्ध मातृ-भा)ना से उसका मन उल्लास से परिरपूण� था। भग)ान की कथा के छल से गोस्)ामी ने उसके मन के एक सन्देह, एक असंतोर्ष को शान्त कर दिदया था।

मंगलदे) को आगन्तुकों के सिलए द्विकसी )स्तु की आ)श्यकता थी। गोस्)ामी जी ने कहा, 'जाओ यमुना से कहो।' मंगल यमुना का नाम सुनते ही एक बार चौंक उठा। कुतहूल हुआ, द्विफर आ)श्यकता से पे्ररिरत होकर द्विकसी अज्ञात यमुना को खोजने के सिलए आश्रम के द्वि)स्तृत प्रांगण में घूमने लगा।

मौलसिसरी के )ृक्ष के नीचे यमुना द्विनzल बैठी थी। मंगलदे) ने देखा एक स्त्री है, यही यमुना होगी। समीप पहुँचकर देखा, तो )ही यमुना थी!

पद्वि)त्र दे)-मझिन्दर की दीप-सिशखा सी )ह ज्योर्तित\मयी मूर्तित\ थी। मंगलदे) ने उसे पुकारा-'यमुना!'

)ात्सल्य-द्वि)भूद्वित के काल्पद्विनक आनन्द से पू)� उसके हृदय में मंगल के शब्द ने तीव्र घृणा का संचार कर दिदया। )ह द्वि)रW होकर अपरिरसिचत-सी बोल उठी, 'कौन है?'

'गोस्)ामी जी की आज्ञा है द्विक...' आगे कुछ कहने में मंगल असमथ� हो गया, उसका गला भरा�ने लगा।

'जो )स्तु चाद्विहए, उसे भण्डारी जी से जाकर कद्विहए, मैं कुछ नहीं जानती।' यमुना अपने काल्पद्विनक सुख में भी बाधा होते देखकर अधीर हो उठी।

मंगल ने द्विफर संयत स्)र में कहा, 'तुम्हीं से कहने की आज्ञा हुई है।'

अबकी यमुना ने स्)र पहचान और सिसर उठाकर मंगल को देखा। दारुण पीड़ा से )ह कलेजा थामकर बैठ गयी। द्वि)दु्य�ेग से उसके मन में यह द्वि)चार नाच उठा द्विक मंगल के अत्याचार के कारण मैं )ात्सल्य-सुख से )ंसिचत हूँ। इधर मंगल ने समझा द्विक मुझे पहचानकर ही )ह द्वितरस्कार कर रही है। आगे कुछ न कह )ह लौट पड़ा।

गोस्)ामी जी )हाँ पहुँचे तो देखते हैं, मंगल लौटा जा रहा है और यमुना बैठी रो रही है। उन्होंने पूछा, 'क्या है बेटी?'

यमुना द्विहचद्विकयाँ लेकर रोने लगी। गोस्)ामी जी बडे़ सन्देह में पडे़ कुछ काल तक खडे़ रहने पर )े इतना कहते हुए चले गये-निक\सिचत् सा)धान करके मेरे पास आकर सब बात कह जाना!

यमुना गोस्)ामी जी की संदिदग्ध आज्ञा से ममा�हत हुई और अपने को सम्हालने को प्रयत्न करने लगी।

रात-भर उसे नींद न आयी।

(7)

उत्स) का समारोह था। गोस्)ामी जी व्यासपीठ पर बैठे हुए थे। व्याख्यान प्रारम्भ होने )ाला ही था; उसी साहबी ठाट से घण्टी को साथ सिलये सभा में आया आज यमुना दुःखी होकर और मंगल ज्)र में, अपने-अपने कक्ष में पडे़ थे। द्वि)जय सन्नर्द्ध था-गोस्)ामी जी का द्वि)रोध करने की प्रद्वितज्ञा, अ)हेलना और परिरहास उसकी आकृद्वित से प्रकट थे।

गोस्)ामी जी सरल भा) से कहने लगे-'उस समय आया�)त्त� में एकान्त शासन का प्रचण्ड ताण्ड) चल रहा था। सुदूर सौराष्ट में श्रीकृष्ण के साथ याद) अपने लोकतंत्र की रक्षा में लगे थे। यद्यद्विप सम्पन्न याद)ों की द्वि)लासिसता और र्षड्यत्रों से गोपाल को भी कदिठनाइयाँ झेलनी पड़ीं, द्विफर भी उन्होंने सुधमा� के सम्मान की रक्षा की। पांचाल में कृष्ण का स्)यम्बर था। कृष्ण के बल पर पाडण्) उसमें अपना बल-द्वि)क्रम लेकर प्रकट हुए। पराभूत होकर कौर)ों ने भी

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उन्हें इन्द्रप्रk दिदया। कृष्ण ने धम� राज्य kापना का दृढ़ संकल्प द्विकया था, अतः आततामिययों के दमन की आ)श्यकता थी। मागध जरासन्ध मारा गया। सम्पूण� भारत में पाण्ड)ों की, कृष्ण की संरक्षता में धाक जम गयी। नृशंस यज्ञों की समान्तिप्त हुई। बन्दी राज)ग� तथा बसिलपशु मुW होते ही कृष्ण की शरण में हुए। महान हर्ष� के साथ राजसूय यज्ञ हुआ। राजे-महाराजे काँप उठे। अत्याचारी शासकों को शीत-ज्)र हुआ। उस समय धम�राज की प्रद्वितष्ठा में साधारण कम�कारों के समान नतमस्तक होकर काम करते रहे। और भी एक बात हुई। आया�)त्त� ने उसी द्विन)ा�सिसत गोपाल को आzय� से देखा, सम)ेत महाजनों में अग्रपूजा और अघ्य� का अमिधकारी! इतना बड़ा परिर)त�न! सब दाँतों तले उँगली दाबे हुए देखते रहे। उसी दिदन भारत ने स्)ीकार द्विकया-गोपाल पुरुर्षोत्तम है। प्रसाद से युमिधमिष्ठर से धम�-साम्राज्य को अपनी व्यसिWगत सम्पक्षित्त समझ ली, इससे कुचद्विक्रयों का मनोरथ सफल हुआ धम�राज द्वि)शंृखल हुआ; परन्तु पुरुर्षोत्तम ने उसका जैसे उर्द्धार द्विकया, )ह तुम लोगों ने सुना होगा-महाभारत की युर्द्धकथा से। भयानक जनक्षय करके भी सास्वित्त्)क द्वि)चारों की रक्षा हुई और भी सुदृढ़ महाभारत की kापना हुई, झिजनमें नृशंस राजन्य)ग� नष्ट द्विकये गये। पुरुर्षोत्तम ने )ेदों की अद्वित)ाद और उनके नाम पर होने )ाले अत्याचारों का उचे्छद द्विकया। बुझिर्द्ध)ाद का प्रचार हुआ। गीता �ारा धम� की, द्वि)श्वास की, द्वि)राट की, आत्म)ाद की द्वि)मल व्याख्या हुई। स्त्री, )ैश्य, शूद्र और पापयोद्विन कहकर जो धमा�चरण का अमिधकार मिमला। साम्य की मद्विहमा उद्घोद्विर्षत हुई। धम� में, राजनीद्वित में, समाज-नीद्वित में स)�त्र द्वि)कास हुआ। )ह मान)जाद्वित के इद्वितहास में महाप)� था। पशु और मनुष्य के भी साम्य की घोर्षणा हुई। )ह पूण� संस्कृद्वित थी। उसके पहले भी )ैसा नही हुआ और उसके बाद भी पूण�ता ग्रहण करने के सिलए मान) सिशक्षिक्षत न हो सके, क्योंद्विक सत्य को इतना सममिष्ट से ग्रहण करने के सिलए दूसरा पुरुर्षोत्तम नहीं हुआ। मान)ता का सामंजस्य बने रहने की जो व्य)kा उन्होंने की, )ह आगामी अनन्त दिद)सों तक अक्षुण्ण रहेगी।

तस्मान्नोद्वि�जते लोको लोकान्नोद्वि�जते च य;

------------------------------------------------------

जो लोक से न घबराये और झिजससे लोक न उद्वि�ग्न हो, )ही पुरुर्षोत्तम का द्विप्रय मान) है, जो सृमिष्ट को सफल बनाता है।

द्वि)जय ने प्रश्न करने की चेष्टा की; परन्तु उसका साहस न हुआ।

गोस्)ामी ने व्यासपीठ से हटते हुए चारों ओर दृमिष्ट घुमाई, यमुना और मंगल नहीं दिदखाई पडे़। )े उन्हें खोजते हुए चल पडे़। श्रोतागण भी चले गये थे। कृष्णशरण ने यमुना को पुकारा। )ह उठकर आयी। उसकी आँखें तरुण, मुख द्वि))ण�, रसना अ)ाक् और हृदय धड़कनों से पूण� था। गोस्)ामी जी ने उससे पूछा। उसे साथ आने का संकेत करके )े मंगल की कोठरी की ओर बढे़। मंगल अपने द्विबछा)न पर पड़ा था। गोस्)ामी जी को देखते ही उठ खड़ा हुआ। )ह अभी भी ज्)र मे आक्रांत था। गोस्)ामी जी ने पूछा, 'मंगल! तुमने इस अबला का अपमान द्विकया था?'

मंगल चुप रहा।

'बोलो, क्या तुम्हारा हृदय पाप से भर गया था?'

मंगल अब भी चुप रहा। अब गोस्)ामी जी से रहा न गया।

'तो तुम मौन रहकर अपना अपराध स्)ीकार करते हो?'

)ह बोला, नहीं।

'तुम्हे सिचत्त-शुझिर्द्ध की आ)श्यकता है। जाओ से)ा में लगो, समाज-से)ा करके अपना हृदय शुर्द्ध बनाओ। जहाँ म्पिस्त्रयाँ सताई जाए,ँ मनुष्य अपमाद्विनत हो, )हाँ तुमको अपना दम्भ छोड़कर कत्त�व्य करना होगा। इसे दण्ड न समझो। यही तुम्हारा द्विक्रयामाण कम� है। पुरुर्षोत्तम ने लोक-संग्रह द्विकया था, )े मान)ता के द्विहत में लगे रहे, अन्यथा अत्याचार के

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द्वि)रुर्द्ध सदै) युर्द्ध करते रहे। अपने द्विकए हुए अन्याय के द्वि)रुर्द्ध तुम्हें अपने से लड़ना होगा। उस असुर को परास्त करना होगा। गुरुकुल यहाँ भेज दो; तुम अबलाओं की से)ा में लगो। भग)ान् की भूमिम भारत में जंगलों में अभी पशु-जी)न द्विबता रहे हैं। म्पिस्त्रयाँ द्वि)पथ पर जाने के सिलए बाध्य की जाती हैं, तुमको उनका पक्ष लेना पडे़गा।

उठो!

मंगल ने गोस्)ामी जी के चरण छुए। )ह सिसर झुकाये चला गया। गोस्)ामी ने घूमकर यमुना की ओर देखा। )ह सिसर नीचा द्विकये रो रही थी। उसके सिसर पर हाथ फेरते हुए कृष्णशरण ने कहा, 'भूल जाओ यमुना, उसके अपराध को भूल जाओ।'

परन्तु यमुना मंगल को और उसके अपराध को कैसे भूल जाती?'

(8)

घण्टी और द्वि)जय बाथम के बँगले पर लौटकर गोस्)ामी जी के सम्बन्ध में काफी देर तक बातचीत करते रहे। द्वि)जय ने अंत में कहा, 'मुझे तो गोस्)ामी की बातें कुछ जँचती नहीं। कल द्विफर चलँूगा। तुम्हारी क्या सम्मद्वित है, घण्टी?'

'मैं भी चलँूगी।'

)े दोनों उठकर सरला की कोठरी की ओर चले गये। अब दोनों )हीं रहते हैं। लद्वितका ने कुछ दिदनों से बाथम से बोलना छोड़ दिदया है। बाथम भी पादरी के साथ दिदन द्विबताता है आजकल उसकी धार्मिम\क भा)ना प्रबल हो गयी है।

मूर्तित\मती लिच\ता-सी लद्वितका यंत्र चसिलत पाद-द्वि)पक्ष करती हुई दालान में आकर बैठ गयी। पलकों के परदे द्विगरे हैं। भा)नाए ँअसु्फट होकर द्वि)लीन हो जाती हैं-मैं द्विहन्दू थी...हाँ द्विफर...सहसा आर्सिथ\क कारणों से द्विपता...माता ईसाई....यमुना के पुल पर से रेलगाड़ी आती थी...झक...झक...झक आलोक माला का हार पहने सन्ध्या में...हाँ यमुनी की आरती भी होती थी...अरे )े कछुए...मैं उन्हें चने खिखलाती थी...पर मुझे रेलगाड़ी का संगीत उन घण्टों से अच्छा लगता...द्विफर एक दिदन हम लोग द्विगरजाघर जा पहुँचे। इसके बाद...द्विगरजाघर का घण्टा सुनने लगी...ओह। मैं लता-सी आगे बढ़ने लगी...बाथम एक सुन्दर हृदय की आंकाक्षा-सा सुरुसिचपूण� यौ)न का उन्माद...पे्ररणा का प)न...मैं सिलपट गयी...कू्रर...द्विनद�य...मनुष्य के रूप में द्विपशाच....मेरे धन का पुजारी...व्यापारी...चापलूसी बेचने )ाला। और यह कौन ज्)ाला घण्टी...बाथम अहसनीय...ओह!

लद्वितका रोने लगी। रूमाल से उसने मुँह ढक सिलया। )ह रोती रही। जब सरला ने आकर उसके सिसर पर हाथ फेरा, तब )ह चैतन्य हुई-सपने से चौंककर उठ बैठी। लैंप का मंद प्रकाश सामने था। उसने कहा-

'सरला, मैं दुःस्)प्न देख रही थी।'

'मेरी सम्मद्वित है द्विक इन दोनों अद्वितसिथयों को द्विबदा कर दिदया जाये। प्यारी मारगरेट, तुमको बड़ा दुःख है।' सरला ने कहा।

'नहीं, नहीं, बाथम को दुःख होगा!' घबराकर लद्वितका ने कहा।

उसी समय बाथम ने आकर दोनों को चद्विकत कर दिदया। उसने कहा, 'लद्वितका! मुझे तुमसे कुछ पूछना है।'

'मैं कल सुनँूगी द्विफर कभी...मेरा सिसर दुख रहा है।' बाथम चला गया। लद्वितका सोचने लगी-कैसी भयानक बात-उसी को स्)ीकार करके क्षमा माँगना। बाथम! द्विकतनी द्विनल�ज्जता है। मैं द्विफर क्षमा क्यों न करँूगी। परन्तु कह नहीं सकती।

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आह, द्विबचू्छ के डंक-सी )े बातें! )ह द्वि))ाद! मैंने ऐसा नहीं द्विकया, तुम्हारा भ्रम था, तुम भूलती हो-यानी न कहना है द्विकतनी झूठी बात! )ह झूठ कहने में संकोच नहीं कर सकता-द्विकतना पद्वितत! 'लद्वितका, चलो सो रहो।' सरला ने कहा।

लद्वितका ने आँख खोलकर देखा-अँधेरा चाँदनी को द्विपये जाता है! अस्त-व्यस्त नक्षत्र, श)री रजनी की टूटी हुई काँचमाला के टुकडे़ हैं, उनमें लद्वितका अपने हृदय का प्रद्वितद्विबम्ब देखने की चेष्टा करने लगी। सब नक्षत्रों में द्वि)कृत प्रद्वितद्विबम्ब )ह डर गयी! काँपती हुई उसने सरला का हाथ पकड़ सिलया।

सरला ने उसे धीरे-धीरे पलंग तक पहुँचाया। )ह जाकर पड़ रही, आँखें बन्द द्विकये थी, )ह डर से खोलती न थी। उसने मेर्ष-शा)क और सिशशु उसको प्यार कर रहा है; परन्तु यह क्या-यह क्या-)ह द्वित्रशूल-सी कौन द्वि)भीद्विर्षका उसके पीछे खड़ी है! ओह, उसकी छाया मेर्ष-शा)क और सिशशु दोनों पर पड़ रही है।

लद्वितका ने अपने पलकों पर बल दिदया, उन्हें दबाया, )ह सो जाने की चेष्टा करने लगी। पलकों पर अत्यंत बल देने से मुँदी आँखों के सामने एक आलोक-चक्र घूमने लगा। आँखें फटने लगीं। ओह चक्र! क्रमशः यह प्रखर उज्ज्)ल आलोक नील हो चला, मेघों के जल में यह शीतल नील हो चला, देखने योग्य-सुदश�न आँखें ठंडी हुईं, नींद आ गयी।

समारोह का तीसरा दिदन था। आज गोस्)ामी जी अमिधक गम्भीर थे। आज श्रोता लोग भी अच्छी संख्या में उपस्थिkत थे। द्वि)जय भी घण्टी के साथ ही आया था। हाँ, एक आzय�जनक बात थी-उसके साथ आज सरला और लद्वितका भी थीं। बुड्ढा पादरी भी आया था।

गोस्)ामी जी का व्याख्यान आरम्भ हुआ-

'द्विपछले दिदनों में मैंने पुरुर्षोत्तम की प्रारस्विम्भक जी)नी सुनाई थी, आज सुनाऊँगा उनका संदेश। उनका संदेश था-आत्मा की स्)तन्त्रता का, साम्य का, कम�योग का और बुझिर्द्ध)ाद का। आज हम धम� के झिजस ढाँचे को-श) को-घेरकर रो रहे हैं, )ह उनका धम� नहीं था। धम� को )े बड़ी दूर की पद्वि)त्र या डरने की )स्तु नहीं बतलाते थे। उन्होंने स्)ग� का लालच छोड़कर रूदिढ़यों के धम� को पाप कहकर घोर्षणा की। उन्होंने जी)नमुW होने का प्रचार द्विकया। द्विनःस्)ाथ� भा) से कम� की महत्ता बतायी और उदाहरणों से भी उसे सिसर्द्ध द्विकया। राजा नहीं थ;े पर अनायास ही )े महाभारत के सम्राट हो सकते थ,े पर हुए नहीं। सौन्दय�, बल, द्वि)द्या, )ैभ), महत्ता, त्याग कोई भी ऐसे पदाथ� नहीं थ,े जो अप्राप्य रहे हों। )े पूण� काम होने पर भी समाज के एक तटk उपकारी रहे। जंगल के कोने में बैठकर उन्होंने धम� का उपदेश कार्षाय ओढ़कर नहीं दिदया; )े जी)न-युर्द्ध के सारथी थे। उसकी उपासना-प्रणाली थी-द्विकसी भी प्रकार लिच\ता का अभा) होकर अन्तःकरण का द्विनम�ल हो जाना, द्वि)कल्प और संकल्प में शुर्द्ध-बुझिर्द्ध की शरण जानकर कत�व्य द्विनzय करना। कम�-कुशलता उसका योग है। द्विनष्काम कम� करना शान्तिन्त है। जी)न-मरण में द्विनभ�य रहना, लोक-से)ा करते कहना, उनका संदेश है। )े आय� संस्कृद्वित के शुर्द्ध भारतीय संस्करण है। गोपालों के संग )े पले, दीनता की गोद में दुलारे गये। अत्याचारी राजाओं के लिस\हासन उलटे-करोड़ों बलोन्मत्त नृशंसों के मरण-यज्ञ में )े हँसने )ाले अध्)यु� थे। इस आया�)त्त� को महाभारत बनाने )ाले थे। )े धम�राज के संkापक थे। सबकी आत्मा स्)तंत्र हो, इससिलए समाज की व्या)हारिरक बातों को )े शरीर-कम� कहकर व्याख्या करते थ-ेक्या यह पथ सरल नहीं, क्या हमारे )त�मान दुःखों में यह अ)लम्बन न होगा सब प्राक्षिणयों से द्विन)·र रखने )ाला शान्तिन्तपूण� शसिW-सं)सिलत मान)ता का ऋतु पथ, क्या हम लोगों के चलने योग्य नहीं है?'

सम)ेत जनमण्डली ने कहा, 'है, अ)श्य है!'

'हाँ, और उसमें कोई आडम्बर नहीं। उपासना के सिलए एकांत द्विनश्चिz\त अ)kा, और स्)ाध्याय के सिलए चुने हुए श्रुद्वितयों के सार-भाग का संग्रह, गुणकम� से द्वि)शेर्षता और पूण� आत्मद्विनष्ठा, सबकी साधारण समता-इतनी ही तो चाद्विहए। काया�लय मत बनाइये, मिमत्रों के सदृश एक-दूसरे को समझाइये, द्विकसी गुरुडम की आ)श्यकता नहीं। आय�-संस्कृद्वित अपना तामस त्याग, झूठा द्वि)राग छोड़कर जागेगी। भूपृष्ठ के भौद्वितक देहात्म)ादी चौंक उठें गे, यान्तिन्त्रत सभ्यता के पतनकाल में )ही मान)जाद्वित का अ)लम्बन होगी।'

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'पुरुर्षोत्तम की जय!' की ध्)द्विन से )ह kान गँूज उठा। बहुत से लोग चले गये।

द्वि)जय ने हाथ जोड़कर कहा, 'महाराज! मैं कुछ पूछना चाहता हूँ। मैं इस समाज से उपेक्षिक्षता, अज्ञातकुलशीला घण्टी से ब्याह करना चाहता हूँ। इसमें आपकी क्या अनुमद्वित है?'

'मेरा तो एक ही आदश� है। तुम्हें जानना चाद्विहए द्विक परस्पर पे्रम का द्वि)श्वास कर लेने पर याद)ों के द्वि)रुर्द्ध रहते भी सुभद्रा और अजु�न के परिरणय को पुरुर्षोत्तम ने सहायता दी, यदिद तुम दोनों में परस्पर पे्रम है, तो भग)ान् को साक्षी देकर तुम परिरणय के पद्वि)त्र बन्धन में बँध सकते हो।' कृष्णशरण ने कहा।

द्वि)जय बडे़ उत्साह से घण्टी का हाथ पकडे़ दे)-द्वि)ग्रह के सामने आया और )ह कुछ बोलना ही चाहता था द्विक यमुना आकर खड़ी हो गयी। )ह कहने लगी, 'द्वि)जय बाबू, यह ब्याह आप के)ल अहंकार से करने जा रहे हैं, आपका पे्रम घण्टी पर नहीं है।'

बुड्ढ़ा पादरी हँसने लगा। उसने कहा, 'लौट जाओ बेटी! द्वि)जय, चलो! सब लोग चलें।'

द्वि)जय ने हतबुझिर्द्ध के समान एक बार यमुना को देखा। घण्टी गड़ी जा रही थी। द्वि)जय का गला पकड़कर जैसे द्विकसी ने धक्का दिदया। )ह सरला के पास लौट आया। लद्वितका घबराकर सबसे पहले ही चली। सब ताँगों पर आ बैठे। गोस्)ामी जी के मुख पर स्विस्मत-रेखा झलक उठी।

(1)

श्रीचन्द्र का एकमात्र अन्तरंग सखा धन था, क्योंद्विक उसके कौटुम्पिम्बक जी)न में कोई आनन्द नहीं रह गया था। )ह अपने व्य)साय को लेकर मस्त रहता। लाखों का हेर-फेर करने में उसे उतना ही सुख मिमलता झिजतना द्विकसी द्वि)लासी को द्वि)लास में।

काम से छुट्टी पाने पर थका)ट मिमटाने के सिलए बोतल प्याला और व्यसिW-द्वि)शेर्ष के साथ थोडे़ समय तक आमोद-प्रमोद कर लेना ही उसके सिलए पया�प्त था। चन्दा नाम की एक धन)ती रमणी कभी-कभी प्रायः उससे मिमला करती; परन्तु यह नहीं कहा जा सकता द्विक श्रीचन्द्र पूण� रूप से उसकी ओर आकृष्ट था। यहाँ यह हुआ द्विक आमोद-प्रमोद की मात्रा बढ़ चली। कपास के काम में सहसा घाटे की संभा)ना हुई। श्रीचन्द्र द्विकसी का आश्रय अंक खोजने लगा। चन्दा पास ही थी। धन भी था, और बात यही थी द्विक चन्दा उसे मानती भी थी, उसे आशा भी थी द्विक पंजाब-द्वि)ध)ा-द्वि))ाह सभा के द्विनयमानुसार )ह द्विकसी दिदन श्रीचन्द्र की गृद्विहणी हो जायेगी। चन्दा को अपनी बदनामी के कारण अपनी लड़की के सिलए बड़ी लिच\ता थी। )ह उसकी सामाझिजकता बनाने के सिलए भी प्रयत्नशील थी।

परिरस्थिkद्वित ने दोनों लोहों के बीच चुम्बक का काम द्विकया। श्रीचन्द्र और चंदा में भेद तो पहले भी न था; पर अब सम्पक्षित्त पर भी दोनों का साधारण अमिधकार हो चला। )े घाटे के धक्के को सम्पिम्मसिलत धन से रोकने लगी। बाजार रुका, जैसे आँधी थम गयी। तगादे-पुरजे की बाढ़ उतर गयी।

पानी बरस रहा था। धुले हुए अन्तरिरक्ष से नक्षत्र अतीत-स्मृद्वित के समान उज्ज्)ल होकर चमक रहे थे। सुगन्धरा की मधुर गन्ध से मस्तक भरे रहने पर भी श्रीचन्द्र अपने बँगले के चौतरे पर से आकाश से तारों को द्विबन्दु मानकर उनसे काल्पद्विनक रेखाए ँखींच रहा था। रेखागक्षिणत के असंख्य काल्पद्विनक द्वित्रभुज उसकी आँखों में बनते और द्विबगड़ते थ;े पर )ह आसन्न समस्या हल करने में असमथ� था। धन की कठोर आ)श्यकता ऐसा )ृत्त खींचती द्विक )ह उसके बाहर जाने में असमथ� था।

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चंदा थाली सिलये आयी। श्रीचन्द्र उसकी सौन्दय�-छटा देखकर पल-भर के सिलए धन-लिच\ता-द्वि)स्मृत हो गया। हृदय एक बार नाच उठा। )ह उठ बैठा। चन्दा ने सामने बैठकर उसकी भूख लगा दी। ब्यालू करते-करते श्रीचन्द्र ने कहा, 'चन्दा, तुम मेरे सिलए इतना कष्ट करती हो।'

चन्दा-'और तुमको इस कष्ट में लिच\ता क्यों है?'

श्रीचन्द्र-'यही द्विक मैं इसका क्या प्रद्वितकार कर सकँूगा!'

चन्दा-'प्रद्वितकार मैं स्)यं कर लँूगी। हाँ, पहले यह तो बताओ-अब तुम्हारे ऊपर द्विकतना ऋण है?'

श्रीचन्द्र-'अभी बहुत है।'

चन्दा-'क्या कहा! अभी बहुत है।'

श्रीचन्द्र-'हाँ, अमृतसर की सारी kा)र सम्पक्षित्त अभी बन्धक है। एक लाख रुपया चाद्विहए।'

एक दीघ� द्विनःस्)ास लेकर श्रीचन्द्र ने थाली टाल दी। हाथ-मुँह धोकर आरामकुस¶ पर जा लेटा। चन्दा पास की कुस¶ खींचकर बैठ गयी। अभी )ह पैंतीस के ऊपर की नहीं है, यौ)न है। जाने-जाने को कर रहा है, पर उसके सुडौल अंग छोड़कर उससे जाते नहीं बनता। भरी-भरी गोरी बाँहें उसने गले में डालकर श्रीचन्द्र का एक चुम्बन सिलया। श्रीचन्द्र को ऋण लिच\ता द्विफर सताने लगी। चन्दा ने श्रीचन्द्र के प्रत्येक श्वास में रुपया-रुपया का नाद देखा, और बोली, 'एक उपाय है, करोगे?'

श्रीचन्द्र ने सीधे होकर बैठते हुए पूछा, ')ह क्या?'

'द्वि)ध)ा-द्वि))ाह-सभा में चलकर हम लोग...' कहते-कहते चन्दा रुक गयी; क्योंद्विक श्रीचन्द्र मुस्काने लगा था। उसी हँसी में एक मार्मिम\क वं्यग्य था। चन्दा द्वितलमिमला उठी। उसने कहा, 'तुम्हारा सब पे्रम झूठा था!'

श्रीचन्द्र ने पूरे व्य)सायी के ढंग से कहा, 'बात क्या है, मैंने तो कुछ कहा भी नहीं और तुम लगीं द्विबगड़ने!'

चन्दा-'मैं तुम्हारी हँसी का अथ� समझती हूँ!'

श्रीचन्द्र-'कदाद्विप नहीं। म्पिस्त्रयाँ प्रायः तुनक जाने का कारण सब बातों में द्विनकाल लेती हैं। मैं तुम्हारे भोलेपन पर हँस रहा था। तुम जानती हो द्विक ब्याह के व्य)साय में तो मैंने कभी का दिद)ाला द्विनकाल दिदया है, द्विफर भी )ही प्रश्न।'

चन्दा ने अपना भा) सम्हालते हुए कहा, 'ये सब तुम्हारी बना)टी बातें हैं। मैं जानती हूँ द्विक तुम्हारी पहली स्त्री और संसार तुम्हारे सिलए नहीं के बराबर है। उसके सिलए कोई बाधा नहीं। हम-तुम जब एक हो जायेंगे, तब सब सम्पक्षित्त तुम्हारी हो जायेगी!'

श्रीचन्द्र-'यह तो यों भी हो सकता है; पर मेरी एक सम्मद्वित है, उसे मानना-न मानना तुम्हारे अमिधकार में है। मगर है बात बड़ी अच्छी!'

चन्दा-'क्यों?'

श्रीचन्द्र-'तुम जानती हो द्विक द्वि)जय मेरे लड़के नाम से प्रसिसर्द्ध है और काशी में अमृतसर की गन्ध अभी नहीं पहुँची है। मैं यदिद तुमसे द्वि)ध)ा-द्वि))ाह कर लेता हूँ, तो इस सम्बन्ध में अड़चन भी होगी और बदनामी भी; क्या तुमको यह जामाता पसन्द नहीं?'

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चन्दा ने एक बार उल्लास से बड़ी-बड़ी आँखें खोलकर देखा और बोली, 'यह तो बड़ी अच्छी बात सोची!'

श्रीचन्द्र ने कहा, 'तुमको यह जानकर और प्रसन्नता होगी द्विक मैंने जो कुछ रुपये द्विकशोरी को भेजे हैं, उनसे उस चालाक स्त्री ने अच्छी जमींदारी बना ली है। और काशी में अमृतसर )ाली कोठी की बड़ी धाक है। )हीं चलकर लाली का ब्याह हो जायेगा। तब हम लोग यहाँ की सम्पक्षित्त और व्य)साय से आनन्द लेंगे। द्विकशोरी धन, बेटा, बहू लेकर सन्तुष्ट हो जायेगी! क्यों, कैसी रही!'

चन्दा ने मन में सोचा, इस प्रकार यह काम हो जाने पर, हर तरह की सुद्वि)धा रहेगी, समाज के हम लोग द्वि)द्रोही भी नहीं रहेंगे और काम भी बन जायेगा। )ह प्रसन्नतापू)�क सहमत हुई।

दूसरे दिदन के प्रभात में बड़ी सू्फर्तित\ थी! श्रीचन्द्र और चन्दा बहुत प्रसन्न हो उठे। बागीचे की हरिरयाली पर आँखें पड़ते ही मन हल्का हो गया।

चन्दा ने कहा, 'आज चाय पीकर ही जाऊँगी।'

श्रीचन्द्र ने कहा, 'नहीं, तुम्हें अपने बँगले में उजेले से पहले ही पहुँचना चाद्विहए। मैं तुम्हें बहुत सुरक्षिक्षत रखना चाहता हूँ।'

चन्दा ने इठलाते हुए कहा, 'मुझे इस बँगले की बना)ट बहुत सुन्दर लगती है, इसकी ऊँची कुरसी और चारों ओर खुला हुआ उप)न बहुत ही सुहा)ना है!'

श्रीचन्द्र ने कहा, 'चन्दा, तुमको भूल न जाना चाद्विहए द्विक संसार में पाप से उतना डर नहीं झिजतना जनर) से! इससिलए तुम चलो, मैं ही तुम्हारे बँगले पर आकर चाय पीऊँगा। अब इस बँगले से मुझे पे्रम नहीं रहा, क्योंद्विक इसका दूसरे के हाथ में जाना द्विनक्षिzत है।'

चन्दा एक बार घूमकर खड़ी हो गयी। उसने कहा, 'ऐसा कदाद्विप नहीं होगा। अभी मेरे पास एक लाख रुपया है। मैं कम सूद पर तुम्हारी सब सम्पक्षित्त अपने यहाँ रख लँूगी। बोलो, द्विफर तो तुमको द्विकसी दूसरे की बात न सुननी होगी।'

द्विफर हँसते हुए उसने कहा, 'और मेरा तगादा तो इस जन्म में छूटने का नहीं।'

श्रीचन्द्र की धड़कन बढ़ गयी। उसने बड़ी प्रसन्नता से चन्दा के कई चुम्बन सिलये और कहा, 'मेरी सम्पक्षित्त ही नहीं, मुझे भी बन्धक रख लो प्यारी चन्दा! पर अपनी बदनामी बचाओ, लाली भी हम लोगों का रहस्य न जाने तो अच्छा है, क्योंद्विक हम लोग चाहे जैसे भी हों, पर सन्तानें तो हम लोगों की बुराइयों से अनक्षिभज्ञ रहें। अन्यथा उसके मन में बुराइयों के प्रद्वित अ)हेलना की धारणा बन जाती है। और )े उन अपराधों को द्विफर अपराध नहीं समझते, झिजन्हें )े जानते हैं द्विक हमारे बडे़ लोगों ने भी द्विकया है।'

'लाली के जगने का तो अब समय हो रहा है। अच्छा, )हीं चाय पीझिजयेगा और सब प्रबन्ध भी आज ही ठीक हो जायेगा।'

गाड़ी प्रस्तुत थी, चन्दा जाकर बैठ गयी। श्रीचन्द्र ने एक दीघ� द्विनःश्वास लेकर अपने हृदय को सब तरह के बोझों से हल्का द्विकया।

(2)

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द्विकशोरी और द्विनरंजन काशी लौट आये; परन्तु उन दोनों के हृदय में शान्तिन्त न थी, क्रोध में द्विकशोरी ने द्वि)जय का द्वितरस्कार द्विकया, द्विफर भी सहज मातृस्नेह द्वि)द्रोह करने लगा, द्विनरंजन से दिदन में एकाध बार इस द्वि)र्षय को लेकर दो-दो चोंच हो जाना अद्विन)ाय� हो गया। द्विनरंजन ने एक दिदन दृढ़ होकर इसका द्विनपटारा कर लेने का द्वि)चार कर सिलया; )ह अपना सामान बँध)ाने लगा। द्विकशोरी ने यह ढंग देखा। )ह जल-भुन गयी। झिजसके सिलए उसने पुत्र को छोड़ दिदया, )ह भी आज जाने को प्रस्तुत है! उसने तीव्र स्)र में कहा, 'क्या अभी जाना चाहते हो?'

'हाँ, मैंने जब संसार छोड़ दिदया है, तब द्विकसी की बात क्यों सहूँ?'

'क्यों झूठ बोलते हो, तुमने कब कोई )स्तु छोड़ी थी। तुम्हारे त्याग से तो भोले-भाले, माया में फँसे हुए गृहk कहीं ऊँचे हैं! अपनी ओर देखो, हृदय पर हाथ रखकर पूछो, द्विनरंजन, मेरे सामने तुम यह कह सकते हो संसार आज तुमको और मुझको क्या समझता है-इसका भी समाचार जानते हो?'

'जानता हूँ द्विकशोरी! माया के साधारण झटके में एक सच्चे साधु के फँस जाने, ठग जाने का यह लस्थिज्जत प्रसंग अब द्विकसी से सिछपा नहीं-इससिलए मैं जाना चाहता हूँ।'

'तो रोकता कौन है, जाओ! परन्तु झिजसके सिलए मैंने सबकुछ खो दिदया है, उसे तुम्हीं ने मुझसे छीन सिलया-उसे देकर जाओ! जाओ तपस्या करो, तुम द्विफर महात्मा बन जाओगे! सुना है, पुरुर्षों के तप करने से घोर-से-घोर कुकम� को भी भग)ान् क्षमा करके उन्हें दश�न देते हैं; पर मैं हूँ स्त्री जाद्वित! मेरा यह भाग्य नहीं, मैंने पाप करके जो पाप बटोरा है, उसे ही मेरी गोद में फें कते जाओ!'

द्विकशोरी का दम घुटने लगा। )ह अधीर होकर रोने लगी।

द्विनरंजन ने आज नग्न रूप देखा और )ह इतना )ीभत्स था द्विक उसने अपने हाथों में आँखों को ढँक सिलया। कुछ काल के बाद बोला, 'अच्छा, तो द्वि)जय को खोजने जाता हूँ।'

गाड़ी पर द्विनरंजन का सामान लद गया और द्विबना एक शब्द कहे )ह स्टेशन चला गया। द्विकशोरी अक्षिभमान और क्रोध से भरी चुपचाप बैठी रही। आज )ह अपनी दृमिष्ट में तुच्छ जँचने लगी। उसने बड़बड़ाते हुए कहा, 'स्त्री कुछ नहीं है, के)ल पुरुर्षों की पूछ है। द्वि)लक्षणता यही है द्विक पँूछ कभी-कभी अलग रख दी जा सकती है!'

अभी उसे सोचने से अ)काश नहीं मिमला था द्विक गाद्विड़यों के 'खड़बड़' शब्द, और बक्स-बंडलों के पटकने का धमाका नीचे हुए। )ह मन-ही-मन हँसी द्विक बाबाजी का हृदय इतना बल)ान नहीं द्विक मुझे यों ही छोड़कर चले जाए।ँ इस समय म्पिस्त्रयों की द्वि)जय उसके सामने नाच उठी। )ह फूल रही थी, उठी नहीं; परन्तु जब धमद्विनयाँ ने आकर कहा, 'बहूजी, पंजाब से कोई आये हैं, उनके साथ उनकी लड़की स्त्री है।' तब )ह एक पल भर के सिलए सन्नाटे में आ गयी। उसने नीचे झाँककर देखा, तो श्रीचन्द्र! उसके साथ सल)ार-कुता�, ओढ़नी से सजी हुए एक रूप)ती रमणी चौदह साल की सुन्दरी कन्या का हाथ पकडे़ खड़ी थी। नौकर लोग सामान भीतर रख रहे थे। )ह निक\कत�व्यद्वि)मूढ़ होकर नीचे उतर आयी, न जाने कहाँ की लज्जा और द्वि�द्वि)धा उसके अंग को घेरकर हँस रही थी।

श्रीचन्द्र ने इस प्रसंग को अमिधक बढ़ाने का अ)सर न देकर कहा, 'यह मेरे पड़ोसी, अमृतसर के व्यापारी, लाला...की द्वि)ध)ा है, काशी यात्रा के सिलए आयी है।'

'ओहो मेरे भाग! कहती हुई द्विकशोरी उनका हाथ पकड़कर भीतर ले चली। श्रीचन्द्र एक बड़ी-सी घटना को यों ही सँ)रते देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हुए। गाड़ी )ाले को भाड़ा देकर घर में आये। सब नौकरों में यह बात गुनगुना गयी द्विक मासिलक आ गये हैं।

अलग कोठरी में न)ागत रमणी का सब प्रबन्ध ठीक द्विकया गया। श्रीचन्द्र ने नीचे की बैठक में अपना आसन जमाया। नहाने-धोने, खाने-पीने और द्वि)श्राम में समस्त दिदन बीत गया।

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द्विकशोरी ने अद्वितसिथ-सत्कार में पूरे मनोयोग से भाग सिलया। कोई भी देखकर यह नहीं कह सकता था द्विक द्विकशोरी और श्रीचन्द्र बहुत दिदनों पर मिमले हैं; परन्तु अभी तक श्रीचन्द्र ने द्वि)जय को नहीं पूछा, उसका मन नहीं करता था या साहस नहीं होता था।

थके याद्वित्रयों ने निन\द्रा का अ)लम्ब सिलया।

प्रभात में जब श्रीचन्द्र की आँखें खुलीं, तब उसने देखा, प्रौढ़ा द्विकशोरी के मुख पर पच्चीस बरस का पहले का )ही सलज्ज ला)ण्य अपराधी के सदृश सिछपना चाहता है। अतीत की स्मृद्वित ने श्रीचन्द्र के हृदय पर )ृक्षिzक-दंशन का काम द्विकया। नींद न खुलने का बहाना करके उन्होंने एक बार द्विफर आँखें बन्द कर लीं। द्विकशोरी ममा�हत हुई; पर आज द्विनयद्वित ने उसे सब ओर से द्विनर)लम्ब करके श्रीचन्द्र के सामने झुकने के सिलए बाध्य द्विकया था। )ह संकोच और मनो)ेदना से गड़ी जा रही थी।

श्रीचन्द्र साहस सँ)सिलत करके उठ बैठा। डरते-डरते द्विकशोरी ने उसके पैर पकड़ सिलये। एकांत था। )ह भी जी खोलकर रोई; पर श्रीचन्द्र को उस रोने से क्रोध ही हुआ, करुणा की झलक न आयी। उसने कहा, 'द्विकशोरी! रोने की तो कोई आ)श्यकता नहीं।'

रोई हुई लाल आँखों को श्रीचन्द्र के मुँह पर जमाते हुए द्विकशोरी ने कहा, 'आ)श्यकता तो नहीं, पर जानते हो, म्पिस्त्रयाँ द्विकतनी दुब�ल हैं-अबला हैं। नहीं तो मेरे ही जैसे अपराध करने )ाले पुरुर्ष के पैरों पर पड़कर मुझे न रोना पड़ता!'

')ह अपराध यदिद तुम्हीं से सीखा गया हो, तो मुझे उत्तर देने की व्य)kा न खोजनी पडे़गी।'

'तो हम लोग क्या इतनी दूर हैं द्विक मिमलना असम्भ) है?'

'असम्भ) तो नहीं है, नहीं तो मैं आता कैसे?'

अब स्त्री-सुलभ ईष्या� द्विकशोरी के हृदय में जगी। उसने कहा, 'आये होंगे द्विकसी को घुमाने-द्विफराने, सुख बहार लेने!'

द्विकशोरी के इस कथन में वं्यग्य से अमिधक उलाहना था। न जाने क्यों श्रीचन्द्र को इस वं्यग्य से संतोर्ष हुआ, जैसे ईस्विप्सत )स्तु मिमल गयी हो। )ह हँसकर बोला, 'इतना तो तुम भी स्)ीकार करोगी द्विक यह कोई अपराध नहीं है।'

द्विकशोरी ने देखा, समझौता हो सकता है, अमिधक कहा-सुनी करके इसे गुरुतर न बना देना चाद्विहए। उसने दीनता से कहा, 'तो अपराध क्षमा नहीं हो सकता?'

श्रीचन्द्र ने कहा, 'द्विकशोरी! अपराध कैसा अपराध समझता तो आज इस बातचीत का अ)सर ही नहीं आता। हम लोगों का पथ जब अलग-अलग द्विनधा�रिरत हो चुका है, तब उसमें कोई बाधक न हो, यही नीद्वित अच्छी रहेगी। यात्रा करने तो हम लोग आये ही हैं; पर एक काम भी है।'

द्विकशोरी सा)धान होकर सुनने लगी। श्रीचन्द्र ने द्विफर कहना आरम्भ द्विकया-'मेरा व्य)साय नष्ट हो चुका है, अमृतसर की सब सम्पक्षित्त इसी स्त्री के यहाँ बन्धक है। उसके उर्द्धार का यही उपाय है द्विक इसकी सुन्दरी कन्या लाली से द्वि)जय का द्वि))ाह करा दिदया जाये।'

द्विकशोरी ने सग)� एक बार श्रीचन्द्र की ओर देखा, द्विफर सहसा कातर भा) से बोली, 'द्वि)जय रूठकर मथुरा चला गया है!'

श्रीचन्द्र ने पक्के व्यापारी के समान कहा, 'कोई सिचन्ता नहीं, )ह आ जायेगा। तब तक हम लोग यहाँ रहें, तुम्हें कोई कष्ट तो न होगा?'

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'अब अमिधक चोट न पहुँचाओ। मैं अपरामिधनी हूँ, मैं सन्तान के सिलए अन्धी हो रही थी! क्या मैं क्षमा न की जाऊँगी द्विकशोरी की आँखों से आँसू द्विगरने लगे।

'अच्छा तो उसे बुलाने के सिलए मुझे जाना होगा।'

'नहीं, उसे बुलाने के सिलए आदमी गया है। चलो, हाथ-मुँह धोकर जलपान कर लो।'

अपने ही घर में श्रीचन्द्र एक अद्वितसिथ की तरह आदर-सत्कार पाने लगा।

(3)

द्विनरंजन )ृन्दा)न में द्वि)जय की खोज में घूमने लगा। तार देकर अपने हरिर�ार के भण्डारी को रुपये लेकर बुलाया और गली-गली खोज की धूम मच गयी। मथुरा में �ारिरकाधीश के मझिन्दर में कई तरह से टोह लगाया। द्वि)श्राम घाट पर आरती देखते हुए संध्याए ँद्विबतायीं, पर द्वि)जय का कुछ पता नहीं।

एक दिदन )ृन्दा)न )ाली सड़क पर )ह भण्डारी के साथ टहल रहा था। अकस्मात् एक ताँगा तेजी से द्विनकल गया। द्विनरंजन को शंका हुई; पर जब तक देखें, तब तक ताँगा लोप हो गया। हाँ, गुलाबी साड़ी की झलक आँखों में छा गयी।

दूसरे दिदन )ह ना) पर दु)ा�सा के दश�न को गया। )ैशाख पूर्णिण\मा थी। यमुना से हटने का मन नहीं करता था। द्विनरंजन ने ना) )ाले से कहा, 'द्विकसी अच्छी जगह ले चलो। मैं आज रात भर घूमना चाहता हूँ; लिच\ता न करना भला!'

उन दिदनों कृष्णशरण )ाली टेकरी प्रसिसझिर्द्ध प्राप्त कर चुकी थी। मनचले लोग उधर घूमने जाते थे। माँझी ने देखा द्विक अभी थोड़ी देर पहले ही एक ना) उधर जा चुकी थी, )ह भी उधर खेने लगा। द्विनरंजन को अपने ऊपर क्रोध हो रहा था, सोचने लगा-आये थ ेहरिरभजन को ओटन लगे कपास!'

पूर्णिण\मा की द्विपछली रात थी। रात-भर का जगा हुआ चन्द्रमा झीम रहा था। द्विनरंजन की आँखें भी कम अलसाई न थीं; परन्तु आज नींद उचट गयी थी। सैकड़ों कद्वि)ताओं में )र्णिण\त यमुना का पुसिलन यौ)न-काल की स्मृद्वित जगा देने के सिलए कम न था। द्विकशोरी की प्रौढ़ प्रणय-लीला और अपनी साधु की स्थिkद्वित, द्विनरंजन के सामने दो प्रद्वित�ंद्वि�यों की भाँद्वित लड़कर उसे अक्षिभभूत बना रही थीं। माँझी भी ऊँघ रहा था। उसके डाँडे़ बहुत धीरे-धीरे पानी में द्विगर रहे थे। यमुना के जल में द्विनस्तब्ध शान्तिन्त थी, द्विनरंजन एक स्)प्न लोक में द्वि)चर रहा था।

चाँदनी फीकी हो चली। अभी तक आगे जाने )ाली ना) पर से मधुर संगीत की स्)र-लहरी मादकता में कम्पिम्पत हो रही थी। द्विनरंजन ने कहा, 'माँझी, उधर ही ले चलो। ना) की गद्वित तीव्र हुई। थोड़ी ही देर में आगे )ाली ना) के पास ही से द्विनरंजन की ना) बढ़ी। उसमें एक राद्वित्र-जागरण से क्लान्त यु)ती गा रही थी और बीच-बीच में पास ही बैठा हुए एक यु)क )ंशी बजाकर साथ देता था, तब )ह जैसी ऊँघती हुई प्रकृद्वित जागरण के आनन्द से पुलद्विकत हो जाती। सहसा संगीत की गद्वित रुकी। यु)क ने उच्छ्)ास लेकर कहा, 'घण्टी! जो कहते हैं अद्वि))ाद्विहत जी)न पाश) है, उचंृ्छखल हैं, )े भ्रांत हैं। हृदय का सम्पिम्मलन ही तो ब्याह है। मैं स)�स्) तुम्हें अप�ण करता हूँ और तुम मुझे; इसमें द्विकसी मध्यk की आ)श्यकता क्यों, मंत्रों का महत्त्) द्विकतना! झगडे़ की, द्वि)द्विनमय की, यदिद संभा)ना रही तो समप�ण ही कैसा! मैं स्)तन्त्र पे्रम की सत्ता स्)ीकार करता हूँ, समाज न करे तो क्या?'

द्विनरंजन ने धीरे से अपने माँझी से ना) दूर ले चलने के सिलए कहा। इतने में द्विफर यु)क ने कहा, 'तुम भी इसे मानती होगी झिजसको सब कहते हुए सिछपाते हैं, झिजसे अपराध कहकर कान पकड़कर स्)ीकार करते हैं, )ही तो जी)न का, यौ)न-काल का ठोस सत्य है। सामाझिजक बन्धनों से जकड़ी हुई आर्सिथ\क कदिठनाइयाँ, हम लोगों के भ्रम से धम� का चेहरा लगाकर अपना भयानक रूप दिदखाती हैं! क्यों, क्या तुम इसे नहीं मानतीं मानती हो अ)श्य, तुम्हारे व्य)हारों

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से यह बात स्पष्ट है। द्विफर भी संस्कार और रूदिढ़ की राक्षसी प्रद्वितमा के सामने समाज क्यों अल्हड़ रWों की बसिल चढ़ाया करता है।'

घण्टी चुप थी। )ह नशे में झूम रही थी। जागरण का भी कम प्रभा) न था। यु)क द्विफर कहने लगा, 'देखो, मैं समाज के शासन में आना चाहता था; परन्तु आह! मैं भूल करता हूँ।'

'तुम झूठ बोलते हो द्वि)जय! समाज तुमको आज्ञा दे चुका था; परन्तु तुमने उसकी आज्ञा ठुकराकर यमुना का शासनादेश स्)ीकार द्विकया। इसमें समाज का क्या दोर्ष है मैं उस दिदन की घटना नहीं भूल सकती, )ह तुम्हारा दोर्ष है तुम कहोगे द्विक द्विफर मैं सब जानकर भी तुम्हारे साथ क्यों घूमती हूँ; इससिलए द्विक मैं इसे कुछ महत्त्) नहीं देती। द्विहन्दू म्पिस्त्रयों का समाज ही कैसा है, उसमें कुछ अमिधकार हो तब तो उसके सिलए कुछ सोचना-द्वि)चारना चाद्विहए। और जहाँ अन्ध-अनुसरण करने का आदेश है, )हाँ प्राकृद्वितक, स्त्री जनोसिचत प्यार कर लेने का जो हमारा नैसर्तिग\क अमिधकार है-जैसा द्विक घटना)श प्रायः म्पिस्त्रयाँ द्विकया करती हैं-उसे क्यों छोड़ दँू! यह कैसे हो, क्या हो और क्यों हो-इसका द्वि)चार पुरुर्ष करते हैं। )े करें, उन्हें द्वि)श्वास बनाना है, कौड़ी-पाई लेना रहता है और म्पिस्त्रयों को भरना पड़ता है। तब इधर-उधर देखने से क्या! 'भरना है'-यही सत्य है, उसे दिदखा)े के आदर से ब्याह करके भरा लो या व्यक्षिभचार कहकर द्वितरस्कार से, अधमण� की सान्त्)ना के सिलए यह उत्तमण� का शाखिब्दक, मौसिलक प्रलोभन या द्वितरस्कार है, समझे?' घण्टी ने कहा।

द्वि)जय का नशा उखड़ गया। उसने समझा द्विक मैं मिमथ्या ज्ञान को अभी तक समझता हुआ अपने मन को धोखा दे रहा हूँ। यह हँसमुख घण्टी संसार के सब प्रश्नों को सहन द्विकये बैठी है। प्रश्नों को गम्भीरता से द्वि)चारने का मैं झिजतना ढोंग करता हूँ, उतना ही उपलब्ध सत्य से दूर होता जा रहा है-)ह चुपचाप सोचने लगा।

घण्टी द्विफर कहने लगी, 'समझे द्वि)जय! मैं तुम्हें प्यार करती हूँ। तुम ब्याह करके यदिद उसका प्रद्वितदान करना चाहते हो, तो मुझे कोई लिच\ता नहीं। यह द्वि)चार तो मुझे कभी सताता नहीं। मुझे जो करना है, )हीं करती हूँ, करँूगी भी। घूमोगे घूमँूगी, द्विपलाओगे पीऊँगी, दुलार करोगे हँस लँूगी, ठुकराओगे तो रो दँूगी। स्त्री को इन सभी )स्तुओं की आ)श्यकता है। मैं उन सबों को समभा) से ग्रहण करती हूँ और करँूगी।'

द्वि)जय का सिसर घूमने लगा। )ह चाहता था द्विक घण्टी अपनी )Wृता जहाँ तक सम्भ) हो, शीघ्र बन्द कर दे। उसने कहा, 'अब तो प्रभात होने में द्वि)लंब नहीं; चलो कहीं द्विकनारे उतरें और हाथ-मुँह धो लें।'

घण्टी चुप रही। ना) तट की ओर चली, इसके पहले ही एक-दूसरी ना) भी तीर पर लग चुकी थी, परन्तु )ह द्विनरंजन की थी। द्विनरंजन दूर था, उसने देखा-द्वि)जय ही तो है। अच्छा दूर-दूर रहकर इसे देखना चाद्विहए, अभी शीघ्रता से काम द्विबगड़ जायेगा।

द्वि)जय और घण्टी ना) से उतरे। प्रकाश हो चला था। रात की उदासी भरी द्वि)दाई ओस के आँसू बहाने लगी। कृष्णशरण की टेकरी के पास ही )ह उतारे का घाट था। )हाँ के)ल एक स्त्री प्रातःस्नान के सिलए अभी आयी थी। घण्टी )ृक्षों की झुरमुट में गयी थी द्विक उसके सिचल्लाने का शब्द सुन पड़ा। द्वि)जय उधर दौड़ा; परन्तु घण्टी भागती हुई उधर ही आती दिदखाई पड़ी। अब उजेला हो चला था। द्वि)जय ने देखा द्विक )ही ताँगे)ाला न)ाब उसे पकड़ना चाहता है। द्वि)जय ने डाँटकर कहा, 'खड़ा रह दुष्ट!' न)ाब अपने दूसरे साथी के भरोसे द्वि)जय पर टूट पड़ा। दोनों में गुत्थमगुत्था हो गयी। द्वि)जय के दोनों पैर उठाकर )ह पटकना चाहता था और द्वि)जय ने दाद्विहने बगल में उसका गला दबा सिलया था, दोनों ओर से पूण� बल-प्रयोग हो रहा था द्विक द्वि)जय का पैर उठ जाय द्विक द्वि)जय ने न)ाब के गला दबाने )ाले दाद्विहने हाथ को अपने बाए ँहाथ से और भी दृढ़ता से खींचा। न)ाब का दम घुट रहा था, द्विफर भी उसने जाँघ में काट खाया; परन्तु पूण� क्रोधा)ेश में द्वि)जय को उसकी )ेदना न हुई, )ह हाथ की परिरमिध को न)ाब के कण्ठ के सिलए यथासम्भ) संकीण� कर रहा था। दूसरे ही क्षण में न)ाब अचेत होकर द्विगर पड़ा। द्वि)जय अत्यन्त उते्तझिजत था। सहसा द्विकसी ने उसके कंधे में छुरी मारी; पर )ह ओछी लगी। चोट खाकर द्वि)जय का मस्तक और भी भड़क उठा, उसने पास ही पड़ा हुआ पत्थर उठाकर न)ाब का सिसर कुचल दिदया। इससे घंटी सिचल्लाती हुई ना) पर भागना चाहती थी द्विक द्विकसी ने उससे धीरे से कहा, 'खून हो गया, तुम यहाँ से हट चलो!'

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कहने )ाला बाथम था। उसके साथ भय-द्वि)ह्वल घण्टी ना) पर चढ़ गयी। डाँडे़ द्विगरा दिदये गये।

इधर न)ाब का सिसर कुचलकर जब द्वि)जय ने देखा, तब )हाँ घण्टी न थी, परन्तु एक स्त्री खड़ी थी। उसने द्वि)जय का हाथ पकड़कर कहा, 'ठहरो द्वि)जय बाबू!' क्षण-भर में द्वि)जय का उन्माद ठंडा हो गया। )ह एक बार सिसर पकड़कर अपनी भयानक परिरस्थिkद्वित से अ)गत हो गया।

द्विनरंजन दूर से यह कांड देख रहा था। अब अलग रहना उसिचत न समझकर )ह भी पास आ गया। उसने कहा, 'द्वि)जय, अब क्या होगा?'

'कुछ नहीं, फाँसी होगी और क्या!' द्विनभ¶क भा) से द्वि)जय ने कहा।

'आप इन्हें अपनी ना) दे दें और ये जहाँ तक जा सकें , द्विनकल जायें। इनका यहाँ ठहरना ठीक नहीं।' स्त्री ने द्विनरंजन से कहा।

'नहीं यमुना! तुम अब इस जी)न को बचाने की लिच\ता न करो, मैं इतना कायर नहीं हूँ।' द्वि)जय ने कहा।

'परन्तु तुम्हारी माता क्या कहेगीं द्वि)जय! मेरी बात मानो, तुम इस समय तो हट ही जाओ, द्विफर देखा जायेगा। मैं भी कह रहा हूँ, यमुना की भी यही सम्मद्वित है। एक क्षण में मृत्यु की द्वि)भीद्विर्षका नाचने लगी! लड़कपन न करो, भागो!' द्विनरंजन ने कहा।

द्वि)जय को सोचते-द्वि)चारते और द्वि)लम्ब करते देखकर यमुना ने द्विबगड़कर कहा, 'द्वि)जय बाबू! प्रत्येक अ)सर पर लड़कपन अच्छा नहीं लगता। मैं कहती हूँ, आप अभी-अभी चले जायें! आह! आप सुनते नही?'

द्वि)जय ने सुना, अच्छा नहीं लगता! ऊँह, यह तो बुरी बात है। हाँ ठीक, तो देखा जायेगा। जी)न सहज में दे देने की )स्तु नहीं। और द्वितस पर भी यमुना कहती है-ठीक उसी तरह जैसे पहले दो खिखल्ली पान और खा लेने के सिलए, उसने कई बार डाँटने के स्)र में अनुरोध द्विकया था! तो द्विफर!...

द्वि)जय भयभीत हुआ। मृत्यु जब तक कल्पना की )स्तु रहती है, तब तक चाहे उसका झिजतना प्रत्याख्यान कर सिलया जाए; यदिद )ह सामने हो।

द्वि)जय ने देखा, यमुना ही नहीं, द्विनरंजन भी है, क्या सिचन्ता यदिद मैं हट जाऊँ! )ह मान गया, द्विनरंजन की ना) पर जा बैठा। द्विनरंजन ने रुपयों की थैली ना) )ाले को दे दी। ना) तेजी से चल पड़ी।

भण्डारी और द्विनरंजन ने आपस में कुछ मंत्रणा की, और )े खून-अरे बाप रे! कहते हुए एक और चल पडे़। स्नान करने )ालों का समय हो चला था। कुछ लोग भी आ चले थे। द्विनरंजन और भण्डारी का पता नहीं। यमुना चुपचाप बैठी रही। )ह अपने द्विपता भण्डारीजी की बात सोच रही थी। द्विपता कहकर पुकारने की उसकी इच्छा को द्विकसी ने कुचल दिदया। कुछ समय बीतने पर पुसिलस ने आकर यमुना से पूछना आरम्भ द्विकया, 'तुम्हारा नाम क्या है?'

'यमुना!'

'यह कैसे मरा

'इसने एक स्त्री पर अत्याचार करना चाहा था।'

'द्विफर

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'द्विफर यह मारा गया।'

'द्विकसने मारा

'झिजसका इसने अपराध द्विकया।'

'तो )ह स्त्री तुम्हीं तो नहीं हो?'

यमुना चुप रही।

सब-इन्से्पक्टर ने कहा, 'यह स्)ीकार करती है। इसे द्विहरासत में ले लो।'

यमुना कुछ न बोली। तमाशा देखने )ालों का थोडे़ समय के सिलए मन बहला) हो गया।

कृष्णशरण को टेकरी में हलचल थी। यमुना के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की चचा� हो रही थी। द्विनरंजन और भण्डारी भी एक मौलसिसरी के नीचे चुपचाप बैठे थे। भण्डारी ने अमिधक गंभीरता से कहा, 'पर इस यमुना को मैं पहचान रहा हूँ।'

'क्या?'

'नहीं-नहीं, यह ठीक है, तारा ही है है

'मैंने इसे द्विकतनी बार काशी में द्विकशोरी के यहाँ देखा और मैं कह सकता हूँ द्विक यह उसकी दासी यमुना है; तुम्हारी तारा कदाद्विप नहीं।'

'परन्तु आप उसको कैसे पहचानते! तारा मेरे घर में उत्पन्न हुई, पली और बढ़ी। कभी उसका और आपका सामना तो हुआ नहीं, आपकी आज्ञा भी ऐसी ही थी। ग्रहण में )ह भूलकर लखनऊ गयी। )हाँ एक स्)यंसे)क उसे हर�ार ले जा रहा था, मुझसे राह में भेंट हुई, मैं रेल से उतर पड़ा। मैं उसे न पहचानँूगा।'

'तो तुम्हारा कहना ठीक हो सकता है।' कहकर द्विनरंजन ने सिसर नीचा कर सिलया।

'मैंने इसका स्)र, मुख, अ)य) पहचान सिलया, यह रामा की कन्या है!' भण्डारी ने भारी स्)र में कहा।

द्विनरंजन चुप था। )ह द्वि)चार में पड़ गया। थोड़ी देर में बड़बड़ाते हुए उसने सिसर उठाया-दोनों को बचाना होगा, दोनों ही-हे भग)ान्!

इतने में गोस्)ामी कृष्णशरण का शब्द उसे सुनाई पड़ा, 'आप लोग चाहे जो समझें; पर में इस पर द्वि)श्वास नहीं कर सकता द्विक यमुना हत्या कर सकती है! )ह संसार में सताई हुई एक पद्वि)त्र आत्मा है, )ह द्विनद�र्ष है! आप लोग देखेंगे द्विक उसे फाँसी न होगी।'

आ)ेश में द्विनरंजन उसके पास जाकर बोला, 'मैं उसकी पैर)ी का सब व्यय दँूगा। यह लीझिजए एक हजार के नोट हैं, घटने पर और भी दँूगा।'

उपस्थिkत लोगों ने एक अपरिरसिचत की इस उदारता पर धन्य)ाद दिदया। गोस्)ामी कृष्णशरण हँस पडे़। उन्होंने कहा, 'मंगलदे) को बुलाना होगा, )ही सब प्रबन्ध करेगा।'

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द्विनरंजन उसी आश्रम का अद्वितसिथ हो गया और उसी जगह रहने लगा। गोस्)ामी कृष्णशरण का उसके हृदय पर प्रभा) पड़ा। द्विनत्य सत्संग होने लगा, प्रद्वितदिदन एक-दूसरे के अमिधकामिधक समीप होने लगे।

मौलसिसरी के नीचे सिशलाखण्ड पर गोस्)ामी कृष्णशरण और दे)द्विनरंजन बैठे हुए बातें कर रहे हैं। द्विनरंजन ने कहा, 'महात्मन्! आज मैं तृप्त हुआ, मेरी झिजज्ञासा ने अपना अनन्य आश्रय खोज सिलया। श्रीकृष्ण के इस कल्याण-माग� पर मेरा पूण� द्वि)श्वास हुआ।'

'आज तक झिजस रूप में उन्हें देखता था, )ह एकांगी था; द्विकन्तु इस पे्रम-पथ का सुधार करना चाद्विहए। इसके सिलए प्रयत्न करने की आज्ञा दीझिजए।'

'प्रयत्न! द्विनरंजन तुम भूल गये। भग)ान् की मद्विहमा स्)यं प्रचारिरत होगी। मैं तो, जो सुनना चाहता है उसे सुनाऊँगा, इससे अमिधक कुछ करने का साहस मेरा नहीं!'

'द्विकन्तु मेरी एक प्राथ�ना है। संसार बमिधर है, उसको सिचल्लाकर सुनाना होगा; इससिलए भारत)र्ष� में हुए उस प्राचीन महाप)� को लक्ष्य में रखकर भारत-संघ नाम से एक प्रचार-संkा बना दी जाए!'

'संkाए ँद्वि)कृत हो जाती हैं। व्यसिWयों के स्)ाथ� उसे कलुद्विर्षत कर देते हैं, दे)द्विनरंजन! तुम नहीं देखते द्विक भारत-भर में साधु-संkाओं की क्या...'

'निन\रजन ने क्षण-भर मे अपनी जी)नी पढ़ने का उद्योग द्विकया। द्विफर खीझकर उसने कहा, 'महात्मन्, द्विफर आपने इतने अनाथ स्त्री, बालक और )ृर्द्धों का परिर)ार क्यों बना सिलया है?'

निन\रजन की ओर देखते हुए क्षण-भर चुप रहकर गोस्)ामी कृष्णशरण ने कहा, 'अपनी असा)धानी तो मैं न कहूँगा निन\रजन! एक दिदन मंगलदे) की प्राथ�ना से अपने द्वि)चारों को उद्घोद्विर्षत करने के सिलए मैंने इस कल्याण की व्य)kा की थी। उसी दिदन से मेरी टेकरी में भीड़ होने लगी। झिजन्हें आ)श्यकता है, दुख है, अभा) है, )े मेरे पास आने लगे। मैंने द्विकसी को बुलाया नहीं। अब द्विकसी को हटा भी नहीं सकता।'

'तब आप यह नहीं मानते द्विक संसार में मानसिसक दुख से पीद्विड़त प्राक्षिणयों को इस संदेश से परिरसिचत कराने की आ)श्यकता है?'

'है, द्विकन्तु मैं आडम्बर नहीं चाहता। व्यसिWगत श्रर्द्धा से झिजतना जो कर सके, उतना ही पया�प्त है।'

'द्विकन्तु यह अब एक परिर)ार बन गया है, इसकी कोई द्विनक्षिzत व्य)kा करनी होगी।'

निन\रजन ने यहाँ का सब समाचार सिलखते हुए द्विकशोरी को यह भी सिलखा था-'अपने और उसके पाप-सिचह्न द्वि)जय का जी)न नहीं के बराबर है। हम दोनों को संतोर्ष करना चाद्विहए और मेरी भी यही इच्छा है द्विक अब भग)द्भजन करँू। मैं भारत-संघ के संगठन में लगा हूँ, द्वि)जय को खोजकर उसे और भी संकट में डालना होगा। तुम्हारे सिलए भी संतोर्ष को छोड़कर दूसरा कोई उपाय नहीं।'

पत्र पाकर द्विकशोरी खूब रोई।

श्रीचन्द्र अपनी सारी कल्पनाओं पर पानी द्विफरते देखकर द्विकशोरी की ही चापलूसी करने लगा। उसकी )ह पंजाब )ाली चन्दा अपनी लड़की को लेकर चली गयी, क्योंद्विक ब्याह होना असम्भ) था।

बीतने )ाला दिदन बातों को भुला देता है।

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एक दिदन द्विकशोरी ने कहा, 'जो कुछ है, हम लोगों के सिलए बहुत अमिधक है, हाय-हाय करके क्या होगा।'

'मै भी अब व्य)साय करने पंजाब न जाऊँगा। द्विकशोरी! हम दोनों यदिद सरलता से द्विनभा सकें , तो भद्वि)ष्य में जी)न हम लोगों का सुखमय होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं।'

द्विकशोरी ने हँसकर सिसर द्विहला दिदया।

संसार अपने-अपने सुख की कल्पना पर खड़ा है-यह भीर्षण संसार अपनी स्)प्न की मधुरिरमा से स्)ग� है। आज द्विकशोरी को द्वि)जय की अपेक्षा नहीं। द्विनरंजन को भी नहीं। और श्रीचन्द्र को रुपयों के व्य)साय और चन्दा की नहीं, दोनों ने देखा, इन सबके द्विबना हमारा काम चल सकता है, सुख मिमल सकता है। द्विफर झंझट करके क्या होगा। दोनों का पुनर्मिम\लन प्रौढ़ आशाओं से पूण� था। श्रीचन्द्र ने गृहkी सँभाली। सब प्रबन्ध ठीक करके दोनों द्वि)देश घूमने के सिलए द्विनकल पडे़। ठाकुरजी की से)ा का भार एक मूख� के ऊपर था, झिजसे के)ल दो रुपये मिमलते थ-े)े भी महीने भर में! आह! स्)ाथ� द्विकतना सुन्दर है!

(4)

'तब आपने क्या द्विनzय द्विकया सरला तीव्र स्)र में बोली।

'घण्टी को उस हत्याकांड से बचा लेना भी अपराध है, ऐसा मैंने कभी सोचा भी नहीं।' बाथम ने कहा।

'बाथम! तुम झिजतने भीतर से कू्रर और द्विनषु्ठर हो, यदिद ऊपर से भी )ही व्य)हार रखते, तो तुम्हारी मनुष्यता का कल्याण होता! तुम अपनी दुब�लता को परोपकार के परदे में क्यों सिछपाना चाहते हो नृशंस! यदिद मुझमें द्वि)श्वास की तद्विनक भी मात्रा न होती, तो मैं अमिधक सुखी रहती।' कहती हुई लद्वितका हाँफने लगी थी। सब चुप थे।

कुबड़ी खटखटाते हुए पादरी जान ने उस शांद्वित को भंग द्विकया। आते ही बोला, 'मैं सब समझा सकता हूँ, जब दोनों एक-दूसरे पर अद्वि)श्वास करते हो, तब उन्हें अलग हो जाना चाद्विहए। दबा हुआ द्वि)�ेर्ष छाती के भीतर सप� के सामान फुफकारा करता है; कब अपने ही को )ह घायल करेगा, कोई नहीं कह सकता। मेरी बच्ची लद्वितका! मारगरेट!'

'हाँ द्विपता! आप ठीक कहते हैं और अब बाथम को भी इसे स्)ीकार कर लेने में कोई द्वि)रोध न होना चाद्विहए।' मारगरेट ने कहा।

'मुझे सब स्)ीकार है। अब अमिधक सफाई देना मैं अपना अपमान समझता हूँ!' बाथम ने रूखेपन से कहा।

'ठीक है बाथम! तुम्हें सफाई देने, अपने को द्विनरपराध सिसर्द्ध करने की क्या आ)श्यकता है। पुरुर्ष को साधारण बातों से घबराने की संभा)ना पाखण्ड है!' गरजती हुई सरला ने कहा। द्विफर लद्वितका से बोली, 'चलो बेटी! पादरी सबकुछ कर लेगा, संबंध-द्वि)चे्छद और नया सम्बन्ध जोड़ने में )ह पटु है।'

'लद्वितका और सरला चली गयीं। घण्टी काठ की पुतली-सी बैठी चुपचाप अक्षिभनय देख रही थी। पादरी ने उसके सिसर पर दुलार से हाथ फेरते हुए कहा, 'चलो बेटी, मसीह-जननी की छाया में; तुमने समझ सिलया होगा द्विक उसके द्विबना तुम्हें शांद्वित न मिमलेगी।'

द्विबना एक शब्द कहे पादरी के साथ बाथम और घण्टी दोनों उठकर चले जाते हुए बाथम ने एक बार उस बँगले को द्विनराश दृमिष्ट से देखा, धीरे-धीरे तीनों चले गये।

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आरामकुस¶ पर खड़ी हुई लद्वितका ने एक दिदन झिजज्ञासा-भरी दृमिष्ट से सरला की ओर देखा, तो )ह द्विनभ¶क रमणी अपनी दृढ़ता में मद्विहमापूण� थी। लद्वितका का धैय� लौट आया, उसने कहा, 'अब?'

'कुछ लिच\ता नहीं बेटी, मैं हूँ! सब )स्तु बेचकर बैंक में रुपये जमा करा दो, चुपचाप भग)ान् के भरोसे रुखी-सूखी खाकर दिदन बीत जायेगा।' सरला ने कहा।

'मैं एक बार उस )ृंदा)न )ाले गोस्)ामी के पास चलना चाहती हूँ, तुम्हारी क्या सम्मद्वित है?' लद्वितका ने पूछा।

'पहले यह प्रबन्ध कर लेना होगा, द्विफर )हाँ भी चलँूगी। चाय द्विपओगी? आज दिदन भर तुमने कुछ नहीं खाया, मैं ले आऊँ-बोलो हम लोगों को जी)न के न)ीन अध्याय के सिलए प्रस्तुत होना चाद्विहए। लद्वितका! 'सदै) )स्तु रहो' का महामंत्र मेरे जी)न का रहस्य है-दुःख के सिलए, सुख के सिलए, जी)न के सिलए और मरण के सिलए! उसमे सिशसिथलता न आनी चाद्विहए! द्वि)पक्षित्तयाँ )ायु की तरह द्विनकल जाती हैं; सुख के दिदन प्रकाश के सदृश पक्षिzमी समुद्र में भागते रहते हैं। समय काटना होगा, और यह ध्रु) सत्य है द्विक दोनों का अन्त है।'

परन्तु घण्टी! आज अँधेरा हो जाने पर भी, द्विगरजा के समीप )ाले नाले के पुल पर बैठी अपनी उधेड़बुन में लगी है। अपने द्विहसाब-द्विकताब में लगी है-मैं भीख माँगकर खाती थी, तब कोई मेरा अपना नहीं था। लोग दिदल्लगी करते और मैं हँसती, हँसाकर हँसती। पहले तो पैसे के सिलए, द्विफर चस्का लग गया-हँसने का आनन्द मिमल गया। मुझे द्वि)श्वास हो गया द्विक इस द्वि)सिचत्र भूतल पर हम लोग के)ल हँसी की लहरों में द्विहलने-डोलने के सिलए आ रहे हैं। आह! मैं दरिरद्र थी, पर मैं उन रोनी सूरत )ाले गम्भीर द्वि)�ान-सा रुपयों के बोरों पर बैठे हुए भनभनाने )ाले मच्छरों को देखकर घृणा करती या उनका अस्विस्तत्) ही न स्)ीकार करती, जो जी खोलकर हँसते न थे। मैं )ृंदा)न की एक हँसोड़ पागल थी, पर उस हँसी ने रंग पलट दिदया; )ही हँसी अपना कुछ और उदे्दश्य रखने लगी। द्विफर द्वि)जय; धीरे-धीरे जैसे सा)न की हरिरयाली पर प्रभात का बादल बनकर छा गया-मैं नाचने लगी मयूर-सी! और )ह यौ)न का मेघ बरसने लगा। भीतर-बाहर रंग से छक गया। मेरा अपना कुछ न रहा। मेरा आहार, द्वि)चार, )ेश और भूर्षा सब बदला। )ह बरसात के बादलों की रंगीन संध्या थी; परन्तु यमुना पर द्वि)जय पाना साधारण काम न था। असंभ) था। मैंने संसिचत शसिW से द्वि)जय को छाती से दबा सिलया था। और यमुना...)ह तो स्)यं राह छोड़कर हट गयी थी, पर मैं बनकर भी न बन सकी-द्विनयद्वित चारों ओर से दबा रही थी। और मैंने अपना कुछ न रखा था; जो कुछ था, सब दूसरी धातु का था; मेरे उपादान में ठोस न था। लो-मैं चली; बाथम...उस पर भी लद्वितका रोती होगी-यमुना सिससकती होगी...दोनों मुझे गाली देती होंगी, अरे-अरे; मैं हँसने )ाली सबको रुलाने लगी! मैं उसी दिदन धम� से च्युत हो गयी-मर गयी, घण्टी मर गयी। पर यह कौन सोच रही है। हाँ, )ह मरघट की ज्)ाला धधक रही है-ओ, ओ मेरा श) )ह देखो-द्वि)जय लकड़ी के कुन्दे पर बैठा हुआ रो रहा है और बाथम हँस रहा है। हाय! मेरा श) कुछ नहीं करता है-न रोता है, न हँसता है, तो मैं क्या हूँ! जीद्वि)त हूँ। चारों ओर यह कौन नाच रहे हैं, ओह! सिसर में कौन धक्के मार रहा है। मैं भी नाचूँ-ये चुडै़लें हैं और मैं भी! तो चलँू )हाँ आलोक है।

घण्टी अपना नया रेशमी साया नोचती हुई दौड़ पड़ी। बाथम उस समय क्लब में था। मैझिजस्टे्रट की सिसफारिरशी सिचट्ठी की उसे अत्यन्त आ)श्यकता थी। पादरी जान सोच रहा था-अपनी समामिध का पत्थर कहाँ से मँगाऊँ, उस पर क्रॉस कैसा हो!

उधर घण्टी-पागल घण्टी-अँधेरे में भाग रही थी।

(5)

फतेहपुर सीकरी से अछनेरा जाने )ाली सड़क के सूने अंचल में एक छोटा-सा जंगल है। हरिरयाली दूर तक फैली हुई है। यहाँ खारी नदी एक छोटी-सी पहाड़ी से टकराती बहती है। यह पहाड़ी सिसलसिसला अछनेरा और लिस\घापुर के बीच में है। जन-साधारण उस सूने कानन में नहीं जाते। कहीं-कहीं बरसाती पानी के बहने से सूखे नाले अपना जज�र कले)र फैलाये पडे़ हैं। बीच-बीच मे ऊपर के टुकडे़ द्विनज�ल नालों से सहानुभूद्वित करते हुए दिदखाई दे जाते हैं। के)ल

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ऊँची-उँची टेकरिरयों से बस्ती बसी है। )ृक्षों के एक घने झुरमुट में लता-गुल्मों से ढकी एक सुन्दर झोंपड़ी है। उसमें कई द्वि)भाग हैं। बडे़-बडे़ )ृक्षों के नीचे पशुओ के झुंड बसे हैं; उनमें गाय, भैंस और घोडे़ भी हैं। तीन-चार भया)ने कुत्ते अपनी सजग आँखों से दूर दूर बैठे पहरा दे रहे हैं। एक पूरा पशु परिर)ार सिलए गाला उस जंगल में सुखी और द्विनभ�र रहती है। बदन गूजर, उस प्रान्त के भयानक पशुओं का मुखिखया गाला का सत्तर बरस का बूढ़ा द्विपता है। )ह अब भी अपने सासिथयों के साथ चढ़ाई पर जाता है। गाला का )यस यद्यद्विप बीस के ऊपर है। द्विफर भी कौमाय� के प्रभा) से )ह द्विकशोरी ही जान पड़ती है।

गाला अपने पक्षिक्षयों के चारे-पानी का प्रबन्ध कर रही थी। देखा तो एक बुलबुल उस टूटे हुए निप\जरे से भागना चाहती है। अभी कल ही गाला ने उसे पकड़ा था। )ह पशु-पक्षिक्षयों को पकड़ने और पालने में बड़ी चतुर थी। उसका यही खेल था। बदन गूजर जब बटेसर के मेले में सौदागर बनकर जाता, तब इसी गाला की देखरेख में पले हुए जान)र उसे मुँह माँगा दाम दे जाते। गाला अपने टूटे हुए निप\जरे को तारों के टुकडे़ और मोटे सूत से बाँध रही थी। सहसा एक बसिलष्ठ यु)क ने मुस्कराते हुए कहा, 'द्विकतनों को पकड़कर सदै) के सिलए बन्धन में जकड़ती रहोगी, गाला?'

'हम लोगों की पराधीनता से बड़ी मिमत्रता है नये! इसमें बड़ा सुख मिमलता है। )ही सुख औरों को भी देना चाहती हूँ-द्विकसी से द्विपता, द्विकसी से भाई, ऐसा ही कोई सम्बन्ध जोड़कर उन्हें उलझाना चाहती हूँ; द्विकन्तु पुरुर्ष, इस जंगली बुलबुल से भी अमिधक स्)तन्त्रता-पे्रमी है। )े सदै) छुटकारे का अ)सर खोज सिलया करते हैं। देखा, बाबा जब न होता है तब चले जाते हैं। कब तक आ)ेंगे तुम जानते हो?'

'नहीं भला मैं क्या जानँू! पर तुम्हारे भाई को मैंने कभी नहीं देखा।'

'इसी से तो कहती हूँ नये। मैं झिजसको पकड़कर रखना चाहती हूँ, )े ही लोग भागते हैं। जाने कहाँ संसार-भर का काम उन्हीं के सिसर पर पड़ा है! मेरा भाई? आह, द्विकतनी चौड़ी छाती )ाला यु)क था। अकेले चार-चार घोड़ों को बीसों कोस स)ारी में ले जाता। आठ-दस सिसपाही कुछ न कर सकते। )ह शेर-सा तड़पकर द्विनकल जाता। उसके सिसखाये घोडे़ सीदिढ़यों पर चढ़ जाते। घोडे़ उससे बातें करते, )ह उनके मरम को जानता था।'

'तो अब क्या नहीं है?'

'नहीं है। मैं रोकती थी, बाबा ने न माना। एक लड़ाई में )ह मारा गया। अकेले बीस सिसपाद्विहयों को उसने उलझा सिलया, और सब द्विनकल आये।'

'तो क्या मुझे आश्रय देने )ाले डाकू हैं?'

'तुम देखते नहीं, मैं जान)रों को पालती हूँ, और मेरे बाबा उन्हें मेले में ले जाकर बेचते हैं।' गाला का स्)र तीव्र और सन्देहजनक था।

'और तुम्हारी माँ?'

'ओह! )ह बड़ी लम्बी कहानी है, उसे न पूछो!' कहकर गाला उठ गयी। एक बार अपने कुरते के आँचल से उसने आँखें पोंछी, और एक श्यामा गौ के पास जा पहुँची, गौ ने सिसर झुका दिदया, गाला उसका सिसर खुजलाने लगी। द्विफर उसके मुँह से मुँह सटाकर दुलार द्विकया। उसके बछडे़ का गला चूमने लगी। उसे भी छोड़कर एक साल भर के बछडे़ को जा पकड़ा। उसके बडे़-बडे़ अयालों को उँगसिलयों से सुलझाने लगी। एक बार )ह द्विफर अपने-पशु मिमत्रों से प्रसन्न हो गयी। यु)क चुपचाप एक )ृक्ष की जड़ पर जा बैठा। आधा घण्टा न बीता होगा द्विक टापों के शब्द सुनकर गाला मुस्कराने लगी। उत्कण्ठा से उसका मुख प्रसन्न हो गया।

'अश्वारोही आ पँहुचे। उनमें सबसे आगे उमर में सत्तर बरस का )ृर्द्ध, परन्तु दृढ़ पुरुर्ष था। कू्ररता उसकी घनी दाढी और मूँछों के द्वितरछेपन से टपक रही थी। गाला ने उसके पास पहुँचकर घोडे़ से उतरने में सहायता दी। )ह भीर्षण

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बुड्ढा अपनी यु)ती कन्या को देखकर पुलद्विकत हो गया। क्षण-भर के सिलए न जाने कहाँ सिछपी हुई मान)ीय कोमलता उसके मुँह पर उमड़ आयी। उसने पूछा, 'सब ठीक है न गाला!'

'हाँ बाबा!'

बुडे्ढ ने पुकारा, 'नये!'

यु)क समीप आ गया। बुडे्ढ ने एक बार नीचे से ऊपर तक देखा। यु)क के ऊपर सन्देह का कारण न मिमला। उसने कहा, 'सब घोडों को मल)ाकर चारे-पानी का प्रबन्ध कर दो।'

बुडे्ढ के तीन साथी और उस यु)क ने मिमलकर घोड़ों को मलना आरम्भ द्विकया। बुड्ढा एक छोटी-सी मसिचया पर बैठकर तमाखू पीने लगा। गाला उसके पास खड़ी होकर उससे हँस-हँसकर बातें करने लगी। द्विपता और पुत्री दोनों ही प्रसन्न थे। बुडे्ढ ने पूछा, 'गाला! यह यु)क कैसा है

गाला ने जाने क्यों इस प्रश्न पर लस्थिज्जत हुई। द्विफर सँभलकर उसने कहा, 'देखने में तो यह बड़ा सीधा और परिरश्रमी है।'

'मैं भी समझता हूँ। प्रायः जब हम लोग बाहर चले जाते हैं, तब तुम अकेली रहती हो।'

'बाबा! अब बाहर न जाया करो।'

'तो क्या मैं यहीं बैठा रहूँ गाला। मैं इतना बूढ़ा नहीं हो गया!'

'नही बाबा! मुझे अकेली छोड़कर न जाया करो।'

'पहले जब तू छोटी थी तब तो नहीं डरती थी। अब क्या हो गया है, अब तो यह 'नये' भी यहाँ रहा करेगा। बेटी! यह कुलीन यु)क जान पड़ता है।'

'हाँ बाबा! द्विकन्तु यह घोड़ों का मलना नहीं जानता-देखो सामने पशुओं से इसे तद्विनक भी स्नेह नहीं है। बाबा! तुम्हारे साथी भी बडे द्विनद�यी हैं। एक दिदन मैंने देखा द्विक सुख से चरते हुए एक बकरी के बच्चे को इन लोगों ने समूचा ही भून डाला। ये सब बडे़ डरा)ने लगते हैं। तुम भी उन ही लोगों में मिमल जाते हो।'

'चुप पगली! अब बहुत द्वि)लम्ब नहीं-मैं इन सबसे अलग हो जाऊँगा, अच्छा तो बता, इस 'नये' को रख लँू न 'बदन गम्भीर दृमिष्ट से गाला की ओर देख रहा था।

गाला ने कहा, 'अच्छा तो है बाबा! दुख का मारा है।'

एक चाँदनी रात थी। बरसात से धुला हुआ जंगल अपनी गम्भीरता में डूब रहा था। नाले के तट पर बैठा हुआ 'नये' द्विनर्तिन\मेर्ष दृमिष्ट से उस हृदय द्वि)मोहन सिचत्रपट को देख रहा था। उसके मन में बीती हुई द्विकतनी स्मृद्वितयाँ स्)ग¶य नृत्य करती चली जा रही थीं। )ह अपने फटे कोट को टटोलने लगा। सहसा उसे एक बाँसुरी मिमल गयी-जैसे कोई खोयी हुई द्विनमिध मिमली। )ह प्रसन्न होकर बजाने लगा। बंसी के द्वि)लम्पिम्बत मधुर स्)र में सोई हुई )नलक्ष्मी को जगाने लगा। )ह अपने स्)र से आप ही मस्त हो रहा था। उसी समय गाला ने जाने कैसे उसके समीप आकर खड़ी हो गयी। नये ने बंसी बंद कर दी। )ह भयभीत होकर देखने लगा।

गाला ने कहा, 'तुम जानते हो द्विक यह कौन kान है?'

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'जंगल है, मुझसे भूल हुई।'

'नहीं, यह ब्रज की सीमा के भीतर है। यहाँ चाँदनी रात में बाँसुरी बजाने से गोद्विपयों की आत्माए ँमचल उठती हैं।'

'तुम कौन हो गाला!'

'मैं नहीं जानती; पर मेरे मन में भी ठेस पहुँचती है।'

'तब मैं न बजाऊँगा।'

'नहीं नये! तुम बजाओ, बड़ी सुन्दर बजती थी। हाँ, बाबा कदासिचत् क्रोध करें।'

'अच्छा, तुम रात को यों ही द्विनकलकर घूमती हो। इस पर तुम्हारे बाबा न क्रोध न करेंगे?'

'हम लोग जंगली हैं, अकेले तो मैं कभी-कभी आठ-आठ दस-दस दिदन इसी जंगल में रहती हूँ।'

'अच्छा, तुम्हें गोद्विपयों की बात कैसे मालूम हुई? क्या तुम लोग द्विहन्दू हो इन गूजरों से तो तुम्हारी भार्षा क्षिभन्न है।'

'आzय� से देखती हुई गाला ने कहा, 'क्यों, इसमें भी तुमको संदेह है। मेरी माँ मुगल होने पर भी कृष्ण से अमिधक पे्रम करती थी। अहा नये! मैं द्विकसी दिदन उसकी जी)नी सुनाऊँगी। )ह...'

'गाला! तब तुम मुगल)ानी माँ से उत्पन्न हुई हो।'

क्रोध से देखती हुई गाला ने कहा, 'तुम यह क्यों नहीं कहते द्विक हम लोग मनुष्य हैं।'

'झिजस सहृदयता से तुमने मेरी द्वि)पक्षित्त में से)ा की है, गाला! उसे देखकर तो मैं कहूँगा द्विक तुम दे)-बासिलका हो!' नये का हृदय सहानुभूद्वित की स्मृद्वित से भर उठा था।

'नहीं-नहीं, मैं तुमको अपनी माँ की सिलखी जी)नी पढ़ने को दँूगी और तब तुम समझ जाओगे। चलो, रात अमिधक बीत रही है, पुआल पर सो रहो।' गाला ने नये का हाथ पकड़ सिलया; दोनों उस चझिन्द्रका-धौत शुभ्र रजनी से भीगते हुए झोंपड़ी की ओर लौटे। उसके चले जाने के बाद )ृक्षों की आड़ से बूढ़ा बदन गूजर भी द्विनकला और उनके पीछे-पीछे चला।'

प्रभात चमकने लगा था। जंगली पक्षिक्षयों के कलनाद से कानन-प्रदेश गंुजरिरत था। गाला चारे-पानी के प्रबन्ध में लग गयी थी। बदन ने नये को बुलाया। )ह आकर सामने खड़ा हो गया। बदन ने उससे बैठने के सिलए कहा। उसके बैठ जाने पर गूजर कहने लगा-'जब तुम भूख से व्याकुल, थके हुए भयभीत, सड़क से हटकर पेड़ के नीचे पडे़ हुए आधे अचेत थ,े उस समय द्विकसने तुम्हारी रक्षा की थी?'

'आपने,' नये ने कहा।

'तुम जानते हो द्विक हम लोग डाकू हैं, हम लोगों को माया-ममता नहीं! परन्तु हमारी द्विनद�यता भी अपना द्विनर्दिद\ष्ट पथ रखती है, )ह है के)ल धन लेने के सिलए। भेद यही है द्विक धन लेने का दूसरा उपाय हम लोग काम में नहीं लेते, दूसरे उपायों को हम लोग अधम समझते हैं-धोखा देना, चोरी करना, द्वि)श्वासघात करना, यह सब तो तुम्हारे नगरों के सभ्य मनुष्यों की जीद्वि)का के सुगम उपाय हैं, हम लोग उनसे घृणा करते हैं। और भी-तुम )ृंदा)न )ाले खून के भागे हुए आसामी हो-हो न कहकर बदन तीखी दृमिष्ट से नये को देखने लगा। )ह सिसर नीचा द्विकये खड़ा रहा। बदन द्विफर कहने लगा, 'तो तुम सिछपाना चाहते हो। अच्छा सुनो, हम लोग झिजसे अपनी शरण में लेते हैं, उससे द्वि)श्वासघात नहीं करते।

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आज तुमसे एक बात साफ कह देना चाहता हूँ। देखो, गाला सीधी लड़की है, संसार के कतर-ब्योंत )ह नहीं जानती, तथाद्विप यदिद )ह द्विनसग�-द्विनयम से द्विकसी यु)क को प्यार करने लगे, तो इसमें आzय� नही। संभ) है, )ह मनुष्य तुम ही हो जाओ, इससिलए तुम्हें सचेत करता हूँ द्विक सा)धान! उसे धोखा न देना। हाँ, यदिद तुम कभी प्रमाक्षिणत कर सकोगे द्विक तुम उसके योग्य हो, तो द्विफर देखा जाएगा! समझा।'

बदन चला गया। उसकी प्रौढ़ कक� श )ाणी नये के कानों में )ज्र गम्भीर स्)र में गँूजने लगी। )ह बैठ गया और अपने जी)न का द्विहसाब लगाने लगा।

बहुत द्वि)लम्ब तक )ह बैठा रहा। तब गाला ने उससे कहा, 'आज तुम्हारी रोटी पड़ी रहेगी, क्या खाओगे नहीं?'

नये ने कहा, 'मैं तुम्हारी माता की जी)नी पढ़ना चाहता हूँ। तुमने मुझे दिदखाने के सिलए कहा था न।'

'ओहो, तो तुम रूठना भी जानते हो। अच्छा खा लो! मान जाओ, मैं तुम्हें दिदखला दँूगी।' कहती हुई गाला ने )ैसा ही द्विकया, जैसे द्विकसी बच्चे को मानते हुए म्पिस्त्रयाँ करती हैं। यह देखकर नये हँस पड़ा। उसने पूछा-

'अच्छा कब दिदखलाओगी?'

'लो, तुम खाने लगो, मैं जाकर ले आती हूँ।'

'नये अपने रोटी-मठे की ओर चला और गाला अपने घर में।'

(6)

शीतकाल के )ृक्षों से छनकर आती हुई धूप बड़ी प्यारी लग रही थी। नये पैरों पर पैर धरे, चुपचाप गाला की दी हुई, चमडे़ से बँधी एक छोटी-सी पुस्तक को आzय� से देख रहा था। )ह प्राचीन नागरी में सिलखी हुई थी। उसके अक्षर सुन्दर तो न थ,े पर थ ेबहुत स्पष्ट। नये कुतूहल से उसे पढ़ने लगा-

मेरी कथा

बेटी गाला! तुझे द्विकतना प्यार करती हूँ, इसका अनुमान तुझे छोड़कर दूसरा नहीं कर सकता। बेटा भी मेरे हृदय का टुकड़ा है; पर )ह अपने बाप के रंग में रंग गया-पक्का गूजर हो गया। पर मेरी प्यारी गाला! मुझे भरोसा है द्विक तू मुझे न भूलेगी। जंगल के कोने मे बैठी हुई, एक भयानक पद्वित की पत्नी अपने बाल्यकाल की मीठी स्मृद्वित से यदिद अपने मन को न बहला)े, तो दूसरा उपाय क्या है गाला! सुन, )त�मान सुख के अभा) में पुरानी स्मृद्वितयों का धन, मनुष्य को पल-भर के सिलए सुखी कर सकता है और तुझे अपने जी)न में आगे चलकर कदासिचत् सहायता मिमले, इससिलए मैंने तुझे थोड़ा-सा पढ़ाया और इसे सिलखकर छोड़ जाती हूँ।

मेरी माँ बडे़ ग)� से गोद में द्विबठाकर बडे़ दुलार से मुझे अपनी बीती सुनाती, उन्हीं द्विबखरी हुई बातों को इकट्ठा करती हूँ। अच्छा लो, सुनो मेरी कहानी-मेरे द्विपता का नाम मिमरजा जमाल था। )े मुगल-)ंश के एक शहजादे थे। मथुरा और आगरा के बीच में उनकी जागीर के कई गाँ) थ,े पर )े प्रायः दिदल्ली में ही रहते। कभी-कभी सैर-सिशकार के सिलए जागीर पर चले आते। उन्हें पे्रम था सिशकार से और द्विहन्दी कद्वि)ता से। सोमदे) नामक एक चौबे उनका मुहासिसब और कद्वि) था। )ह अपनी द्विहन्दी कद्वि)ता सुनाकर उन्हें प्रसन्न रखता। मेरे द्विपता को संस्कृत और फारसी से भी पे्रम था। )ह द्विहन्दी के मुसलमान कद्वि) जायसी के पूरे भW थे। सोमदे) इसमें उनका बराबर साथ देता। मैंने भी उसी से द्विहन्दी पढ़ी। क्या कहूँ, )े दिदन बडे़ चैन के थे। पर आपदाए ँभी पीछा कर रही थीं।

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एक दिदन मिमरजा जमाल अपनी छा)नी से दूर ताम्बूल-)ीसिथ में बैठे हुए, बैसाख के पहले के कुछ-कुछ गरम प)न से सुख का अनुभ) कर रहे थे। ढाल)ें टीले पर पान की खेती, उन पर सुढार छाजन, देहात के द्विनज�न )ाता)रण को ससिचत्र बना रही थी। उसी से सटा हुआ, कमलों से भरा एक छोटा सा ताल था, झिजनमें से भीनी-भीनी सुगन्ध उठकर मस्तक को शीतल कर देती। कलनाद करते हुए कभी-कभी पुरइनों से उड़ जाने पर ही जलपक्षी अपने अस्विस्तत्) का परिरचय दे देते। सोमदे) ने जलपान की साम्रगी सामने रखकर पूछा, 'क्या आज यहीं दिदन बीतेगा?'

'हाँ, देखो ये लोग द्विकतने सुखी हैं सोमदे)। इन देहाती गृहkों में भी द्विकतनी आशा है, द्विकतना द्वि)श्वास है, अपने परिरश्रम में इन्हें द्विकतनी तृन्तिप्त है।'

'यहाँ छा)नी है, अपनी जागीर में सरकार! रोब से रहना चाद्विहए। दूसरे kान पर चाहे जैसे रद्विहए।' सोमदे) ने कहा।

सोमदे) सहचर, से)क और उनकी सभा का पंद्विडत भी था। )ह मुँहलगा भी था; कभी-कभी उनसे उलझ भी जाता, परन्तु )ह हृदय से उनका भW था। उनके सिलए प्राण दे सकता था।

'चुप रहो सोमदे)! यहाँ मुझे हृदय की खोई हुई शान्तिन्त का पता चल रहा है। तुमने देखा होगा, द्विपता जी द्विकतने यत्न से संचय कर यह सम्पक्षित्त छोड़ गये हैं। मुझे उस धन से पे्रम करने की सिशक्षा, )े उच्चकोदिट की दाश�द्विनक सिशक्षा की तरह गम्भीरता से आजी)न देते रहे। आज उसकी परीक्षा हो रही है। मैं पूछता हूँ द्विक हृदय में झिजतनी मधुरिरमा है, कोमलता है, )ह सब क्या के)ल एक तरुणी की सुन्दरता की उपासना की साम्रगी है इसका और कोई उपयोग नही हँसने के जो उपकरण हैं, )े द्विकसी झलमले अंचल में ही अपना मुँह सिछपाये द्विकसी आशी)ा�द की आशा में पडे़ रहते हैं संसार में म्पिस्त्रयों का क्या इतना व्यापक अमिधकार है?'

सोमदे) ने कहा, आपके पास इतनी सम्पक्षित्त है द्विक अभा) की शंका व्यथ� है। जो चाद्विहए कीझिजये। )त�मान जगत् का शासक, प्रत्येक प्रश्नों का समाधान करने )ाला द्वि)�ान धन तो आपका सिचर सहचर और द्वि)श्वस्त है ही, लिच\ता क्या?'

मिमरजा जमाल ने जलपान करते हुए प्रसंग बदल दिदया। कहा, 'आज तुम्हारे बादाम की बफÉ में कुछ कड़)े बादाम थे।'

तमोली ने टट्टर के पास ही भीतर दरी द्विबछा दी थी। मिमरजा चुपचाप सामने फूले हुए कमलों को देखते थे। ईख की लिस\चाई के पुर)ट के शब्द दूर से उस द्विनस्तब्धता को भंग कर देते थे। प)न की गम¶ से टट्टर बंद कर देने पर भी उस सरपत की झँझरी से बाहर का दृश्य दिदखलायी पड़ता था। ढालु)ीं भूमिम में तद्विकये की आ)श्यकता न थी। पास ही आम के नीचे कम्बल द्विबछाकर दो से)कों के साथ सोमदे) बैठा था। मन में सोच रहा था-यह सब रुपये की सनक है।

ताल के द्विकनारे, पत्थर की सिशला पर, महुए की छाया में एक द्विकशोरी और एक खसखसी दाढ़ी)ाला मनुष्य, लम्बी सारंगी सिलये, द्वि)श्राम कर रहे थे। बासिलका की )यस चौदह से ऊपर नहीं; पुरुर्ष पचास के समीप। )ह देखने में मुसलमान जान पड़ता था। देहाती दृढ़ता उसके अंग-अंग से झलकती थी। घुटनों तक हाथ-पैर धो, मुँह पोंछकर एक बार अपने में आकर उसने आँखें फाड़कर देखा। उसने कहा, 'शबनम! देखो, यहाँ कोई अमीर दिटका हुआ मालूम पड़ता है। ठंडी हो चुकी हो, तो चलो बेटी! कुछ मिमल जाये तो अचरज नहीं।'

शबनम )स्त्र सँ)ारने लगी, उसकी सिसकुड़न छुड़ाकर अपनी )ेशभूर्षा को ठीक कर सिलया। आभूर्षणों में दो-चार काँच की चूद्विड़याँ और नाक में नथ, झिजसमें मोती लटककर अपनी फाँसी छुड़ाने के सिलए छटपटाता था। टट्टर के पास पहुँच गये। मिमरजा ने देखा-बासिलका की )ेशभूर्षा में कोई द्वि)शेर्षता नहीं, परन्तु परिरष्कार था। उसके पास कुछ नहीं था-)सन अलंकार या भादों की भरी हुई नदी-सा यौ)न। कुछ नहीं, थीं के)ल दो-तीन कलामयी मुख रेखाए-ँजो आगामी सौन्दय� की बाह्य रेखाए ँथीं, झिजनमें यौ)न का रंग भरना कामदे) ने अभी बाकी रख छोड़ा था। कई दिदन का पहना हुआ )सन भी मसिलन हो चला था, पर कौमाय� में उज्ज्)लता थी। और यह क्या! सूखे कपोलों में दो-दो तीन-तीन लाल मुहाँसे। तारुण्य जैसे अक्षिभव्यसिW का भूखा था, 'अभा)-अभा)!' कहकर जैसे कोई उसकी सुरमई आँखों में पुकार उठता था। मिमरजा कुछ सिसर उठाकर झँझरी से देखने लगा।

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'सरकार! कुछ सुनाऊँ दाढ़ी)ाले ने हाथ जोड़कर कहा। सोमदे) ने द्विबगड़ कर कहा, 'जाओ अभी सरकार द्वि)श्राम कर रहे हैं।'

'तो हम लोग भी बैठ जाते हैं, आज तो पेट भर जायेगा।' कहकर )ह सारंगी)ाला )हाँ की भूमिम झाड़ने लगा।

झुँझलाकर सोमदे) ने कहा, 'तुम भी एक द्वि)लक्षण मूख� हो! कह दिदया न, जाओ।'

से)क ने भी ग)� से कहा, 'तुमको मालूम नहीं, सरकार भीतर लेटे हैं।'

'शाहजादे मिमरजा जमाल।'

'कहाँ हैं?'

'यहीं, इसी टट्टी में हैं, धूप कम होने पर बाहर द्विनकलेंगे।'

'भाग खुल गये! मैं चुपचाप बैठता हूँ।' कहकर दाढ़ी)ाला द्विबना परिरष्कृत की हुई भूमिम पर बैठकर आँखें मटकाकर शबनम को संकेत करने लगा।

शबनम अपने एक ही )स्त्र को और भी मसिलन होने से बचाना चाहती थी, उसकी आँखें स्)च्छ kान और आड़ खोज रही थीं। उसके हाथ में अभी तोड़ा हुआ कमलगट्टा था। सबकी आँखें बचाकर )ह उसे चख लेना चाहती थी। सहसा टट्टर खुला।

मिमरजा ने कहा, 'सोमदे)!'

से)क दौड़ा, सोमदे) उठ खड़ा हुआ था। उसने कई आदाब बजाकर और सोमदे) को कुछ बोलने का अ)सर न देते हुए कहा, 'सरकार! जाचक हूँ, बडे़ भाग से दश�न हुए।'

मिमरजा को इतने से संतोर्ष न हुआ। उन्होंने मुँह बन्द द्विकये, द्विफर सिसर द्विहलाकर कुछ और जानने की इच्छा प्रकट की। सोमदे) ने दरबारी ढंग से डाँटकर कहा, 'तुम कौन हो जी, साफ-साफ क्यों नहीं बताते

'मैं ढाढी हूँ?'

'और यह कौन है?'

'मेरी लड़की शबनम।'

'शबनम क्या?'

'शबनम ओस को कहते हैं पस्थिण्डत जी।' मुस्कुराते हुए मिमरजा ने कहा और एक बार शबनम की ओर भली-भाँद्वित देखा। तेजस्)ी श्रीमान् की आँखों से मिमलते ही दरिरद्र शबनम की आँखें पसीने-पसीने हो गयीं। मिमरजा ने देखा, उन आकाश-सी नीली आँखों में सचमुच ओस की बँूदें छा गयी थीं।

'अच्छा, तुम लोग क्या करते हो?' मिमरजा ने पूछा।

'यह गाती है, इसी से हम दोनों का पापी पेट चलता है।'

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मिमरजा की इच्छा गाना सुनने की न थी, परन्तु शबनम अब तक कुछ बोली नहीं थी; के)ल इससिलए सहसा उन्होंने कहा, 'अच्छा सुनँू तो तुम लोगों का गाना। तुम्हारा नाम क्या है जी?'

'रहमत खाँ, सरकार!' कहकर )ह अपनी सारंगी मिमलाने लगा। शबनम द्विबना द्विकसी से पूछे, आकर कम्बल पर बैठ गयी। सोमदे) झुँझला उठा, पर कुछ बोला नहीं।

शबनम गाने लगी-

'पसे मग� मेरी मजार पर जो दिदया द्विकसी ने जला दिदया।'

उसे आह! दामने बाद ने सरेशाम से ही बुझा दिदया!

इसके आगे जैसे शबनम भूल गयी थी। )ह इसी पद्य को कई बार गाती रही। उसके संगीत में कला न थी, करुणा थी। पीछे से रहमत उसके भूले हुए अंश को स्मरण दिदलाने के सिलए गुमगुना रहा था, पर शबनम के हृदय का रिरW अंश मूर्तित\मान होकर जैसे उसकी स्मरण-शसिW के सामने अड़ जाता था। झुँझलाकर रहमत ने सारंगी रख दी। द्वि)स्मय से शबनम ने ही द्विपता की ओर देखा, उसकी भोली-भाली आँखों ने पूछा-क्या भूल हो गयी। चतुर रहमत उस बात को पी गया। मिमरजा जैसे स्)प्न से चौंके, उन्होंने देखा-सचमुत सन्ध्या से ही बुझा हुआ स्नेह-द्वि)हीन दीपक सामने पड़ा है। मन में आया, उसे भर दँू। कहा, 'रहमत तुम्हारी जीद्वि)का का अ)लम्ब तो बड़ा दुब�ल है।'

'सरकार, पेट नहीं भरता, दो बीघा जमीन से क्या होता है।'

मिमरजा ने कौतुक से कहा, 'तो तुम लोगों को कोई सुखी रखना चाहे, तो रह सकते हो?'

रहमत के सिलए जैसे छप्पर फाड़कर द्विकसी ने आनन्द बरसा दिदया। )ह भद्वि)ष्य की सुखमयी कल्पनाओं से पागल हो उठा, 'क्यों नहीं सरकार! आप गुद्विनयों की परख रखते हैं।'

सोमदे) ने धीरे से कहा, ')ेश्या है सरकार।'

मिमरजा ने कहा, 'दरिरद्र हैं।'

सोमदे) ने द्वि)रW होकर सिसर झुका सिलया।

कई बरस बीत गये।

शबनम मिमरजा के महल में रहने लगी थी।

'सुन्दरी! सुन्दरी! ओ बन्दरी! यहाँ तो आ!'

'आई!' कहती हुई एक चंचल छोकरी हाथ बाँधे सामने आकर खड़ी हो गयी। उसकी भ)ें हँस रही थीं। )ह अपने होंठो को बडे़ दबा) से रोक रही थी।

'देखो तो आज इसे क्या हो गया है। बोलती नहीं, मरे मारे बैठी है।'

'नहीं मलका! चारा-पानी रख देती हूँ। मैं तो इससे डरती हूँ! और कुछ नहीं करती।'

'द्विफर इसको क्या हो गया है, बतला नहीं तो सिसर के बाल नोंच डालँूगी।'

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सुन्दरी को द्वि)श्वास था द्विक मलका कदाद्विप ऐसा नहीं कर सकती। )ह ताली पीटकर हँसने लगी और बोली, 'मैं समझ गयी!'

उत्कण्ठा से मलका ने कहा, 'तो बताती क्यों नहीं?'

'जाऊँ सरकार को बुला लाऊँ, )े ही इसके मरम की बात जानते हैं।'

'सच कह, )े कभी इसे दुलार करते हैं, पुचकारते हैं मुझे तो द्वि)श्वास नहीं होता।'

'हाँ।'

'तो मैं ही चलती हूँ, तू इसे उठा ले।'

सुन्दरी ने महीन सोने के तारों से बना हुआ निप\जरा उठा सिलया और शबनम आरW कपोलों पर श्रम-सीकर पोंछती हुई उसके पीछे-पीछे चली।

उप)न की कंुज गली परिरमल से मस्त हो गयी। फूलों ने मकरन्द-पान करने के सिलए अधरों-सी पंखद्विड़याँ खोलीं। मधुप लड़खड़ाये। मलयाद्विनल सूचना देने के सिलए आगे-आगे दौड़ने लगा।

'लोभ! सो भी धन का! ओह द्विकतना सुन्दर सप� भीतर फुफकार रहा है। कोहनूर का सीसफूल गजमुWाओं की एका)ली द्विबना अधूरा है, क्यों )ह तो कंगाल थी। )ह मेरी कौन है

'कोई नहीं सरकार!' कहते हुए सोमदे) ने द्वि)चार में बाधा उपस्थिkत कर दी।

'हाँ सोमदे), मैं भूल कर रहा था।'

'बहुत-से लोग )ेदान्त की व्याख्या करते हुए ऊपर से दे)ता बन जाते हैं और भीतर उनके )ह नोंच-खसोट चला करता है, झिजसकी सीमा नहीं।'

')ही तो सोमदे)! कंगाल को सोने में नहला दिदया; पर उसका कोई तत्काल फल न हुआ-मैं समझता हूँ )ह सुखी न रह सकी।'

'सोने की परिरभार्षा कदासिचत् सबके सिलए क्षिभन्न-क्षिभन्न हो! कद्वि) कहते हैं-स)ेरे की द्विकरणें सुनहली हैं, राजनीद्वितक द्वि)शारद-सुन्दर राज्य को सुनहला शासन कहते हैं। प्रणयी यौ)न में सुनहरा पानी देखते हैं और माता अपने बच्चे के सुनहले बालों के गुच्छों पर सोना लुटा देती है। यह कठोर, द्विनद�य, प्राणहारी पीला सोना ही तो सोना नहीं है।' सोमदे) ने कहा

'सोमदे)! कठोर परिरश्रम से, लाखों बरस से, नये-नये उपाय से, मनुष्य पृथ्)ी से सोना द्विनकाल रहा है, पर )ह भी द्विकसी-न-द्विकसी प्रकार द्विफर पृथ्)ी में जा घुसता है। मैं सोचता हूँ द्विक इतना धन क्या होगा! लुटाकर देखँू?'

'सब तो लुटा दिदया, अब कुछ कोर्ष में है भी?'

'संसिचत धन अब नहीं रहा।'

'क्या )ह सब प्रभात के झरते हुए ओस की बँूदों में अरुण द्विकरणों की छाया थी और मैंने जी)न का कुछ सुख भी नहीं सिलया!'

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'सरकार! सब सुख सबके पास एक साथ नहीं आते, नहीं तो द्वि)धाता को सुख बाँटने में बड़ी बाधा उपस्थिkत हो जाती!'

सिचढ़कर मिमरजा ने कहा, 'जाओ!'

सोमदे) चला गया, और मिमरजा एकान्त में जी)न की गुस्वित्थयों को सुलझाने लगे। )ापी के मरकत जल को द्विनर्तिन\मेर्ष देखते हुए )े संगमम�र के उसी प्रकोष्ठ के सामने द्विनzेष्ट थ,े झिजसमें बैठे थे।

नूपुर की झनकार ने स्)प्न भंग कर दिदया-'देखो तो इसे हो क्या गया है, बोलता नहीं क्यों! तुम चाहो तो यह बोल दे।'

'ऐं! इसका निप\जड़ा तो तुमने सोने से लाद दिदया है, मलका! बहुत हो जाने पर भी सोना सोना ही है! ऐसा दुरुपयोग!'

'तुम इसे देखो तो, क्यों दुखी है?'

'ले जाओ, जब मैं अपने जी)न के प्रश्नों पर द्वि)चार कर रहा हूँ, तब तुम यह खिखल)ाड़ दिदखाकर मुझे भुल)ाना चाहती हो!'

'मैं तुम्हें भुल)ा सकती हूँ!' मिमरजा का यह रूप शबनम ने कभी नहीं देखा था। )ह उनके गम� आलिल\गन, पे्रम-पूण� चुम्बन और म्पिस्नग्ध दृमिष्ट से सदै) ओत-प्रोत रहती थी-आज अचानक यह क्या! संसार अब तक उसके सिलए एक सुनहरी छाया और जी)न एक मधुर स्)प्न था। खंजरीट मोती उगलने लगे।

मिमरजा को चेतना हुई-उसी शबनम को प्रसन्न करने के सिलए तो )ह कुछ द्वि)चारता-सोचता है, द्विफर यह क्या! यह क्या-मेरी एक बात भी यह हँसकर नहीं उड़ा सकती, झट उसका प्रद्वितकार! उन्होंने उते्तझिजत होकर कहा, 'सुन्दरी! उठा ले मेरे सामने से निप\जरा, नहीं तो तेरी भी खोपड़ी फूटेगी और यह तो टूटेगा ही!'

सुन्दरी ने बेढब रंग देखा, )ह निप\जरा लेकर चली। मन में सोचती जाती थी-आज )ह क्या! मन-बहला) न होकर यह काण्ड कैसा!

शबनम द्वितरस्कार न सह सकी, )ह ममा�हत होकर शे्वत प्रस्तर के स्तम्भ में दिटककर सिससकने लगी। मिमरजा ने अपने मन को मिधक्कारा। रोने )ाली मलका ने उस अकारण अकरुण हृदय को द्रद्वि)त कर दिदया। उन्होंने मलका को मनाने की चेष्टा की, पर माद्विननी का दुलार द्विहचद्विकयाँ लेने लगा। कोमल उपचारों ने मलका को जब बहुत समय बीतने पर स्)k द्विकया, तब आँसू के सूखे पद-सिचह्न पर हँसी की दौड़ धीमी थी, बात बदलने के सिलए मिमरजा ने कहा, 'मलका, आज अपना सिसतार सुनाओ, देखें, अब तुम कैसा बजाती हो?'

'नहीं, तुम हँसी करोगे और मैं द्विफर दुखी होऊँगी।'

'तो मैं समझ गया, जैसे तुम्हारा बुलबुल एक ही आलाप जानता है-)ैसे ही तुम अभी तक )ही भैर)ी की एक तान जानती होगी।' कहते हुए मिमरजा बाहर चले गये। सामने सोमदे) मिमला, मिमरजा ने कहा, 'सोमदे)! कंगाल धन का आदर करना नहीं जानते।'

'ठीक है श्रीमान्, धनी भी तो सब का आदर करना नहीं जानते, क्योंद्विक सबके आदरों के प्रकार क्षिभन्न हैं। जो सुख-सम्मान आपने शबनम को दे रखा है, )ही यदिद द्विकसी कुल)धु को मिमलता!'

')ह )ेश्या तो नहीं है। द्विफर भी सोमदे), सब )ेश्याओं को देखो-उनमें द्विकतने के मुख सरल हैं, उनकी भोली-भाली आँखें रो-रोकर कहती हैं, मुझे पीट-पीटकर चंचलता सिसखायी गयी है। मेरा द्वि)श्वास है द्विक उन्हें अ)सर दिदया जाये तो )े द्विकतनी कुल)धुओं से द्विकसी बात में कम न होतीं!'

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'पर ऐसा अनुभ) नहीं, परीक्षा करके देखिखये।'

'अच्छा तो तुमको पुरोद्विहती करनी होगी। द्विनकाह कराओगे न

'अपनी कमर टटोसिलये, मैं प्रस्तुत हूँ।' कहकर सोमदे) ने हँस दिदया।

मिमरजा मलका के प्रकोष्ठ की ओर चले।

सब आभूर्षण और मूल्य)ान )स्तु सामने एकत्र कर मलका बैठी है। रहमत ने सहसा आकर देखा, उसकी आँखें चमक उठीं। उसने कहा, 'बेटी यह सब क्या?'

'इन्हें दहेज देना होगा।'

'द्विकसे क्या मैं उन्हें घर ले आऊँ?'

'नहीं, झिजसका है उसे।'

'पागल तो नहीं हो गयी है-मिमला हुआ भी कोई यों ही लौटा देता है?'

'चुप रहो बाबा!'

उसी समय मिमरजा ने भीतर आकर यह देखा। उनकी समझ में कुछ न आया, उते्तझिजत होकर उन्होंने कहा, 'रहमत! क्या यह सब घर बाँध ले जाने का ढंग था।'

'रहमत आँखें नीची द्विकये चला गया, पर मलका शबनम लाल हो गयी। मिमरजा ने सम्हलकर उससे पूछा, 'यह सब क्या है मलका?'

तेजस्विस्)ता से शबनम ने कहा, 'यह सब मेरी )स्तुए ँहैं, मैंने रूप बेचकर पायी हैं, क्या इन्हें घर न भेजूँ।'

चोट खाकर मिमरजा ने कहा, 'अब तुम्हारा दूसरा घर कौन है, शबनम! मैं तुमसे द्विनकाह करँूगा।'

'ओह! तुम अपनी मूल्य)ान )स्तुओं के साथ मुझे भी सन्दूक में बन्द करना चाहते हो! तुम अपनी सम्पक्षित्त सहेज लो, मैं अपने को सहेजकर देखँू!'

मिमरजा ममा�हत होकर चले गये।

सादी धोती पहने सारंगी उठाकर हाथ में देते हुए रहमत से शबनम ने कहा, 'चलो बाबा!'

'कहाँ बेटी! अब तो मुझसे यह न हो सकेगा, और तुमने भी कुछ न सीखा-क्या करोगी मलका?'

'नहीं बाबा! शबनम कहो। चलो, जो सीखा है )ह गाना तो मुझे भूलेगा नहीं, और भी सिसखा देना। अब यहाँ एक पल नहीं ठहर सकती!'

बुडे्ढ ने दीघ� द्विनःश्वास लेकर सारंगी उठायी, )ह आगे-आगे चला।

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उप)न में आकर शबनम रुक गयी। मधुमास था, चाँदनी रात थी। )ह द्विनज�नता सौरभ-व्याप्त हो रही थी। शबनम ने देखा, ऋतुरानी सिशरिरस के फूलों की कोमल तूसिलका से द्वि)राट शून्य में अलक्ष्य सिचत्र बना रही थी। )ह खड़ी न रह सकी, जैसे द्विकसी धक्के से खिखड़की बाहर हो गयी।

इस घटना को बारह बरस बीत गये थ,े रहमत अपनी कच्ची दालान में बैठा हुआ हुक्का पी रहा था। उसने अपने इकटे्ठ द्विकये हुए रुपयों से और भी बीस बीघा खेत ले सिलया था। मेरी माँ चा)ल फटक रही थी और मैं बैठी हुई अपनी गुद्विड़या खेल रही थी। अभी संध्या नहीं थी। मेरी माँ ने कहा, 'बानो, तू अभी खेलती ही रहेगी, आज तूने कुछ भी नहीं पढ़ा।' रहमत खाँ मेरे नाना ने कहा, 'शबनम, उसे खेल लेने दे बेटी, खेलने के दिदन द्विफर नहीं आते।' मैं यह सुनकर प्रसन्न हो रही थी, द्विक एक स)ार नंगे सिसर अपना घोड़ा दौड़ाता हुआ दालान के सामने आ पहुँचा और उसने बड़ी दीनता से कहा, 'मिमयाँ रात-भर के सिलए मुझे जगह दो, मेरे पीछे डाकू लगे हैं!'

रहमत ने धुआँ छोड़ते हुए कहा, 'भई थके हो तो थोड़ी देर ठहर सकते हो, पर डाकुओं से तो तुम्हें हम बचा नहीं सकते।'

'यही सही।' कहकर स)ार घोडे़ से कूद पड़ा। मैं भी बाहर ही थी, कुतूहल से पसिथक का मुँह देखने लगी। बाघ की खाट पर )ह हाँफते हुए बैठा। संध्या हो रही थी। तेल का दीपक लेकर मेरी माँ उस दालान में आयी। )ह मुँह द्विफराये हुए दीपक रखकर चली गयी। सहसा मेरे बुडे्ढ नाना को जैसे पागलपन हो गया, खडे़ होकर पसिथक को घूरने लगे। पसिथक ने भी देखा और चौंककर पूछा, 'रहमत, यह तुम्हारा ही घर है?'

'हाँ, मिमरजा साहब!'

इतने में एक और मनुष्य हाँफता हुआ आ पहुँचा, )ह कहने लगा, 'सब उलट-पुलट हो गया। मिमरजा आज देहली का लिस\हासन मुगलों के हाथ से बाहर है। द्विफरंगी की दोहाई है, कोई आशा न रही।'

मिमरजा जमाल मानसिसक पीड़ा से द्वितलमिमलाकर उठ खडे़ हुए, मुट्ठी बाँधे टहलने लगे और बुड्ढा रहमत हत्बुझिर्द्ध होकर उन्हें देखने लगा। भीतर मेरी माँ यह सब सुन रही थी, )ह बाहर झाँककर देखने लगी। मिमरजा की आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं। तल)ार की मूठों पर, कभी मूछों पर हाथ चंचल हो रहा था। सहसा )े बैठ गये और उनकी आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। )े बोल उठे, 'मुगलों की द्वि)लासिसता ने राज को खा डाला। क्या हम सब बाबर की संतान हैं?' आह!'

मेरी माँ बाहर चली आयी। रात की अँधेरी बढ़ रही थी। भयभीत होकर यह सब आzय�मय व्यापार देख रही थी! माँ धीरे-धीरे आकर मिमरजा के सामने खड़ी हो गयी और उनके आँसू पोंछने लगी! उस स्पश� से मिमरजा के शोक की ज्)ाला जब शान्त हुई, तब उन्होंने क्षीण स्)र में कहा, 'शबनम!'

)ह बड़ा करुणाजनक दृश्य था। मेरे नाना रहमत खाँ ने कहा, 'आओ सोमदे)! हम लोग दूसरी कोठी में चलें। )े दोनों चले गये। मैं बैठी थी, मेरी माँ ने कहा, 'अब शोक करके क्या होगा, धीरज को आपदा में न छोड़ना चाद्विहए। यह तो मेरा भाग है द्विक इस समय मैं तुम्हारे से)ा के सिलए द्विकसी तरह मिमल गयी। अब सब भूल जाना चाद्विहए। जो दिदन बचे हैं, मासिलक के नाम पर काट सिलए जायेंगे।'

मिमरजा ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, 'शबनम! मैं एक पागल था, मैंने समझा था, मेरे सुखों का अन्त नहीं, पर आज?'

'कुछ नहीं, कुछ नहीं, मेरे मासिलक! सब अच्छा है, सब अच्छा होगा। उसकी दया में सन्देह न करना चाद्विहए।'

अब मैं भी पास चली आयी थी, मिमरजा ने मुझे देखकर संकेत से पूछा। माँ ने कहा, 'इसी दुखिखया को छः महीने की पेट में सिलए यहाँ आयी थी; और यहीं धूल-मिमट्टी में खेलती हुई इतनी बड़ी हुई। मेरे मासिलक! तुम्हारे द्वि)रह में यही तो

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मेरी आँखों की ठंडक थी-तुम्हारी द्विनशानी!' मिमरजा ने मुझे गले से लगा सिलया। माँ ने कहा, 'बेटी! यही तेरे द्विपता हैं।' मैं न जाने क्यों रोने लगी। हम सब मिमलकर बहुत रोये। उस रोने में बड़ा सुख था। समय ने एक साम्राज्य को हाथों में लेकर चूर कर दिदया, द्विबगाड़ दिदया, पर उसने एक झोंपड़ी के कोने में एक उजड़ा हुआ स्)ग� बसा दिदया। हम लोगों के दिदन सुख से बीतने लगे।'

मिमरजा के आ जाने से गाँ)-भर में एक आतंक छा गया। मेरे नाना का बुढ़ापा चैन से कटने लगा। सोमनाथ मुझे द्विहन्दी पढ़ाने लगे, और मैं माता-द्विपता की गोद में सुख से बढ़ने लगी।

सुख के दिदन बड़ी शीघ्रता से खिखसकते हैं। एक बरस के सब महीने देखते-देखते बीत गये। एक दिदन संध्या में हम सब लोग अला) के पास बैठे थे। द्विक)ाड़ बन्द थे। सरदी से कोई उठना नहीं चाहता था। ओस से भीगी रात भली मालूम होती थी। धुआँ ओस के बोझ से ऊपर नहीं उठ सकता था। सोमनाथ ने कहा, 'आज बरफ पडे़गा, ऐसा रंग है।' उसी समय बुधुआ ने आकर कहा, 'और डाका भी।'

सब लोग चौकन्ने हो गये। मिमरजा ने हँसकर कहा, 'तो क्या तू ही उन सबों का भेदिदया है।'

'नहीं सरकार! यह देश ही ऐसा है, इसमें गूजरों की...'

बुधुआ की बात काटते हुए सोमदे) ने कहा, 'हाँ-हाँ, यहाँ के गूजर बडे़ भयानक हैं।'

'तो हम लोगों को भी तैयार रहना चाद्विहए!' कहकर, 'आप भी द्विकसकी बात में आते हैं। जाइये, आराम कीझिजये।'

सब लोग उस समय तो हँसते हुए उठे, पर अपनी कोठरी में आते समय सबके हाथ-पैर बोझ से लदे हुए थे। मैं भी माँ के साथ कोठरी में जाकर जो रही।

रात को अचानक कोलाहल सुनकर मेरी आँख खुल गयी। मैं पहले सपना समझकर द्विफर आँख बन्द करने लगी, पर झुठलाने से कठोर आपक्षित्त नहीं झूठी हो सकती है। सचमुच डाका पड़ा था, गाँ) के सब लोग भय से अपने-अपने घरों में घुसे थे। मेरा हृदय धड़कने लगा। माँ भी उठकर बैठी थी। )ह भयानक आक्रमण मेरे नाना के घर पर ही हुआ था। रहमत खाँ, मिमरजा और सोमदे) ने कुछ काल तक उन लोगों को रोका, एक भीर्षण काण्ड उपस्थिkत हुआ। हम माँ-बेदिटयाँ एक-दूसरे के गले से सिलपटी हुई थर-थर काँप रही थीं। रोने का भी साहस न होता था। एक क्षण के सिलए बाहर का कोलाहल रुका। अब उस कोठरी के द्विक)ाड़ तोडे़ जाने लगे, झिजसमें हम लोग थे। भयानक शब्द से द्विक)ाडे़ टूटकर द्विगरे। मेरी माँ ने साहस द्विकया, )ह लोगों से बोली, 'तुम लोग क्या चाहते हो?'

'न)ाबी का माल दो बीबी! बताओ कहाँ है?' एक ने कहा। मेरी माँ बोली, 'हम लोगों की न)ाबी उसी दिदन गयी, जब मुगलों का राज्य गया! अब क्या है, द्विकसी तरह दिदन काट रहे हैं।'

'यह पाजी भला बतायेगी!' कहकर दो नर द्विपशाचों ने उसे घसीटा। )ह द्वि)पक्षित्त की सताई मेरी माँ मूर्च्छिच्छ\त हो गयी; पर डाकुओं में से एक ने कहा, 'नकल कर रही है!' और उसी अ)kा में उसे पीटने लगे। पर )ह द्विफर न बोली। मैं अ)ाक् कोने में काँप रही थी। मैं भी मूर्च्छिच्छ\त हो रही थी द्विक मेरे कानों में सुनाई पड़ा, 'इसे न छुओ, मैं इसे देख लँूगा।' मैं अचेत थी।

इसी झोंपड़ी के एक कोने में मेरी आँखें खुलीं। मैं भय से अधमरी हो रही थी। मुझे प्यास लगी थी। ओठ चाटने लगी। एक सोलह बरस के यु)क ने मुझे दूध द्विपलाया और कहा, 'घबराओ न, तुम्हें कोई डर नहीं है। मुझे आश्वासन मिमला। मैं उठ बैठी। मैंने देखा, उस यु)क की आँखों में मेरे सिलए स्नेह है! हम दोनों के मन में पे्रम का र्षड्यंत्र चलने लगा और उस सोलह बरस के बदन गूजर की सहानुभूद्वित उसमें उते्तजना उत्पन्न कर रही थी। कई दिदनों तक जब मैं द्विपता और माता का ध्यान करके रोती, तो बदन मेरे आँसू पोंछता और मुझे समझाता। अब धीरे-धीरे मैं उसके साथ जंगल के अंचलों में घूमने लगी।

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गूजरों के न)ाब का नाम सुनकर बहुत धन की आशा में डाका डाला था, पर कुछ हाथ न लगा। बदन का द्विपता सरदार था! )ह प्रायः कहता, 'मैंने इस बार व्यथ� इतनी हत्या की। अच्छा, मैं इस लड़की को जंगल की रानी बनाऊँगा।'

बदन सचमुच मुझसे स्नेह करता। उसने द्विकतने ही गूजर कन्याओं के ब्याह लौटा दिदये, उसके द्विपता ने भी कुछ न कहा। हम लोगों का स्नेह देखकर )ह अपने अपराधों का प्रायक्षिzत्त करना चाहता था; बाधक था हम लोगों का धम�। बदन ने कहा, 'हम लोगों को इससे क्या तुम जैसे चाहो भग)ान को मानो, मैं झिजसके सम्बन्ध में स्)यं को कुछ समझता नहीं, अब तुम्हें क्यों समझाऊँ।' सचमुच )ह इन बातों को समझाने की चेष्टा भी नहीं करता। )ह पक्का गूजर जो पुराने संस्कार और आचार चले आते थे। उन्हीं कुल परम्परा के कामों के कर लेने से कृतकृत्य हो जाता। मैं इस्लाम के अनुसार प्राथ�ना करती, पर इससे हम लोगों के मन में सन्देह न हुआ। हमारे पे्रम ने हम लोगों को एक बन्धन में बाँध दिदया और जी)न कोमल होकर चलने लगा। बदन ने अपना पैतृक व्य)साय न छोड़ा, मैं उससे के)ल इसी बात से असन्तुष्ट रहती।

यौ)न की पहली ऋतु हम लोगों के सिलए जंगली उपहार लेकर आयी। मन में न)ाबी का नशा और माता की सरल सीख, इधर गूजर की कठोर दिदनचया�! एक द्वि)सिचत्र सम्मेलन था। द्विफर भी मैं अपना जी)न द्विबताने लगी।

'बेटी गाला! तू झिजस अ)kा में रह; जगन्तित्पता को न भूल! राजा कंगाल होते हैं और कंगाल राजा हो जाते हैं, पर )ह सबका मासिलक अपने लिस\हासन पर अटल बैठा रहता है। झिजसे हृदय देना, उसी को शरीर अप�ण करना, उसमें एकद्विनष्ठा बनाये रखना। मैं बराबर जायसी की 'पद्मा)त' पढ़ा करती हूँ। )ह म्पिस्त्रयों के सिलए जी)न-यात्रा में पथ-प्रदश�क है। म्पिस्त्रयों को पे्रम करने के पहले यह सोच लेना चाद्विहए-मैं पद्मा)ती हो सकती हूँ द्विक नहीं गाला! संसार दुःख से भरा है। सुख के छींटे कहीं से परमद्विपता की दया से आ जाते हैं। उसकी सिचन्ता न करना, उसके न पाने से दुःख भी न मानना। मैंने अपने कठोर और भीर्षण पद्वित की से)ा सच्चाई से की है और चाहती हूँ द्विक तू भी मेरी जैसी हो। परमद्विपता तेरा मंगल करे। पद्मा)त पढ़ना कभी न छोड़ना। उसके गूढ़ तत्त्) जो मैं तुझे बराबर समझाती आयी हूँ, तेरी जी)न-यात्रा को मधुरता और कोमलता से भर देंगे। अन्त में द्विफर तेरे सिलए मैं प्राथ�ना करती हूँ, तू सुखी रहे।'

नये ने पुस्तक बन्द करते हुए एक दीघ� द्विनःश्वास सिलया। उसकी संसिचत स्नेह रासिश में उस राज)ंश की जंगली लड़की के सिलए हलचल मच गयी। द्वि)रस जी)न में एक न)ीन सू्फर्तित\ हुई। )ह हँसते हुए गाला के पास पहुँचा। गाला इस समय अपने नये बुलबुल को चारा दे रही थी।

'पढ़ चुके! कहानी अच्छी है न?' गाला ने पूछा।

'बड़ी करुण और हृदय में टीस उत्पन्न करने )ाली कहानी है, गाला! तुम्हारा सम्बन्ध दिदल्ली के राज-लिस\हासन से है-आzय�!'

'आzय� द्विकस बात का नये! क्या तुम समझते हो द्विक यही बड़ी भारी घटना है। द्विकतने राज रWपूण� शरीर परिरश्रम करते-करते मर-पच गये, उस अनन्त अनलसिशखा में, जहाँ चरम शीतलता है, परम द्वि)श्राम है, )हाँ द्विकसी तरह पहुँच जाना ही तो इस जी)न का लक्ष्य है।'

नये अ)ाक् होकर उसका मुँह देखने लगा। गाला सरल जी)न की जैसे प्राथमिमक प्रद्वितमा थी। नये ने साहस कर पूछा, 'द्विफर गाला, जी)न के प्रकारों से तुम्हारे सिलए चुना) का कोई द्वि)र्षय नहीं, उसे द्विबताने के सिलए कोई द्विनक्षिzत काय�क्रम नहीं।'

'है तो नये! समीप के प्राक्षिणयों में से)ा-भा), सबसे स्नेह-सम्बन्ध रखना, यह क्या मनुष्य के सिलए पया�प्त कत�व्य नहीं।'

'तुम अनायास ही इस जंगल में पाठशाला खोलकर यहाँ के दुदा�न्त प्राक्षिणयों के मन में कोमल मान)-भा) भर सकती है।'

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'ओहो! तुमने सुना नहीं, सीकरी में एक साधु आया है, द्विहन्दू-धम� का तत्त्) समझाने के सिलए! जंगली बालकों की एक पाठशाला उसने खोल दी है। )ह कभी- कभी यहाँ भी आता है, मुझसे भी कुछ ले जाता है; पर मैं देखती हूँ द्विक मनुष्य बड़ा ढोंगी जी) है-)ह दूसरों को )ही समझाने का उद्योग करता है, झिजसे स्)यं कभी भी नहीं समझता। मुझे यह नही रुचता! मेरे पुरखे तो बहुत पढे़-सिलखे और समझदार थ,े उनके मन की ज्)ाला कभी शान्त हुई?'

'यह एक द्वि)कट प्रश्न है, गाला! जाता हूँ, अभी मुझे घास इकट्ठा करना है। यह बात तो मैं धीरे-धीरे समझने लगा हूँ द्विक सिशक्षिक्षतों और असिशक्षिक्षतों के कम� में अन्तर नहीं है। जो कुछ भेद है )ह उनके काम करने के ढंग का है।'

'तो तुमने अपनी कथा नहीं सुनाई!'

'द्विकसी अ)सर पर सुनाऊँगा!' कहता हुआ नये चला गया।

'गाला चुपचाप अस्त होते हुए दिदनकर को देख रही थी। बदन दूर से टहलता हुआ आ रहा था। आज उसका मुँह सदा के सिलए प्रसन्न था। गाला उसे देखते ही उठ खड़ी हुई, बोली, 'बाबा, तुमने कहा था, आज मुझे बाजार सिल)ा चलने को, अब तो रात हुआ चाहती है।'

'कल चलँूगा बेटी!' कहते हुए बदन ने अपने मुँह पर हँसी ले आने की चेष्टा की, क्योंद्विक यह उत्तर सुनने के सिलए गाला के मान का रंग गहरा हो चला था। )ह बासिलका के सदृश ठुनककर बोली, 'तुम तो बहाना करते हो।'

'नहीं, नहीं, कल तझे सिल)ा ले चलँूगा। तुझे क्या लेना है, सो तो बता।'

'मुझे दो निप\जडे़ चाद्विहए, कुछ सूत और रंगीन कागज।'

'अच्छा, कल ले आना।'

बेटी और बाप क e यह मान द्विनपट गया। अब दोनों अपनी झोंपड़ी में आये और रूखा-सूखा खाने-पीने में लग गये।

(7)

सीकरी की बस्ती से कुछ हटकर के ऊँचे टीले पर फूस का बड़ा-सा छप्पर पड़ा है और नीचे कई चटाइयाँ पड़ी हैं। एक चौकी पर मंगलदे) लेटा हुआ, स)ेरे की-छप्पर के नीचे आती हुई-शीतकाल की प्यारी धूप से अपनी पीठ में गम¶ पहुँचा रहा है। आठ-दस मैले-कुचेले लड़के भी उसी टीले के नीचे-ऊपर हैं। कोई मिमट्टी बराबर कर रहा है, कोई अपनी पुस्तकों को बैठन में बाँध रहा है। कोई इधर-उधर नये पौधो में पानी दे रहा है, मंगलदे) ने यहाँ भी पाठशाला खोल रखी है। कुछ थोडे़ से जाट-गूजरों के लड़के यहाँ पढ़ने आते हैं। मंगल ने बहुत चेष्टा करके उन्हें स्नान करना सिसखाया; परन्तु कपड़ों के अभा) ने उनकी मसिलनता रख छोड़ी है। कभी-कभी उनके क्रोधपूण� झगड़ों से मंगल का मन ऊब जाता है। )े अत्यन्त कठोर और तीव्र स्)भा) के हैं।

झिजस उत्साह से )ृंदा)न की पाठशाला चलती थी, )ह यहाँ नहीं है। बडे़ परिरश्रम से उजाड़ देहातों में घूमकर उसने इतने लड़के एकत्र द्विकये हैं। मंगल आज गम्भीर सिचन्ता में द्विनमग्न है। )ह सोच रहा था-क्या मेरी द्विनयद्वित इतनी कठोर है द्विक मुझे कभी चैन न लेने देगी। एक द्विनश्छल परोपकारी हृदय लेकर मैंने संसार में प्र)ेश द्विकया और चला था भलाई करने। पाठशाला का जी)न छोड़कर मैंने एक भोली-भाली बासिलका के उर्द्धार करने का संकल्प द्विकया, यही सत्संकल्प मेरे जी)न की चक्करदार पगडस्थिण्डयों में घूमता-द्विफरता मुझे कहाँ ले आया। कलंक, पzात्ताप और प्र)ंचनाओं की कमी नहीं। उस अबला की भलाई करने के सिलए जब-जब मैंने पैर बढ़ाया, धक्के खाकर पीछे हटा और उसे ठोकरें लगाईं। यह द्विकसकी अज्ञात पे्ररणा है मेरे दुभा�ग्य की मेरे मन में धम� का दम्भ था। बड़ा उग्र प्रद्वितफल मिमला। आय� समाज के प्रद्वित जो मेरी प्रद्वितकूल सम्मद्वित थी, उसी ने सब कराया। हाँ, मानना पडे़गा, धम�-सम्बन्धी

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उपासना के द्विनयम चाहे जैसे हों, परन्तु सामाझिजक परिर)त�न उनके माननीय है। यदिद मैं पहले ही समझता! आह! द्विकतनी भूल हुई। मेरी मानसिसक दुब�लता ने मुझे यह चक्कर खिखलाया।

मिमथ्या धम� का संचय और प्रायक्षिzत्त, पzात्ताप और आत्म-प्रतारणा-क्या समाज और धम� मुझे इससे भी भीर्षण दण्ड देता कायर मंगल! तुझे लज्जा नहीं आती? सोचते-सोचते )ह उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे टीले से उतरा।

शून्य पथ पर द्विनरुदे्दश्य चलने लगा। सिचन्ता जब अमिधक हो जाती है, जब उसकी शाखा-प्रशाखाए ँइतनी द्विनकलती हैं द्विक मस्विस्तक उनके साथ दौड़ने में थक जाता है। द्विकसी द्वि)शेर्ष लिच\ता की )ास्तद्वि)कता गुरुता लुप्त होकर द्वि)चार को यान्तिन्त्रक और चेतना द्वि)हीन बना देती है। तब पैरों से चलने में, मस्विस्तक में द्वि)चार करने में कोई द्वि)शेर्ष क्षिभन्नता नहीं रह जाती, मंगलदे) की )ही अ)kा थी। )ह द्विबना संकल्प के ही बाजार पहुँच गया, तब खरीदने-बेचने )ालों की बातचीत के)ल भन्नाहट-सी सुनाई पड़ती। )ह कुछ समझने में असमथ� था। सहसा द्विकसी ने उसका हाथ पकड़ कर खींच सिलया। उसने क्रोध से उसे खींचने )ाले को देखा-लहँगा-कुरता और ओढ़नी में एक गूजरी यु)ती! दूसरी ओर से एक बैल बड़ी द्विनक्षिzन्ता से सींग द्विहलाता, दौड़ता द्विनकल गया। मंगल ने उस यु)ती को धन्य)ाद देने के सिलए मुँह खोला; तब )ह चार हाथ आगे द्विनकल गई थी। द्वि)चारों में बौखलाये हुए मंगल ने अब पहचाना-यह तो गाला है। )ह कई बार उसके झोंपडे़ तक जा चुका था। मंगल के हृदय में एक न)ीन सू्फर्तित\ हुई, )ह डग बढ़ाकर गाला के पास पहुँच गया और घबराये हुए शब्दों में उसे धन्य)ाद दे ही डाला। गाला भौचक्की-सी उसे देखकर हँस पड़ी।

अप्रद्वितभ होकर मंगल ने कहा, 'अरे तो तुम हो गाला!'

उसने कहा, 'हाँ, आज सनीचर है न! हम लोग बाजार करने आये हैं।'

अब मंगल ने उसके द्विपता को देखा। मुख पर स्)ाभाद्वि)क हँसी ले आने की चेष्टा करते हुए मंगल ने कहा, 'आज बड़ा अच्छा दिदन है द्विक आपका यहीं दश�न हो गया।'

नीरसता से बदन ने कहा, 'क्यों, अचे्छ तो हो?'

'आप लोगों की कृपा से।' कहकर मंगल ने सिसर झुका सिलया।

बदन बढ़ता चला जाता था और बातें भी करता जाता था। )ह एक जगह द्विबसाती की दुकान पर खड़ा होकर गाला की आ)श्यक )स्तुए ँलेने गया। मंगल ने अ)सर देखकर कहा, 'आज तो अचानक भेंट हो गयी, समीप ही मेरा आश्रय है, यदिद उधर भी चसिलयेगा तो आपको द्वि)श्वास हो जायेगा द्विक आप लोगों की क्षिभक्षा व्यथ� नहीं फेकीं जाती।'

गाला समीप के कपडे़ की दुकान देख रही थी, )ृन्दा)नी धोती की छींट उसकी आँखों में कुतूहल उत्पन्न कर रही थी। उसकी भोली दृमिष्ट उस पर से न हटती थी। सहसा बदन ने कहा, 'सूत और कागज ले सिलए, द्विकन्तु निप\जडे़ तो यहाँ दिदखाई नहीं देते, गाला।'

'तो न सही, दूसरे दिदन आकर ले लँूगी।' गाला ने कहा; पर )ह देख रही थी धोती। बदन ने कहा, 'क्या देख रही है दुकानदार था चतुर, उसने कहा, 'ठाकुर! यह धोती लेना चाहती है, बची भी इस छापे की एक ही है।'

जंगली बदन इस नागरिरक प्रगल्भता पर लाल तो हो गया, पर बोला नहीं। गाला ने कहा, 'नहीं, नहीं मैं भला इसे लेकर क्या करँूगी।' मंगल ने कहा, 'म्पिस्त्रयों के सिलए इससे पूण� )स्त्र और कोई हो ही नहीं सकता। कुरते के ऊपर से इसे पहन सिलया जाए, तो यह अकेला सब काम दे सकता है।' बदन को मंगल का बोलना बुरा तो न लगा, पर )ह गाला का मन रखने के सिलए बोला, 'तो ले ले गाला।'

गाला ने अल्हड़पन से कहा, 'अच्छा!'

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मंगल ने मोल ठीक द्विकया। धोती लेकर गाला के सरल मुख पर एक बार कुतूहल की प्रसन्नता छा गयी। तीनों बात करते-करते उस छोटे से बाजार से बाहर आ गये। धूप कड़ी हो चली थी। मंगल ने कहा, 'मेरी कुटी पर ही द्वि)श्राम कीझिजये न! धूप कम होने पर चले जाइयेगा। गाला ने कहा, 'हाँ बाबा, हम लोग पाठशाला भी देख लेंगे।' बदन ने सिसर द्विहला दिदया। मंगल के पीछे दोनों चलने लगे।

बदन इस समय कुछ सिचन्तिन्तत था। )ह चुपचाप जब मंगल की पाठशाला में पहुँच गया, तब उसे एक आzय�मय क्रोध हुआ। द्विकन्तु )हाँ का दृश्य देखते ही उनका मन बदल गया। क्लास का समय हो गया था, मंगल के संकेत से एक बालक ने घंटा बजा दिदया। पास ही खेलते हुए बालक दौड़ आये; अध्ययन आरम्भ हुआ। मंगल को यत्न-सद्विहत उन बालकों को पढ़ाते देखकर गाला को एक तृन्तिप्त हुई। बदन भीे अप्रसन्न न रह सका। उसने हँसकर कहा, 'भई, तुम पढ़ाते हो, तो अच्छा करते हो; पर यह पढ़ना द्विकस काम का होगा मैं तुमसे कई बार कह चुका हूँ द्विक पढ़ने से, सिशक्षा से, मनुष्य सुधरता है; पर मैं तो समझता हूँ-ये द्विकसी काम के न रह जाएगँे। इतना परिरश्रम करके तो जीने के सिलए मनुष्य कोई भी काम कर सकता है।'

'बाबा! पढ़ाई सब कामों को सुधार करना सिसखाती है। यह तो बड़ा अच्छा काम है, देखिखये मंगल के त्याग और परिरश्रम को!' गाला ने कहा।

'हाँ, तो यह बात अच्छी है।' कहकर बदन चुप हो गया।

मंगल ने कहा, 'ठाकुर! मैं तो चाहता हूँ द्विक लड़द्विकयों की भी एक पाठशाला हो जाती; पर उनके सिलए स्त्री अध्याद्विपका की आ)श्यकता होगी, और )ह दुल�भ है।'

गाला जो यह दृश्य देखकर बहुत उत्साद्विहत हो रही थी, बोली, 'बाबा! तुम कहते तो मैं ही लड़द्विकयों को पढ़ाती।' बदन ने आzय� से गाला की ओर देखा; पर )ह कहती ही रही, 'जंगल में तो मेरा मन भी नहीं लगता। मैं बहुत द्वि)चार कर चुकी हूँ, मेरा उस खारी नदी के पहाड़ी अंचल से जी)न भर द्विनभने का नहीं।'

'तो क्या तू मुझे छोड़कर...' कहते-कहते बदन का हृदय भर उठा, आँखें डबडबा आयीं 'और भी ऐसी )स्तुए ँहैं, झिजन्हें मैं इस जी)न में छोड़ नहीं सकता। मैं समझता हूँ, उनसे छुड़ा लेने की तेरी भीतरी इच्छा है, क्यों?'

गाला ने कहा, 'अच्छा तो घर चलकर इस पर द्विफर द्वि)चार द्विकया जाएगा।' मंगल के सामने इस द्वि))ाद को बन्द कर देने के सिलए अधीर थी।

रूठने के स्)र में बदन ने कहा, 'तेरी ऐसी इच्छा है तो घर ही न चल।' यह बात कुछ कड़ी और अचानक बदन के मुँह से द्विनकल पड़ी।

मंगल जल के सिलए इसी बीच से चला गया था, तो भी गाला बहुत घायल हो गयी। हथेसिलयों पर मुँह धरे हुए )ह टपाटप आँसू द्विगराने लगी; पर न जाने क्यों, उस गूजर का मन अमिधक कदिठन हो गया था। सान्त्)ना का एक शब्द भी न द्विनकला। )ह तब तक चुप रहा, जब तक मंगल ने आकर कुछ मिमठाई और जल सामने नहीं रखा। मिमठाई देखते ही बदन बोल उठा, 'मुझे यह नहीं चाद्विहए।' )ह जल का लोटा उठाकर चुल्लू से पानी पी गया और उठ खड़ा हुआ, मंगल की ओर देखता हुआ बोला, 'कई मील जाना है, बूढ़ा आदमी हूँ तो चलता हूँ।' सीदिढ़याँ उतरने लगा। गाला से उसने चलने के सिलए नहीं कहा। )ह बैठी रही। क्षोभ से भरी हुई तड़प रही थी, पर ज्यों ही उसने देखा द्विक बदन टेकरी से उतर चुका, अब भी )ह लौटकर नहीं देख रहा है, तब )ह आँसू बहाती उठ खड़ी हुई। मंगल ने कहा, 'गाला, तुम इस समय बाबा के साथ जाओ, मैं आकर उन्हें समझा दँूगा। इसके सिलए झगड़ना कोई अच्छी बात नहीं।'

गाला द्विनरुपाय नीचे उतरी और बदन के पास पहुँचकर भी कई हाथ पीछे ही पीछे चलने लगी; परन्तु उस कट्टर बूढे़ ने घूमकर देखा भी नहीं।

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नये के मन में गाला का आकर्ष�ण जाग उठा था। )ह कभी-कभी अपनी बाँसुरी लेकर खारी के तट पर चला जाता और बहुत धीरे-धीरे उसे फँूकता, उसके मन में भय उत्पन्न हो गया था, अब )ह नहीं चाहता था द्विक )ह द्विकसी की ओर अमिधक आकर्तिर्ष\त हो। )ह सबकी आँखों से अपने को बचाना चाहता। इन सब कारणों से उसने एक कुत्ते को प्यार करने का अभ्यास द्विकया। बडे़ दुलार से उसका नाम रखा था भालू। )ह भी था झबरा। द्विनःसंदिदग्ध आँखों से, अपने कानों को द्विगराकर, अगले दोनों पैर खडे़ द्विकये हुए, )ह नये के पास बैठा है, द्वि)श्वास उसकी मुद्रा से प्रकट हो रहा है। )ह बडे़ ध्यान से बंसी की पुकार समझना चाहता है। सहसा नये ने बंसी बंद करके उससे पूछा-

'भालू! तुम्हें यह गीत अच्छा लगा?'

भालू ने कहा, 'भँुह!'

'ओहो, अब तो तुम बडे़ समझदार हो गये हो।' कहकर नये ने एक चपत धीरे से लगा दी। )ह प्रसन्नता से सिसर झुकाकर पँूछ द्विहलाने लगा। सहसा उछलकर )ह सामने की ओर भगा। नये उसे पुकारता ही रहा; पर )ह चला गया। नये चुपचाप बैठा उस पहाड़ी सन्नाटे को देखता रहा। कुछ ही क्षण में भालू आगे दौड़ता और द्विफर पीछे लौटता दिदखाई पड़ी गाला की )ृदा)नी साड़ी, जब )ह पकड़कर अगले दोनों पंजों से पृथ्)ी पर सिचपक जाता और गाला उसे झिझड़कती, तो )ह खिखल)ाड़ी लड़के के सामान उछलकर दूर जा खड़ा होता और दुम द्विहलाने लगता। नये उसकी क्रीड़ा को देखकर मुस्कराता हुआ चुप बैठा रहा। गाला ने बना)टी क्रोध से कहा, 'मना करो अपने दुलारे को, नही तो...'

')ह भी तो दुलार करता है। बेचारा जो कुछ पाता है, )ही तो देता है, द्विफर इसमें उलाहना कैसा, गाला!'

'जो पा)ै उसे बाँट दे।' गाला ने गम्भीर होकर कहा।

'यही तो उदारता है! कहो आज तो तुमने साड़ी पहन ही ली, बहुत भली लगती हो।'

'बाबा बहुत द्विबगडे़ हैं, आज तीन दिदन हुए, मुझसे बोले नहीं। नये! तुमको स्मरण होगा द्विक मेरा पढ़ना-सिलखना जानकर तुम्हीं ने एक दिदन कहा था द्विक तुम अनायास ही जंगल में सिशक्षा का प्रचार करती हो-भूल तो नहीं गये?'

'नहीं मैंने अ)श्य कहा था।'

'तो द्विफर मेरे द्वि)चार पर बाबा इतने दुखी क्यों हैं?'

'तब मुझे क्या करना चाद्विहए?'

'झिजसे तुम अच्छा समझो।'

'नये! तुम बडे़ दुष्ट हो-मेरे मन में एक आकांक्षा उत्पन्न करके अब उसका कोई उपाय नहीं बताते।'

'जो आकांक्षा उत्पन्न कर देता है, )ह उसकी पूर्तित\ भी कर देता है, ऐसा तो नहीं देखा गया! तब भी तुम क्या चाहती हो?'

'मैं उस जंगली जी)न से ऊब गयी हूँ, मैं कुछ और ही चाहती हूँ-)ह क्या है तुम्हीं बता सकते हो।'

'मैंने झिजसे जो बताया )ह उसे समझ न सका गाला। मुझसे न पूछो, मैं आपक्षित्त का मारा तुम लोगों की शरण में रह रहा हूँ।' कहते-कहते नये ने सिसर नीचा कर सिलया। )ह द्वि)चारों में डूब गया। गाला चुप थी। सहसा भालू जोर से भँूक

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उठा, दोनों ने घूमकर देखा द्विक बदन चुपचाप खड़ा है। जब नये उठकर खड़ा होने लगा, तो )ह बोला, 'गाला! मैं दो बातें तुम्हारे द्विहत की कहना चाहता हूँ और तुम भी सुनो नये।'

'मेरा अब समय हो चला। इतने दिदनों तक मैंने तुम्हारी इच्छाओं में कोई बाधा नहीं दी, यों कहो द्विक तुम्हारी कोई )ास्तद्वि)क इच्छा ही नहीं हुई; पर अब तुम्हारा जी)न सिचरपरिरसिचत देश की सीमा पार कर रहा है। मैंने जहाँ तक उसिचत समझा, तुमको अपने शासन में रखा, पर अब मैं यह चाहता हूँ द्विक तुम्हारा पथ द्विनयत कर दँू और द्विकसी उपयुW पात्र की संरक्षता में तुम्हें छोड़ जाऊँ।' इतना कहकर उसने एक भेदभरी दृमिष्ट नये के ऊपर डाली। गाला कनखिखयों से देखती हुई चुप थी। बदन द्विफर कहने लगा, 'मेरे पास इतनी सम्पक्षित्त है द्विक गाला और उसका पद्वित जी)न भर सुख से रह सकते हैं-यदिद उनकी संसार में सरल जी)न द्विबता लेने की अमिधक इच्छा न हो। नये! मैं तुमको उपयुW समझता हूँ-गाला के जी)न की धारा सरल पथ से बहा ले चलने की क्षमता तुम में है। तुम्हें यदिद स्)ीकार हो तो-'

'मुझे इसकी अकांक्षा पहले से थी। आपने मुझे शरण दी है। इससिलए गाला को मैं प्रताद्विड़त नहीं कर सकता। क्योंद्विक मेरे हृदय में दाम्पत्य जी)न की सुख-साधना की सामग्री बची न रही। द्वितस पर आप जानते हैं द्विक एक संदिदग्ध हत्यारा मनुष्य हूँ!' नये ने इन बातों को कहकर जैसे एक बोझ उतार फें कने की साँस ली हो।

बदन द्विनरुपाय और हताश हो गया। गाला जैसे इस द्वि))ाद से एक अद्विपरिरचत असमंजस में पड़ गयी। उसका दम घुटने लगा। लज्जा, क्षोभ और दयनीय दशा से उसे अपने स्त्री होने का ज्ञान अमिधक )ेग से धक्के देने लगा। )ह उसी नये से अपने सम्बन्ध हो जाना, जैसे अत्यन्त आ)श्यक समझने लगी थी। द्विफर भी यह उपेक्षा )ह सह न सकी। उसने रोकर बदन से कहा, 'आप मुझे अपमाद्विनत कर रहे हैं, मैं अपने यहाँ पले हुए मनुष्य से कभी ब्याह नहीं करँूगी। यह तो क्या, मैंने अभी ब्याह करने का द्वि)चार भी नहीं द्विकया है। मेरा उदे्दश्य है-पढ़ना और पढ़ाना। मैं द्विनzय कर चुकी हूँ द्विक मैं द्विकसी बासिलका द्वि)द्यालय में पढ़ाऊँगी।'

एक क्षण के सिलए बदन के मुँह पर भीर्षण भा) नाच उठा। )ह दुदा�न्त मनुष्य हथकद्विड़यों में जकडे़ हुए बन्दी के समान द्विकटद्विकटाकर बोला, 'तो आज से तेरा-मेरा सम्बन्ध नहीं।' और एक ओर चल पड़ा।

नये चुपचाप पक्षिzम के आरसिWम आकाश की ओर देखने लगा। गाला रोर्ष और क्षोभ से फूल रही थी, अपमान ने उसके हृदय को क्षत-द्वि)क्षत कर दिदया था।

यौ)न से भरे हृदय की मद्विहमामयी कल्पना गोधूली की धूप में द्विबखरने लगी। नये अपराधी की तरह इतना भी साहस न कर सका द्विक गाला को कुछ सान्त्)ना देता। )ह भी उठा और एक ओर चला गया।

(1)

)ह दरिरद्रता और अभा) के गाह�स्थ्य जी)न की कटुता में दुलारा गया था। उसकी माँ चाहती थी द्विक )ह अपने हाथ से दो रोटी कमा लेने के योग्य बन जाए, इससिलए )ह बार-बार झिझड़की सुनता। जब क्रोध से उसके आँसू द्विनकलते और जब उन्हें अधरों से पोंछ लेना चाद्विहए था, तब भी )े रूखे कपोलों पर आप ही आप सूखकर एक मिमलन-सिचह्न छोड़ जाते थे।

कभी )ह पढ़ने के सिलए द्विपटता, कभी काम सीखने के सिलए डाँटा जाता; यही थी उसकी दिदनचया�। द्विफर )ह सिचड़सिचडे़ स्)भा) का क्यों न हो जाता। )ह क्रोधी था, तो भी उसके मन में स्नेह था। पे्रम था और था नैसर्तिग\क आनन्द-शैश) का उल्लास; रो लेने पर भी जी खोलकर हँस लेता; पढ़ने पर खेलने लगता। बस्ता खुलने के सिलए सदै) प्रस्तुत रहता, पुस्तकें द्विगरने के सिलए द्विनकल पड़ती थीं। टोपी असा)धानी से टढ़ी और कुरते का बटन खुला हुआ। आँखों में सूखते हुए आँसू और अधर पर मुस्कराहट।

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उसकी गाड़ी चल रही थी। )ह एक पद्विहया ढुलका रहा था। उसे चलाकर उल्लास से बोल उठा, 'हटो सामने से, गाड़ी जाती है।'

सामने से आती हुई पगली ने उस गाड़ी को उठा सिलया। बालक के द्विनद�र्ष द्वि)नोद में बाधा पड़ी। )ह सहमकर उस पगली की ओर देखने लगा। द्विनष्फल क्रोध का परिरणाम होता है रो देना। बालक रोने लगा। म्युद्विनसिसपल स्कूल भी पास न था, झिजसकी 'अ' कक्षा में )ह पढ़ता था। कोई सहायक न पहुँच सका। पगली ने उसे रोते देखा। )ह जैसे अपनी भूल समझ गयी। बोली, 'आँ' अमको न खेलाओगे; आँ-आँ मैं भी रोने लगूँगी, आँ-आँ आँ!' बालक हँस पड़ा, )ह उसे गोद में झिझ\झोड़ने लगी। अबकी )ह द्विफर घबराया। उसने रोने के सिलए मुँह बनाया ही था द्विक पगली ने उसे गोद से उतार दिदया और बड़बड़ाने लगी, 'राम, कृष्ण और बुर्द्ध सभी तो पृथ्)ी पर लोटते थे। मैं खोजती थी आकाश में! ईसा की जननी से पूछती थी। इतना खोजने की क्या आ)श्यकता कहीं तो नहीं, )ह देखो द्विकतनी सिचनगारी द्विनकल रही है। सब एक-एक प्राणी हैं, चमकना, द्विफर लोप हो जाना! द्विकसी के बुझने में रोना है और द्विकसी के जल उठने में हँसी। हा-हा-हा-हा।...'

तब तो बालक और भी डरा। )ह त्रस्त था, उसे भी शंका होने लगी द्विक यह पगली तो नहीं है। )ह हतबुझिर्द्ध-सा इधर-उधर देख रहा था। दौड़कर भाग जाने का साहस भी न था। अभी तक उसकी गाड़ी पगली सिलए थी। दूर से स्त्री और पुरुर्ष, यह घटना कुतूहल से देखते चले आ रहे थे। उन्होंने बालक को द्वि)पक्षित्त में पड़ा देखकर सहायता करने की इच्छा की। पास आकर पुरुर्ष ने कहा, 'क्यों जी, तुम पागल तो नहीं हो। क्यों इस लड़के को तंग कर रही हो

'तंग कर रही हूँ। पूजा कर रही हूँ पूजा। राम, कृष्ण, बुर्द्ध, ईसा की सरलता की पूजा कर रही हूँ। इन्हें रुला देने से इनकी एक कसरत हो जाती है, द्विफर हँसा दँूगी। और तुम तो कभी भी जी खोलकर न हँस सकोगे, न रो सकोगे।'

बालक को कुछ साहस हो चला था। )ह अपना सहायक देखकर बोल उठा, 'मेरी गाड़ी छीन ली है।' पगली ने पुचकारते हुए कहा, 'सिचत्र लोगे देखो, पक्षिzम में संध्या कैसा अपना रंगीन सिचत्र फैलाए बैठी है।' पगली के साथ ही और उन तीनों ने भी देखा। पुरुर्ष ने कहा, 'मुझसे बात करो, उस बालक को जाने दो।' पगली हँस पड़ी। )ह बोली, 'तुमसे बात! बातों का कहाँ अ)काश! चालबाझिजयों से कहाँ अ)सर! ऊँह, देखो उधर काले पत्थरों की एक पहाड़ी; उसके बाद एक लहराती हुई झील, द्विफर नांरगी रंग की एक जलती हुई पहाड़ी-जैसे उसकी ज्)ाला ठंडी नहीं होती। द्विफर एक सुनहला मैदान!-)हाँ चलोगे

उधर देखने में सब द्वि))ाद बन्द हो गया, बालक भी चुप था। उस स्त्री और पुरुर्ष ने भी द्विनसग�-स्मरणीय दृश्य देखा। पगली संकेत करने )ाला हाथ फैलाये अभी तक )ैसे ही खड़ी थी। पुरुर्ष ने देखा, उसका सुन्दर शरीर कृश हो गया था और बड़ी-बड़ी आँखें कु्षधा से व्याकुल थीं। जाने कब से अनाहार का कष्ट उठा रही थी। साथ )ाली स्त्री से पुरुर्ष ने कहा, 'द्विकशोरी! इसे कुछ खिखलाओ!' द्विकशोरी उस बालक को देख रही थी, अब श्रीचन्द्र का ध्यान भी उसकी ओर गया। )ह बालक उस पगली की उन्मत्त क्रीड़ा से रक्षा पाने की आशा में द्वि)श्वासपूण� नेत्रों से इन्हीं दोनों की ओर देख रहा था। श्रीचन्द्र ने उसे गोद में उठाते हुए कहा, 'चलो, तुम्हें गाड़ी दिदला दँू।'

द्विकशोरी ने पगली से कहा, 'तुम्हें भूख लगी है, कुछ खाओगी?'

पगली और बालक दोनों ही उनके प्रस्ता)ों पर सहमत थ;े पर बोले नहीं। इतने में श्रीचन्द्र का पण्डा आ गया और बोला, 'बाबूजी, आप कब से यहाँ फँसे हैं। यह तो चाची का पासिलत पुत्र है, क्यो रे मोहन! तू अभी से स्कूल जाने लगा है चल, तुझे घर पहुँचा दँू?' )ह श्रीचन्द्र की गोद से उसे लेने लगा; परन्तु मोहन )हाँ से उतरना नहीं चाहता था।

'मैं तुझको कब से खोज रही हूँ, तू बड़ा दुष्ट है रे!' कहती हुई चाची ने आकर उसे अपनी गोद में ले सिलया। सहसा पगली हँसती हुई भाग चली। )ह कह रही थी, ')ह देखो, प्रकाश भागा जाता है अन्धकार...!' कहकर पगली )ेग से दौड़ने लगी थी। कंकड़, पत्थर और गड्ढों का ध्यान नहीं। अभी थोड़ी दूर )ह न जा सकी थी द्विक उसे ठोकर लगी, )ह द्विगर पड़ी। गहरी चोट लगने से )ह मूर्च्छिच्छ\त-सी हो गयी।

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यह दल उसके पास पहुँचा। श्रीचन्द्र ने पण्डाजी से कहा, 'इसकी से)ा होनी चाद्विहए, बेचारी दुखिखया है।' पण्डाजी अपने धनी यजमान की प्रत्येक आज्ञा पूरी करने के सिलए प्रस्तुत थे। उन्होने कहा, 'चाची का घर तो पास ही है, )हाँ उसे उठा ले चलता हूँ। चाची ने मोहन और श्रीचन्द्र के व्य)हार को देखा था, उसे अनेक आशा थी। उसने कहा, 'हाँ, हाँ, बेचारी को बड़ी चोट लगी है, उतर तो मोहन!' मोहन को उतारकर )ह पण्डाजी की सहायता से पगली को अपने पास के घर में ले चली। मोहन रोने लगा। श्रीचन्द्र ने कहा, 'ओहो, तुम बडे़ रोने हो। जी गाड़ी लेने न चलोगे?'

'चलँूगा।' चुप होते हुए मोहन ने कहा।

मोहन के मन में पगली से दूर रहने की बड़ी इच्छा थी। श्रीचन्द्र ने पण्डा को कुछ रुपये दिदये द्विक पगली का कुछ उसिचत प्रबन्ध कर दिदया जाय और बोले, 'चाची, मैं मोहन को गाड़ी दिदलाने के सिलए बाजार सिल)ाता जाऊँ?'

चाची ने कहा, 'हाँ-हाँ, आपका ही लड़का है।'

'मैं द्विफर आता हूँ, आपके पड़ोस में तो ठहरा हूँ।' कहकर श्रीचन्द्र, द्विकशोरी और मोहन बाजार की ओर चले।

ऊपर सिलखी हुई घटना को महीनों बीत चुके थे। अभी तक श्रीचन्द्र और द्विकशोरी अयोध्या में ही रहे। नागेश्वर में मझिन्दर के पास ही डेरा था। सरयू की तीव्र धारा सामने बह रही थी। स्)ग��ार के तट पर स्नान करके श्रीचन्द्र ) द्विकशोरी बैठे थे। पास ही एक बैरागी रामायण की कथा कह रहा था-

'राम एक तापस-द्वितय तारी।

नाम कोदिट खल कुमद्वित सुधारी॥'

'तापस-द्वितय तारी-गौतम की पत्नी अहल्या को अपनी लीला करते समय भग)ान ने तार दिदया। )ह यौ)न के प्रमाद से, इन्द्र के दुराचार से छली गयी। उसने पद्वित से इस लोक के दे)ता से छल द्विकया। )ह पामरी इस लोक के स)�शे्रष्ठ रत्न सतीत्) से )ंसिचत हुई, उसके पद्वित ने शाप दिदया, )ह पत्थर हो गयी। )ाल्मीद्विक ने इस प्रसंग पर सिलखा है-)ातभक्षा द्विनराहारा तप्यन्ती भस्मशामियनी। ऐसी कदिठन तपस्या करते हुए, पzात्ताप का अनुभ) करते हुए )ह पत्थर नहीं तो और क्या थी! पद्वितत-पा)न ने उसे शाप द्वि)मुW द्विकया। प्रत्येक पापों के दण्ड की सीमा होती है। सब काम में अद्विहल्या-सी म्पिस्त्रयों के होने की संभा)ना है, क्योंद्विक कुमद्वित तो बची है, )ह जब चाहे द्विकसी को अहल्या बना सकती है। उसके सिलए उपाय है भग)ान का नाम-स्मरण। आप लोग नाम-स्मरण का अक्षिभप्राय यह न समझ लें द्विक राम-राम सिचल्लाने से नाम-स्मरण हो गया-

'नाम द्विनरूपन नाम जतन से।

सो प्रकटत झिजमिम मोल रतन ते॥'

'इस 'राम' शब्द)ाची उस अखिखल ब्रह्माण्ड पें रमण करने )ाले पद्वितत-पा)न की सत्ता को स)�त्र स्)ीकार करते हुए स)�स्) अप�ण करने )ाली भसिW के साथ उसका स्मरण करना ही यथाथ� में नाम-स्मरण है!'

)ैरागी ने कथा समाप्त की। तुलसी बँटी। सब लोग जाने लगे। श्रीचन्द्र भी चलने के सिलए उत्सुक था; परन्तु द्विकशोरी का हृदय काँप रहा था अपनी दशा पर और पुलद्विकत हो रहा था भग)ान की मद्विहमा पर। उसने द्वि)श्वासपूण� नेत्रों से देखा द्विक सरयू प्रभात के तीव्र आलोक में लहराती हुई बह रही है। उसे साहस हो चला था। आज उसे पाप और उससे मुसिW का न)ीन रहस्य प्रद्वितभासिसत हो रहा था। पहली ही बार उसने अपना अपराध स्)ीकार द्विकया और यह उसके सिलए अच्छा अ)सर था द्विक उसी क्षण उससे उर्द्धार की भी आशा थी। )ह व्यस्त हो उठी।

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पगली अब स्)k हो चली थी। द्वि)कार तो दूर हो गये थ,े द्विकन्तु दुब�लता बनी थी, )ह द्विहन्दू धम� की ओर अपरिरसिचत कुतूहल से देखने लगी थी, उसे )ह मनोरंजक दिदखलायी पड़ता था। )ह भी चाची के साथ श्रीचन्द्र )ाले घाट से दूर बैठी हुई, सरयू-तट का प्रभात और उसमें द्विहन्दू धम� के आलोक को सकुतूहल देख रही थी।

इधर श्रीचन्द का मोहन से हेलमेल बढ़ गया था और चाची भी उसकी रसोई बनाने का काम करती थी। )ह हर�ार से अयोध्या लौट आयी थी, क्योंद्विक )हाँ उसका मन न लगा।

चाची का )ह रूप पाठक भूले न होगे; जब )ह हर�ार में तारा के साथ रहती थी; परन्तु तब से अब अन्तर था। मान) मनो)ृक्षित्तयाँ प्रायः अपने सिलए एक केन्द्र बना सिलया करती हैं, झिजसके चारों ओर )ह आशा और उत्साह से नाचती रहती हैं। चाची तारा के उस पुत्र को, झिजसे )ह अस्पताल में छोड़कर चली आयी थी, अपना ध्रु) नक्षत्र समझने लगी थी, मोहन को पालने के सिलए उसने अमिधकारिरयों से माँग सिलया था।

पगली और चाची झिजस घाट पर बैठी थीं; )हाँ एक अन्धा क्षिभखारी लदिठया टेकता हुआ, उन लोगों के समीप आया। उसने कहा, 'भीख दो बाबा! इस जन्म में द्विकतने अपराध द्विकये हैं-हे भग)ान! अभी मौत नहीं आती।' चाची चमक उठीं। एक बार उसे ध्यान से देखने लगीं। सहसा पगली ने कहा, 'अरे, तुम मथुरा से यहाँ भी आ पहुँचे।'

'तीथ� में घूमता हूँ बेटा! अपना प्रायक्षिzत्त करने के सिलए, दूसरा जन्म बनाने के सिलए! इतनी ही तो आशा है।' क्षिभखारी ने कहा।

पगली उते्तझिजत हो उठी। अभी उसके मस्विस्तष्क की दुब�लता गयी न थी। उसने समीप जाकर उसे झकझोरकर पूछा, 'गोद्वि)न्दी चौबाइन की पाली हुई बेटी को तुम भूल गये पस्थिण्डत, मैं )ही हूँ; तुम बताओ मेरी माँ को अरे घृक्षिणत नीच अन्धे! मेरी माता से छुड़ाने )ाले हत्यारे! तू द्विकतना द्विनषु्ठर है।'

'क्षमा कर बेटी। क्षमा में भग)ान की शसिW है, उनकी अनुकम्पा है। मैंने अपराध द्विकया था, उसी का तो फल भोग रहा हूँ। यदिद तू सचमुच )ही गोद्वि)न्दी चौबाइन की पाली हुई पगली है, तो तू प्रसन्न हो जा-अपने अक्षिभशाप ही ज्)ाला में मुझे जलता हुआ देखकर प्रसन्न हो जा! बेटी, हर�ार तक तो तेरी माँ का पता था, पर मैं बहुत दिदनों से नहीं जानता द्विक )ह अब कहाँ है। नन्दो कहाँ है यह बताने में अब अन्धा रामदे) असमथ� है बेटी।'

चाची ने उठकर सहसा उस अन्धे का हाथ पकड़कर कहा, 'रामदे)!'

रामदे) ने एक बार अपनी अंधी आँखों से देखने की भरपूर चेष्टा की, द्विफर द्वि)फल होकर आँसू बहाते हुए बोला, 'नन्दो का-सा स्)र सुनायी पड़ता है! नन्दो, तुम्हीं हो बोलो! हर�ार से तुम यहाँ आयी हो हे राम! आज तुमने मेरा अपराध क्षमा कर दिदया, नन्दो! यही तुम्हारी लड़की है!' रामदे) की फूटी आँखों से आँसू बह रहे थे।

एक बार पगली ने नन्दो चाची की ओर देखा और नन्दो ने पगली की ओर-रW का आकर्ष�ण तीव्र हुआ, दोनों गले से मिमलकर रोने लगीं। यह घटना दूर पर हो रही थी। द्विकशोरी और श्रीचन्द्र का उससे कुछ सम्बन्ध न था।

अकस्मात् अन्धा रामदे) उठा और सिचल्लाकर कहने लगा, 'पद्वितत-पा)न की जय हो। भग)ान मुझे शरण में लो!' जब तक उसे सब लोग देखें, तब तक )ह सरयू की प्रखर धारा में बहता हुआ, द्विफर डुबता हुआ दिदखायी पड़ा।

घाट पर हलचल मच गयी। द्विकशोरी कुछ व्यस्त हो गयी। श्रीचन्द्र भी इस आकस्विस्मक घटना से चद्विकत-सा हो रहा था।

अब यह एक प्रकार से द्विनक्षिzत हो गया द्विक श्रीचन्द्र मोहन को पालेंगे और )े उसे दत्तक रूप में भी ग्रहण कर सकते हैं। चाची को सन्तोर्ष हो गया था, )ह मोहन को धनी होने की कल्पना में सुखी हो सकी। उसका और भी एक कारण था-पगली का मिमल जाना। )ह आकस्विस्मक मिमलन उन लोगों के सिलए अत्यन्त हर्ष� का द्वि)र्षय था। द्विकन्तु पगली अब तक पहचानी न जा सकी थी, क्योंद्विक )ह बीमारी की अ)kा में बराबर चाची के घर पर ही रही, श्रीचन्द्र से चाची को

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उसकी से)ा के सिलए रुपये मिमलते। )ह धीरे-धीरे स्)k हो चली, परन्तु )ह द्विकशोरी के पास न जाती। द्विकशोरी को के)ल इतना मालूम था द्विक नन्दो की पगली लड़की मिमल गयी है। एक दिदन यह द्विनzय हुआ द्विक सब लोग काशी चलें; पर पगली अभी जाने के सिलए सहमत न थी। मोहन श्रीचन्द्र के यहाँ रहता था। पगली भी द्विकशोरी का सामना करना नहीं चाहती थी; पर उपाय क्या था। उसे उन लोगों के साथ जाना ही पड़ा। उसके पास के)ल एक अस्त्र बचा था, )ह था घूँघट! )ह उसी की आड़ में काशी आयी। द्विकशोरी के सामने भी हाथों घूँघट द्विनकाले रहती। द्विकशोरी नन्दो के सिचढ़ने से डर से उससे कुछ न बोलती। मोहन को दत्तक लेने का समय समीप था, )ह तब तक चाची को सिचढ़ाना भी न चाहती, यद्यद्विप पगली का घूँघट उसे बहुत खलता था।

द्विकशोरी को द्वि)जय की स्मृद्वित प्रायः चौंका देती है। एकान्त में )ह रोती रहती है, उसकी )ही तो सारी कमाई, जी)न भर के पाप-पुण्य का संसिचत धन द्वि)जय! आह, माता का हृदय रोने लगता है।

काशी आने पर एक दिदन पस्थिण्डतजी के कुछ मंत्रों ने प्रकट रूप में श्रीचन्द्र को मोहन का द्विपता बना दिदया। नन्दो चाची को अपनी बेटी मिमल चुकी थी, अब मोहन के सिलए उसके मन में उतनी व्यथा न थी। मोहन भी श्रीचन्द्र को बाबूजी कहने लगा था। )ह सुख में पलने लगा।

द्विकशोरी पारिरजात के पास बैठी हुई अपनी सिचन्ता में द्विनमग्न थी। नन्दो के साथ पगली स्नान करके लौट आयी थी। चादर उतारते हुए नन्दो ने पगली से कहा, 'बेटी!'

उसने कहा, 'माँ!'

'तुमको सब द्विकस नाम से पुकारते थ,े यह तो मैंने आज तक न पूछा। बताओ बेटी )ह प्यारा नाम।'

'माँ, मुझे चौबाइन 'घण्टी' नाम से पुकारती थी।'

'चाँदी की सुरीली घण्टी-सी ही तेरी बोली है बेटी।'

द्विकशोरी सुन रही थी। उसने पास आकर एक बार आँख गड़ाकर देखा और पूछा, 'क्या कहा-घण्टी?'

'हाँ बाबूजी! )ही )ृदां)न )ाली घण्टी!'

द्विकशोरी आग हो गयी। )ह भभक उठी, 'द्विनकल जा डायन! मेरे द्वि)जय को खा डालने )ाली चुडै़ल।'

नन्दो तो पहले एक बार द्विकशोरी की डाँट पर स्तब्ध रही; पर )ह कब सहने )ाली! उसने कहा, 'मुँह सम्भालकर बात करो बहू। मैं द्विकसी से दबने )ाली नहीं। मेरे सामने द्विकसका साहस है, जो मेरी बेटी, मेरी घण्टी को आँख दिदखला)े! आँख द्विनकाल लँू!'

'तुम दोनों अभी द्विनकल जाओ-अभी जाओ, नहीं तो नौकरों से धक्के देकर द्विनकल)ा दँूगी।' हाँफते हुई द्विकशोरी ने कहा।

'बस इतना ही तो-गौरी रूठे अपना सुहाग ले! हम लोग जाती हैं, मेरे रुपये अभी दिदल)ा दो!' बस एक शब्द भी मुँह से न द्विनकालना-समझी!'

नन्दो ने तीखेपन से कहा।

द्विकशोरी क्रोध में उठी और अलमारी खोलकर नोटों का बण्डल उसके सामने फें कती हुई बोली, 'लो सहेजो अपना रुपया, भागो।'

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नन्दो ने घण्टी से कहा, 'चलो बेटी! अपना सामान ले लो।'

दोनों ने तुरन्त गठरी दबाकर बाहर की राह ली। द्विकशोरी ने एक बार भी उन्हें ठहरने के सिलए न कहा। उस समय श्रीचन्द्र और मोहन गाड़ी पर चढ़कर ह)ा खाने गये थे।

द्विकशोरी का हृदय इस न)ान्तुक कस्थिल्पत सन्तान से द्वि)द्रोह तो कर ही रहा था, )ह अपना सच्चा धन गँ)ाकर इस दत्तक पुत्र से मन भुल)ाने में असमथ� थी। द्विनयद्वित की इस आकस्विस्मक द्वि)डम्बना ने उसे अधीर बना दिदया। झिजस घण्टी के कारण द्वि)जय अपने सुखमय संसार को खो बैठा और द्विकशोरी ने अपने पुत्र द्वि)जय को; उसी घण्टी का भाई आज उसके स)�स्) का मासिलक है, उत्तरामिधकारी है। दुदÍ) का कैसा परिरहास है! )ह छटपटाने लगी; परन्तु अब कर ही क्या सकती थी। धम� के द्वि)धान से दत्तक पुत्र उसका अमिधकारी था और द्वि)जय द्विनयम के द्वि)धान से द्विन)ा�सिसत-मृतक-तुल्य!

(2)

मंगलदे) की पाठशाला में अब दो द्वि)भाग हैं-एक लड़कों का, दूसरा लड़द्विकयों का। गाला लड़द्विकयों की सिशक्षा का प्रबन्ध करती। अब )ह एक प्रभा)शाली गम्भीर यु)ती दिदखलाई पड़ती, झिजसके चारों ओर पद्वि)त्रता और ब्रह्मचय� का मण्डल मिघरा रहता! बहुत-से लोग जो पाठशाला में आते, )े इस जोड़ी को आzय� से देखते। पाठशाला के बडे़ छप्पर के पास ही गाला की झोंपड़ी थी, झिजसमें एक चटाई, तीन-चार कपडे़, एक पानी का बरतन और कुछ पुस्तकें थीं। गाला एक पुस्तक मनोयोग से पढ़ रही थी। कुछ पन्ने उलटते हुए उसने सन्तुष्ट होकर पुस्तक धर दी। )ह सामने की सड़क की ओर देखने लगी। द्विफर भी कुछ समझ में न आया। उसने बड़बड़ाते हुए कहा, 'पाठ्यक्रम इतना असम्बर्द्ध है द्विक यह मनोद्वि)कास में सहायक होने के बदले, स्)यं भार हो जायेगा।' )ह द्विफर पुस्तक पढ़ने लगी-'रानी ने उन पर कृपा दिदखाते हुए छोड़ दिदया और राजा ने भी रानी की उदारता पर हँसकर प्रसन्नता प्रकट की...' राजा और रानी, इसमें रानी स्त्री और पुरुर्ष बनाने का, संसार का सहनशील साझीदार होने का सन्देश कहीं नहीं। के)ल महत्ता का प्रदश�न, मन पर अनुसिचत प्रभा) का बोझ! उसने झुँझलाकर पुस्तक पटककर एक द्विनःश्वास सिलया, उसे बदन का स्मरण हुआ, 'बाबा' कहकर एक बार सिचहुँक उठी! )ह अपनी ही भत्स�ना प्रारम्भ कर चुकी थी। सहसा मंगलदे) मुस्कुराता हुआ सामने दिदखाई पड़ा। मिमट्टी के दीपक की लौ भक-भक करती हुई जलने लगी।

'तुमने कई दिदन लगा दिदये, मैं तो अब सोने जा रही थी।'

'क्या करँू, आश्रम की एक स्त्री पर हत्या का भयानक अक्षिभयोग था। गुरुदे) ने उसकी सहायता के सिलए बुलाया था।'

'तुम्हारा आश्रम हत्यारों की भी सहायता करता है?'

'नहीं गाला! )ह हत्या उसने नहीं की थी, )स्तुतः एक दूसरे पुरुर्ष ने की; पर )ह स्त्री उसे बचाना चाहती है।'

'क्यों?'

'यही तो मैं समझ न सका।'

'तुम न समझ सके! स्त्री एक पुरुर्ष को फाँसी से बचाना चाहती है और इसका कारण तुम्हारी समझ में न आया-इतना स्पष्ट कारण!'

'तुम क्या समझती हो?'

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'स्त्री झिजससे पे्रम करती है, उसी पर सरबस )ार देने को प्रस्तुत हो जाती है, यदिद )ह भी उसका पे्रमी हो तो स्त्री )य के द्विहसाब से सदै) सिशशु, कम� में )यस्क और अपनी सहायता में द्विनरीह है। द्वि)धाता का ऐसा ही द्वि)धान है।'

मंगल ने देखा द्विक अपने कथन में गाला एक सत्य का अनुभ) कर रही है। उसने कहा, 'तुम स्त्री-मनो)ृक्षित्त को अच्छी तरह समझ सकती हो; परन्तु सम्भ) है यहाँ भूल कर रही हो। सब म्पिस्त्रयाँ एक ही धातु की नहीं। देखो, मैं जहाँ तक उसके सम्बन्ध में जानता हूँ, तुम्हें सुनाता हूँ, )ह एक द्विनश्छल पे्रम पर द्वि)श्वास रखती थी और प्राकृद्वितक द्विनयम से आ)श्यक था द्विक एक यु)ती द्विकसी भी यु)क पर द्वि)श्वास करे; परन्तु )ह अभागा यु)क उस द्वि)श्वास का पात्र नहीं था। उसकी अत्यन्त आ)श्यक और कठोर घद्विड़यों में यु)क द्वि)चसिलत हो उठा। कहना न होगा द्विक उसे यु)क ने उसके द्वि)श्वास को बुरी तरह ठुकराया। एकाद्विकनी उस आपक्षित्त की कटुता झेलने के सिलए छोड़ दी गयी। बेचारी को एक सहारा भी मिमला; परन्तु यह दूसरा यु)क भी उसके साथ )ही करने के सिलए प्रस्तुत था, जो पहले यु)क ने द्विकया। )ह द्विफर अपना आश्रय छोड़ने के सिलये बाध्य हुई। उसने संघ की छाया में दिदन द्विबताना द्विनक्षिzत द्विकया। एक दिदन उसने देखा द्विक यही दूसरा यु)क एक हत्या करके फाँसी पाने की आशा में हठ कर रहा है। उसने हटा सिलया, आप श) के पास बैठी रही। पकड़ी गयी, तो हत्या का भार अपने सिसर ले सिलया। यद्यद्विप उसने स्पष्ट स्)ीकार नहीं द्विकया; परन्तु शासन को तो एक हत्या के बदले दूसरी हत्या करनी ही है। न्याय की यही समीप मिमली, उसी पर अक्षिभयोग चल रहा है। मैं तो समझता हूँ द्विक )ह हताश होकर जी)न दे रही है। उसका कारण पे्रम नहीं है, जैसा तुम समझ रही हो।'

गाला ने एक दीघ� श्वास सिलया। उसने कहा, 'नारी जाद्वित का द्विनमा�ण द्वि)धाता की एक झुँझलाहट है। मंगल! संसार-भर के पुरुर्ष उससे कुछ लेना चाहते हैं, एक माता ही सहानुभूद्वित रखती है; इसका कारण है उसका स्त्री होना। हाँ, तो उसने न्यायालय में अपना क्या )Wव्य दिदया?'

उसने कहा-'पुरुर्ष म्पिस्त्रयों पर सदै) अत्याचार करते हैं, कहीं नहीं सुना गया द्विक अमुक स्त्री ने अमुक पुरुर्ष के प्रद्वित ऐसा ही अन्याय द्विकया; परन्तु पुरुर्षों का यह साधारण व्य)साय है, म्पिस्त्रयों पर आक्रमण करना! जो अत्याचारी है, )ह मारा गया। कहा जाता है द्विक न्याय के सिलए न्यायालय सदै) प्रस्तुत रहता है; परन्तु अपराध हो जाने पर ही द्वि)चार करना उसका काम है। उस न्याय का अथ� है द्विकसी को दण्ड देना! द्विकन्तु उसके द्विनयम उस आपक्षित्त से नहीं बच सकते। सरकारी )कील कहते हैं-न्याय को अपने हाथ में लेकर तुम दूसरा अन्याय नहीं कर सकते; परन्तु उस क्षण की कल्पना कीझिजये द्विक उसका स)�स्) लुटा चाहता है और न्याय के रक्षक अपने आराम में हैं। )हाँ एक पत्थर का टुकड़ा ही आपक्षित्तग्रस्त की रक्षा कर सकता है। तब )ह क्या करे, उसका भी उपयोग न करे! यदिद आपके सुव्य)स्थिkत शासन में कुछ दूसरा द्विनयम है, तो आप प्रसन्नता से मुझे फाँसी दे सकते हैं। मुझे और कुछ नहीं कहना।'-)ह द्विनभ¶क यु)ती इतना कहकर चुप हो गयी। न्यायाधीश दाँतों-तले ओठ दबाये चुप थे। साक्षी बुलाये गये। पुसिलस ने दूसरे दिदन उन्हें ले आने की प्रद्वितज्ञा की है। गाला! मैं तुमसे भी कहता हूँ द्विक 'चलो, इस द्वि)सिचत्र अक्षिभयोग को देखो; परन्तु यहाँ पाठशाला भी तो देखनी है। अबकी बार मुझे कई दिदन लगेंगे!'

'आzय� है, परन्तु मैं कहती हूँ द्विक )ह स्त्री अ)श्य उस यु)क से पे्रम करती है, झिजसने हत्या की है। जैसा तुमने कहा, उससे तो यही मालूम होता है द्विक दूसरा यु)क उसका पे्रमपात्र है, झिजसने उसे सताना चाहा था।'

'गाला! पर मैं कहता हूँ द्विक )ह उससे घृणा करती थी। ऐसा क्यों! मैं न कह सकँूगा; पर है बात कुछ ऐसी ही।' सहसा रुककर मंगल चुपचाप सोचने लगा-हो सकता है! ओह, अ)श्य द्वि)जय और यमुना!-यही तो मानता हूँ द्विक हृदय में एक आँधी रहती है; एक हलचल लहराया करती है, झिजसके प्रत्येक धक्के में 'बढ़ो-बढ़ो!' की घोर्षणा रहती है। )ह पागलपन संसार को तुच्छ लघुकण समझकर उसकी ओर उपेक्षा से हँसने का उत्साह देता है। संसार का कत�व्य, धम� का शासन केले के पत्ते की तरह धज्जी-धज्जी उड़ जाता है। यही तो प्रणय है। नीद्वित की सत्ता ढोंग मालूम पड़ती है और द्वि)श्वास होता है द्विक समस्त सदाचार उसी का साधना है। हाँ, )हीं सिसझिर्द्ध है। आह, अबोध मंगल! तूने उसे पाकर भी न पाया। नहीं-नहीं, )ह पतन था, अ)श्य माया थी। अन्यथा, द्वि)जय की ओर इतनी प्राण दे देने )ाली सहानुभूद्वित क्यों आह, पुरुर्ष-जी)न के कठोर सत्य! क्या इस जी)न में नारी को प्रणय-मदिदरा के रूप में गलकर तू कभी न मिमलेगा परन्तु स्त्री जल-सदृश कोमल ए)ं अमिधक-से-अमिधक द्विनरीह है। बाधा देने की सामथ्य� नहीं; तब भी उसमें एक धारा है, एक गद्वित है, पत्थरों की रुका)ट की उपेक्षा करके कतराकर )ह चली ही जाती है। अपनी सम्पिन्ध खोज ही लेती है, और सब उसके सिलए पथ छोड़ देते हैं, सब झुकते हैं! सब लोहा मानते हैं द्विकन्तु सदाचार की प्रद्वितज्ञा, तो

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अप�ण करना होगा धम� की बसिल)ेदी पर मन का स्)ातंत्र्य! कर तो दिदया, मन कहाँ स्)तन्त्र रहा! अब उसे एक राह पर लगाना होगा। )ह जोर से बोल उठा, 'गाला! क्या यही!!'

गाला सिचन्तिन्तत मंगल का मुँह देख रही थी। )ह हँस पड़ी। बोला, 'कहाँ घूम रहे हो मंगल?'

मंगल चौंक उठा। उसने देखा, झिजसे खोजता था )ही कब से मुझे पुकार रहा है। )ह तुरन्त बोला, 'कहीं तो नहीं, गाला!'

आज पहला अ)सर था, गाला ने मंगल को उसके नाम से पुकारा। उसमें सरलता थी, हृदय की छाया थी। मंगल ने अक्षिभन्नता का अनुभ) द्विकया। हँस पड़ा।

'तुम कुछ सोच रहे थे। यही द्विक म्पिस्त्रयाँ ऐसा पे्रम कर सकती हैं तक� ने कहा होगा-नहीं! व्य)हार ने समझाया होगा, यह सब स्)प्न है! यही न। पर मैं कहती हूँ सब सत्य है, स्त्री का हृदय...पे्रम का रंगमंच है! तुमने शास्त्र पढ़ा है, द्विफर भी तुम म्पिस्त्रयों के हृदय को परखने में उतने कुशल नहीं हो, क्योंद्विक...'

बीच में रोककर मंगल ने पूछा, 'और तुम कैसे पे्रम का रहस्य जानती हो गाला! तुम भी तो...'

'म्पिस्त्रयों का यह जन्मसिसर्द्ध उत्तरामिधकार है, मंगल! उसे खोजना, परखना नहीं होता, कहीं से ले आना नहीं होता। )ह द्विबखरा रहता है असा)धानी से धनकुबेर की द्वि)भूद्वित के समान! उसे सम्हालकर के)ल एक ओर व्यय करना पड़ता है-इतना ही तो!' हँसकर गाला ने कहा।

'और पुरुर्ष को... ?'मंगल ने पूछा।

'द्विहसाब लगाना पड़ता है, उसे सीखना पड़ता है। संसार में जैसे उसकी महत्त्)ाकांक्षा की और भी बहुत-सी द्वि)भूद्वितयाँ हैं, )ैसे ही यह भी एक है। पक्षिद्मनी के समान जल-मरना म्पिस्त्रयाँ ही जानती हैं, पुरुर्ष के)ल उसी जली हुई राख को उठाकर अलाउद्दीन के सदृश द्विबखेर देना ही तो जानते हैं!' कहते-कहते गाला तन गयी थी। मंगल ने देखा )ह ऊज�स्विस्)त सौन्दय�!

बात बदलने के सिलए गाला ने पाठ्यक्रम-सम्बन्धी अपने उपालम्भ कह सुनाये और पाठशाला के सिशक्षाक्रम का मनोरंजक द्वि))ाद सिछड़ा। मंगल उस कानन)ासिसनी के तक� जालों में बार-बार जान-बूझकर अपने को फँसा देता। अन्त में मंगल ने स्)ीकार द्विकया द्विक )ह पाठ्यक्रम बदला जायेगा। सरल पाठों में बालकों के चारिरत्र्य, स्)ास्थ्य और साधारण ज्ञान को द्वि)शेर्ष सहायता देने को उपकरण जुटाया जायेगा।

स्)ा)लम्बन का व्या)हारिरक द्वि)र्षय द्विनधा�रिरत होगा।

गाला ने सन्तोर्ष की साँस लेकर देखा-आकाश का सुन्दर सिशशु बैठा हुआ बादलों की क्रीड़ा-शैली पर हँस रहा था और रजनी शीतल हो चली थी। रोए ँअनुभूद्वित में सुगबुगाने लगे थे। दक्षिक्षण प)न जी)न का सन्देश लेकर टेकरी पर द्वि)श्राम करने लगा था। मंगल की पलकें भारी थीं और गाला झीम रही थी। कुछ ही देर में दोनों अपने-अपने kान पर द्विबना द्विकसी शैया के, आडम्बर के सो गये।

(3)

एक दिदन स)ेरे की गाड़ी से )ृन्दा)न के स्टेशन पर नन्दो और घण्टी उतरीं। बाथम स्टेशन के समीप ही सड़क पर ईसाई-धम� पर व्याख्यान दे रहा था-

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'यह दे)मझिन्दरों की यात्राए ँतुम्हारे मन में क्या भा)ा लाती हैं, पाप की या पुण्य की तुम जब पापों के बोझ से लदकर, एक मझिन्दर की दी)ार से दिटककर लम्बी साँस खींचते हुए सोचोगे द्विक मैं इससे छू जाने पर पद्वि)त्र हो गया, तो तुम्हारे में द्विफर से पाप करने की पे्ररणा बढे़गी! यह द्वि)श्वास द्विक दे)मझिन्दर मुझे पाप से मुW कर देंगे, भ्रम है।'

सहसा सुनने )ालों में से मंगल ने कहा, 'ईसाई! तुम जो कह रहे हो, यदिद )ही ठीक है, तो इस भा) के प्रचार का सबसे बड़ा दामियत्) तुम लोगों पर है, जो कहते हैं द्विक पzात्ताप करो, तुम पद्वि)त्र हो जाओगे। भाई, हम लोग तो इस सम्बन्ध में ईश्वर को भी इस झंझट से दूर रखना चाहते हैं-

'जो जस करे सो तस फल चाखा!'

सुनने )ालों ने ताली पीट दी। बाथम एक घोर सैद्विनक की भाँद्वित प्रत्या)त�न कर गया, )ह भीड़ में से द्विनकलकर अभी स्टेशन की ओर चला था द्विक सिसर पर गठरी सिलये हुए नन्दो के पीछे घण्टी जाती दिदखाई पड़ी, )ह उते्तझिजत होकर लपका, उसने पुकारा, 'घण्टी!'

घण्टी के हृदय में सनसनी दौड़ गयी। उसने नन्दो का कन्धा पकड़ सिलया। धम� का व्याख्याता ईसाई, पशु के फंदे में अपना गला फाँसकर उछलने लगा। उसने कहा, 'घण्टी! चलो हम तुमको खोजकर लाचार हो गये-आह डार्लिंल\ग!'

भयभीत घण्टी सिसकुड़ी जाती थी। नन्दो ने डपटकर कहा, 'तू कौन है रे! क्या सरकारी राज नहीं रहा! आगे बढ़ा तो ऐसा झापड़ लगेगा द्विक तेरा टोप उड़ जायेगा।'

दो-चार मनुष्य और इकटे्ठ हो गये। बाथम ने कहा, 'माँ जी, यह मेरी द्वि))ाद्विहता स्त्री है, यह ईसाई है, आप नहीं जानतीं।'

नन्दो तो घबरा गयी और लोगों के भी कान सुगबुगाये; पर सहसा द्विफर मंगल बाथम के सामने डट गया। उसने घण्टी से पूछा, 'क्या तुम ईसाई-धम� ग्रहण कर चुकी हो?'

'मैं धम�-कम� कुछ नहीं जानती। मेरा कोई आश्रय न था, तो इन्होंने मुझे कई दिदन खाने को दिदया था।'

'ठीक है; पर तुमने इसके साथ ब्याह द्विकया था?'

'नहीं, यह मुझे दो-एक दिदन द्विगरजाघर में ले गये थ,े ब्याह-व्याह मैं नहीं जानती।'

'मिमस्टर बाथम, )ह क्या कहती है क्या आप लोगों का ब्याह चच� में द्विनयमानुसार हो चुका है-आप प्रमाण दे सकते हैं?'

'नहीं, झिजस दिदन होने )ाला था, उसी दिदन तो यह भागी। हाँ, यह बपद्वितस्मा अ)श्य ले चुकी है।'

'मैं नहीं जानती।'

'अच्छा मिमस्टर बाथम! अब आप एक भद्र पुरुर्ष होने के कारण इस तरह एक स्त्री को अपमाद्विनत न कर सकें गे। इसके सिलए आप पzात्ताप तो करेंगे ही, चाहे )ह प्रकट न हो। छोद्विड़ए, राह छोद्विड़ए, जाओ दे)ी!'

मंगल के यह कहने पर भीड़ हट गयी। बाथम भी चला। अभी )ह अपनी धुन में थोड़ी ही दूर गया था द्विक चच� का बुड्ढा चपरासी मिमला। बाथम चौंक पड़ा। चपरासी ने कहा, 'बडे़ साहब की चलाचली है; चच� को सँभालने के सिलए आपको बुलाया है।'

बाथम निक\कत�व्यद्वि)मूढ़-सा चच� के ताँगे पर जा बैठा।

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पर नन्दो का तो पैर ही आगे नहीं पड़ता था। )ह एक बार घण्टी को देखती, द्विफर सड़क को। घण्टी के पैर उसी पृथ्)ी में गडे़ जा रहे थे। दुःख के दोनों के आँसू छलक आये थे। दूर खड़ा मंगल भी यह सब देख रहा था, )ह द्विफर पास आया, बोला, 'आप लोग अब यहाँ क्यों खड़ी हैं?'

नन्दो रो पड़ी, बोली, 'बाबूजी, बहुत दिदन पर मेरी बेटी मिमली भी, तो बेधरम होकर! हाय अब मैं क्या करँू?'

मंगल के मस्विस्तष्क में सारी बातें दौड़ गयीं, )ह तुरंत बोल उठा, 'आप लोग गोस्)ामीजी के आश्रम में चसिलए, )हाँ सब प्रबन्ध हो जायेगा, सड़क पर खड़ी रहने से द्विफर भीड़ लग जायेगी। आइये, मेरे पीछे-पीछे चली आइये।' मंगल ने आज्ञापूण� स्)र में ये शब्द कहे। दोनों उसके पीछे-पीछे आँसू पोंछती हुई चलीं।

मंगल को गम्भीर दृमिष्ट से देखते हुए गोस्)ामी जी ने पूछा, 'तुम क्या चाहते हो?'

'गुरुदे)! आपकी आज्ञा का पालन करना चाहता हूँ; से)ा-धम� की जो दीक्षा आपने मुझे दी है, उसकी प्रकाश्य रूप से व्य)हृत करने की मेरी इच्छा है। देखिखये, धम� के नाम पर द्विहन्दू म्पिस्त्रयों, शूद्रों, अछूतों-नहीं, )ही प्राचीन शब्दों में कहे जाने )ाली पापयोद्विनयों-की क्या दुद�शा हो रही है! क्या इन्हीं के सिलए भग)ान श्रीकृष्ण ने परागद्वित पाने की व्य)kा नहीं दी है क्या )े सब उनकी दया से )ंसिचत ही रहें।

'मैं आय�समाज का द्वि)रोध करता था, मेरी धारणा थी द्विक धार्मिम\क समाज में कुछ भीतरी सुधार कर देने से काम चल जायेगा; द्विकन्तु गुरुदे)! यह आपका सिशष्य मंगल आप ही की सिशक्षा से आज यह कहने का साहस करता है द्विक परिर)त�न आ)श्यक है; एक दिदन मैंने अपने मिमत्र द्वि)जय का इन्हीं द्वि)चारों के सिलए द्वि)रोध द्विकया था; पर नहीं, अब मेरी यही दृढ़ धारणा हो गयी है द्विक इस जज�र धार्मिम\क समाज में जो पद्वि)त्र हैं, )े पद्वि)त्र बने रहें, मैं उन पद्विततों की से)ा करँू, झिजन्हें ठोकरें लग रही हैं, जो द्विबलद्विबला रहे हैं।

'मुझे पद्विततपा)न के पदांक का अनुसरण करने की आज्ञा दीझिजए। गुरुदे), मुझसे बढ़कर कौन पद्वितत होगा कोई नहीं, आज मेरी आँखें खुल गयी हैं, मैं अपने समाज को एकत्र करँूगा और गोपाल से तब प्राथ�ना करँूगा द्विक भग)ान, तुममें यदिद पा)न करने की शसिW हो तो आओ। अहंकारी समाज के दम्भ से पद-दसिलतों पर अपनी करुणा-कादम्पिम्बनी बरसाओ।'

मंगल की आँखों में उते्तजना के आँसू थे। उसका गला भर आया था। )ह द्विफर कहने लगा, 'गुरुदे)! उन म्पिस्त्रयों की दया पर द्वि)चार कीझिजये, झिजन्हें कल ही आश्रम में आश्रय मिमला है।'

'मंगल! क्या तुमने भली-भाँद्वित द्वि)चार कर सिलया और द्वि)चार करने पर भी तुमने यही काय�क्रम द्विनक्षिzत द्विकया है?' गम्भीरता से कृष्णाशरण ने पूछा।

'गुरुदे)! जब काय� करना ही है तब उसे उसिचत रूप क्यों ने दिदया जाय! दे)द्विनरंजन जी से परामश� करने पर मैंने तो यही द्विनष्कर्ष� द्विनकाला है द्विक भारत संघ kाद्विपत होना चाद्विहए।'

'परन्तु तुम मेरा सहयोग उसमें न प्राप्त कर सकोगे। मुझे इस आडम्बर में द्वि)श्वास नहीं है, यह मैं स्पष्ट कह देना चाहता हूँ। मुझे द्विफर कोई एकान्त कुदिटया खोजनी पडे़गी।' मुस्कुराते हुए कृष्णशरण ने कहा।

'काय� आरम्भ हो जाने दीझिजए। गुरुदे)! तब यदिद आप उसमें अपना द्विन)ा�ह न देखें, तो दूसरा द्वि)चार करें। इस कल्याण-धम� के प्रचार में क्या आप ही द्वि)रोधी बद्विनयेगा! मुझे झिजस दिदन आपने से)ाधम� का उपदेश देकर )ृन्दा)न से द्विन)ा�सिसत द्विकया था, उसी दिदन से मैं इसके सिलए उपाय खोज रहा था; द्विकन्तु आज जब सुयोग उपस्थिkत हुआ, दे)द्विनरंजन जी जैसा सहयोगी मिमल गया, तब आप ही मुझे पीछे हटने को कह रहे हैं।'

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पूण� गम्भीर हँसी के साथ गोस्)ामीजी कहने लगे, 'तब द्विन)ा�सन का बदला सिलये द्विबना तुम कैसे मानोगे मंगल, अच्छी बात है, मैं शीघ्र प्रद्वितफल का स्)ागत करता हूँ। द्विकन्तु, मैं एक बात द्विफर कह देना चाहता हूँ द्विक मुझे व्यसिWगत पद्वि)त्रता के उद्योग में द्वि)श्वास है, मैंने उसी को सामने रखकर उन्हें पे्ररिरत द्विकया था। मैं यह न स्)ीकार करँूगा द्विक )ह भी मुझे न करना चाद्विहए था। द्विकन्तु, जो कर चुका, )ह लौटाया नहीं जा सकता। तो द्विफर करो, जो तुम लोगों की इच्छा!'

मंगल ने कहा, 'गुरुदे), क्षमा कीझिजये, आशी)ा�द दीझिजए।'

अमिधक न कहकर )ह चुप हो गया। )ह इस समय द्विकसी भी तरह गोस्)ामी जी से भारत-संघ का आरम्भ करा सिलया चाहता था।

द्विनरंजन ने जब )ह समाचार सुना, तो उसे अपनी द्वि)जय पर प्रसन्नता हुई, दोनों उत्साह से आगे का काय�क्रम बनाने लगे।

(4)

कृष्णशरण की टेकरी ब्रज-भर में कुतूहल और सनसनी का केन्द्र बन रही थी। द्विनरंजन के सहयोग से उसमें न)जी)न का संचार होने लगा, कुछ ही दिदनों से सरला और लद्वितका भी उस द्वि)श्राम-भ)न में आ गयी थीं। लद्वितका बडे़ चा) से )हाँ उपदेश सुनती। सरला तो एक प्रधान मद्विहला काय�कत्र¶ थी। उसके हृदय में नयी सू्फर्तित\ थी और शरीर में नये साहस का साहस का संचार था। संघ में बड़ी सजी)ता आ चली। इधर यमुना के अक्षिभयोग में भी हृदय प्रधान भाग ले रहा था, इससिलए बड़ी चहल-पहल रहती।

एक दिदन )ृन्दा)न की गसिलयों में सब जगह बडे़-बडे़ द्वि)ज्ञापन सिचपक रहे थे। उन्हें लोग भय और आzय� से पढ़ने लगे-

भारत संघ

द्विहन्दू-धम� का स)�साधारण के सिलए

खुला हुआ �ार

ब्राह्मण, क्षद्वित्रय, )ैश्यों से

(जो द्विकसी द्वि)शेर्ष कुल में जन्म लेने के कारण संसार में सबसे अलग रहकर, द्विनस्सार महत्ता में फँसे हैं)

क्षिभन्न एक न)ीन द्विहन्दू जाद्वित का

संगठन कराने )ाला सुदृढ़ केन्द्र

झिजसका आदश� प्राचीन है-

राम, कृष्ण, बुर्द्ध की आय� संस्कृद्वित का प्रचारक

)ही

भारत संघ

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सबको आमंद्वित्रत करता है।

दूसरे दिदन नया द्वि)ज्ञापन लगा-

भारत संघ

)त�मान कष्ट के दिदनों में

श्रेणी)ाद

धार्मिम\क पद्वि)त्रता)ाद,

आक्षिभजात्य)ाद, इत्यादिद अनेक रूपों में

फैले हुए सब देशों के क्षिभन्न प्रकारों के जाद्वित)ाद की

अत्यन्त उपेक्षा करता है।

श्रीराम ने शबरी का आद्वितथ्य ग्रहण द्विकया था,

बुर्द्धदे) ने )ेश्या के द्विनमंत्रण की रक्षा की थी;

इन घटनाओं का स्मरण करता हुआ

भारत-संघ मान)ता के नाम पर

सबको गले से लगाता है!

राम, कृष्ण, और बुर्द्ध महापुरुर्ष थे

इन लोगों ने सत्साहस का पुरस्कार पाया था

'कष्ट, तीव्र उपेक्षा और द्वितरस्कार!'

भारत संघ भी

आप लोगों की ठोकरों की धूल

सिसर से लगा)ेगा।

)ृदा)न उते्तजना की उँगसिलयों पर नाचने लगा। द्वि)रोध में और पक्ष में-दे)मझिन्दरों, कंुजों, गसिलयों और घाटों पर बातें होने लगीं।

तीसरे दिदन द्विफर द्वि)ज्ञापन लगा-

मनुष्य अपनी सुद्वि)धा के सिलए

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अपने और ईश्वर के सम्बन्ध को

धम�

अपने और अन्य ईश्वर के सम्बन्ध को

नीद्वित

और रोटी-बेटी के सम्बन्ध को

समाज

कहने लगता है, कम-से-कम

इसी अथ� में इन शब्दों का व्य)हार करता है।

धम� और नीद्वित में सिशसिथल

द्विहन्दुओं का समाज-शासन

कठोर हो चला है!

क्योंद्विक, दुब�ल म्पिस्त्रयों पर ही शसिW का उपयोग करने की

उसके पास क्षमता बच रही है-

और यह अत्याचार प्रत्येक काल और देश के

मनुष्यों ने द्विकया है;

म्पिस्त्रयों की

द्विनसग�-कोमल प्रकृद्वित और उसकी रचना

इसका कारण है।

भारत संघ

ऋद्विर्ष-)ाणी को दोहराता है

'यत्र नाय�स्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र दे)ता'

कहता है-म्पिस्त्रयों का सम्मान करो!

)ृदा)न में एक भयानक हलचल मच गयी। सब लोग आजकल भारत संघ और यमुना के अक्षिभयोग की चचा� में संलग्न हैं। भोजन करके पहल की आधी छोड़ी हुई बात द्विफर आरम्भ हो जाती है-)ही भारत-संघ और यमुना!

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मझिन्दर के द्विकसी-द्विकसी मुखिखया को शास्त्राथ� की सूझी। भीतर-भीतर आयोजन होने लगा। पर अभी खुलकर कोई प्रस्ता) नहीं आया था। उधर यमुना के अक्षिभयोग के सिलए सहायताथ� चन्दा भी आने लगा। )ह दूसरी ओर की प्रद्वितद्विक्रया थी।

(5)

कई दिदन हो गये थे। मंगल नहीं था। अकेले गाला उस पाठशाला का प्रबन्ध कर रही थी। उसका जी)न उसे द्विनत्य बल दे रहा था, पर उसे कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता द्विक उसने कोई )स्तु खो दी है। इधर एक पंद्विडतजी उस पाठशाला में पढ़ाने लगे थे। उनका गाँ) दूर था; अतः गाला ने कहा, 'पंद्विडतजी, आप भी यहाँ रहा करें तो अमिधक सुद्वि)धा हो। रात को छात्रों को कष्ट इत्यादिद का समुसिचत प्रबन्ध भी कर दिदया जाता और सूनापन उतना न अखरता।'

पंद्विडतजी सास्वित्त्)क बुझिर्द्ध के एक अधेड़ व्यसिW थे। उन्होंनें स्)ीकार कर सिलया। एक दिदने )े बैठे हुए रामायण की कथा गाला को सुना रहे थ,े गाला ध्यान से सुन रही थी। राम )न)ास का प्रसंग था। रात अमिधक हो गयी थी, पंद्विडतजी ने कथा बन्द कर दी। सब छात्रों ने फूस की चटाई पर पैर फैलाये और पंद्विडतजी ने भी कम्बल सीधा द्विकया।

आज गाला की आँखो में नींद न थी। )ह चुपचाप नैन प)न-द्वि)कम्पिम्पत लता की तरह कभी-कभी द्वि)चार में झीम जाती, द्विफर चौंककर अपनी द्वि)चार परम्परा की द्वि)शंृखल लद्विड़यों को सम्हालने लगती। उसके सामने आज रह-रहकर बदन का सिचत्र प्रसु्फदिटत हो उठता। )ह सोचती-द्विपता की आज्ञा मानकर राम )न)ासी हुए और मैंने द्विपता की क्या से)ा की उलटा उनके )ृर्द्ध जी)न में कठोर आघात पहुँचाया! और मंगल द्विकस माया में पड़ी हूँ! बालक पढ़ते हैं, मैं पुण्य कर रही हूँ; परन्तु क्या यह ठीक है? मैं एक दुदा�न्त दस्यु और य)नी की बासिलका-द्विहन्दू समाज मुझे द्विकस दृमिष्ट से देखेगा ओह, मुझे इसकी क्या सिचन्ता! समाज से मेरा क्या सम्बन्ध! द्विफर भी मुझे सिचन्ता करनी ही पडे़गी, क्यों इसका कोई स्पष्ट उत्तर नही दे सकती; पर यह मंगल भी एक द्वि)लक्षण.. आहा, बेचारा द्विकतना परोपकारी है, द्वितस पर उसकी खोज करने )ाला कोई नहीं। न खाने की सुध, न अपने शरीर की। सुख क्या है-)ह जैसे भूल गया है और मैं भी कैसी हूँ-द्विपताजी को द्विकतनी पीडा मैंने दी, )े मसोसते होंगे। मैं जानती हूँ, लोहे से भी कठोर मेरे द्विपता अपने दुःख के द्विकसी की से)ा-सहायता न चाहेंगे। तब यदिद उन्हें ज्)र आ गया हो तो उस जंगल के एकान्त में पडे़ कराहते होंगे।' '

सहसा जैसे गाला के हृदय की गद्वित रुकने लगी। उसके कान में बदन के कराहने का स्)र सुनायी पड़ा, जैसे पानी के सिलए खाट के नीचे हाथ बढ़ाकर टटोल रहा हो। गाला से न रहा गया, )ह उठ खड़ी हुई। द्विफर द्विनस्तब्ध आकाश की नीसिलमा में )ह बन्दी बना दी गयी। उसकी इच्छा हुई द्विक सिचल्लाकर रो उठे; परन्तु द्विनरुपाय थी। उसने अपने रोने का माग� भी बन्द कर दिदया था। बड़ी बेचैनी थी। )ह तारों को द्विगन रही थी, प)न की लहरों को पकड़ रही थी।

सचमुच गाला अपने द्वि)द्रोही हृदय पर खीज उठी थी। )ह अथाह अन्धकार के समुद्र में उभचुभ हो रही थी-नाक में, आँख में, हृदय में जैसे अन्धकार भरा जा रहा था। अब उसे द्विनक्षिzत हो गया द्विक )ह डूब गयी। )ास्त) में )ह द्वि)चारों में थककर सो गयी।

अभी पू)� में प्रकाश नहीं फैला था। गाला की नींद उचट गयी। उसने देखा, कोई बड़ी दाढ़ी और मूँछों)ाला लम्बा-चौड़ा मनुष्य खड़ा है। सिचन्तिन्तत रहने से गाला का मन दुब�ल हो ही रहा था, उस आकृद्वित को देखकर )ह सहम गयी। )ह सिचल्लाना ही चाहती थी द्विक उस व्यसिW ने कहा, 'गाला, मैं हूँ नये!'

'तुम हो! मैं तो चौंक उठी थी, भला तुम इस समय क्यों आये?'

'तुम्हारे द्विपता कुछ घण्टों के सिलए संसार में जीद्वि)त हैं, यदिद चाहो तो देख सकती हो!'

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'क्या सच! तो मैं चलती हूँ।' कहकर गाला ने सलाई जलाकर आलोक द्विकया। )ह एक सिचट पर कुछ सिलखकर पंद्विडतजी के कम्बल के पास गयी। )े अभी सो रहे थ;े गाला सिचट उनके सिसरहाने रखकर नये के पास गयी, दोनों टेकरी से उतरकर सड़क पर चलने लगे।

नये कहने लगा-

'बदन के घुटने में गोली लगी थी। रात को पुसिलस ने डाके में माल के सम्बन्ध में उस जंगल की तलाशी ली; पर कोई )स्तु )हाँ न मिमली। हाँ, अकेले बदन ने )ीरता से पुसिलस-दल का द्वि)रोध द्विकया, तब उस पर गोली चलाई गयी। )ह द्विगर पड़ा। )ृर्द्ध बदन ने इसको अपना कत�व्य-पालन समझा। पुसिलस ने द्विफर कुछ न पाकर बदन को उसके भाग्य पर छोड़ दिदया, यह द्विनक्षिzत था द्विक )ह मर जायेगा, तब उसे ले जाकर )ह क्या करती।

'सम्भ)तः पुसिलस ने रिरपोट� दी-डाकू अमिधक संख्या में थे। दोनों ओर से खूब गोसिलयाँ चलीं; पर कोई मरा नहीं। माल उन लोगों के पास न था। पुसिलस दल कम होने के कारण लौट आयी; उन्हें घेर न सकी। डाकू लोग द्विनकल भागे, इत्यादिद-इत्यादिद।

'गोली का शब्द सुनकर पास ही सोया भालू भँूक उठा, मैं भी चौंक पड़ा। देखा द्विक द्विनस्तब्ध अँधेरी रजनी में यह कैसा शब्द। मैं कल्पना से बदन को संकट में समझने लगा।

'जब से द्वि))ाह-सम्बन्ध को अस्)ीकार द्विकया, तब से बदन के यहाँ नहीं जाता था। इधर-उधर उसी खारी के तट पर पड़ा रहता। कभी संध्या के समय पुल के पास जाकर कुछ माँग लाता, उसे खाकर भालू और मैं संतुष्ट हो जाते। क्योंद्विक खारी में जल की कमी तो थी नहीं। आज सड़क पर संध्या को कुछ असाधारण चहल-पहल देखी; इससिलए बदन के कष्ट की कल्पना कर सका।

'लिस\)ारपुर के गाँ) के लोग मुझे औघड़ समझते-क्योंद्विक मैं कुत्ते के साथ ही खाता हूँ। कम्बल बगल में दबाये भालू के साथ मैं, जनता की आँखों का एक आकर्ष�क द्वि)र्षय हो गया हूँ।

'हाँ तो बदन के संकट ने मुझको उते्तझिजत कर दिदया। मैं उसके झोंपडे़ की ओर चला। )हाँ जाकर जब बदन को घायल कराहते देखा, तब तो मैं जमकर उसकी से)ा करने लगा। तीन दिदन बीत गये, बदन का ज्)र भीर्षण हो चला। उसका घा) भी असाधारण था, गोली तो द्विनकल गयी, पर चोट गहरी थी। बदन ने एक दिदन भी तुम्हारा नाम न सिलया। संध्या, को जब मैं उसे जल द्विपला रहा था, मैंने )ायु-द्वि)कार बदन की आँखों में स्पष्ट देखा। उससे धीरे से पूछा-गाला को बुलाऊँ बदन ने मुँह फेर सिलया। मैं अपना कत�व्य सोचने लगा, द्विफर द्विनzय द्विकया द्विक आज तुम्हें बुलाना ही चाद्विहए।'

गाला पथ चलते-चलते यह कथा संके्षप में सुन रही थी; पर कुछ न बोली। उसे इस समय के)ल चलना ही सूझता था।

नये जब गाला को लेकर पहुँचा, तब बदन की अ)kा अत्यन्त भयानक हो चली थी। गाला उसके पैर पकड़कर रोने लगी। बदन ने कष्ट से दोनों हाथ उठाये, गाला ने अपने शरीर को अत्यन्त हलका करके बदन के हाथों में रख दिदया। मरणोन्मुख )ृर्द्ध द्विपता ने अपनी कन्या का सिसर चूम सिलया।

नये उस समय हट गया था। बदन ने धीरे से उसके कान में कुछ कहा, गाला ने भी समझ सिलया द्विक अब अन्तिन्तम समय है। )ह डटकर द्विपता की खाट के पास बैठ गयी।

हाय! उस दिदन की भूखी संध्या ने उसके द्विपता को छीन सिलया।

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गाला ने बदन का श)-दाह द्विकया। )ह बाहर तो खुलकर रोती न थी, पर उसके भीतर की ज्)ाला का ताप उसकी आरW आँखों में दिदखाई देता था। उसके चारों ओर सूना था। उसने नये से कहा, 'मैं तो धन का सन्दूक न ले जा सकँूगी, तुम इसे ले लो।'

नये ने कहा, 'भला मैं क्या करँूगा गाला। मेरा जी)न संसार के भीर्षण कोलाहल से, उत्स) से और उत्साह से ऊब गया है। अब तो मुझे भीख मिमल जाती है। तुम तो इसे पाठशाला में पहुँचा सकती हो। मैं इसे )हाँ पहुँचा सकता हूँ। द्विफर )ह सिसर झुकाकर मन-ही-मन सोचने लगा-झिजसे मैं अपना कह सकता हूँ, झिजसे माता-द्विपता समझता था, )े ही जब अपने ही नहीं तो दूसरों की क्या?'

गाला ने देखा, नये के मन में एक तीव्र द्वि)राग और )ाणी में वं्यग्य है। )ह चुपचाप दिदन भर खारी के तट पर बैठी हुई सोचती रही। सहसा उसने घूमकर देखा, नये अपने कुत्ते के साथ कम्बल पर बैठा है। उसने पूछा, 'तो नये! यही तुम्हारी सम्पक्षित्त है न?'

'हाँ, इससे अच्छा इसका दूसरा उपयोग हो ही नहीं सकता। और यहाँ तुम्हारा अकेले रहना ठीक नहीं।' नये ने कहा।

'हाँ पाठशाला भी सूनी है-मंगलदे) )ृन्दा)न की एक हत्या में फँसी हुई यमुना नाम की एक स्त्री के अक्षिभयोग की देख-रेख में गये हैं, उन्हें अभी कई दिदन लगेंगे।'

बीच में टोककर नये ने पूछा, 'क्या कहा, यमुना> )ह हत्या में फँसी है?'

'हाँ, पर तुम क्यों पूछते हो?'

'मैं भी हत्यारा हूँ गाला, इसी से पूछता हूँ, फैसला द्विकस दिदन होगा कब तक मंगलदे) आएगेँ?'

'परसों न्याय का दिदन द्विनयत है।' गाला ने कहा।

'तो चलो, आज ही तुम्हें पाठशाला पहुँचा दँू। अब यहाँ रहना ठीक भी नहीं है।'

'अच्छी बात है। )ह सन्दूक लेते आओ।'

नये अपना कम्बल उठाकर चला और गाला चुपचाप सुनहली द्विकरणों को खारी के जल में बुझती हुई देख रही थी-दूर पर एक सिसयार दौड़ा हुआ जा रहा था। उस द्विनज�र kान में प)न रुक-रुककर बह रहा था। खारी बहुत धीरे-धीरे अपने करुण प्र)ाह में बहती जाती थी, पर जैसे उसका जल स्थिkर हो-कहीं से आता-जाता न हो। )ह स्थिkरता और स्पन्दनहीन द्वि))शता गाला को घेरकर मुस्कराने लगी। )ह सोच रही थी-शैश) से परिरसिचत इस जंगली भूखंड को छोड़ने की बात।

गाला के सामने अन्धकार ने परदा खींच दिदया। तब )ह घबराकर उठ खड़ी हुई। इतने में कम्बल और सन्दूक सिसर पर धरे नये )हाँ पहुँचा। गाला ने कहा, 'तुम आ गये।'

'हाँ चलो, बहुत दूर चलना है।'

दोनों चले, भालू भी पीछे-पीछे था।

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जज के साथ पाँच जूरी बैठे थे। सरकारी )कील ने अपना )Wव्य समाप्त करते हुए कहा, 'जूरी सज्जनों से मेरी प्राथ�ना है द्विक अपना मत देते हुए )े इस बात का ध्यान रखें द्विक )े लोग हत्या जैसे एक भीर्षण अपराध पर अपना मत दे रहे हैं। स्त्री साधारणतः मनुष्य की दया को अपनी ओर आकर्तिर्ष\त कर सकती है, द्विफर जबद्विक उसके साथ उसकी स्त्री जाद्वित की मया�दा का प्रश्न भी लग जाता हो। तब यह बडे़ साहस का काम है द्विक न्याय की पूरी सहायता हो। समाज में हत्या का रोग बहुत जल्द फैल सकता है, यदिद अपराधी इस...'

जज ने )Wव्य समाप्त करके का संकेत द्विकया। सरकारी )कील ने के)ल-'अच्छा तो आप लोग शान्त हृदय से अपराध के गुरुत्) को देखकर न्याय करने में सहायता दीझिजए।' कहकर )Wव्य समाप्त द्विकया।

जज ने जरूिरयों को सम्बोधन करके कहा, 'सज्जनो, यह एक हत्या का अक्षिभयोग है, झिजसमें न)ाब नाम का मनुष्य )ृंदा)न के समीप यमुना के द्विकनारे मारा गया। इसमें तो संदेह नहीं द्विक )ह मारा गया-डॉक्टर कहता है द्विक गला घोंटने और सिसर फोड़ने से उसकी मृत्यु हुई। ग)ाह कहते हैं-जब हम लोगों ने देखा तो यह यमुना उस मृत व्यसिW पर झुकी हुई थी; पर यह कोई नहीं कहता द्विक मैंने उसे मारते हुए देखा। यमुना कहती है द्विक स्त्री की मया�दा नष्ट करने जाकर न)ाब मारा गया; पर सरकारी )कील का कहना द्विबल्कुल द्विनरथ�क है द्विक उसने मारना स्)ीकार द्विकया है। यमुना के )ाक्यों से यह अथ� कदाद्विप नहीं द्विनकाला जा सकता। इस द्वि)शेर्ष बात को समझा देना आ)श्यक था। यह दूसरी बात है द्विक )ह स्त्री अपनी मया�दा के सिलए हत्या कर सकती है या नहीं; यद्यद्विप द्विनयम इसके सिलए बहुत स्पस्ट है। द्वि)चार करते समय आप लोग इन बातों का ध्यान रखेंगे। अब आप लोग एकान्त में जा सकते हैं।'

जूरी लोग एक कमरे में जा बैठे। यमुना द्विनभ¶क होकर जज का मुँह देख रही थी। न्यायालय में दश�क बहुत थे। उस भीड़ में मंगल, द्विनरंजन इत्यादिद भी थे। सहसा �ार पर हलचल हुई, कोई भीतर घुसना चाहता था, रक्षिक्षयों ने शान्तिन्त की घोर्षणा की। जूरी लोग आये।

दो ने कहा, 'हम लोग यमुना को हत्या का अपराधी समझते हैं; पर दण्ड इसे कम दिदया जाय।' जज ने मुस्करा दिदया।

अन्य तीन सज्जनों ने कहा, 'प्रमाण अक्षिभयोग के सिलए पया�प्त नहीं हैं।' अभी )े पूरी कहने नहीं पाये थ ेद्विक एक लम्बा, चौड़ा, दाड़ी-मूँछ )ाला यु)क, कम्बल बगल में दबाये, द्विकतने ही को धक्का देता जज की कुरसी की बगल )ाली खिखड़की से कब घुस आया, यह द्विकसी ने नहीं देखा। )ह सरकारी )कील के पास आकर बोला, 'मै हूँ हत्यारा! मुझको फाँसी दो। यह स्त्री द्विनरपराध है।'

जज ने चपरासिसयों की ओर देखा। पेशकार ने कहा, 'पागलों को भी तुम नहीं रोकते! ऊँघते रहते हो क्या

इसी गड़बड़ी में बाकी तीन जूरी सज्जनों ने अपना )Wव्य पूरा द्विकया, 'हम लोग यमुना को द्विनरपराध समझते हैं।'

उधर )ह पागल भीड़ में से द्विनकला जा रहा था। उसका कुत्ता भौंककर हल्ला मचा रहा था। इसी बीच में जज ने कहा, 'हम तीन जरूिरयों से सहमत होते हुए यमुना को छोड़ देते हैं।'

एक हलचल मच गयी। मंगल और द्विनरंजन-जो अब तक दुक्षिzन्ता और स्नेह से कमरे से बाहर थ-ेयमुना के समीप आये। )ह रोने लगी। उसने मंगल से कहा, 'मैं नहीं चल सकती।' मंगल मन-ही-मन कट गया। द्विनरंजन उसे सान्त)ा देकर आश्रम तक ले आया

एक )कील साहब कहने लगे, 'क्यों जी, मैंने तो समझा था द्विक पागलपन भी एक दिदल्लगी है; यह तो प्राणों से भी खिखल)ाड़ है।'

दूसरे ने कहा, 'यह भी तो पागलपन है, जो पागल से भी बुझिर्द्धमानी की आशा तुम रखते हो!'

दोनों )कील मिमत्र हँसने लगे।

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पाठकों को कुतूहल होगा द्विक बाथम न अदालत में उपस्थिkत होकर क्यों नहीं इस हत्या पर प्रकाश डाला। परन्तु )ह नहीं चाहता था द्विक उस हत्या के अ)सर पर उसका रहना तथा उW घटना से उसका सम्पक� सब लोग जान लें। उसका हृदय घण्टी के भाग जाने से और भी लस्थिज्जत हो गया था। अब )ह अपने को इस सम्बन्ध में बदनाम होने से बचाना चाहता था। )ह प्रचारक बन गया था।

इधर आश्रम में लद्वितका, सरला, घण्टी और नन्दो के साथ यमुना भी रहने लगी, पर यमुना अमिधकतर कृष्णशरण की से)ा में रहती। उसकी दिदनचया� बड़ी द्विनयमिमत थी। )ह चाची से भी नहीं बोलती और द्विनरंजन उसके पास ही आने में संकुसिचत होता। भंडारीजी का तो साहस ही उसका सामना करने का न हुआ।

पाठक आzय� करेंगे द्विक घटना-सूत्र तथा सम्बन्ध में इतने समीप के मनुष्य एक होकर भी चुपचाप कैसे रहे

लद्वितका और घण्टी का मनोमासिलन्य न रहा, क्योंद्विक अब बाथम से दोनों का कोई सम्बन्ध न रहा। नन्दो चाची ने यमुना के साथ उपकार भी द्विकया था और अन्याय भी। यमुना के हृदय में मंगल के व्य)हार की इतनी तीव्रता थी द्विक उसके सामने और द्विकसी के अत्याचार प्रसु्फदिटत हो नहीं पाते। )ह अपने दुःख-सुख में द्विकसी को साझीदार बनाने की चेष्टा न करती, निन\रजन सोचता-मैं बैरागी हूँ। मेरे शरीर से सम्बन्ध रखने )ाले प्रत्येक परमाणुओं को मेरे दुष्कम� के ताप से दग्ध होना द्वि)धाता का अमोध द्वि)धान है, यदिद मैं कुछ भी कहती हूँ, तो मेरा दिठकाना नहीं, इससिलए जो हुआ, सो हुआ, अब इसमें चुप रह जाना ही अच्छा है। मंगल और यमुना आप ही अपना रहस्य खोलें, मुझे क्या पड़ी है।

इसी तरह से द्विनरंजन, नन्दो और मंगल का मौन भय यमुना के अदृश्य अन्धकार का सृजन कर रहा था। मंगल का सा)�जद्विनक उत्साह यमुना के सामने अपराधी हो रहा था। )ह अपने मन को सांत्)ना देता द्विक इसमें मेरा क्या अन्याय है-जब उपयुW अ)सर पर मैंने अपना अपराध स्)ीकार करना चाहा, तभी तो यमुना ने मुझे )र्जिज\त द्विकया तथा अपना और मेरा पथ क्षिभन्न-क्षिभन्न कर दिदया। इसके हृदय में द्वि)जय के प्रद्वित इतनी सहानुभूद्वित द्विक उसके सिलए फाँसी पर चढ़ना स्)ीकार! यमुना से अब मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। )ह उद्वि�ग्न हो उठता। सरला दूर से उसके उद्वि�ग्न मुख को देख रही थी। उसने पास आकर कहा, 'अहा, तुम इन दिदनों अमिधक परिरश्रम करते-करते थक गये हो।'

'नहीं माता, से)क को द्वि)श्राम कहाँ अभी तो आप लोगों के संघ-प्र)ेश का उत्स) जब तक समाप्त नहीं हो जाता, हमको छुट्टी कहाँ।' सरला के हृदय में स्नेह का संचार देखकर मंगल का हृदय भी म्पिस्नग्ध हो चला, उसको बहुत दिदनों पर इतने सहानुभूद्वितसूचक शब्द पुरस्कार में मिमले थे।

मंगल इधर लगातार कई दिदन धूप में परिरश्रम करता रहा। आज उसकी आँखें लाल हो रही थीं। दालान में पड़ी चौकी पर जाकर लेट रहा। ज्)र का आतंक उसके ऊपर छा गया था। )ह अपने मन में सोच रहा था द्विक बहुत दिदन हुए बीमार पडे़-काम करके रोगी हो जाना भी एक द्वि)श्राम है, चलो कुछ दिदन छुट्टी ही सही। द्विफर )ह सोचता द्विक मुझे बीमार होने की आ)श्यकता नहीं; एक घूँट पानी तक को कोई नहीं पूछेगा। न भाई, यह सुख दूर रहे। पर उसके अस्)ीकार करने से क्या सुख न आते उसे ज्)र आ ही गया, )ह एक कोने में पड़ा रहा।

द्विनरंजन उत्स) की तैयारी में व्यस्त था। मंगल के रोगी हो जाने से सबका छक्का छूट गया। कृष्णशरण जी ने कहा, 'तब तक संघ के लोगों के उपदेश के सिलए मैं राम-कथा कहूँगा और स)�साधारण के सिलए प्रदश�न तो जब मंगल स्)k होगा, द्विकया जायेगा।'

बहुत-से लोग बाहर से भी आ गये थे। संघ में बड़ी चहल-पहल थी; पर मंगल ज्)र में अचेत रहता। के)ल सरला उसे देखती थी। आज तीसरा दिदन था, ज्)र में तीव्र दाह था, अमिधक )ेदना से सिसर में पीड़ा थी; लद्वितका ने कुछ समय के सिलए छुट्टी देकर सरला को स्नान करने के सिलए भेज दिदया था। सबेरे की धूप जंगले के भीतर जा रही थी। उसके प्रकाश में मंगल की रWपूण� आँखें भीर्षण लाली से चमक उठतीं। मंगल ने कहा, 'गाला! लड़द्विकयों की पढ़ाई पर...'

लद्वितका पास बैठी थी। उसने समझ सिलया द्विक ज्)र की भीर्षणता में मंगल प्रलाप कर रहा है। )ह घबरा उठी। सरला इतने में स्नान करके आ चुकी थी। लद्वितका ने प्रलाप की सूचना दी। सरला उसे )हीं रहने के सिलए कहकर

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गोस्)ामीजी के पास गयी। उसने कहा, 'महाराज! मंगल का ज्)र भयानक हो गया है। )ह गाला का नाम लेकर चौंक उठता है।'

गोस्)ामीजी कुछ सिचन्तिन्तत हुए। कुछ द्वि)चारकर उन्होंने कहा, 'सरला, घबराने की कोई बात नहीं, मंगल शीघ्र अच्छा हो जायेगा। मैं गाला को बुल)ाता हूँ।'

गोस्)ामीजी की आज्ञा से एक छात्र उनका पत्र लेकर सीकरी गया। दूसरे दिदन गाला उसके साथ आ गयी। यमुना ने उसे देखा। )ह मंगल से दूर रहती। द्विफर भी न जाने क्यों उसका हृदय कचोट उठता; पर )ह लाचार थी।

गाला और सरला कमर कसकर मंगल की से)ा करने लगीं। )ैद्य ने देखकर कहा, 'अभी पाँच दिदन में यह ज्)र उतरेगा। बीच में सा)धानी की आ)श्यकता है। कुछ सिचन्ता नहीं।' यमुना सुन रही थी, )ह कुछ द्विनक्षिzन्त हुई।

इधर संघ में बहुत-से बाहरी मनुष्य भी आ गये थे। उन लोगों के सिलए गोस्)ामीजी राम-कथा कहने लगे थे।

आज मंगल के ज्)र का )ेग अत्यन्त भयानक था। गाला पास बैठी हुई मंगल के मुख पर पसीने की बँूदों को कपडे़ से पोंछ रही थी। बार-बार प्यास से मंगल का मुँह सूखता था। )ैद्यजी ने कहा था, 'आज की रात बीत जाने पर यह द्विनzय ही अच्छा हो जायेगा। गाला की आँखों में बेबसी और द्विनराशा नाच रही थी। सरला ने दूर से यह सब देखा। अभी रात आरम्भ हुई थी। अन्धकार ने संघ में लगे हुए द्वि)शाल )ृक्षों पर अपना दुग� बना सिलया था। सरला का मन व्यसिथत हो उठा। )ह धीरे-धीरे एक बार कृष्ण की प्रद्वितमा के सम्मुख आयी। उसने प्राथ�ना की। )ही सरला, झिजसने एक दिदन कहा था-भग)ान् के दुःख दान को आँचल पसारकर लँूगी-आज मंगल की प्राणक्षिभक्षा के सिलए आँचल पसारने लगी। यह )ंगाल का ग)� था, झिजसके पास कुछ बचा ही नहीं। )ह द्विकसकी रक्षा चाहती! सरला के पास तब क्या था, जो )ह भग)ान् के दुःख दान से द्विहचकती। हताश जी)न तो साहसिसक बन ही जाता है; परन्तु आज उसे कथा सुनकर द्वि)श्वास हो गया द्विक द्वि)पक्षित्त में भग)ान् सहायता के सिलए अ)तार लेते हैं, आते हैं भारतीयों के उर्द्धार के सिलए। आह, मान)-हृदय की स्नेह-दुब�लता द्विकतना महत्त्) रखती है। यही तो उसके यांद्वित्रक जी)न की ऐसी शसिW है। प्रद्वितमा द्विनzल रही, तब भी उसका हृदय आशापूण� था। )ह खोजने लगी-कोई मनुष्य मिमलता, कोई दे)ता अमृत-पात्र मेरे हाथों में रख जाता। मंगल! मंगल! कहती हुई )ह आश्रम के बाहर द्विनकल पड़ी। उसे द्वि)श्वास था द्विक कोई दै)ी सहायता मुझे अचानक अ)श्य मिमल जायेगी!

यदिद मंगल जी उठता तो गाला द्विकतना प्रसन्न होती-यही बड़बड़ाती हुई यमुना के तट की ओर बढ़ने लगी। अन्धकार में पथ दिदखाई न देता; पर )ह चली जा रही थी।

यमुना के पुसिलन में नैश अन्धकार द्विबखर रहा था। तारों की सुन्दर पंसिW झलमलाती हुई अनन्त में जैसे घूम रही थी। उनके आलोक में यमुना का स्थिkर गम्भीर प्र)ाह जैसे अपनी करुणा में डूब रहा था। सरला ने देखा-एक व्यसिW कम्बल ओढे़, यमुना की ओर मुँह द्विकये बैठा है; जैसे द्विकसी योगी की अचल समामिध लगी है।

सरला कहने लगी, 'हे यमुना माता! मंगल का कल्याण करो और उसे जीद्वि)त करके गाला को भी प्राणदान दो! माता, आज की रात बड़ी भयानक है-दुहाई भग)ान की।'

)ह बैठा हुआ कम्बल )ाला द्वि)चसिलत हो उठा। उसने बडे़ गम्भीर स्)र में पूछा, 'क्या मंगलदे) रुग्ण हैं?'

प्रार्सिथ\नी और व्याकुल सरला ने कहा, 'हाँ महाराज, यह द्विकसी का बच्चा है, उसके स्नेह का धन है, उसी की कल्याण-कामना कर रही हूँ।'

'और तुम्हारा नाम सरला है। तुम ईसाई के घर पहले रहती थीं न?' धीरे स्)र से प्रश्न हुआ।

'हाँ योद्विगराज! आप तो अन्तया�मी हैं।'

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उस व्यसिW ने टटोलकर कोई )स्तु द्विनकालकर सरला की ओर फें क दी। सरला ने देखा, )ह एक यंत्र है। उसने कहा, 'बड़ी दया महाराज! तो इसे ले जाकर बाँध दँूगी न

)ह द्विफर कुछ न बोला, जैसे समामिध लग गयी हो, सरला ने अमिधक छेड़ना उसिचत न समझा। मन-ही-मन नमस्कार करती हुई प्रसन्नता से आश्रम की ओर लौट पड़ी।

)ह अपनी कोठरी में आकर उस यंत्र के धागे को द्विपरोकर मंगल के प्रकोष्ठ के पास गयी। उसने सुना, कोई कह रहा है, 'बहन गाला, तुम थक गयी होगी, लाओ मैं कुछ सहायता कर दँू।'

उत्तर मिमला, 'नहीं यमुना बद्विहन! मैं तो अभी बैठी हुई हूँ, द्विफर आ)श्यकता होगी तो बुलाऊँगी।'

)ह स्त्री लौटकर द्विनकल गयी। सरला भीतर घुसी। उसने )ह यंत्र मंगल के गले में बाँध दिदया और मन-ही-मन भग)ान से प्राथ�ना की। )हीं बैठी रही। दोनों ने रात भर बडे़ यत्न से से)ा की।

प्रभात होने लगा। बडे़ सन्देह से सरला ने उस प्रभात के आलोक को देखा। दीप की ज्योद्वित मसिलन हो चली। रोगी इस समय द्विनदिद्रत था। जब प्रकाश उस कोठरी में घुस आया, तब गाला, सरला और मंगल तीनों नींद में सो रहे थे।

जब कथा समाप्त करके सब लोगों के चले जाने पर गोस्)ामीजी उठकर मंगलदे) के पास आये, तब गाला बैठी पंखा झल रही थी। उन्हें देखकर )ह संकोच से उठ खड़ी हुई। गोस्)ामीजी ने कहा, 'से)ा सबसे कदिठन व्रत है देद्वि)! तुम अपना काम करो। हाँ मंगल! तुम अब अचे्छ हो न!'

कम्पिम्पत कंठ से मंगल ने कहा, 'हाँ, गुरुदे)!'

'अब तुम्हारा अभ्युदय-काल है, घबराना मत।' कहकर गोस्)ामीजी चले गये।

दीपक जल गया। आज अभी तक सरला नहीं आयी। गाला को बैठे हुए बहुत द्वि)लम्ब हुआ। मंगल ने कहा, 'जाओ गाला, संध्या हुई; हाथ-मुँह तो धो लो, तुम्हारे इस अथक परिरश्रम से मैं कैसे उर्द्धार पाऊँगा।'

गाला लस्थिज्जत हुई। इतने सम्भ्रान्त मनुष्य और म्पिस्त्रयों के बीच आकर कानन-)ासिसनी ने लज्जा सीख ली थी। )ह अपने स्त्रीत्) का अनुभ) कर रही थी। उसके मुख पर द्वि)जय की मुस्कराहट थी। उसने कहा, 'अभी माँ जी नहीं आयीं, उन्हें बुला लाऊँ!' कहकर सरला को खोजने के सिलए )ह चली।

सरला मौलसिसरी के नीचे बैठी सोच रही थी-झिजन्हें लोग भग)ान कहते हैं, उन्हें भी माता की गोद से द्विन)ा�सिसत होना पड़ता है, दशरथ ने तो अपना अपराध समझकर प्राण-त्याग दिदया; परन्तु कौशल्या कठोर होकर जीती रही-जीती रही श्रीराम का मुख देखने के सिलए, क्या मेरा दिदन भी लौटेगा क्या मैं इसी से अब तक प्राण न दे सकी!

गाला ने सहसा आकर कहा, 'चसिलये।'

दोनो मंगल की कोठरी की ओर चलीं।

मंगल के गले के नीचे )ह यंत्र गड़ रहा था। उसने तद्विकया से खींचकर उसे बाहर द्विकया। मंगल ने देखा द्विक )ह उसी का पुराना यंत्र है। )ह आzय� से पसीने-पसीने हो गया। दीप के आलोक में उसे )ह देख ही रहा था द्विक सरला भीतर आयी। सरला को द्विबना देखे ही अपने कुतूहल में उसने प्रश्न द्विकया, 'यह मेरा यंत्र इतने दिदनों पर कौन लाकर पहना गया है, आzय� है!'

सरला ने उत्कण्ठा से पूछा, 'तुम्हारा यंत्र कैसा है बेटा! यह तो मैं एक साधू से लायी हूँ।'

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मंगल ने सरल आँखों से उसकी ओर देखकर कहा, 'माँ जी, यह मेरा ही यंत्र है, मैं इसे बाल्यकाल में पहना करता था। जब यह खो गया, तभी से दुःख पा रहा हूँ। आzय� है, इतने दिदनों पर यह आपको कैसे मिमल गया?'

सरला के धैय� का बाँध टूट पड़ा। उसने यंत्र को हाथ में लेकर देखा-)ही द्वित्रकोण यंत्र। )ह सिचल्ला उठी, 'मेरे खोये हुए द्विनमिध! मेरे लाल! यह दिदन देखना द्विकस पुण्य का फल है मेरे भग)ान!'

मंगल तो आzय� चद्विकत था। सब साहस बटोरकर उसने कहा, 'तो क्या सचमुच तुम्हीं मेरी माँ हो।'

तीनों के आनन्दाश्रु बाँध तोड़कर बहने लगे।

सरला ने गाला के सिसर पर हाथ फेरते हुए कहा, 'बेटी! तेरे भाग्य से आज मुझे मेरा खोया हुआ धन मिमल गया!'

गाला गड़ी जा रही थी।

मंगल एक आनन्दप्रद कुतूहल से पुलद्विकत हो उठा। उसने सरला के पैर पकड़कर कहा, 'मुझे तुमने क्यों छोड़ दिदया था माँ

उसकी भा)नाओं की सीमा न थी। कभी )ह जी)न-भर के द्विहसाब को बराबर हुआ समझता, कभी उसे भान होता द्विक आज के संसार में मेरा जी)न प्रारम्भ हुआ है।

सरला ने कहा, 'मैं द्विकतनी आशा में थी, यह तुम क्या जानोगे। तुमने तो अपनी माता के जीद्वि)त रहने की कल्पना भी न की होगी। पर भग)ान की दया पर मेरा द्वि)श्वास था और उसने मेरी लाज रख ली।'

गाला भी उस हर्ष� से )ंसिचत न रही। उसने भी बहुत दिदनों बाद अपनी हँसी को लौटाया। भण्डार में बैठी हुई नन्दो ने भी इस सम्)ाद को सुना, )ह चुपचाप रही। घण्टी भी स्तब्ध होकर अपनी माता के साथ उसके काम में हाथ बँटाने लगी।

(7)

आलोक-प्रार्सिथ\नी अपने कुटीर में दीपक बुझाकर बैठी रही। उसे आशा थी द्विक )ातायन और �ारों से रासिश-रासिश प्रभात का ध)ल आनन्द उसके प्रकोष्ठ में भर जायेगा; पर जब समय आया, द्विकरणें फूटी, तब उसने अपने )ातायनों, झरोखे और �ारों को रुर्द्ध कर दिदया। आँखें भी बन्द कर लीं। आलोक कहाँ से आये। )ह चुपचाप पड़ी थी। उसके जी)न की अनन्त रजनी उसके चारों ओर मिघरी थी।

लद्वितका ने जाकर �ार खटखटाया। उर्द्धार की आशा में आज संघ भर में उत्साह था। यमुना हँसने की चेष्टा करती हुई बाहर आयी। लद्वितका ने कहा, 'चलोगी बहन यमुना, स्नान करने

'चलँूगी बहन, धोती ले लँू।'

दोनों आश्रम से बाहर हुईं। चलते-चलते लद्वितका ने कहा, 'बद्विहन, सरला का दिदन भग)ान ने जैसे लौटाया, )ैसे सबका लौटे। अहा, पचीसों बरस पर द्विकसका लड़का लौटकर गोद में आया है।'

'सरला के धैय� का फल है बहन। परन्तु सबका दिदन लौटे, ऐसी तो भग)ान की रचना नहीं देखी जाती। बहुत का दिदन कभी न लौटने के सिलए चला जाता है। द्वि)शेर्षकर म्पिस्त्रयों का मेरी रानी। जब मैं म्पिस्त्रयों के ऊपर दया दिदखाने का

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उत्साह पुरुर्षों में देखती हूँ, तो जैसे कट जाती हूँ। ऐसा जान पड़ता है द्विक )ह सब कोलाहल, स्त्री-जाद्वित की लज्जा की मेघमाला है, उनकी असहाय परिरस्थिkद्वित का वं्यग्य-उपहास है।' यमुना ने कहा।

लद्वितका ने आzय� से आँखें बड़ी करते हुए कहा, 'सच कहती हो बहन! जहाँ स्)तन्त्रता नहीं है, )हाँ पराधीनता का आन्दोलन है; और जहाँ ये सब माने हुए द्विनयम हैं, )हाँ कौन सी अच्छी दशा है। यह झूठ है द्विक द्विकसी द्वि)शेर्ष समाज में म्पिस्त्रयों को कुछ द्वि)शेर्ष सुद्वि)धा है। हाय-हाय, पुरुर्ष यह नहीं जानते द्विक स्नेहमयी रमणी सुद्वि)धा नहीं चाहती, )ह हृदय चाहती है; पर मन इतना क्षिभन्न उपकरणों से बना हुआ है द्विक समझौते पर ही संसार के स्त्री-पुरुर्षों का व्य)हार चलता हुआ दिदखाई देता है। इसका समाधान करने के सिलए कोई द्विनयम या संस्कृद्वित असमथ� है।'

'मुझे ही देखो न, मैं ईसाई-समाज की स्)तन्त्रता में अपने को सुरक्षिक्षत समझती थी; पर भला मेरा धन रहा। तभी तो हम म्पिस्त्रयों के भाग्य में सिलखा है द्विक उड़कर भागते हुए पक्षी के पीछे चारा और पानी से भरा हुआ निप\जरा सिलए घूमती रहें।'

यमुना ने कहा, 'कोई समाज और धम� म्पिस्त्रयों का नहीं बहन! सब पुरुर्षों के हैं। सब हृदय को कुचलने )ाले कू्रर हैं। द्विफर भी समझती हूँ द्विक म्पिस्त्रयों का एक धम� है, )ह है आघात सहने की क्षमता रखना। दुदÍ) के द्वि)धान ने उनके सिलए यही पूण�ता बना दी है। यह उनकी रचना है।'

दूर पर नन्दो और घण्टी जाती हुई दिदखाई पड़ीं। लद्वितका, यमुना के साथ दोनों के पास जा पहुँची।

स्नान करते हुए घण्टी और लद्वितका एकत्र हो गयीं, और उसी तरह चाची और यमुना का एक जुटा) हुआ। यह आकस्विस्मक था। घण्टी ने अंजसिल में जल लेकर लद्वितका से कहा, 'बहन! मैं अपरामिधनी हूँ, मुझे क्षमा करोगी?'

लद्वितका ने कहा, 'बहन! हम लोगों का अपराध स्)यं दूर चला गया है। यह तो मैं जान गयी हूँ द्विक इसमें तुम्हारा कोई दोर्ष नहीं है। हम दोनों एक ही kान पर पहुँचने )ाली थीं; पर सम्भ)तः थककर दोनों ही लौट आयीं। कोई पहुँच जाता, तो �ेर्ष की सम्भा)ना थी, ऐसा ही तो संसार का द्विनयम है; पर अब तो हम दोनों एक-दूसरे को समझा सकती हैं, सन्तोर्ष कर सकती हैं।'

घण्टी ने कहा, 'दूसरा उपाय नहीं है बहन। तो तुम मुझे क्षमा कर दो। आज से मुझे बहन कहकर बुलाओगी न।'

लद्वितका ने कहा, 'नारी-हृदय गल-गलकर आँखों की राह से उसकी अंजसिल के यमुना-जल में मिमल रहा है।' )ह अपने को रोक न सकी, लद्वितका और घण्टी गले से लगकर रोने लगीं। लद्वितका ने कहा, 'आज से दुख में, सुख में हम लोग कभी साथ न छोड़ेंगी बहन! संसार में गला बाँधकर जी)न द्विबताऊँगी, यमुना साक्षी है।'

दूर यमुना और नन्दो चाची ने इस दृश्य को देखा। नन्दो का मन न जाने द्विकन भा)ों से भर गया। मानो जन्म-भर की कठोरता तीव्र भाप लगने से बरफ के समान गलने लगी हो। उसने यमुना से रोते हुए कहा, 'यमुना, नहीं-नहीं, बेटी तारा! मुझे भी क्षमा कर दे। मैंने जी)न भर बहुत सी बातें बुरी की हैं; पर जो कठोरता तेरे साथ हुई है, )ह नरक की आग से भी तीव्रदाह उत्पन्न कर रही है। बेटी! मैं मंगल को उसी समय पहचान गयी, जब उसने अंगरेज से मेरी घण्टी को छुड़ाया था; पर )ह न पहचान सका, उसे )े बातें भूल गयी थीं, द्वितस पर मेरे साथ मेरी बेटी थी, झिजसकी )ह कल्पना भी नहीं कर सकता था। )ह छसिलया मंगल आज दूसरी स्त्री से ब्याह करने की सुख लिच\ता में द्विनमग्न है। मैं जल उठती हूँ बेटी! मैं उसका सब भण्डा फोड़ देना चाहती थी; पर तुझे भी यहीं चुपचाप देखकर मैं कुछ न कर सकी। हाय रे पुरुर्ष!'

'नहीं चाची। अब )ह दिदन चाहे लौट आये, पर )ह हृदय कहाँ से आ)ेगा। मंगल को दुःख पहुँचाकर आघात दे सकँूगी, अपने सिलए सुख कहाँ से लाऊँगी। चाची। तुम मेरे दुःखों की साक्षी हो, मैंने के)ल एक अपराध द्विकया है-)ह यही द्विक पे्रम करते समय साक्षी को इकट्ठा नहीं करा सिलया था; पर द्विकया पे्रम। चाची यदिद उसका यही पुरस्कार है, तो मैं उसे स्)ीकार करती हूँ।' यमुना ने कहा।

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'पुरुर्ष द्विकतना बड़ा ढोंगी है बेटी। )ह हृदय के द्वि)रुर्द्ध ही तो जीभ से कहता है आzय� है, उसे सत्य कहकर सिचल्लाता है।' उते्तझिजत चाची ने कहा।

'पर मैं एक उत्कट अपराध की अक्षिभयुW हूँ चाची। आह, मेरा पन्द्रह दिदन का बच्चा। मैं द्विकतनी द्विनद�यी हूँ। मैं उसी का तो फल भोग रही हूँ। मुझे द्विकसी दूसरे ने ठोकर लगाई और मैंने दूसरे को ठुकराया। हाय! संसार अपराध करके इतना अपराध नहीं करता, झिजतना यह दूसरों को उपदेश देकर करता है। जो मंगल ने मुझसे द्विकया, )ही तो हृदय के टुकडे़ से, अपने से कर चुकी हूँ। मैंने सोचा था द्विक फाँसी पर चढ़कर उसका प्रायक्षिzत्त कर सँकूगी, पर डूबकर बची-फाँसी से बची। हाय रे कठोर नारी-जी)न!! न जाने मेरे लाल को क्या हुआ?'

यमुना, नहीं-अब उसे तारा कहना चाद्विहए-रो रही थी। उसकी आँखों में झिजतनी करुण कासिलमा थी, उतनी कासिलन्दी में कहाँ!

चाची ने उसकी अश्रुधारा पोंछते हुए कहा, 'बेटी! तुम्हारा लाल जीद्वि)त है, सुखी है!'

तारा सिचल्ला पड़ी, उसने कहा, 'सच कहती हो चाची?'

'सच तारा! )ह काशी के एक धनी श्रीचन्द्र और द्विकशोरी बहू का दत्तक पुत्र है; मैंने उसे )हाँ दिदया है। क्या इसके सिलए तुम मुझे इसके सिलए क्षमा करोगी बेटी?'

'तुमने मुझे झिजला सिलया, आह! मेरी चाची, तुम मेरी उस जन्म की माता हो, अब मैं सुखी हूँ।' )ह जैसे एक क्षण के सिलए पागल हो गयी थी। चाची के गले से सिलपटकर रो उठी। )ह रोना आनन्द का था।

चाची ने उसे सान्त्)ना दी। इधर घण्टी और लद्वितका भी पास आ रही थीं। तारा ने धीरे से कहा, 'मेरी द्वि)नती है, अभी इस बात को द्विकसी से न कहना-यह मेरा 'गुप्त धन' है।'

चाची ने कहा, 'यमुना साक्षी है।'

चारों के मुख पर प्रसन्नता थी। चारों ओर हृदय हल्का था। सब स्नान करके दूसरी बातें करती हुई आश्रम लौटीं। लद्वितका ने कहा, 'अपनी संपक्षित्त संघ को देती हूँ। )ह म्पिस्त्रयों की स्)यंसेद्वि)का की पाठशाला चला)े। मैं उसकी पहली छात्रा होऊँगी। और तुम घण्टी?'

घण्टी ने कहा, 'मैं भी। बहन, म्पिस्त्रयों को स्)यं घर-घर जाकर अपनी दुखिखया बहनों की से)ा करनी चाद्विहए। पुरुर्ष उन्हें उतनी ही सिशक्षा और ज्ञान देना चाहते हैं, झिजतना उनके स्)ाथ� में बाधक न हो। घरों के भीतर अन्धकार है, धम� के नाम पर ढोंग की पूजा है और शील तथा आचार के नाम पर रूदिढ़याँ हैं। बहनें अत्याचार के परदे में सिछपायी गयी हैं; उनकी से)ा करँूगी। धात्री, उपदेसिशका, धम�-प्रचारिरका, सहचारिरणी बनकर उनकी से)ा करँूगी।'

सब प्रसन्न मन से आश्रम में पहुँच गयीं। द्विनयत दिदन आ गया, आज उत्स) का द्वि)राट् आयोजन है। संघ के प्रांगण में द्वि)तान तना है। चारों ओर प्रकाश है। बहुत से दश�कों की भीड़ है।

गोस्)ामी जी, द्विनरंजन और मंगलदे) संघ की प्रद्वितमा के सामने बैठे हैं। एक ओर घण्टी, लद्वितका, गाला और सरला भी बैठी हैं। गोस्)ामी जी ने शान्त )ाणी में आज के उत्स) का उदे्दश्य समझाया और कहा, 'भारत, संघ के संगठन पर आप लोग दे)निन\रजन जी का व्याख्यान दत्तसिचत्त होकर सुनें।'

निन\रजन का व्याख्यान आरम्भ हुआ-

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'प्रत्येक समय में सम्पक्षित्त-अमिधकार और द्वि)द्या के क्षिभन्न देशों में जाद्वित, )ण� और ऊँच-नीच की सृमिष्ट की। जब आप लोग इसे ईश्वरकृत द्वि)भाग समझने लगते हैं, तब यह भूल जाते हैं द्विक इसमें ईश्वर का उतना सम्बन्ध नहीं, झिजतना उसकी द्वि)भूद्वितयों का। कुछ दिदनों तक उन द्वि)भूद्वितयों का अमिधकारी बने रहने पर मनुष्य के संसार भी )ैसे ही बन जाते हैं, )ह प्रमत्त हो जाता है। प्राकृद्वितक ईश्वरीय द्विनयम, द्वि)भूद्वितयों का दुरुपयोग देखकर द्वि)कास की चेष्टा करता है; यह कहलाती है उत्क्रान्तिन्त। उस समय केन्द्रीभूत, द्वि)भूद्वितयाँ मान-स्)ाथ� के बन्धनों को तोड़कर समस्त के भूत द्विहत द्विबखरना चाहती हैं। )ह समदश¶ भग)ान की क्रीड़ा है।

'भारत)र्ष� आज )ण� और जाद्वितयों के बन्धन में जकड़कर कष्ट पा रहा है और दूसरों को कष्ट दे रहा है। यद्यद्विप अन्य देशों में भी इस प्रकार के समूह बन गये हैं; परन्तु यहाँ इसका भीर्षण रूप है। यह महत्त्) का संस्कार अमिधक दिदनों तक प्रभुत्) भोगकर खोखला हो गया है। दूसरों की उन्नद्वित से उसे डाह होने लगा है। समाज अपना महत्त्) धारण करने की क्षमता तो खो चुका है, परन्तु व्यसिWयों का उन्नद्वित का दल बनकर सामूद्विहक रूप से द्वि)रोध करने लगा है। प्रत्येक व्यसिW अपनी छँूछी महत्ता पर इतराता हुआ दूसरे का नीचा-अपने से छोटा-समझता है, झिजससे सामाझिजक द्वि)र्षमता का द्वि)र्षमय प्रभा) फैल रहा है।

'अत्यन्त प्राचीनकाल में भी इस )ण�-द्वि)�ेर्ष-ब्रह्म-क्षतं्र-संघर्ष� का साक्षी रामायण है-

'उस )ण�-भेद के भयानक संघर्ष� का यह इद्वितहास जानकर भी द्विनत्य उसका पाठ करके भी भला हमारा देश कुछ समझता है नहीं, यह देश समझेगा भी नहीं। सज्जनो! )ण�-भेद, सामाझिजक जी)न का द्विक्रयात्मक द्वि)भाग है। यह जनता के कल्याण के सिलए बना; परन्तु �ेर्ष की सृमिष्ट में, दम्भ का मिमथ्या ग)� उत्पन्न करने में )ह अमिधक सहायक हुआ है। झिजस कल्याण-बुझिर्द्ध से इसका आरम्भ हुआ, )ह न रहा, गुण कमा�नुसार )ण� की स्थिkद्वित में नष्ट होकर आक्षिभजात्य के अक्षिभमान में परिरणत हो गयी, उसके व्यसिWगत परीक्षात्मक द्विन)ा�चन के सिलए, )ण� के शुर्द्ध )ग¶करण के सिलए )त�मान जाद्वित)ाद को मिमटाना होगा-बल, द्वि)द्या और द्वि)भ) की ऐसी सम्पक्षित्त द्विकस हाड़-मांस के पुतले के भीतर ज्)ालामुखी सी धधक उठेगी, कोई नहीं जानता। इससिलए )े व्यथ� के द्वि))ाद हटाकर, उस दिदव्य संस्कृद्वित-आय� मान) संस्कृद्वित-की से)ा में लगना चाद्विहए। भग)ान का स्मरण करके नारीजाद्वित पर अत्याचार करने से द्वि)रत हो शबरी के सदृश अछूत न समझो। स)�भूतद्विहतरत होकार भग)ान् के सिलए स)�स्) समप�ण करो, द्विनभ�य रहो।

'भग)ान् की द्वि)भूद्वितयों को समाज ने बाँट सिलया है, परन्तु जब मैं स्)ार्सिथ\यों को भग)ान् पर भी अपना अमिधकार जमाये देखता हूँ, तब मुझे हँसी आती है। और भी हँसी आती है-जब उस अमिधकार की घोर्षणा करके दूसरों को )े छोटा, नीच और पद्वितत ठहराते हैं। बहू-परिरचारिरणी जाबाला के पुत्र सत्यकाम को कुलपद्वित ने ब्राह्मण स्)ीकार द्विकया था; द्विकन्तु उत्पक्षित्त पतन और दुब�लताओं के व्यग्ंय से मैं घबराता नहीं। जो दोर्षपूण� आँखों में पद्वितत है, जो द्विनसग�-दुब�ल है, उन्हें अ)लम्ब देना भारत-संघ का उदे्दश्य है। इससिलए इन म्पिस्त्रयों को भारत-संघ पुनः लौटाते हुए बड़ा सन्तोर्ष होता है। इन लद्वितका दे)ी ने उनकी पूण�ता की सिशक्षा के साथ )े इस योग्य बनायी जायेंगी द्विक घरों में, पद� में दी)ारों के भीतर नारी-जाद्वित के सुख, स्)ास्थ्य और संयत स्)तन्त्रता की घोर्षणा करें, उन्हें सहायता पहुँचाए,ँ जी)न के अनुभ)ों से अ)गत करें। उनके उन्नद्वित, सहानुभूद्वित, द्विक्रयात्मक पे्ररणा का प्रकाश फैलाए।ँ हमारा देश इस सन्देश से-न)युग के सन्देश से-स्)ास्थ्य लाभ करे। इन आय� ललनाओं का उत्साह सफल हो, यही भग)ान् से प्राथ�ना है। अब आप मंगलदे) का व्याख्यान सुनेंगे, )े नारीजाद्वित के सम्मान पर कुछ कहेंगे।'

मंगलदे) ने कहना आरम्भ द्विकया-

'संसार मैं झिजतनी हलचल है, आन्दोलन हैं, )े सब मान)ता की पुकार हैं। जननी अपने झगड़ालू कुटुम्ब में मेल कराने के सिलए बुला रही है। उसके सिलए हमें प्रस्तुत होना है। हम अलग न खडे़ रहेंगे। यह समारोह उसी का समारम्भ है। इससिलए हमारे आन्दोलन व्यचे्छदक न हों।

'एक बार द्विफर स्मरण करना चाद्विहए द्विक लोक एक है, ठीक उसी प्रकार जैसे श्रीकृष्ण ने कहा-अक्षिभ)W च भूतेर्ष क्षिभWकमिम) च स्थिkत'-यह द्वि)भW होना कम� के सिलए है, चक्रप्र)त�न को द्विनयमिमत रखने के सिलए है। समाज से)ा यज्ञ को प्रगद्वितशील करने के सिलए है। जी)न व्यथ� न करने के सिलए, पाप की आयु, स्)ाथ� का बोझ न उठाने के सिलए हमें

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समाज के रचनात्मक काय� में भीतरी सुधार लाना चाद्विहए। यह ठीक है द्विक सुधार का काम प्रद्वितकूल स्थिkद्वित में प्रारम्भ में होता है। सुधार सौन्दय� का साधन है। सभ्यता सौन्दय� की झिजज्ञासा है। शारीरिरक और आलंकारिरक सौन्दय� प्राथमिमक है, चरम सौन्दय� मानसिसक सुधार का है। मानसिसक सुधारों में सामूद्विहक भा) काय� करते हैं। इसके सिलए श्रम-द्वि)भाग है। हम अपने कत�व्य को देखते हुए समाज की उन्नद्वित करें, परन्तु संघर्ष� को बचाते हुए। हम उन्नद्वित करते-करते भौद्वितक ऐश्वय� के टीले बन जायँ। हाँ, हमारी उन्नद्वित फल-फूल बेचने )ाले )ृक्षों की-सी हो, झिजनमें छाया मिमलें, द्वि)श्राम मिमले, शान्तिन्त मिमले।

'मैंने पहले कहा है द्विक समाज-सुधार भी हो और संघर्ष� से बचना भी चाद्विहए। बहुत से लोगों का यह द्वि)चार है द्विक सुधार और उन्नद्वित में संघर्ष� अद्विन)ाय� है; परन्तु संघर्ष� से बचने का उपाय है, )ह है-आत्म-द्विनरीक्षण। समाज के कामों में अद्वित)ाद से बचाने के सिलए यह उपयोगी हो सकता है। जहाँ समाज का शासन कठोरता से चलता है, )हाँ �ेर्ष और �न्� भी चलता है। शासन की उपयोद्विगता हम भूल जाते हैं, द्विफर शासन के)ल शासन के सिलए चलता रहता है। कहना नहीं होगा द्विक )त�मान द्विहन्दू जाद्वित और उसकी उपजाद्वितयाँ इसके उदाहरण हैं। सामाझिजक कठोर दण्डों से )ह सिछन्न-क्षिभन्न हो रही हैं, जज�र हो रही हैं। समाज के प्रमुख लोगों को इस भूल को सुधारना पडे़गा। व्य)kापक तन्त्रों की जननी, प्राचीन पंचायतें, न)ीन समस्याए ँसहानुभूद्वित के बदले �ेर्ष फैला रही हैं। उनके कठोर दण्ड से प्रद्वितनिह\सा का भा) जगता है। हम लोग भूल जाते हैं द्विक मान) स्)भा) दुब�लताओं से संगदिठत है।

'दुब�लता कहाँ से आती है? लोकाप)ाद से भयभीत होकर स्)भा) को पाप कहकर मान लेना एक प्राचीन रूदिढ़ है। समाज को सुरक्षिक्षत रखने के सिलए उससे संगठन में स्)ाभाद्वि)क मनो)ृक्षित्तयों की सत्ता स्)ीकार करनी होगी। सबके सिलए एक पथ देना होगा। समस्त प्राकृद्वितक आकांक्षाओं की पूर्तित\ आपके आदश� में होनी चाद्विहए। के)ल रास्ता बन्द है-कह देने से काम नहीं चलेगा। लोकाप)ाद संसार का एक भय है, एक महान् अत्याचार है। आप लोग जानते होंगे द्विक श्रीरामचन्द्र ने भी लोकाप)ाद के सामने सिसर झुका सिलया। 'लोकाप)ादी बल)ाल्येन त्यWाद्विह मैसिथली' और इसे पू)� काल के लोग मया�दा कहते हैं, उनका मया�दा पुरुर्षोत्तम नाम पड़ा। )ह धम� की मया�दा न थी, )स्तुतः समाज-शासन की मया�दा थी, झिजसे सम्राट ने स्)ीकार द्विकया और अत्याचार सहन द्विकया; परन्तु द्वि))ेकदृमिष्ट से द्वि)चारने पर देश, काल और समाज की संकीण� परिरमिधयों में पले हुए स)�साधारण द्विनयम-भंग अपराध या पाप कहकर न द्विगने जायें, क्योंद्विक प्रत्येक द्विनयम अपने पू)�)त¶ द्विनयम के बाधक होते हैं। या उनकी अपूण�ता को पूण� करने के सिलए बनते ही रहते हैं। सीता-द्विन)ा�सन एक इद्वितहास द्वि)शु्रत महान् सामाझिजक अत्याचार है, और ऐसा अत्याचार अपनी दुब�ल संद्विगनी म्पिस्त्रयों पर प्रत्येक जाद्वित के पुरुर्षों ने द्विकया है। द्विकसी-द्विकसी समाज में तो पाप के मूल में स्त्री का भी उल्लेख है और पुरुर्ष द्विनष्पाप है। यह भ्रांत मनो)ृक्षित्त अनेक सामाझिजक व्य)kाओं के भीतर काम कर रही है, रामायण भी के)ल राक्षस-)ध का इद्वितहास नहीं है, द्विकन्तु नारी-द्विनया�तन का सजी) इद्वितहास सिलखकर )ाल्मीद्विक ने म्पिस्त्रयों के अमिधकार की घोर्षणा की है। रामायण में समाज के दो दृमिष्टकोण हैं-द्विनन्दक और )ाल्मीद्विक के। दोनों द्विनध�न थ,े एक बड़ा भारी उपकार कर सकता था और दूसरा एक पीद्विड़त आय� ललना की से)ा कर सकता था। कहना न होगा द्विक उस युर्द्ध में कौन द्वि)जयी हुआ। सच्चे तपस्)ी ब्राह्मण )ाल्मीद्विक की द्वि)भूद्वित संसार में आज भी महान् है। आज भी उस द्विनन्दक को गाली मिमलती है। परन्तु देखिखये तो, आ)श्यकता पड़ने पर हम-आप और द्विनन्दकों से ऊँचे हो सकते हैं आज भी तो समाज )ैसे लोगों से भरा पड़ा है-जो स्)यं मसिलन रहने पर भी दूसरों की स्)च्छता को अपनी जीद्वि)का का साधन बनाये हुए हैं।

'हमें इन बुरे उपकरणों को दूर करना चाद्विहए। हम झिजतनी कदिठनता से दूसरों को दबाये रखेंगे, उतनी ही हमारी कदिठनता बढ़ती जायेगी। स्त्रीजाद्वित के प्रद्वित सम्मान करना सीखना चाद्विहए।

'हम लोगों को अपना हृदय-�ार और काय�के्षत्र द्वि)स्तृत करना चाद्विहए, मान) संस्कृद्वित के प्रचार के सिलए हम उत्तरदायी हैं। द्वि)क्रमादिदत्य, समुद्रगुप्त और हर्ष�)ध�न का रW हम है संसार भारत के संदेश की आशा में है, हम उन्हें देने के उपयुW बनें-यही मेरी प्राथ�ना है।'

आनन्द की करतल ध्)द्विन हुई। मंगलदे) बैठा। गोस्)ामी जी ने उठकर कहा, 'आज आप लोगों को एक और हर्ष�-समाचार सुनाऊँगा। सुनाऊँगा ही नहीं, आप लोग उस आनन्द के साक्षी होंगे। मेरे सिशष्य मंगलदे) का ब्रह्मचय� की समान्तिप्त करके गृहkाश्रम में प्र)ेश करने का शुभ मुहूत� भी आज ही का है। यह कानन-)ासिसनी गूजर बासिलका गाला

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अपने सत्साहस और दान से सीकरी में एक बासिलका-द्वि)द्यालय चला रही है। इसमें मंगलदे) और गाला दोनों का हाथ है। मैं इन दोनों पद्वि)त्र हाथों को एक बंधन में बाँधता हूँ, झिजसमें सम्पिम्मसिलत शसिW से ये लोग मान)-से)ा में अग्रसर हों और यह परिरणय समाज के सिलए आदश� हो!'

कोलाहल मच गया, सब लोग गाला को देखने के सिलए उत्सुक हुए। सलज्जा गाला गोस्)ामी जी के संकेत से उठकर सामने आयी। कृष्णशरण ने प्रद्वितमा से दो माला लेकर दोनों को पहना दीं।

गाला और मंगलदे) ने चौंककर देखा, 'पर उस भीड़ में कहने )ाला न दिदखाई पड़ा।'

भीड़ के पीछे कम्बल औढे़, एक घनी दाढ़ी-मूँछ )ाले यु)क का कन्धा पकड़कर तारा ने कहा, 'द्वि)जय बाबू! आप क्या प्राण देंगे। हदिटये यहाँ से, अभी यह घटना टटकी है।'

'नये, नहीं,' द्वि)जय ने घूमकर कहा, 'यमुना! प्राण तो बच ही गया; पर यह मनुष्य...' तारा ने बात काटकर कहा, 'बड़ा ढोंगी है, पाखण्डी है, यही न कहना चाहते हैं आप! होने दीझिजए, आप संसार-भर के ठेकेदार नहीं, चसिलए।'

तारा उसका हाथ पकड़कर अन्धकार की ओर ले चली।

(9)

द्विकशोरी सन्तुष्ट न हो सकी। कुछ दिदनों के सिलए )ह द्वि)जय को अ)श्य भूल गयी थी; पर मोहन को दत्तक ले लेने से उसको एकदम भूल जाना असम्भ) था। हाँ, उसकी स्मृद्वित और भी उज्ज्)ल हो चली। घर के एक-एक कोने उसकी कृद्वितयों से अंद्विकत थे। उन सबों ने मिमलकर द्विकशोरी की हँसी उड़ाना आरम्भ द्विकया। एकांत में द्वि)जय का नाम लेकर )ह रो उठती। उस समय उसके द्वि))ण� मुख को देखकर मोहन भी भयभीत हो जाता। धीरे-धीरे मोहन के प्यार की माया अपना हाथ द्विकशोरी की ओर से खींचने लगी। द्विकशोरी कटकटा उठती, पर उपाय क्या था, द्विनत्य मनो)ेदना से पीद्विड़त होकर उसने रोग का आश्रय सिलया, और्षमिध होती थी रोग की, पर मन तो )ैसे ही अस्)k था। ज्)र ने उसके जज�र शरीर में डेरा डाल दिदया। द्वि)जय को भूलने की चेष्टा की थी। द्विकसी सीमा तक )ह सफल भी हुई; पर )ह धोखा अमिधक दिदन तक नहीं चल सका।

मनुष्य दूसरे को धोखा दे सकता है, क्योंद्विक उससे सम्बन्ध कुछ ही समय के सिलए होता है; पर अपने से, द्विनत्य सहचर से, जो घर का सब कोना जानता है कब तक सिछपेगा द्विकशोरी सिचर-रोद्विगणी हुई। एक दिदन उसे एक पत्र मिमला। )ह खाट पर पड़ी हुई अपने रूखे हाथों से उसे खोलकर पढ़ने लगी-

'द्विकशोरी,

संसार इतना कठोर है द्विक )ह क्षमा करना नहीं जानता और उसका सबसे बड़ा दंड है 'आत्म दश�न!' अपनी दुब�लता जब अपराधी की स्मृद्वित बनकर डंक मारती है, तब उसे द्विकतना उत्पीड़ामय होना पड़ता है। उसे तुम्हें क्या समझाऊँ, मेरा अनुमान है द्विक तुम भी उसे भोगकर जान सकी हो।

मनुष्य के पास तक� के समथ�न का अस्त्र है; पर कठोर सत्य अलग खड़ा उसकी द्वि)�त्तापूण� मूख�ता पर मुस्करा देता है। यह हँसी शूल-सी भयानक, ज्)ाला से भी अमिधक झुलसाने )ाली होती है।

मेरा इद्वितहास...मैं सिलखना नहीं चाहता। जी)न की कौन-सी घटना प्रधान है और बाकी सब पीछे-पीछे चलने )ाली अनुचरी है बुझिर्द्ध बराबर उसे चेतना की लम्बी पंसिW में पहचानने में असमथ� है। कौन जानता है द्विक ईश्वर को खोजते-खोजते कब द्विपशाच मिमल जाता है।

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जगत् की एक जदिटल समस्या है-स्त्री पुरुर्ष का म्पिस्नग्ध मिमलन, यदिद तुम और श्रीचन्द्र एक मन-प्राण होकर द्विनभा सकते द्विकन्तु यह असम्भ) था। इसके सिलए समाज ने क्षिभन्न-क्षिभन्न समय और देशों में अनेक प्रकार की परीक्षाए ँकीं, द्विकन्तु )ह सफल न हो सका। रुसिच मान)-प्रकृद्वित, इतनी द्वि)क्षिभन्न है द्विक )ैसा युग्म-मिमलन द्वि)रला होता है। मेरा द्वि)श्वास है द्विक कदाद्विप न सफल होगा। स्)तन्त्र चुना), स्)यंबरा, यह सब सहायता नहीं दे सकते। इसका उपाय एकमात्र समझौता है, )ही ब्याह है; परन्तु तुम लोग उसे द्वि)फल बना ही रहे थ ेद्विक मैं बीच में कूद पड़ा। मैं कहूँगा द्विक तुम लोग उसे व्यथ� करना चाहते थे।

द्विकशोरी! इतना तो द्विनस्सन्देह है द्विक मैं तुमको द्विपशाच मिमला, तुम्हारे आनन्दमय जी)न को नष्ट कर देने )ाला, भारत)र्ष� का एक साधु नामधारी हो-यह द्विकतनी लज्जा की बात है। मेरे पास शास्त्रों का तक� था, मैंने अपने कामों का समथ�न द्विकया; पर तुम थीं असहाय अबला! आह, मैंने क्या द्विकया?

और सबसे भयानक बात तो यह है द्विक मैं तो अपने द्वि)चारों में पद्वि)त्र था। पद्वि)त्र होने के सिलए मेरे पास एक सिसर्द्धान्त था। मैं समझता था द्विक धम� से, ईश्वर से के)ल हृदय का सम्बन्ध है; कुछ क्षणों तक उसकी मानसिसक उपासना कर लेने से )ह मिमल जाता है। इझिन्द्रयों से, )ासनाओं से उनका कोई सम्बन्ध नहीं; परन्तु हृदय तो इन्हीं सं)ेदनाओं से सुसंगदिठत है। द्विकशोरी, तुम भी मेरे ही पथ पर चलती रही हो; पर रोगी शरीर में स्)k हृदय कहाँ से आ)ेगा काली करतूतों से भग)ान् का उज्ज्)ल रूप कौन देख सकेगा?

तुमको स्मरण होगा द्विक मैंने एक दिदन यमुना नाम की दासी को तुम्हारे यहाँ दे)गृह में जाने के सिलए रोक दिदया था, उसे द्विबना जाने-समझे अपरामिधनी मानकर! )ाह रे दम्भ!

मैं सोचता हूँ द्विक अपराध करने में भी मैं उतना पद्वितत नहीं था, झिजतना दूसरों को द्विबना जाने-समझे छोटा, नीच, अपराधी मान लेने में। पुण्य का सैकड़ों मन का धातु-द्विनर्मिम\त घण्टा बजाकर जो लोग अपनी ओर संसार का ध्यान आकर्तिर्ष\त कर सकते हैं, )े यह नहीं जानते द्विक बहुत समीप अपने हृदय तक )ह भीर्षण शब्द नहीं पहुँचता।

द्विकशोरी! मैंने खोजकर देखा द्विक मैंने झिजसको सबसे बड़ा अपराधी समझा था, )ही सबसे अमिधक पद्वि)त्र है। )ही यमुना-तुम्हारी दासी! तुम जानती होगी द्विक तुम्हारे अन्न से पलने के कारण, द्वि)जय के सिलए फाँसी पर चढ़ने जा रही थी, और मैं-झिजसे द्वि)जय का ममत्) था, दूर-दूर खड़ा धन-सहायता करना चाहता था।

भग)ान् ने यमुना को भी बचाया, यद्यद्विप द्वि)जय का पता नहीं। हाँ, एक बात और सुनोगी, मैं आज इसे स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। हर�ार )ाली द्वि)ध)ा रामा को तुम न भूली होगी, )ह तारा (यमुना) उसी के गभ� से उत्पन्न हुई है। मैंने उसकी सहायता करनी चाही और लगा द्विक द्विनकट भद्वि)ष्य में उसकी सांसारिरक स्थिkद्वित सुधार दँू। इससिलए मैं भारत संघ में लगा, सा)�जद्विनक कामों में सहयोग करने लगा; परन्तु कहना न होगा द्विक इसमें मैंने बड़ा ढोंग पाया। गम्भीर मुद्रा का अक्षिभनय करके अनेक रूपों में उन्हीं व्यसिWगत दुराचारों को सिछपाना पड़ता है, सामूद्विहक रूप से )ही मनो)ृक्षित्त काम करती हुई दिदखायी पड़ती है। संघों में, समाजों में मेरी श्रर्द्धा न रही। मैं द्वि)श्वास करने लगा उस श्रुद्वित)ाणी में द्विक दे)ता जो अप्रत्यक्ष है, मान)-बुझिर्द्ध से दूर ऊपर है, सत्य है और मनुष्य अनृत है। चेष्टा करके भी उस सत्य को प्राप्त करेगा। उस मनुष्य को मैं कई जन्मों तक के)ल नमस्कार करके अपने को कृतकृत्य समझँूगा। उस मेरे संघ में लगने का मूल कारण )ही यमुना थी। के)ल धमा�चरण ही न था, इसे स्)ीकार करने में कोई संकोच नहीं; परन्तु )ह द्वि)जय के समान ही तो उचंृ्छखल है, )ह अक्षिभमानी चली गयी। मैं सोचता हूँ द्विक मैंने अपने दोनों को खो दिदया। 'अपने दोंनो पर'-तुम हँसोगी, द्विकन्तु )े चाहे मेरे न हों, तब भी मुझे शंका हो रही है द्विक तारा की माता से मेरा अ)ैध सम्बन्ध अपने को अलग नहीं रख सकता।

मैंने भग)ान् की ओर से मुँह मोड़कर मिमट्टी के खिखलौने में मन लगाया था। )े ही मेरी ओर देखकर, मुस्कुराते हुए त्याग का परिरचय देकर चले गये और मैं कुछ टुकड़ों को, चीथड़ों को सम्हालने-सुलझाने में व्यस्त बैठा रहा।

द्विकशोरी! सुना है द्विक सब छीन लेते हैं भग)ान् मनुष्य से, ठीक उसी प्रकार जैसे द्विपता खिखल)ाड़ी लड़के के हाथ से खिखलौना! झिजससे )ह पढ़ने-सिलखने में मन लगाये। मैं अब यही समझता हूँ द्विक यह परमद्विपता का मेरी ओर संकेत है।

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हो या न हो, पर मैं जानता हूँ द्विक उसमें क्षमा की क्षमता है, मेरे हृदय की प्यास-ओफ! द्विकतनी भीर्षण है-)ह अनन्त तृष्णा! संसार के द्विकतने ही कीचड़ों पर लहराने )ाली जल की पतली तहों में शूकरों की तरह लोट चुकी है! पर लोहार की तपाई हुई छुरी जैसे सान रखने के सिलए बुझाई जाती हो, )ैसे ही मेरी प्यास बुझकर भी तीखी होती गयी।

जो लोग पुनज�न्म मानते हैं, जो लोग भग)ान् को मानते हैं, )े पाप कर सकते हैं? नहीं, पर मैं देखता हूँ द्विक इन पर लम्बी-चौड़ी बातें करने )ाले भी इससे मुW नहीं। मैं द्विकतने जन्म लँूगा इस प्यास के सिलए, मैं नहीं कह सकता। न भी लेना पड़ा, नहीं जानता! पर मैं द्वि)श्वास करने लगा हूँ द्विक भग)ान् में क्षमा की क्षमता है।

मम�व्यथा से व्याकुल होकर गोस्)ामी कृष्णशरण से जब मैंने अपना सब समाचार सुनाया, तो उन्होंने बहुत देर तक चुप रहकर यही कहा-द्विनरंजन, भग)ान क्षमा करते हैं। मनुष्य भूलें करता है, इसका रहस्य है मनुष्य का परिरमिमत ज्ञानाभास। सत्य इतना द्वि)राट् है द्विक हम कु्षद्र जी) व्या)हारिरक रूप से उसे सम्पूण� ग्रहण करने में प्रायः असमथ� प्रमाक्षिणत होते हैं। झिजन्हें हम परम्परागत संस्कारों के प्रकाश में कलंकमय देखते हैं, )े ही शुर्द्ध ज्ञान में यदिद सत्य ठहरें, तो मुझे आzय� न होगा। तब भी मैं क्या करँू यमुना के सहसा संघ से चले जाने पर नन्दो ने मुझसे कहा द्विक यमुना का मंगल से ब्याह होने )ाला था। हर�ार में मंगल ने उसके साथ द्वि)श्वासघात करके उसे छोड़ दिदया। आज भला जब )ही मंगल एक दूसरी औरत से ब्याह कर रहा है, तब )ह क्यों न चली जाती मैं यमुना की दुद�शा सुनकर काँप गया। मैं ही मंगल का दूसरा ब्याह कराने )ाला हूँ। आह! मंगल का समाचार तो नन्दो ने सुना ही था, अब तुम्हारी भी कथा सुनकर मैं तो शंका करने लगा हूँ द्विक अद्विनच्छापू)�क भी भारत-संघ की kापना में सहायक बनकर मैंने क्या द्विकया-पुण्य या पाप प्राचीनकाल के इतने बडे़-बडे़ संगठनों में जड़ता की दुब�लता घुस गयी! द्विफर यह प्रयास द्विकतने बल पर है )ाह रे मनुष्य! तेरे द्वि)चार द्विकतने द्विनस्सबल हैं, द्विकतने दुब�ल हैं! मैं भी जानता हूँ इसी को द्वि)चारने )ाली एकान्त में! और तुमसे मैं के)ल यही कहूँगा द्विक भग)ान् पर द्वि)श्वास और पे्रम की मात्रा बढ़ाती रहो।

द्विकशोरी! न्याय और दण्ड देने का ढकोसला तो मनुष्य भी कर सकता है; पर क्षमा में भग)ान् की शसिW है। उसकी सत्ता है, महत्ता है, सम्भ) है द्विक इसीसिलए सबसे क्षमा के सिलए यह महाप्रलय करता हो।

तो द्विकशोरी! उसी महाप्रलय की आशा में मैं भी द्विकसी द्विनज�न कोने में जाता हूँ, बस-बस!'

पत्र पढ़कर द्विकशोरी ने रख दिदया। उसके दुब�ल श्वास उते्तझिजत हो उठे, )ह फूट-फूटकर रोने लगी।

गरमी के दिदन थे। दस ही बजे प)न में ताप हो चला था। श्रीचन्द्र ने आकर कहा, पंखा खींचने के सिलए दासी मिमल गयी है, यहीं रहेगी, के)ल खाना-कपड़ा लेगी।

पीछे खड़ी दो करुण आँखें घूँघट में झाँक रही थीं।

श्रीचन्द्र चले गये। दासी आयी, पास आकर द्विकशोरी की खाट पकड़कर बैठ गयी। द्विकशोरी ने आँसू पोंछते हुए उसकी ओर देखा-यमुना तारा थी।

(10)

बरसात के प्रारस्विम्भक दिदन थे। संध्या होने में द्वि)लंब था। दशाश्वमेध घाट )ाली चंुगी-चौकी से सटा हुआ जो पीपल का )ृक्ष है, उसके नीचे द्विकतने ही मनुष्य कहलाने )ाले प्राक्षिणयों का दिठकाना है। पुण्य-स्नान करने )ाली बुदिढ़यों की बाँस की डाली में से द्विनकलकर चार-चार चा)ल सबों के फटे आँचल में पड़ जाते हैं, उनसे द्विकतनों के द्वि)कृत अंग की पुमिष्ट होती है। काशी में बडे़-बडे़ अनाथालय, बडे़-बडे़ अन्नसत्र हैं और उनके संचालक स्)ग� में जाने )ाली आकाश-कुसुमों की सीढ़ी की कल्पना छाती फुलाकर करते हैं; पर इन्हें तो झुकी हुई कमर, झुर्रिर\यों से भरे हाथों )ाली रामनामी ओढे़ हुए अन्नपूणा� की प्रद्वितमाए ँही दो दाने दे देती हैं।

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दो मोटी ईंटों पर खपड़ा रखकर इन्हीं दानों को भूनती हुई, कूडे़ की ईंधन से द्विकतनी कु्षधा-ज्)ालाए ँद्विन)ृत्त होती हैं। यह एक दश�नीय दृश्य है। सामने नाई अपने टाट द्विबछाकर बाल बनाने में लगे हैं, )े पीपल की जड़ से दिटके हुए दे)ता के परमभW हैं, स्नान करके अपनी कमाई के फल-फूल उन्हीं पर चढ़ाते हैं। )े नग्न-भग्न दे)ता, भूखे-प्यासे जीद्वि)त दे)ता, क्या पूजा के अमिधकारी नहीं उन्हीं में फटे कम्बल पर ईंट का तद्विकया लगाये द्वि)जय भी पड़ा है। अब उसके पहचाने जाने की तद्विनक भी संभा)ना नहीं। छाती तक हद्विCयों का ढाँचा और निप\डसिलयों पर सूजन की सिचकनाई, बालों के घनेपन में बड़ी-बड़ी आँखें और उन्हें बाँधे हुए एक चीथड़ा, इन सबों ने मिमलकर द्वि)जय को-'नये' को-सिछपा सिलया था। )ह ऊपर लटकती हुए पीपल की पक्षित्तयों का द्विहलना देख रहा था। )ह चुप था। दूसरे अपने सायंकाल के भोजन के सिलए व्यग्र थे।

अँधेरा हो चला, राद्वित्र आयी, द्विकतनों के द्वि)भ)-द्वि)कास पर चाँदनी तानने और द्विकतनों के अन्धकार में अपनी वं्यग्य की हँसी सिछड़कने! द्वि)जय द्विनष्चेष्ट था। उसका भालू उसके पास घूमकर आया, उसने दुलार द्विकया। द्वि)जय के मुँह पर हँसी आयी, उसने धीरे से हाथ उठाकर उसके सिसर पर रख पूछा, 'भालू! तुम्हें कुछ खाने को मिमला?' भालू ने जँभाई लेकर जीभ से अपना मुँह पोंछा, द्विफर बगल में सो रहा। दोनों मिमत्र द्विनzेष्ट सोने का अक्षिभनय करने लगे।

एक भारी गठरी सिलए दूसरा क्षिभखमंगा आकर उसी जगह सोये हुए द्वि)जय को घूरने लगा। अन्धकार में उसकी तीव्रता देखी न गयी; पर )ह बोल उठा, 'क्यों बे बदमाश! मेरी जगह तूने लम्बी तानी है मारँू डण्डे से, तेरी खोपड़ी फूट जाय!'

उसने डण्डा ताना ही था द्विक भालू झपट पड़ा। द्वि)जय ने द्वि)कृत कण्ठ से कहा, 'भालू! जाने दो, यह मथुरा का थानेदार है, घूस लेने के अपराध में जेल काटकर आया है, यहाँ भी तुम्हारा चालान कर देगा तब?'

भालू लौट पड़ा और नया क्षिभखमंगा एक बार चौंक उठा, 'कौन है रे?' कहता )हाँ से खिखसक गया। द्वि)जय द्विफर द्विनक्षिzन्त हो गया। उसे नींद आने लगी। पैरों में सूजन थी, पीड़ा थी, अनाहार से )ह दुब�ल था।

एक घण्टा बीता न होगा द्विक एक स्त्री आयी, उसने कहा, 'भाई!' 'बहन!' कहकर द्वि)जय उठ बैठा। उस स्त्री ने कुछ रोदिटयाँ उसके हाथ पर रख दीं। द्वि)जय खाने लगा। स्त्री ने कहा, 'मेरी नौकरी लग गयी भाई! अब तुम भूखे न रहोगे।'

'कहाँ बहन दूसरी रोटी समाप्त करते हुए द्वि)जय ने पूछा।

'श्रीचन्द्र के यहाँ।'

द्वि)जय के हाथ से रोटी द्विगर पड़ी। उसने कहा, 'तुमने आज मेरे साथ बड़ा अन्याय द्विकया बहन!'

'क्षमा करो भाई! तुम्हारी माँ मरण-सेज पर है, तुम उन्हें एक बार देखोगे?'

द्वि)जय चुप था। उसके सामने ब्रह्मांड घूमने लगा। उसने कहा, 'माँ मरण-सेज पर! देखँूगा यमुना परन्तु तुमने...!'

'मैं दुब�ल हूँ भाई! नारी-हृदय दुब�ल है, मैं अपने को रोक न सकी। मुझे नौकरी दूसरी जगह मिमल सकती थी; पर तुम न जानते होगे द्विक श्रीचन्द्र का दत्तक पुत्र मोहन का मेरी कोख से जन्म हुआ है।'

'क्या?'

'हाँ भाई! तुम्हारी बहन यमुना का रW है, उसकी कथा द्विफर सुनाऊँगी।'

'बहन! तुमने मुझे बचा सिलया। अब मैं मोहन की रोटी सुख से खा सकँूगा।

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पर माँ मरण-सेज पर... तो मैं चलँू, कोई घुसने न दे तब!'

'नहीं भाई! इस समय श्रीचन्द्र बहुत-सा दान-कम� करा रहे हैं, हम तुम भी तो क्षिभखमंगे ठहरे-चलो न!'

टीन के पात्र में जल पीकर द्वि)जय उठ खड़ा हुआ। दोनों चले। द्विकतनी ही गसिलयाँ पार कर द्वि)जय और यमुना श्रीचन्द्र के घर पहुँचे। खुले दालान में द्विकशोरी सिलटाई गयी थी। दान के सामान द्विबखरे थे। श्रीचन्द्र मोहन को लेकर दूसरे कमरों में जाते हुए बोले, 'यमुना! देखो, इसे भी कुछ दिदला दो। मेरा सिचत्त घबरा रहा है, मोहन को लेकर इधर हूँ; बुला लेना।'

और दो-तीन दासिसयाँ थीं। यमुना ने उन्हें हटने का संकेत द्विकया। उन सबने समझा-कोई महात्मा आशी)ा�द देने आया है, )े हट गयीं। द्वि)जय द्विकशोरी के पैरों के पास बैठ गया। यमुना ने उसके कानों में कहा, 'भैया आये हैं।'

द्विकशोरी ने आँखें खोल दीं। द्वि)जय ने पैरों पर सिसर रख दिदया। द्विकशोरी के अंग सब द्विहलते न थे। )ह कुछ बोलना चाहती थी; पर आँखों से आँसू बहने लगे। द्वि)जय ने अपने मसिलन हाथों से उन्हें पोंछा। एक बार द्विकशोरी ने उसे देखा, आँखों ने अमिधक बल देकर देखा; पर )े आँखें खुली रह गयीं। द्वि)जय द्विफर पैरों पर सिसर रखकर उठ खड़ा हुआ। उसने मन-ही-मन कहा-मेरे इस दुःखमय शरीर को जन्म देने )ाली दुखिखया जननी! तुमसे उऋण नहीं हो सकता!

)ह जब बाहर जा रहा था, यमुना रो पड़ी, सब दौड़ आये।

इस घटना को बहुत दिदन बीत गये। द्वि)जय )हीं पड़ा रहता था। यमुना द्विनत्य उसे रोटी दे जाती, )ह द्विनर्ति)\कार भा) से उसे ग्रहण करता।

एक दिदन प्रभात में जब उर्षा की लाली गंगा के )क्ष पर खिखलने लगी थी, द्वि)जय ने आँखें खोलीं। धीरे से अपने पास से एक पत्र द्विनकालकर )ह पढ़ने लगा-')ह द्वि)जय के समान ही उचंृ्छखल है।... अपने दोनों पर तुम हँसोगी। द्विकन्तु )े चाहे मेरे न हों, तब भी मुझे ऐसी शंका हो रही है द्विक तारा (तुम्हारी यमुना) की माता रामा से मेरा अ)ैध सम्बन्ध अपने को अलग नहीं रख सकता।'

पढ़ते-पढ़ते द्वि)जय की आँखों में आँसू आ गये। उसने पत्र फाड़कर टुकडे़-टुकडे़ कर डाला। तब भी न मिमटा, उज्ज्)ल अक्षरों से सूय� की द्विकरणों में आकाश-पट पर )ह भयानक सत्य चमकने लगा।

उसकी धड़कन बढ़ गयी, )ह द्वितलमिमलाकर देखने लगा। अन्तिन्तम साँस में कोई आँसू बहाने )ाला न था, )ह देखकर उसे प्रसन्नता हुई। उसने मन-ही-मन कहा-इस अन्तिन्तम घड़ी में हे भग)ान्! मैं तुमको स्मरण करता हूँ; आज तक कभी नहीं द्विकया था, तब भी तुमने मुझे द्विकतना बचाया, द्विकतनी रक्षा की! हे मेरे दे)! मेरा नमस्कार ग्रहण करो, इस नास्विस्तक का समप�ण स्)ीकार करो! अनाथों के दे)! तुम्हारी जय हो!

उसी क्षण उसके हृदय की गद्वित बन्द हो गयी।

आठ बजे भारत-संघ का प्रदश�न द्विनकलने )ाला था। दशाश्वमेध घाट पर उसका प्रचार होगा। सब जगह बड़ी भीड़ है। आगे म्पिस्त्रयों का दल था, जो बड़ा ही करुण संगीत गाता जा रहा था, पीछे कुछ स्)यंसेद्वि)यों की श्रेणी थी। म्पिस्त्रयों के आगे घण्टी और लद्वितका थीं। जहाँ से दशाश्वमेध के दो माग� अलग हुए हैं, )हाँ आकर )े लोग अलग-अलग होकर प्रचार करने लगे। घण्टी उस क्षिभखमंगों )ाले पीपल के पास खड़ी होकर बोल रही थी। उसके मुख पर शान्तिन्त थी, )ाणी में म्पिस्नग्धता थी। )ह कह रही थी, 'संसार को इतनी आ)श्यकता द्विकसी अन्य )स्तु की नहीं, झिजतनी से)ा की। देखो-द्विकतने अनाथ यहाँ अन्न, )स्त्र द्वि)हीन, द्विबना द्विकसी और्षमिध-उपचार के मर रहे हैं। हे पुण्यार्सिथ\यो! इन्हें ना भूलो, भग)ान अक्षिभनय करके इसमें पडे़ हैं, )ह तुम्हारी परीक्षा ले रहे हैं। इतने ईश्वर के मंदिदर नष्ट हो रहे हैं धार्मिम\को। अब भी चेतो!'

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सहसा उसकी )ाणी बंद हो गयी। उसने स्थिkर दृमिष्ट से एक पडे़ हुए कंगले को देखा, )ह बोल उठी, 'देखो )ह बेचारा अनाहार-से मर गया-सा मालूम पड़ता है। इसका संस्कार...'

'हो जायेगा। हो जायेगा। आप इसकी सिचन्ता न कीझिजये, अपनी अमृत)ाणी बरसाइये।' जनता में कोलाहल होने चला; द्विकन्तु )ह आगे बढ़ी; भीड़ भी उधर ही जाने लगी। पीपल के पास सन्नाटा हो चला।

मोहन अपनी धाय के संग मेला देखने आया था। )ह मान-मझिन्दर )ाली गली के कोने पर खड़ा था। उसने धाय से कहा, 'दाई, मुझे )हाँ ले चलकर मेला दिदखाओ, चलो, मेरी अच्छी दाई।'

यमुना ने कहा, 'मेरे लाल! बड़ी भीड़ है, )हाँ क्या है जो देखोगे?'

मोहन ने कहा, 'द्विफर हम तुमको पीटेंगे।'

'तब तुम पाजी लड़के बन जाओगे, जो देखेगा )ही कहेगा द्विक यह लड़का अपनी दाई को पीटता है।' चुम्बन लेकर यमुना ने हँसते हुए कहा।

अकस्मात् उसकी दृमिष्ट द्वि)जय के श) पर पड़ी। )ह घबराई द्विक क्या करे। पास ही श्रीचन्द्र भी टहल रहे थे। उसने मोहन का उनके पास पहुँचाते हुए हाथ जोड़कर कहा, 'बाबूजी, मुझे दस रुपये दीझिजये।'

श्रीचन्द्र ने कहा, 'पगली क्या करेगी

)ह दौड़ी हुई द्वि)जय के पास गयी। उसने खडे़ होकर उसे देखा, द्विफर पास बैठकर देखा। दोनों आँखो से आँसू की धारा बह चली।

यमुना दूर खडे़ श्रीचन्द्र के पास आयी। बोली, 'बाबूजी, मेरे )ेतन में से काट लेना, इसी समय दीझिजये, मैं जन्म-भर यह ऋण भरँूगी।'

'है क्या, मैं भी सुनँू।' श्रीचन्द्र ने कहा।

'मेरा एक भाई था, यहीं भीख माँगता था बाबू। आज मरा पड़ा है, उसका संस्कार तो करा दँू।'

)ह रो रही थी। मोहन ने कहा, 'दाई रोती है बाबूजी, और तुम दस ठो रुपये नहीं देते।'

श्रीचन्द्र ने दस का नोट द्विनकालकर दिदया। यमुना प्रसन्नता से बोली, 'मेरी भी आयु लेकर झिजयो मेरे लाल।'

)ह श) के पास चल पड़ी; परन्तु उस संस्कार के सिलए कुछ लोग भी चाद्विहए, )े कहाँ से आ)ें। यमुना मुँह द्विफराकर चुपचाप खड़ी थी। घण्टी चारों और देखती हुई द्विफर )हीं आयी। उसके साथ चार स्)यंसे)क थे।

स्)ंयसे)कों ने पूछा, 'यही न दे)ीजी?'

'हाँ।' कहकर घण्टी ने देखा द्विक एक स्त्री घूँघट काढे़, दस रुपये का नोट स्)यंसे)क के हाथ में दे रही है।

घण्टी ने कहा, 'दान है पुण्यभाद्विगनी का-ले लो, जाकर इससे सामान लाकर मृतक संस्कार कर)ा दो।'

स्)यंसे)क ने उसे ले सिलया। )ह स्त्री बैठी थी। इतने में मंगलदे) के साथ गाला भी आयी। मंगल ने कहा, 'घण्टी! मैं तुम्हारी इस तत्परता से बड़ा प्रसन्न हुआ। अच्छा अब बोलो, अभी बहुत-सा काम बाकी है।'

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'मनुष्य के द्विहसाब-द्विकताब में काम ही तो बाकी पडे़ मिमलते हैं।' कहकर घण्टी सोचने लगी। द्विफर उस श) की दीन-दशा मंगल को संकेत से दिदखलायी।

मंगल ने देखा एक स्त्री पास ही मसिलन )सन में बैठी है। उसका घूँघट आँसुओं से भींग गया है और द्विनराश्रय पड़ा है एक कंकाल!