shirdi shri sai baba ji - real story 019

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Page 1: Shirdi Shri Sai Baba Ji - Real Story 019
Page 2: Shirdi Shri Sai Baba Ji - Real Story 019

शि�रडी में सबसे पहले साईं बाबा ने वाइजाबाई के घर से ही भि�क्षा ली थी| वाइजाबाई एक धम�परायण स्त्री थी| उनकी एक ही संतान तात्या था, जो पहले ही दि*न से साईं बाबा का परम�क्त बन गया था|

वाइजाबाई ने यह निनण�य कर शिलया था निक वह रोजाना साईं बाबा के शिलए खाना लेकर स्वयं ही द्वारिरकामाई मस्जिस्ज* जाया करेगी और अपने हाथों से बाबा को खाना खिखलाया करेगी| अब वह रोजाना *ोपहर को एक टोकरी में खाना लेकर द्वारिरकामाई मस्जिस्ज* पहुंच जाती थी| क�ी साईं बाबा धूनी के पास अपन ेआसन पर बैठे हुए मिमल जाया करते और क�ी उनके इंतजार में वह घंटों तक बैठी रहती थी| वह न जाने कहां चले जाते थे ? इस सबके बावजू* वाईजाबाई उनका बराबर इंतजार करती रहती थी| क�ी-क�ार बहुत ज्या*ा *ेर होने पर वह उन्हें ढंूढने के शिलए निनकल जाया करती थी|

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क�ी-क�ी जंगलों में �ी ढंूढने के शिलए चली जाती थी| कड़कड़ाती धूप हो या मूसलाधार बारिर� अथवा हनिड्डयों को कंपा *ेने वाली ठंड हो, वाइजाबाई साईं बाबा को ढंूढती निDरती और जब उसे कहीं ने मिमलते तो वह निनरा� होकर निDर द्वारिरकामाई मस्जिस्ज* लौट आती थी|

एक दि*न वाइजाबाई जब बाबा को खोजती, थकी-मां*ी मस्जिस्ज* पहुंची तो उसने बाबा को धूनी के पास अपने आसन पर बैठे पाया|वाईजाबाई को *ेखकर बाबा बोले - "मां, मैं तुम्हें बहुत ही कष्ट *ेता हूं| जो बेटा अपनी मा ँको दुःख *े, उससे अमिधक अ�ागा और कोई नहीं हो सकता है|मैं अब तुम्हें निबल्कुल �ी कष्ट नहीं दंूगा| जब �ी तुम खाना लेकर आया करोगी, मैं तुम्हें मस्जिस्ज* में ही मिमला करंूगा|" साईं बाबा ने वाइजाबाई से कहा|

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उस दि*न के बा* बाबा खाने के समय क�ी �ी मस्जिस्ज* से बाहर न जाते थे| वाइजाबाई खाना लेकर मस्जिस्ज* पहुंचती तो बाबा उसे वहां पर अवश्य मिमलते|

"साईं बाबा... !" वाइजाबाई ने कहा|

"ठहरो मां... !" साईं बाबा खाना खाते-खाते रुक गए और बोले - "मैं तुम्हें माँ कहता ही नहीं, अपनी आत्मा से �ी मानता हूं|“

"तू मेरा बेटा है| तू ही मेरा बेटा है| तून ेमाँ कहा है न|" वाइजाबाई प्रसन्नता से गद्ग* ्होकर बोली|

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"तुम निबल्कुल ठीक कहती हो मा ं! मुझ जैसे अनाथ, अनाभिYत और अ�ागे को अपना बेटा बनाकर तुमने बडे़ पुण्य का काम निकया है मां|" साईं बाबा ने कहा - "इन रोदिटयों में जो तुम्हारी ममता है, क्या पता मैं तुम्हारे इस ऋण से क�ी मुक्त हो �ी पाऊंगा या नहीं ?"

"यह कैसी बात कर रहा है तू बेटा ! मां-बेटे का कैसा ऋण ? यह तो मेरा कर्त्त�व्य है| कर्त्त�व्य में ऋण की बात कहा ?" वाइजाबाई ने कहा - "इस तरह की बातें आगे से निबल्कुल मत करना|"

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"अच्छा-अच्छा नहीं कहंूगा| निDर क�ी नहीं कहंूगा|" साईं बाबा ने जल्*ी से अपने *ोनों कानों को हाथ लगाकर कहा - "तुम घर जाकर तात्या को �ेज *ेना|“

"वो तो लकड़ी बेचने गया है| आते ही �ेज दंूगी|" कहने के पश्चात ्वाइजाबाई के चेहरे पर सहसा गहरी उ*ासी छा गयी|

वाइजाबाई की आपबीती सुनकर साईं बाबा की आँखें �ीग गयीं| वह कुछ *ेर तक मौन बैठे रहे और निDर बोले - "वाइजा मां, �गवान् �ला करेंगे, निDक्र मत करो| सुख और दुःख तो इस जिजं*गी के जरूरी अंग हैं| जब तक इंसान इस दुनिनया में जिजं*ा रहता है, उस ेयह सब तो �ोगना ही पड़ता है|"

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वाइजाबाई की आँखें �र आयी थीं| उसने अपनी टोकरी उठाई और थके-हारे क*मों से वह अपने घर की ओर वापस चल पड़ी|

तात्या अ�ी थोड़ी-सी ही लकनिड़या ंकाट पाया था निक अचानक आका� में काली-काली घटाए ंउमड़ने लगीं, निबजली कड़कने और गरजने से जंगल का कोना-कोना गंूज उठा| तात्या के पसीने से �रे चेहरे पर चिचंता की लकीरें खिखंच गयीं| वह सोचने लगा, अब क्या होगा? इन लकनिड़यों के तो कोई चार पैसे �ी नहीं *ेगा - और यदि* यह �ीग गई तो कोई मुफ्त में �ी नहीं लेगा| घर में एक मुट्ठी अनाज नहीं है, तो रोटी कैसे बनेगी ? तब रात को माँ साईं बाबा को क्या खिखलायेगी ? इसी चिचंता में डूबे तात्या ने जल्*ी से लड़निकयां समेटीं और गांव की ओर चल पड़ा| त�ी बडे़ जोर से मूसलाधार बारिर� �ुरू हो गई| वह जल्*ी-जल्*ी पांव बढ़ाने लगा|

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अ�ी वह गांव से कुछ ही दूरी पर था निक अचानक एक तेज अवाज सुनाई *ी - "ओ लकड़ी वाले !“

उसके बढ़ते हुए क*म थम गए|

उसने जोर से पुकारा - "कौन है �ाई ?“

और त�ी एक आ*मी उसके सामने आकर खड़ा हो गया|

"क्या बात है ?" तात्या ने पूछा|

"लकनिड़यां बेचोगे ?" उस आ*मी ने पूछा|

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"हां-हां, क्यों नहीं बेचंूगा �ाई ! मैं बेचन ेके शिलए ही तो रोजाना जंगल से लकनिड़या ंकाटकर लाता हूं|" तात्या ने जल्*ी से जवाब दि*या|

"निकतने पैसे लोगे इन लकनिड़यों के ?“

"जो मजm हो, *े *ो| आज तो लकनिड़यां बहुत कम हैं और वैसे �ी �ीग �ी गई हैं| जो �ी *ोगे ले लूंगा|“

"लो, यह रुपया रख लो|“

तात्या हैरानी से उस व्यशिक्त को *ेखने लगा|

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"कम है तो और ले लो|" उस आ*मी ने जल्*ी से जेब से एक रुपया और निनकालकर तात्या की ओर बढ़ाया|

" नहीं-नहीं, कम नहीं है, ज्या*ा हैं| लकनिड़यां थोड़ी हैं|" तात्या ने जल्*ी से कहा|

"तो क्या हुआ, आज से तुम रोजाना मुझे यहां पर लकनिड़यां *े जाया करो| मैं तुम्हें यहीं मिमला करंूगा| यदि* आज ये लकनिड़यां कुछ कम हैं, तो कल लकनिड़यां ज्या*ा ले आना| तब हमारा-तुम्हारा निहसाब बराबर हो जाएगा|" उसने हँसते हुए कहा और रुपया जबर*स्ती उसके हाथ पर रख दि*या|

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तात्या ने रुपये जल्*ी से अपने अंगरखे की जेब में रखे और निDर तेजी से गांव की ओर चल दि*या| घर पहुंचकर उसने माँ के हाथ पर रुपये रखे तो मा ँआश्चय� से उसका मुंह *ेखने लगी|

"इतने रुपये कहां से ल ेआया तात्या ?" मा ँने आ�ंनिकत होकर पूछा| तात्या ने अपनी माँ को पूरी घटना बता *ी|

"ये तून ेठीक नहीं निकया बेटा| कल उसे ज्या*ा लकनिड़यां *े आना| इंसान को अपनी ईमान*ारी की कमाई पर ही संतोष करना चानिहए| बेईमानी का जरा-सा �ी निवचार क�ी अपने मन में नहीं लाना चानिहए|" वाइजाबाई ने तात्या को समझाते हुए कहा|

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अगले दि*न जब तात्या जंगल में गया तो उस समय वषा� रुक गयी थी| आका� एक*म साD था| तात्या ने जल्*ी-जल्*ी और दि*न से ज्या*ा लकनिड़यां काटीं और गट्ठर बनाने लगा| गट्ठर �ारी था| रोजाना तो वह अकेले ही लकनिड़यों का गट्ठर उठाकर शिसर पर रख शिलया करता था, लनेिकन आज लकनिड़यां ज्या*ा थीं| वह अकेला उस गट्ठर को उठा नहीं सकता था| वह निकसी मुसानिDर की राह *ेखने लगा तानिक उसकी सहायता से उस �ारी गट्ठर को उठाकर शिसर पर रख सके|अचानक उसे सामने से एक मुसानिDर आता हुई दि*खाई दि*या| जब वह पास आ गया तो तात्या ने उससे कहा -"�ाई ! जरा मेरा बोझा उठवा *ो|" उस मुसानिDर ने तात्या के शिसर पर गट्ठर उठवाकर रखवा दि*या| अब तात्या तेजी से चल पड़ा|

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"अरे �ाई तात्या, क्या बात है, आज तुमने इतनी *ेर कैसे कर *ी ? मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं|" निपछल ेदि*न वाले आ*मी ने मुस्कराते हुए कहा|

"आज लकनिड़यां और दि*न के मुकाबले ज्या*ा हैं| रोजाना लकनिड़यां कम होती थीं, इसशिलए मैं अकेला ही गट्ठर होने के कारण मैं उसे अकेला नहीं उठा पा रहा था| बहुत *ेर बा* जब एक आ*मी आया मैं उसकी सहायता से गट्ठर उठवाकर शिसर पर रख पाया, तो सीधा �ागता हुआ चला आया हूं|"

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उस आ*मी न ेलकड़ी के गट्ठर पर एक नजर डाली और बोला - "आज तो तुम ढेरसारी लकनिड़यां काट लाए|“

"तुम ठीक कर रहे हो| लेनिकन कल तुम्हें बहुत कम लकनिड़यां मिमली थीं| पर, तुमन ेपैसे पूरे *े दि*ए थे| इसशिलए तुम्हारा निहसाब �ी तो बराबर करना था| कल तुमने रुपये *े दि*ये थे| उसी के ब*ले सारी लकनिड़यां ले जाओ| अब तक का निहसाब बराबर|" तात्या ने हँसते हुए कहा|

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"कहां ठीक है तात्या �ाई ! जिजस तरह तुम ईमान*ारी का *ामन नहीं छोड़ता चाहते, उसी तरह मैंने �ी बेईमानी करना नहीं सीखा|" उस आ*मी ने कहा और अपनी जेब से रुपया निनकालकर तात्या की हथेली पर रख दि*या - "लो, इसे रखो| हमारा आज तक का निहसाब-निकताब बराबर| आज लकनिड़यां और दि*नों से *ोगुनी हैं, इसशिलए निहसाब �ी *ोगुना होना चानिहए|“

तात्या ने रुपया लेन ेसे बहुत इंकार निकया| पर उस आ*मी ने समझा-बुझाकर वह रुपया तात्या को लेने पर निवव� कर| तात्या ने वह रुपया जेब में रखा, निDर वह गांव की ओर चल दि*या|

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अ�ी वह थोड़ी ही दूर गया था निक अचानक उसे कुल्हाड़ी की या* आयी| जल्*बाजी में वह कुल्हाड़ी जंगल में ही �ूल आया था| अपनी �ूल का अहसास होते ही वह तेजी से जंगल की ओर लौट पड़ा| अब उसे वह आ*मी और लड़निकयों का गट्ठर कहीं �ी दि*खाई न दि*या| उसन ेबहुत दूर-दूर तक नजर *ौड़ाई, लेनिकन उस आ*मी का कहीं �ी अता-पता न था| तात्या की हैरानी की सीमा न रही| *ोपहर का समय था| आखिखर वह आ*मी इतनी जल्*ी इतना बोझ उठाकर कहां चला गया ? दूर-दूर तक उस आ*मी का पता न था| आश्चय� में डूबा तात्या वापस आ गया| वह इस बात को निकसी से कहे या न कहे, इस बात का Dैसला नहीं कर पा रहा था|

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घर आकर वह अपनी माँ के साथ द्वारिरकामाई मस्जिस्ज* आया| वाइजाबाई ने *ोनों को खाना लगा दि*या| खाना खाते समय तात्या ने लकड़ी खरी*न ेवाले के बारे में साईं बाबा को बताया| साईं बाबा बोले -"तात्या, इंसान को वही मिमलता है, जो परमात्मा ने उसके �ाग्य में शिलखा है| इसमें कोई सं*ेह नहीं है निक निबना गेहनत निकये धन नहीं मिमलता है, निDर �ी धन-प्राप्तिrत में मनुष्य के कमt का �ी बहुत योग*ान होता है| वैस ेचोर-डाकू �ी चोरी-डाका डालकर लाखों रुपये ल ेआते हैं, लेनिकन वे स*ैव गरीब-के-गरीब ही बने रहते हैं| न तो उन्हें समय पर �रपेट �ोजन ही मिमलता है और न चैन की नीं* आती है, जबनिक एक गरीब आ*मी थोड़ी-सी मेहनत करके इतना पैसा पै*ा कर लेता है निक जिजससे बडे़ आराम से उसका और उसके परिरवार की गुजर-बसर हो सके| वह स्वयं �ी इत्मीनान से रूखी-सूखी खाता है और चैन की नीं* सोता है तथा मुझ जैसे Dकीर की झोली में �ी रोटी का एक-आध टुकड़ा डाल *ेता है|

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तुम्हें जो कुछ मिमलता है, वह तुम्हारे �ाग्य में शिलखा है|“

"लनेिकन वह आ*मी और लकनिड़यों का गट्ठर कहां गायब हो गए ?" तात्या ने हैरानी से पूछा|

"�गवान के खेल �ी बडे़ अजब-गजब हैं, तात्या ! इंसान अपनी साधरण आँखों से उस े*ेख नहीं पाता|" साईं बाबा ने गं�ीर होकर कहा - "तुम्हें बेवजह परे�ान होने की कोई जरूरत नहीं है| यह तो *ेने वाला जानता है निक वह निकस ढंग से और निकस जरिरये रोजी-रोटी *ेता है| �गवान जब निकसी �ी प्राणी को इस दुनिनया में �ेजता है, तो उसे �ेजने से पहले उन स�ी चीजों को �ेज *ेता है, जिजसकी उस जन्म लेने वाल ेको जरूरत पड़ती है|" साईं बाबा ने तात्या को बडे़ ही rयार से समझाया|

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तात्या साईं बाबा के चरणों में निगर गया| उसे साईं बाबा की बात पर सहसा निवश्वास न हो पा रहा था| वह कहना चाहता था निक बाबा, यह सब आपका ही करिरश्मा है| इस प्रकार का खेल खेलकर आप ही उसकी रोटी का इंतजाम कर रहे हैं| उसने बहुत चाहा निक वह इस बात को साईं बाबा से कहे, पर कह नहीं पाया और केवल आँसू टपकाता रह गया|

वास्तव में तात्या के मन में साईं बाबा के प्रनित अपार Yद्धा और अटूट निवश्वास था| इसी कारण बाबा का �ी उस पर निव�ेष स्नेह था|

अचानक साईं बाबा उठकर खड़े हो गए और बोले - "चलो तात्या, घर चलो|" कहकर मस्जिस्ज* की सीदिढ़यों की ओर चल दि*ये|

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साईं बाबा सीधे वाइजाबाई की उस कोठरी में गए, जहां पर वह सोया करती थी| उस कोठरी में एक पलंग पड़ा था|

"तात्या, एक Dावड़ा ले आओ|" साईं बाबा ने कोठरी में चारों ओर निनगाह घुमाते हुए कहा|

तात्या Dावड़ा ल ेआया| उसकी और वाइजाबाई की कुछ �ी समझ में नहीं आ रहा था निक साईं बाबा ने Dावड़ा क्यों मंगाया है?

"तात्या, इस पलंग के शिसरहान ेवाले *ायें ओर के पाए ंके नीचे खो*ो|" इतना कहकर साईं बाबा ने पलंग एक ओर को सरका दि*या|

"यहां क्या है बाबा ?" तात्या ने पूछा|

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"खो*ो तो सही|" साईं बाबा ने कहा|

तात्या ने अ�ी तीन-चार Dावडे़ ही मारे थे निक अचानक Dावड़ा निकसी धातु से टकराया|

"धीरे-धीरे मिमट्टी हटाओ, तात्या|" साईं बाबा ने गडे्ढ में झांकते हुए कहा|

तात्या Dावडे़ से धीरे-धीरे मिमट्टी हटाने लगा| कुछ *ेर बा* उसने तांबे का एक कल� निनकालकर साईं बाबा के सामने रख दि*या|

"इसे खोलो, तात्या !"

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तात्या ने कल� पर रखा ढक्कन हटाकर उसे D�� पर उलट दि*या| *ेखते-ही-*ेखते उस कल� में से सोने की अ�र्फिDंयां, मूल्यवान जेवर और हीरे निनकलकर निबखर गए|

"यह तुम्हार ेपूव�जों की सम्पभिर्त्त है| तुम्हार े�ाग्य में ही मिमलना शिलखा था, तुम्हारे निपता के �ाग्य में यह सम्पभिर्त्त नहीं थी|" साईं बाबा ने कहा - "इसे सं�ालकर रखो और समझ*ारी से खच� करो|“

वाइजा और तात्या के आश्चय� का कोई दिठकाना न था| वह उस अपार सम्पभिर्त्त को *ेख रहे थे और सोच रहे थे निक यदि* उन पर साईं बाबा की कृपा न होती तो सम्पभिर्त्त उन्हें क�ी �ी प्राrत न होती| तात्या ने अपना शिसर साईं बाबा के चरणों पर रख दि*या और Dूट-Dूटकर बच्चों की तरह रोने लगा|

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वाइजाबाई बोली - "साईं बाबा ! हम यह सब रखकर क्या करेंगे| हमारे शिलए तो रूखी-सूखी रोटी ही बहुत है| आप ही रखिखये और मस्जिस्ज* के काम में लगा *ीजिजए|“

साईं बाबा ने वाइजाबाई का हाथ पकड़कर कहा -"नहीं मां ! यह सब तुम्हारे �ाग्य में था| यह सारी सम्पभिर्त्त केवल तुम्हारी है| मेरी बात मानो, इसे अपने पास ही रखो|“

साईं बाबा की बात को वाइजाबाई को मानना ही पड़ा| उसने कल� रख शिलया| तब साईं बाबा चुपचाप उठकर अपनी मस्जिस्ज* में वापस आ गये और धूनी के पास इस प्रकार लेट गये, जैसे कुछ हुआ ही नहीं है|

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तात्या ने इस सम्पभिर्त्त से नया मकान बनवा शिलया और बहुत ही ठाठ-बाट से रहने लगा| गांव वाल ेहैरान थे निक अचानक तात्या के पास इतना पैसा कहां से आया ? वे इस बात को तो जानते थे निक साईं बाबा तात्या की माँ वाइजाबाई को माँ कहकर पुकारते हैं और तात्या से अपने �क्त या शि�ष्य की तरह नहीं, बल्किल्क छोटे �ाई के समान स्नेह करते हैं| अत: सबको निवश्वास हो गया निक तात्या पर साईं बाबा की ही कृपा हुई है| इसी कृपा से वह *ेखते-ही-*ेखते सम्पन्न हो गया है|

तात्या को सम्पन्न *ेख धन के लो�ी, लालची लोग �ी साईं बाबा के पास जाने लगे| रात-दि*न सेवा निकया करते निक �ाय* साईं बाबा प्रसन्न हो जाए ंऔर उन्हें �ी धनवान बना *ें|

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साईं बाबा उन लोगों की �ावनाओं को अच्छी तरह से जानते थे| वह न तो उन्हें मस्जिस्ज* में आने से रोकना चाहते थे और न ही उन्हें डांटना चाहते थे| उनका निवश्वास था निक यहां आत-ेआत ेया तो इनके निवचार ही ब*ल जायेंगे या निDर निनरा� होकर स्वयं ही आना बं* कर *ेंगे| वह निकसी को कुछ न कहते थे| चुपचाप अपनी धूनी के पास बैठे तमा�ा *ेखा करते थे| कुछ तो इतने बे�म� लोग थे निक साईं बाबा ने एक*म स्वयं को धनवान बनाने के शिलए कहते - "बाबा, हमें �ी तात्या का तरह धनवान बना *ो|“

उन लोगों की बातें सुनकर साईं बाबा हँस पड़ते और बोलते - "मैं कहां से कुछ कर सकता हूं| मैं तो स्वयं कंगाल हूं, �ला मेरे पास कहां से कुछ आया|"

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साईं बाबा का ऐसा जवाब सुनकर सब चुप रह जात|े निDर आगे कोई �ी कुछ न कह पाता था|