shirdi shri sai baba ji - real story 023

Post on 13-Apr-2017

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Spiritual

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कोपीनेश्वर महादेव के नाम से बम्बई (मुम्बई) के नजदीक थाणे के पास ही भगवन ्शि�व का एक प्राचीन मंदिदर है|

इसी मंदिदर में साईं बाबा का एक भक्त उनका पूरी श्रद्धा और विवश्वास के साथ गुणगान विकया करता था| मंदिदर में आने वाला राघवदास साईं बाबा का नाम और चमत्कार सुनकर ही, विबना उनके द�3न विकए ही इतना अधि6क प्रभाविवत हुआ विक वह उनका अ6ंभक्त बन चुका था और अंतम3न से पे्ररणा पाकर विनरंतर उनका गुणवान विकया करता था|

कई वर्ष3 पहले उसने साईं बाबा का नाम और उनकी लीलाओं के बारे में सुना था, परंतु परिरस्थि=वितव� वह अब तक बाबा के द�3न करने जाने का सौभाग्य नहीं प्राप्त कर सका था| इस बात का उस ेदुःख हर समय सताता रहता था|

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साईं बाबा की लीलाओं के विवर्षय में सुनात-ेसुनाते श्रद्धा से उसकी आँखों से अशु्र6ारा बहने लगती थी| वह मन-ही-मन प्राथ3ना करने लगा - "हे साईं बाबा ! क्या मैं इतना ही दुभा3ग्य�ाली हूं, जो मुझे आपके द�3न करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होगा? क्या मैं सदैव ऐसे ही लाचार रहूंगा, जो आपके द�3न करने के शिलए शि�रडी आने तक का सा6न भी न जुटा सकंूगा ? मामूली-सी नौकरी और उस पर इतने बडे़ परिरवार की जिजम्मेदारी, क्या मुझे कभी इस जिजम्मेदारी से मुशिक्त नहीं धिमलेगी?“

उसकी आँखों से झर-झर करके आँसू बहे जा रहे थे और वह अपने मन की व्यथा अपने से कई मील दूर अपने आराध्य साईं बाबा को सुनाये जा रहा था| वह तो हर क्षण बस साईं बाबा के द�3न करन ेके बारे में ही सोचता रहता था, परंतु 6न के अभाव के कारण मजबूर था|

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इसी वर्ष3 उसकी विवभागीय परीक्षा भी होनी थी| यदिद वह परीक्षा में पास हो गया तो उसकी नौकरी पक्की हो जानी थी| विTर उसके वेतन में वृजिद्ध हो जाएगी, जिजससे उसकी जिजम्मेवारिरयों का बोझ कुछ हल्का हो जाता| वह परीक्षा में सTलता दिदलान ेके शिलए साईं बाबा से प्राथ3ना विकया करता था|

समय पर परीक्षा हुई और राघवदास की मेहनत और प्राथ3ना रंग लाई| नौकरी पक्की हो गयी और वेतन में भी वृजिद्ध हो गयी| राघवदास अत्यंत प्रसन्न था| अब उसे इस बात का पूरा विवश्वास हो गया था विक वह साईं बाबा के द�3न करन ेजरूर जा सकेगा|

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अब वह अपने रोजमरा3 के खचZ में कटौती करने लगा| वह एक-एक पैसा देखभालकर खच3 करता था, ताविक वह जल्द-से-जल्द शि�रडी आने-जाने लायक रकम इकट्ठी कर सके| राघवदास की लगन ने अपना रंग दिदखाया और �ीघ्र ही उसके पास शि�रडी जाने लायक रकम इकट्टा हो गयी| उसने बाजार जाकर पूरी श्रद्धा के साथ नारिरयल और धिमश्री प्रसाद के शिलए खरीदी| विTर अपनी पत्नी से बोला - " अब हम शि�रडी जायेंगे|“

पत्नी हैरानी से उका मुंह तांकने लगी|

"शि�रडी...|" उसे बड़ी हैरानी हुई|

"हा,ं शि�रडी|" राघवदास ने कहा - "शि�रडी जाकर हम वहां साईं बाबा के द�3न करेंगे|"

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"साईं बाबा के द�3न !" पत्नी ने उदास स्वर में कहा - "मैं तो यह सोच रही थी विक आप मुझे कुछ गहना आदिद बनवाकर देंगे|“

"सुन भाग्यवान् ! साईं बाबा से बढ़कर और कोई दूसरा गहना इस दुविनया में नहीं है| तू चल तो सही, विTर तुझे असली और नकली गहनों के अंतर के बारे में पता चल जायेगा|“

विTर वह अपनी पत्नी को साथ लेकर शि�रडी के शिलए चल दिदया| वह पूरी यात्रा में साईं बाबा का गुणगान करता रहा| शि�रडी की 6रती पर कदम रखत ेही वह चिचंता से मुक्त हो गया| उसे ऐसा लगा जैसे उसने इस 6रती का सबसे बड़ा खजाना पा शिलया हो| वह अपने को बहुत भाग्य�ाली मान रहा था|

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वह रात में शि�रडी पहुंचा था| सुबह होने के इंतजार में उसने सारी रात साईं बाबा का गुणवान करते-करते काट दी| साईं बाबा के प्रवित उसकी श्रद्धा-भशिक्त देखकर सभी हैरान थे| सुबह होते ही पवित-पत्नी जल्दी से नहा-6ोकर तैयार हो गए और विTर नारिरयल और धिमश्री लेकर साईं बाबा के द�3न के शिलए चल दिदए|

द्वारिरकामाई मस्थिस्जद में पहुंचते ही साईं बाबा ने अपनी सहज और स्वाभाविवक वात्सल्यभरी मुस्कान के साथ राघवदास और उसकी पत्नी का स्वागत करते हुए बोले - "आओ राघव, तुम्हें देखने के शिलए मेरा मन कब से बेचैन था| बहुत अच्छा हुआ विक तुम आ गए|"

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राघवदास और उसकी पत्नी दोनों ने श्रद्धा के साथ साईं बाबा के चरण स्प�3 विकए और विTर नारिरयल और धिमश्री उनके चरणों में अर्पिपंत की|

राघवदास और उसकी पत्नी बडे़ आश्चय3चविकत थे विक साईं बाबा को उनका नाम कैसे मालूम हुआ ? वे तो अपने जीवन में पहली बार शि�रडी आए थे|

"बैठो राघवदास बैठो|" साईं बाबा ने उसके शिसर पर स्नेह से हाथ Tेरकर आ�ीवा3द देत ेहुए कहा - "तुम दोनों बेवजह इतन ेपरे�ान क्यों हो ? आज तुमन ेमुझे प्रत्यक्ष रूप से पहली बार देखा है, लवेिकन विTर भी तुम मुझे पहचानते थे| ठीक इसी तरह मैं भी तुम दोनों से न जाने कब से परिरशिचत हूं| तुम दोनों को मैं कई वर्षZ से जानता-पहचानता हूं|"

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राघवदास और उसकी पत्नी रा6ा की खु�ी का कोई दिठकाना न रहा| वे स्वयं को बहुत 6न्य मान रहे थे| बाबा के शि�ष्य उनके पास ही बैठे थे| बाबा ने उनकी ओर देखकर कहा - "आज हम चाय विपयेंगे| चाय बनवाइए|“

राघवदास भाव-विवभोर होकर बाबा के चरणों से शिलपट गया और उसकी आँखों से प्रसन्नता के मारे अशु्र6ारा बह विनकली और वह रंु6े गल ेसे बोला - "बाबा ! आप तो अंतया3मी हैं| आज आपके द�3नों का �ौभाग्य प्राप्त कर मुझे सब कुछ धिमल गया| मैं 6न्य हो गया| अब मेरे मन में और विकसी भी वस्तु को पाने की इच्छा बाकी नहीं है|“

"अरे राघवदास, तुम जैसे लोग इस संसार में बस विगनती भर के हैं| मेरे मन में सदा ऐसे लोगों के शिलए जगह रहती है| अब तुम जब भी शि�रडी आना चाहो, आ जाना|"

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तभी शि�ष्य चाय लेकर आ गया| साईं बाबा ने राघवदास और उसकी पत्नी रा6ा को अपने हाथों से चाय डालकर दी| विTर राघवदास द्वारा लाई नारिरयल और धिमश्री साईं बाबा ने वहां बैठे भक्तों में बांट दी|

राघवदास और रा6ा को प्रसाद देने के बाद साईं बाबा ने अपनी जेब में हाथ डाला और उसमें से दो शिसक्के विनकाले| एक शिसक्का उन्होंने राघवदास को और एक शिसक्का रा6ा को दिदया और विTर हँसते हुए बोले - "इन रुपयों को तुम अपने पूजाघर में संभालकर अलग-अलग रख देना| इनको खो मत देना| मैंने पहले भी तुम्हें दो रुपये दिदये थे, लवेिकन तुमने वह खो दिदए| यदिद वे रुपए खोए होते तो तुम्हें कोई कष्ट न होता| अब इनको अच्छी तरह से संभालकर रखना|"

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राघवदास और रा6ा दोनों ने रुपये अच्छी तरह से संभालकर रख ेऔर विTर साईं बाबा को प्रणाम करके उनसे चलने के शिलए आज्ञा प्राप्त की|

द्वारिरकामाई मस्थिस्जद से बाहर आत ेही राघवदास और रा6ा को एकदम से याद आया, बाबा ने कहा था विक मैंने तुम्हें पहले भी दो रुपये दिदये थे, लवेिकन तुमने खो दिदए| पर हमने तो साईं बाबा के द�3न आज जीवन में पहली बार विकए हैं| विTर बाबा ने हमें दो रुपये कब दिदये थे ? उन्होंने एक-दूसरे से पूछा| इन रुपयों वाली बात उनकी समझ में नहीं आयी|

घर पर आने के बाद राघवदास ने अपने माता-विपता को शि�रडी यात्रा की सारी बातें विवस्तार से बतान ेके बाद बाबा द्वारा दो रुपये दिदये जाने वाली बात भी बतायी|

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तब रुपयों की बात सुनकर राघवदास के माता-विपता की आँखों में आँसू भर आये| उसके विपता ने कहा - "साईं बाबा ने सत्य कहा है, आज से कई वर्ष3 पूव3 मंदिदर में एक महात्मा जी आए थे| वह मंदिदर में कुछ दिदनों के शिलए रुके थे| यह उस समय की बात है जब तुम बहुत छोटे थे| लोग उन्हें भोले बाबा कहकर बुलाया करते थे| एक दिदन उन्होंने मुझे और तुम्हारी माँ को चांदी का एक-एक शिसक्का दिदया था और कहा था विक इन रुपयों को अपने पूजाघर में रख देना| कई वर्ष3 तक हम उन रुपयों की पूजा करते रहे और हमारे घर में 6न भी विनरंतर आता रहा| हमें विकसी चीज की कोई कमी नहीं रही, पर मेरी बुजिद्ध अचानक विTर गई| मैं ईश्वर को भूल गया और पूजा-पाठ भी करना छोड़ दिदया था|"

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"दीपावली के दिदन मैंने पूजाघर में देखा तो वह दोनों रुपये अपनी जगह पर नहीं थे| मैंने सब जगह पर उन्हें ढंूढा, पर वह कहीं नहीं धिमल|े उन रुपयों के गायब होते ही जैसे हमारे घर पर �विन की कू्रर दृधिष्ट पड़ गई| व्यापार ठप्प होता चला गया| मकान, दुकान, जेवर आदिद सब कुछ विबक गए| हमें बड़ी गरीबी में दिदन विबतान ेपडे़|“

राघवदास ने वह दोनों रुपये विनकालकर अपने विपता की हथेली पर रख दिदए| उन्होंने बार-बार उन रुपयों को अपने माथे से लगाया, चूमा और विबलख-विबलखकर रोने लगे|

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साईं बाबा के आ�ीवा3द से अब विTर से राघवदास के परिरवार के दिदन बदलने लगे| उसे अपने ऑविTस में उच्च पदक की प्राप्तिप्त हो गयी| वह हर माह साईं बाबा के द�3न करने शि�रडी जाता था| साईं बाबा के आ�ीवा3द से उसके परिरवार की मान-प्रवितष्ठा, सुख-समृजिद्ध विTर से लौट आयी थी|

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