ahinsa vivechan (1942) ac 460

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Page 1: Ahinsa Vivechan (1942) Ac 460

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-: सोद साहितय माला : एक सौ वारददवो परनथ :--

अहिसा-विवचन

“डद 5

९ (रा कडतज (० ह रो

२३ जार लक + नमक ४

खः

किशोरलाल घ० मशरवाला

ससता साहितय मणडल, नयी दिदली दिल‍ली : रखनऊ : इनदौर : वरषा : इलाहाबाद : कलकतता

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जनवरी, १९४२ : २०००

मलय

आठ आना

परकाशक--- भदरक---

मातरड उपाधयाय, मतरी दवीगपरसाद शरमा, ससता साहितय मणडल, हिनदसतान टाइमस परस,

सयी दिल‍ली तथबो बिलली

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आदि-वचन यह एक सयोग की ही बात ह कि वयावहारिक अहिसा-समबनधी

य निबनध रिचारड बी० गरग-लिखित 'अहिसा और अनशासन”! क रग- भग साथ-हीनसाथ परकाशित होरह ह । अहिसा क उपासको को इनह

एकसाथ ही पढना चाहिए । रिचाई गरग की तरह किदयोरछाल मशरवाला

भी अहिसा क गहर विदयारथी ह। यदयपि इसी विशवास क वातावरण म

उनका लालन-पालन हआ ह, किसी भी बात को व सवयसिदधि क रप म

नही मान छत। व तो कवल उसीपर विशवास करत ह जिस व अपनी

कसौटी पर कस लत ह। इस परकार भारी सोच-विचार क बाद वह अहिसा

को मानन लग ह। और अपन जीवन एव वयवहार दवारा राजनतिक,

आथिक, सामाजिक तथा घरल आदि विविध परिसथितियो म उसकी उपयोगिता को उनहोन सिदध किया ह। इसलिए उनक निबनधो का अपना

विशष महततव ह। मझ आशा ह कि अहिसा म विशवास रखनवालो को

अपना विशवास कायम रखन और ईमानदारी क साथ विशवास न करन-

वालो को अपनी शकाओ का समाधान करन म इनस मदद मिलगी ।

सवागराम, ३१ ४० अकी सो० क० भराधी

' +>+अ«०न‍कक»«क-कीककनककनननमनननतणणा “पएएता3“+०४)५-५ ८08९ #फषक "4००० याकपक,

वीर सवा म, / ए' हशलय

सन क तिय [8 7 + 7 और रहा ह।

जपता

ह | क

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भमिका इन दो-तीन सालो म अहिसा को लकर मन जो कछ लख लिख ह,

उनम स छ लखो का इसम समरह ह । पसतक की मोटाई नम बढान की

दषटि स, फिलहाल इतन ही चन गय ह । य सब सरवोदय” मासिक म

आा चक ह । इनम स पहला मल गजराती म और दसरा और छठा मल

अगनजी म लिख गय थ, और तीनो छपन स पहल ही गाधीजी की नजर

स गजर घक थ। पहल और दसर की अगरजी पसतिका क लिए उनहोन

आदि-वचन भी लिखा ह। तीसरा लख पहल मराठी म लिखा गया था |

लखो की भाषा क बार म थोडी सफाई कर दना जररी ह | कछ

लखो का अनवाद मरा किया हआ ह, और कछका मितरो न किया ह ।

जहा मरा अनवाद या मल लख भी हो, वहापर भी मितरो दवारा मरी

भाषा म सशोधन किया ही जाता ह। और हर वक‍त एक ही मितर नही

करता, तथा मरा भाषा-जञान भी दिन-दिन बदलता रहता ह, इसलिए

पसतक म एक ही तरह की भाषा-शली नही मिलगी। कपाल पाठक-

गण लखो क विचारो का ही खयाल कर, भाषा और दौली को

दरगजर कर। म चाहता कि म इसकी भाषा ओर दौली जयादा सरल

कर सकता ।

सवागराम २५-१२-४१ 44060 ८24

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विषय-सची १

अहिसा क आदश, सिदधानत और आचार १. आदरश और सिदधानत---२. अपकषित आचार ( सरवोदिय

जलाई ४१ ) ब--६

र‌

वयवहाय अहिसा १ परसतावना--२ शदध अहिसा भौर वयवहाय अहिसा---३ साधा-

रण आदमी--४. सामदायिक सलाई तथा हिसा क लकषण--५. दो

बनियादी ससकतिया---६ हिनदसतान की विशषप रिसथिति--साराश-- ७, आकरमण और अराजकता---८ अहिसक सगठन की समभावता और

कठिनाइया---९., कठिनाइया--- १० हिसक और अहिसक लडाई क

सामानय अग--१ १. अहिसा की शरत--१२ सचालको की योगयता--

१३, सरवोपरि मणडल--१४ सगठन की जररत--१५ छोट-स-छोटा

सगठन---१६. उपसहार, (सवोदिय, अपरल स जलाई, ४१) १०--६०

डर मनषय की सवभावगत अहिसा-वतति

१. भमिका--२ सामाजिक विशषताओ क बार म शरम--३ कवल

पराकत पराणी--हिसा और अहिसा की वयाखया---४. अहिसा नयाय और

साहायय--५. आतम-रकषा का परबन---६ अहिसक सगठन की अमलयता-- ७. वीरता और अहिसा--७. वासतविक आवशयकता ( सरवोदिय

मा, ४०) 8१77६१

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[ ख]

सामाजिक अहिसा की बनियाद १ अहिसा या बनियागिरी--२ अहिसा की वजञानिक शिकषा--

३. अहिसा क पराथमिक नियम (सरवोदय, जनवरी, ४०) ६२--१०६

अहिसा की कछ पहलिया (सरवोदिय, दिसमबर, ३९) १०९७--१ १५

ह‌ अहिसा की मरयादाए

(सवोदिय, नवमबर ४१ ) ११६--११८

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अहिसा-विवचन

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४. 8..३

अहिसा क आदरश, सिदधानत और आचार [ अहिसा क ही मारग स जो लोग जनता को सवा और ददा को

भलाई साधना चहहत ह, उनक उदददय, सिदधानत और बरताव कषस हो, इसकी रपरखा--जिस कि गाधोजो न पसनद किया ह--अहिसा क सवको को राह दिखान क लिए यहा दो जातो ह -- )

ग १ आदरश और सिदधानत

१ जीवन का सचचा आधार या बनियाद अहिसा ही ह, न कि हिसा ।

२. 'म' और 'मर' क तग दायर म बध रहन स ही हिसा पदा

होती ह । यह दायरा लगातार बढात जाना ही अहिसा की साधना ह ।

३ सार जीव एक-स ह । बलकि सबम एक ही आतमा ह। ( इसलिए,

कहन को जलछरत नही कि, सभी आदमी बराबर ह। ) परनत चकि

अहिसा की साघना भनषयो म करनी ह, इसलिए, मनषय-समाज का

विचार खास तौर पर करना चाहिए ।

४ सारा मनषय-समाज एक ही परिवार (खानदान) ह। सतरी-परष

भी समान ह । परनत उस परिवार म दश, राजय, वश, रग, वरण (धनधा),

जाति, घम, शिकषा, पसा, भाषा, लिपि बगरा क भदो क सबब स जदी-

जदी टोलिया बन गयी ह। इनही भदो (फरको) की वजह स वयकतितयो और

कौमो म भी विशषताए या खासियत पदा हो जाती ह ।

५. इन फरको या खासियतो को ठटालना या नजरअदाज करना

ममकिन नही ह । ककिन उनपर चघमणड या दरभिमान करना ठीक नही

ह । य फरक और खासियत जिस हदतक समच मानव-परिवार की भलाई

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छ अहिसा-विवचन

और सख बढान म मदद पहचात ह, उसी हदतक उनकी हिफाजत करनी

चाहिए और उनह बढाना चाहिए। अपनी इस तरह की विशषताए

मानव-परिवार की सवा म लगा दना और, अगर व मनषयो की किसी

मी जमात को तकलीफ दनवाली हो तो, खशी स उनह छोड दना

अहिसा की साधना ह । सभी फरको और खासियतो को बिलकल मिटा-

कर सारी मनषय-जाति को किसी एक ही ढाच म ढालन की कोशिश

बकार ह। और न वह बिना हिसा क हो ही सकती ह ।

६ भद और विशषताओ की बरदौडत दसरो क परति हमार कछ

कततवय उतपनन हो जात ह, न कि अधिकार या घमणड । इसीम स सब-

घर-समभाव, असपशयता-निवारण, ( भोजनादि वयवहारो म ) एक पगत आदि आचार अहिसा की साधना म लाजिमी तौर पर पदा

हो जात ह ।

७ मानतव-परिवार क हरएक वयवित क सख और भलाई क लिए

यह जररी ह कि मानव-वयवहार म स हिसा बिलकल मिटादी जाय ।

८ एक जमात जब हिसा करती ह, तब उसका बदला लन

या उसस अपना बचाव करन क लिए हिसा करन की पररणा दसर पकष

क दिल म उठती ह । इस परकार हिसा क जरिय हिसा का निपटारा

करन की वतति न मानव-कटमब म घर कर लिया ह ।

९ परनत इस रीति स हिसा बद नही होती और न अनत म दोनो जमातो म नयाय का सबध (ताललक) ही कापम होता ह । नतीजा यह

होता ह कि, कल मिलाकर, हिसा करनवाल पकष अपन को, अपन बल-

बचचो और सार मानव-परिवार को नकसान पहचात ह ।

१०. इसलिए अनयाय ( ना/इनसाफी ) या बरा काम चाह कितना

ही जबदसत कयो न हो, उसक खिलाफ हिसा स काम हरगिजञ नही लना

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अहिसा क आदशश, सिदधानत ओर आचार ड

चाहिए । हिसा क तरीक आजमान की वतति को दबान स ही अहिसा

की साधना हो सकती ह ।

११ अहिसा म जीवन का उचित धारण-पोषण और विकास करन

की शकति भरी हई ह और होनी ही चाहिए। इसलिए जिन अनयायो

या बर कामो क खिलाफ हिसक उपाय काम म छान को जी चाहता ह,

उनक अहिसक इलाज भी होन ही चाहिए । जो सचच दिल स अहिसा

की साधना करगा, वही उनह खोज सकगा ।

१२ जीवन का हरएक वयवहार अहिसा क दवारा चल ही सकता

चाहिए। अमक कषतर म अहिसा काम ही नही दगी, यह अशरदधा हम

अपन दिल स निकाल दती चाहिए और समाज म स भी उस मिटान

की कोशिश करनी चाहिए। जबतक अनयाय मिट नही जाता, तबतक

अहिसा की साधना अधरी ही माननी चाहिए।

१३ परनत इसक लिए हम सभयता या तहजीब क बार म अपनी

कई मौजदा धारणाओ (खयालो) म फरक करना होगा ।

अबतक अहिसा की जितनी साधना हई ह, उसक अनसार नीच

लिख सिदधानत (उसल) अहिसा क अग (जज) मान जा सकत ह --

१४ भोग-विलास और ऐश-अराम की इचछाओ का हिसा स सीधा

सबध ह । इसस उलटा, सादगी, सयम, तितिकष। (तकलीफ बरदाइत करन

की ताकत) और शारीरिक शरम अहिसा क अनकल (म‌आफिक ) ह ।

१५ बहत बडी और जबरदरत तजवीज और आखो को चौ धियान-

वाला अमन-चन तथा ऐश-आराम का मसाला जटा दनवाली सभयता

(तहजजीब) हिसा क बिना न तो कायम ही सकती ह और न टिक ही

सकती ह । इन दिखावो या रपो म ससकति का दशन करना ही गलत ह ।

१६ सचची ससकति की बदौलत मानव-परिवार क हर शखश का

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दर अहिसा-विवचन

जीवन सादा, सयमी, मजबत, महनती और साथ-साथ नीरोग, बिडर,

सवाभिमानी और मीठा होता चाहिए । यही सरवोदिय (सभी की भलाई )

की ससकति ह । ऐसी ससकति का कायम होना अहिसा क दवारा ही

ममकिन ह । १७ अहिसक ससकति का अभिपराय ( मकसद ) अवयवसथा, अराजकता

या एक-दसर स अलग-अलग रहनवाल जद-जद गिरोह बनाना नही ह ।

चरन‌ सार पराणियो स--यहा तक कि जातवरो स भी--एकता करना

ह । लकिन इतना काफी नही ह कि हम अपन मोट और बड-बड कामो म

ही इस एकता का खयाल कर । वरन‌ छोट-स-छोट जीवो को भी जिनदगी

की सहलियत दन म हमारा सिदधानत परकट होना चाहिए। इस धयय

को निगाह म रखत हए समय-समय पर कनदरीकरण और विकनदरीकरण (सणटरलाइजशन और डी-पणटरछाइजशन ) तथा शकति-यनतर और शरीर-

यनतर (मशीन-पावर और मन-पावर) की मरयादा परिसथिति क अनसार -

खोजनी ओर ठहरानी चाहिए ।

१८ अहिसा की साधना की सफलता क लिए बहत-स लोगो क

एक सघ का होता लाजिमी नही ह । हरएक आदमी क लिए यह जछरी

ह कि वह अनन जीवन म उसका अलग परयोग कर । उस खासकर अपन

बरताव स लोगो को अहिसा की तरफ खीचना चाहिए । मगर इसका यह

मतलब नही ह कि अहिसा का सवक लोगो क सहयोग की परवाह ही न कर,

या कोई सघ बनाना गलत ही समझ, या उसका महततव ही न पहचान सक ।

१९ सतयागरही क लिए अहिसा परमवरम ही नही, बलकि सवघरम

भी ह । इसलिए सख-द ख, नफा-नकसान, हार-जीत या मौत भी बा

पड, तो भी उस अगीकार करन स डिगना नही चाहिए । ईइवबर, आतमा

या विशव क तततव का जो जञान तथा अभय, सवा-वतति, आतमसममान

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अधहिसा क आदरश, सिदधानत ओर आचार क

€ खहारी ) आदि जो गण, और परारथना, यम-नियम, परम बगरा जो जीवन-चरयाए इस परकार की निषठा ( एतकाद ) पदा कर--उन सबका

नाम ईशवरोपासना और शरदधा ह ।

र‌

शरपकषित आचार १ ऊपर कह हए आदशो ओर सिदधानतो की सफलता क लिए

जीवन म जो कछ परिवरतन करन की जररत महसस हो और उसक

लिए जो कछ करबानी करनी पड, उस फर-बदल और करबानी क लिए

अहिसा क साधक को हमशा तयार रहना चाहिए।

२ अहिसा क अमल की शररआत सबस पहल उस अपन वयकतिगत

जीवन स ही करनी होगी । इसलिए उसक अपन रिशतदारो, साथियो,

धपडौसियो ओर अगल-बगल क समाजो स उसका बरताव अहिसामय ही

रहना चाहिए । उन सबस उसका बरताव परम का ही होना चाहिए।

और मतभद होन पर या उनक किसी अनयाय या बर काम का मका-

बला करन का मौका आन पर उस अहिसा स ही काम लना चाहिए।

बलकि किसी भी साधक को अपन दरीर, धन या इजजत की हिफाजत क

लिए या अपन साथ किय गय अनयाय को दर करन क लिए दीवानी या

फौजदारी अदालतो या पलिस की मदद नही लनी चाहिए ।

३. उस अपनी या अपनी कौम की जान, मिलकियत या इजजत

बचान क लिए अथवा लडाई-झगडो को दबा दन क लिए हिसक उपाय

काम म लान का विचार तक नही रखना चाहिए । बलकि अहिसा क

जरिय ही इत मसलो को हल करन का रासता खोजना चाहिए और

जररत होन पर मोत या दसरी तरह की आफतो को जोखिम भी

उठानी चाहिए ।

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मर अहिसा-विवचन

४, वयकतिगत और सामाजिक जीवन म जो हिसा होती ह या

जिसक होन का अनदशा रहता ह, ऐसी हरएक हिसा का असली सबब

खोजन की वह बराबर को शिश करता रहगा। हिसा क रासत जानवाल या

जान का इरादा करनवाल पकष म जो सचाई होगी, उस वह खद कबल

कर, समाज स करान की तथा उस पकष की शिकायत दर करान की

कोशिश करगा । इस तरह समाज को समझान म अगर वह‌ कामयाब न

हआ, तो हिसा करन जानवाल पकष स अहिसक उपाय काम म लान की

परारथना करगा । अगर फिर भी कामयाबी न हई, तो दोनो पकषो क

खिलाफ मनासिब ढग स सतयागरह करन का तरीका खोजगा ।

५. लोगो पर जब कोई आफत आ पड, तो खद जोखिम उठाकर भी वह आफत म पड हए लोगो की मदद कररन क लिए दौडगा ।

६ इस बात क बाहरी लकषण क रप म कि वह इन सब बातो

को समझता ह, साधक नीच लिख नियमो का पालन करता रहगा ---

(क) उस असपशयता, ऊच-नीच का खयाल और पकतिभद को

बिलकल छोड दना चाहिए ।

(ख) जाति, परानत, समपरदाय (फिरका), भाषा आदि सभी तरह

क सकर दरभिमानो स उस बिलकल बरी रहना चाहिए ।

(ग) उपक दिल म सरव-धर-समभाव सहज होना चाहिए ।

(घ) सतरी-परष-वयवहार और पसो क मामल भ उसका चरितर शदध होना चाहिए ।

(च) उस नियम स कातना चाहिए, खादीमय होना चाहिए और

दहाती दसतकारियो को परोतसाहन दना चाहिए ।

(छ) सारवजनिक सवा म और खासकर रचनातमक कामो म खद महनत और तयाग करक नियमित-रप स हाथ बटाना चाहिए ।

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अहिसा क आदरश, सिदधानत ओर आचार ह

(ज) उस सावजनिक ससथाओ म अधिकार की इचछा छ तक

नही जानी चाहिए । चढा-ऊपरी या खशामद आदि स अधिकार परापत

करन की कोशिश तो वह हरगिज नही करगा और सतय और अहिसा

क वासत चाह जितनी महतव की जगह छोड दन को तयार रहगा ।

जलाई, १९४१

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$ २३१४

वयवहाय अहिसा १

परसतावना

हिसा और अहिसा का विवाद अब कवर बौदधिक चरचा का ही

विषय नही रहा, बलकि यह विषय आज हमार लिए इतन तातकालिक

और वयावहारिक महततव का होगया ह कि जितना शायद आज तक कभी

नही हआ था । ह

गाधीजी न जबस 'सतयागरह' क नाम स विखयात अपनी परतिकार-

पदधति का परचार किया और उसक सिलसिल म इस अहिसा शबद को

राजनीति क कषतर म दाखिल किया, तबस इस पराचीन शबद म एक

नया अकर निकला ह। तीस स अधिक वरषो स गाधीजी अपन लखो

और परतयकष परयोगो दवारा उसका अरथ सपषट करन म अपनी शकति

लगा रह ह । फिर भी, हमम स कई लोगो का यह विचार ह कि यह

विषय या तो इतना बारीक ह कि वह मामली आदमी की समझ स

पर ह या फिर उसका अमल करना हमारी ताकत स बाहर ह ।

दसरी तरफ, हिसा को हम सब समझ सकत ह। थोड म कह

तो, नय अधिकार परापत करन या परान हको की हिफाजत करन

क लिए हमारी सवारथ-बदधि हम जो-जो भल-बर उपाय सझा द, व सब

हिसा क कषतर म आ जात ह । हम रात-दिन अपन चारो तरफ उसका

अतयनत भयकर ओर पकड म ही न आ सक इतन सकषम रपो म भी

अनभव होता रहता ह । आज दो वरषो स यरोप जोरो स उसक परभाव

म आया ह और उसस दनिया की--या कम-स-कम हमारी--सथिति

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वयवहाय अहिसा ११%

इतनी गमभीर हो गयी ह कि हम अपन जीवन की रकषा क लिए हिसा

और अहिसा क बीच कछ-त-कछ निरणय करक इस या उस रीति स

अपन समाज को तयार करना ही चाहिए ।

परनत जबतक हम हिसा और अहिसा की शकतियो और मरयादाओ

की सपषट कलपना न हो, तबतक यह निरणय बदधियवत नही हो सकगा ।

इसलिए कछ महनत करक भी दोनो को समझन की कोशिश करना

उचित ह । इन लखो म मन इस विषय का अपन लिए विचार करन का

परयतत किया ह । मझ आशा ह कि उसस पाठको को भी सवय विचार

करन म मदद मिलगी । व यह विचार करन म मन यह मात लिया ह कि जब जीन और

मरन का सव।ल सामन होता ह, तब लाखो लोग अहिसा की फवल नतिक

शरषठा क कायल नही रह सकत | कारण कि जब सामन सकट मह

फाड खडा हो, तब बहतर लोगो का नतिक सिदधानत डावॉडोल हो

जाता ह, और उनका घथ तथा मनोबल काफर हो जाता ह ।

परनत सयोगवश १९३९ क सितमबर स यरोप म कछ ऐसी

घटनाए हई ह कि जिनक कारण हिसा-वादियो का भी हिसा पर स

विशवास डगमगान लगा ह । पारसाल समाचार-पतरो को दिय हए एक

वकतवय म परकट हए पणडित जवाहरलाल नहर क नीच लिख उदगार

सभी विचारशील लोगो की मनोदशा वयकत करत ह ---

2 इस लडाई और उसक पहल की घटनाओ न मझ हिसा की

वयरथता जसी साफ दिखा दी ह, वसी उसस पहल कभी नही दिखायी थी ।

हिदसतान की आज की हालत म किसी बलवान‌ राजय स हिसातमक साधनो

दवारा हिनदसतान की रकषा करन की बात तो बिलकल फिजल ही मालम

होती ह । कम-स-कम मौजदा लडाई म तो फलोतपादक रीति स वसा

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१२ अहिसा-विवचन

करना नाममकिन ह ।/*!

मानस-शासतर का यह नियम ह कि एक शकतिशाली वसत भी

जिसका उसपर स विशवास उठ गया हो उसक हाथ म शकतिदायिती

नही हो सकती । जसा कि वॉन दर गॉलज न कहा ह, “शतर की सना का नाश करन की बात इतना महततव नही रखती जितना कि उसकी

हिममत तोडन की बात रखती ह । अगर दमन क दिल म तम यह

बात जमा सको कि वह हार रहा ह, तो तमहारी जीत निशचित ह ।९

सनत तकाराम न एक अभग म डरपोक सिपाही की सनोदशा का

वरणन किया ह -- “एक हाथ म ढाल ओर दसर म तलवार ह । दोनो हाथ उलक

हए ह । अब म लडाई कस कर ? बदन पर बसतर और सिर पर टोप

तथा कमर म पटटा लगा हआ ह | यह भी तो मरी मौत का ही दसरा

निमितत पदा हआ ह । तिसपर, इनहोन मझ घोड पर बिठा दिया ह । अब म दोड, और भाग भी कस ? इस परकार सार उपाय मौजद

होत हए भी यह उनह अपाय समझता ह और कहता ह कि कया कर |

तातपरय यह कि जिस हासतर पर स हमारा आतम-विशवास उठ गया

हो, उसका हम सफल परयोग नही कर सकत | इसलिए कवल अपन

सवारथ की खातिर भी हमार लिए अहिसा क वयावहारिक अगो को

ठीक तरह समझ लना जररी ह

कया हम अहिसा-शकति का इस परकार विकास कर सकत ह, कि

जिसस हम अपन राषटरीय सवाभिमान, सवतनतरता और जान-माल की

ठीक-टीक रकषा करत हए अपना जीवननिरवाह कर सकन की बदधियकत

५. 'बासज ऋनिकल' : ता० २३ जन, १९४० । ३. रिलरड परय : पॉवर आऑब नॉन-वापोलनस ।

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बयवहारय अहिसा १३

आशा कर सक ?'

इस सवाल का विचार करना इस लखमाला का उहशय ह । *

द‌

शदध अहिसा और वयवहाय अहिसा जसा कि म ऊपर कह चका ह, हिसा को हम सब समझ सकत ह ।

जस कि दवप, बदला, बर, छडाई, कररता, पशता (हवानियत ) , दगा, जलम,

बलातकार, अतयाच#र, छोषण वगगरा तरह-तरह की बराइयो म हिसा

ह । इसी तरह हिसा क ठीक विपरीत शदध अहिसा क गण को समझना

भी मशकिल नही ह । जस कि परम, कषमा, मतरी, शानति, दया, सभयता,

मरलता, सवा, रकषा, दान, उदारता आदि सब परकार की भलाई शदध अहिसा ह । यदि एक मनषय चाह तो उसक लिए शदध अहिसक अरथात‌

परोपकारी, उदार, नि सवारथ होना असमभव नही ह ।

परनत साफ ह कि यह सवभाव जबरदसती स नही आ सकता ।

मनषय उस अपनी राजी-खशी स ही परकट कर सकता ह । शदध अहिसा

दिखाना और अपन अधिकारो का दावा भी पश करना--य दोनो बात

एक साथ नही हो सकती | मगर शदध अहिसक होत हए भी दषकरम

स परम नही किया जा सकता। उसकी घणा तो रहगी ही। अब

गाधीजी जिस अहिसा को समझात ह, उसम हमार अधिकार नषट करन-

वाल की हिसा किय बिना अपन अधिकारो का दावा पश करन की एक

बीच की पदधति ह | शदध अहिसा और इस अहिसा क इस भद को समझ

लना जररी ह। इसलिए मन इस दसरी चीज को वयवहार (वयवहार म आन योगय) अहिसा का नाम दिया ह । दश क राजनतिक और सामाजिक

परइनो क लिए इस परकार की वयवहाय अहिसा का क‍या अरथ ह, उसकी

कया दात ह और कितनी दाकति ह,उसक जरिय हमार मिट हए अधिकार

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१४७ अहिसा<विवचन

हम फिर स कस परापत होग और परापत अधिकारो की रकषा किस परकार

होगी--इसकी शोध अगर हम कर सक, तो काफी ह ।

कषणमर क लिए म 'शदध अहिसा' की जगह “अति-भलाई' और

'हिसा' की जगह 'बराई' शबद लाऊगा। थोडा-सा विचार करन स मालम

होगा कि मनषय की एसी बीच की सथिति हो सकती ह, जहा न तो

बह अति-भला होगा और न बरा ही। अति-भलाई का उदभव

नि.सवारथता, दसर क भल क लिए खद कषटसहन कटधन की वतति म स

होता ह । ससकत म उस 'परारथी कहत ह । परनत हमशा यह नही

कहा जा सकता कि एक मनषय पराथ शरम नही करता, इसलिए वह

बराही ह| बराई क बिना भी सवाथवतति हो सकती ह । जस म

अपना खत या उधार दी हई रकम वापस पान की इचछा कर, तो म

अति-भला होन क शरय. का हकदार' नही हो सकता, परनत यदि कोई

मझपर बरा होन का आकषप लगाय तो, उस म सवीकार नही करगा और अपनी चीज वापस पान की इचछा म जो सवारथ-वतति ह, उस सवीकार करन म शरमाऊगा भी नही, बलकि जररत होन पर यह भी

कहगा कि मरी यह सवारथ-वतति न‍यायय और उचित ह । मनषय-मनषय क बीच टणटा एक तरफ अति-भलाई और दसरी

तरफ बराई क बीच नही होता, वरन‌ एक तरफ नयायय और उचित

सवारथ-वतति और दसरी तरफ स अति-बराई क बीच होता ह। इस

बराई म खललम-खलला अनयायी अथवा नयाय का जामा पहनी हई

सवारथ-वतति होती ह । अरथात‌ न‍यायी सवारथ और अनयायी अयवा नयाया- भासी सवारथ का कलह होता ह। और हमारी खोज का विषय यह ह

कि बराई क साधनो का परयोग किय बिना अनयायी सवारथो का मका- बला करक हम अपन नयायी सवारथ किस परकार सिदध कर सकत ह ?

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वयवहारय अहिसा १९

इसकी जो रीति होगी वही वयवहाय अहिसा होगी ।

इसस मालम होगा कि वयवहाय अहिसा म हिसातमक उपाय

शामिल नही हो सकत; अलबतता शदध अहिसा की वततिया हो सकती

ह। अथवा यो कह लीजिए कि हर परकार की सवारथ-वतति म बराई

का होना जररी नही ह और भलाई क अश का उसस विरोध नही ह ।

इस तरह वयवहाय अहिसा की वयाखया नीच लिख अनसार की जा

सकती ह .--

बराई स रहित और भलाई क अश स यकत नयायय सवारथ-बतति

वयवहाय अहिसा ह ।

यह आदश या शदध अहिसा नही ह । वह तो अति-भलाई का ही

दसरा नाम ह । जिस मनषय को अपन अधिकारो की तीजर वासना हो,

और' उनह परापत करन की उतसकता हो, वह अति-भलाई नही कर

सकता । परनत विरोध करत हए भी वह न‍यायी और अहिसक रह सकता

ह । विरोध का शमन होन पर उदारता भी दिखा सकता ह । विरोध क

चाल रहन तक उसकी भलाई की वतति कछ रपत हई-सी मालम होगी ।

परनत ऊपर की वयाखया क अनसार वह दवदय म तो रहगी ही ।

अब दखना यह ह कि एक बलवान शकति क रप म क‍या ऐसी

वयवहाय अहिसा का सगठन समभव ह? और अगर समभव ह, तो उसकी मरयादा और पदधति कौन-सी हो सकती ह ?

३ साधारण शरादमी

इस विषय का और आग विचार करन क पहल कछ मलभत

घारणाए परसतत करना आवशयक ह । कयोकि, अगर इनक विषय म ही

मतभद हो, तो बाकी क विचार को सवीकार होन म सनदह रहगा । मनषय-

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१६ अहिसा-विवचन

सवभाव को जाननवाल अधिकाश लोग मर मनतवयो स सहमत होग, ऐसा

मानकर म अपन विचार रखता ह ।

मरी राय म मनषय-समाज का बहत बडा हिससा साधारण रीति स हिसा और बराई स घणा करता ह । वह एक हद तक भलाई करना

पसनद करता ह, और हमशा उसक परति आदर रखता ह । जो परजाए खती-

बाडी और लडाई स सबध न रखनवाल उदयोग-धनयो तथा वयापार म

लगी हई ह, उनम यह बहमति अधिक मातरा म होती ह । जो परजाए

खानाबदोश बौर लटरो की जसी वतति की ह और धनधो तथा शसतरो क उदयोगो पर अपना जीवन-निरवाह करती ह, उनस इस बहमति कौ मातरा

कछ कम होती ह ।

'मनषय-समाज का बहत बडा हिससा हिसा स घणा करता ह,' यह

कहन स मरा आशय यह नही ह कि य लोग हिसक आचरण कर ही

नही सकत, अथवा हिसक नता क नततव म उनह हिसक कारयो क लिए

सगठित करना असभव ह। म यह भी नही कहना चाहता कि व कभी

सवचछा स तो हिसा करत ही नही । मरा आशय इतना ही ह कि हिसा

की तरफ उनका इतना सवाभाविक झकाव नही होता अथवा अहिसा स

उनह इतनी घणा नही होती कि उनह दढतापरवकर हिसा स दर रहन

की सलाह दी जान पर भी व उस मानन म असमरथ रह। इतना ही

नही, बलकि मनषय-समाज क बहत बड हिसस को अगर हिसा तथा

बराई और अहिसा तथा भलाई म स किसी एक को सवततरतापवक पसद

करना हो, तो साधारण परिसथिति म वह अहिसा और भलाई को ही

पसनद करगा ।

म यह नही मानता कि यह बात कवल हिनदसतान पर ही छाग

होती ह, कित सथायी-रप स बसी हई सभी दझयो की परजाओ पर लाग

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वयवहाय अहिसा पर]

होती ह । सामानय दनियादार आदमी को अपन घर, परिवार, मिलकियत

और दश तथा दशवासियो स आसकति होती ह। इन सबका बिलकल

तयाग करन को वह तयार नही होता । इसीलिए उनक लिए लडन को भी

आमादा ( उदयकत ) होजाता ह । यह लडाई किस तरह की जाय, यह

निशचित करन का काम वह अपन राजा या नता को सौपता ह | वह खद

भोला-भाला होता ह और अगर उस योगय शिकषा और मारगदरशन न मिल,

तो बारक और जानवरो की तरह वह सवय-पररणा स बिना बिचार हिसा

करन को भी पररित होगा । परनत अपन विशवासपातर नता का मारग दरशन

मानन क लिए वह हमशा तयार रहता ह और बाबर, शिवाजी या

हिटलर जग अथवा बदध और गाधी जस, दोनो परकार क नताओ का एक ही स उतसाह ओर सचाई क साथ अनमरण करता ह ।

परनत परतयक यग और समाज म कछ असाधारण मनषय उतपनन हात रहत ह । उनम या तो असाधारण बराई होती ह अथवा असाधारण भलाई । भछा वयकति सिफ बहत भला ही नही होता वरन‌ उस अति भकाई स आसकति हो जाती ह, और उसी तरह बर वयकत को भी बराई का चसका पड जाता ह । इसक साथ-साथ इन दोनो परकार क वयकतियो म असाधारण बदधि और अपनी बात लोगो क गल उतारन की

अदभत शकति भी होती ह । भलाई का अवतार मनषय की सातविक शकतियो को परोतसाहित करता ह तथा दसरा उसकी सवरारथ-वततियो को उकसाता ह । कछ छोग सातविकता की तरफ आसानी स झकत ह और कछ लोग बराई की तरफ । परनत बहतर लोग असथिर वतति क होत ह और कभी इधर को तो कभी उधर को झकत रहत ह | ऐस ल.गो क लिए दोनो वततिया तातकलिक उमयो जसी मानी जा सकती ह ।

मनषय-सवभाव पर दोनो म स कोई एक भी सथायी चिहन

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१८ अहिसा-विवचन

छोड जाती हई परतीत नही होती । थोडी दर म अतिबराई की

लहर की तरह अति-भलाई की लहर भी शान‍त हो जाती ह। अनतर

इतना ही होता ह कि बराई की अपजा भलाई क यग की समति विशष

अभिमान और आदर स ताजा रक‍खी जाती ह | तिसपर भी आहइचरय

यह ह कि दोनो परकार क नताओ की समति जनता एक ही स आदर

और पवितरता स रखती हई मालम पडती ह । परनत भलाई क णग क

लिए विशष परम और आदर, तथा उस फिर स पान की आवकाकषा क

आधार पर इतना कह सकत ह कि सामानय मनषय साधारण रीति स

हिसा और बराई स घणा करता ह और अहिसा और भलाई की तरफ

उसका झकाव होता ह।

9

सामदायिक भलाई तथा हिसा क लकषण अब एक कदम आग बढ । मनषयो क बहत बड भाग का झकाव भलाई की तरफ होता ह ।

इतना ही नही, उनम उस झकाव क कछ विशष रकषण भी हत ह । उदाहरण क लिए, जहा नताओ न कतरिम रीति स लोगो की भाव- नाओ को उततजित न किया हो, वहा परजा परायः पास क जषतर की अपकषा दर क कतर क लिए विशष उदार वतति रखती ह, चाह वासतव म उस दर क विरोधी स उस अधिक नकसान कयो न पहचता हो । ओर--बात चाह कछ विचितर-सी भल ही हो--छोग दबल और गपत शतर की अपकषा जबरदसत और परकट शतर क परति विशष सदभाव रखत ह । उदाहरण क लिए, बहादर-स-बहादर लटरा भी हल,गो को उतना कषट नही द सकगा, जितना कषट और तरास अनक यर.वीय दशो को नपोलियन न पहचाया था । फिर भी, जब वह हार गया तो आम जनता

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वयवहार झहटिसा १३६

को ऐसा नही लगता था कि इस मतय-दणड दना चाहिए। कल अगर

हिटलर की भी नपोलियन की जसी ददशा हो जाय, तो म समझता ह

कि लोग उसक लिए भी ऐसा ही उदार भाव रक‍खग। ऐस मौक पर

विरोधी राजनतिक नता भी शायद इसी परकार का निरणय करग ।

परनत जहा इनक निरणय क पीछ राजनतिक दषटि हो सकती ह, वहा

लोग, राजनतिक दषटि स नही, बलकि बलवान शतर क लिए परामाणिक आदर क कारण, ऐसी ही धारणा रख सकत ह । परनत यदि कही उनही

लोगो क हाथ उठक गाव पर धावा बोलनवाड लटरो क गिरोह का

मरदार लग जाय, तो उस यनतरणाए द-दकर मार डालन म वन

हिचकग ।

शानत वितत स विचार किया जाय, तो लट रो क सरदार दवारा किया

गया नकसान या अतयाचार नपोलियत या हिटलर क अतयाचार क मकाबल

म बिलकल तचछ ह । परनत छोक-समह की भलाई और हिसा म इस

परकार का विरोध होता ह । कारण यह ह कि जब नपोलियन-जस शतर

स यदध हो रहा ही, तब भी लोक-दषटि म ल रो की अपकषा वह अधिक

दर का, अधिक जञबरदसत और अधिक परकट शजन परतीत होता ह और

यह बात उनक आदर का पातर बन जाती ह ।

इसी कारण दश क विरोधी राजनतिक दलो की अपकषा अगरज और

उनक नौकर तथा मलाजिमो क लिए छोगी क दिल म कम दवष ह

और विरोधी दलो म भी सथावीय तताओ की अपकषा मखय नताओ स

कम दष होता ह । हालॉकि अगर व बदधि स विचार कर, तो समझ

सकत ह कि उतका मखय विरोध तो अगरजो अथवा विरोधी दलो क

मखय नताओ स ही होना चाहिए । परनत मखय नता की अपकषा सथानीय

कारयकरता अधिक नजदीक ह और अगरजो की अपकषा राजनतिक विरोधी

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२० अहिसा-विवचन

दल अधिक निकट ह । इसीलिए धारणा की तीवरता म अनतर पड जाता ह ।

और फिर अधिकतर छोग खन, अतयाचार, बलातकार, लट-खसोट

जसी सथल हिसा का जिस परकार समझ सकत ह, उसी परकार व वयसन,

विलास और शोपक जरथ-नीति आदि क दवारा की जानवाली सकषम हिसा

को नही समझ सकत। इसलिए व दसर परकार की हिसा क परति कषमा

या उपकषा-वतति रखत क अधिक आदी और इचछक होत ह । परनत

पहली परकार की हिसा स अधिक उततजित होत ह | इसी कारण व

किसी खास अनयाय या बठिनाई का विरोध करन क लिए जितनी

आसानी स तयार हा जात ह उतनी आसानी स सकषम रप म होनवाल

अनयायो अथवा बदधिपरयोग स ही समझ म आनबाल अधिकारो क लिए तयार नही हो सकन । विदशी राजय स होनवाला नकसान इतना गपत ह और उसम इतनी ललचानवाली बात मिली हई ह कि लोग यह आसानो स जान ही नही पात कि उस राजय स कोई वासतविक जीवनसपरणी और असहनीय हाति हो रहो ह । हमार जस दश म यह बात विशष मातरा म होती ह, कयोकि हमार दश क हराएक विजता न दश क परजाजनो स समबनध रखनवाला कारोबार दपन क आदमियो दवारा ही हमशा चलाया

ह। ऐसी बात नही ह कि लाग सवराज की लडाई को बदधिस भी न समझ सकत हो, परनत यह इतनी घथली होती ह कि उसकी बदौलत उनक भीतर सवराज क लिए तीतर जोश उतपनन नही होता। इसक

अतिरिकत जनता क सवाभाविक अहिसक झकाव क कारण कवल सवदशी सरकार को अपकषा सथिर और वयवसथित राजय क लिए उस अधिक आदर होता ह ।

साराश यह कि आनतरिक राजयकरानति क लिए लोकमत हिसक साधनो की अपकषा अहिसक साधनो क पकष म ही परी तरह होता ह ।

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बयवहाय अहिसा २१

इसी कारण हिनदसतान क लोगो न चाह अब-तब राजनतिक अतया-

चारियो और करानतिकारियो की थोडी-बहत वाह-वाही भल ही की

हो, तो भी उनकी महततवपरण मदद नही की । म यह नही मानता कि यह

हिनदसतान की ही विशषता ह । म समझता ह कि किसी दसर दश म भी

इसी परकार की परिसथिति म ऐसा ही होगा ।

4

दो बनियादी ससकरतियो लोक-समह की अहिपिक परवतति क विषय म म जो कछ कह चका

ह, वह मरी समझ म समगर मानव-जाति क विषय म भी सच ह। बह

किसी खास दश, जाति या धरम की विशषता नही ह। मर नमर मत स

राजधरम तथा शतरओ और गनहगारो क परति जो वतति दसर धरम और

राषटर धारण करत ह, उपस वदिक धरम का शिकषण अथवा साधारण

हिनद का रख काई विशष भिनन परकार का नही होता । दसर धरमो की

तरह हिनद राजनीति-शासतर क अनमार भी दणड अथवा, वरतमान परिभाषा

म कह तो, लाठी ही राजसतता का चिनह ह। महाभारत और रामायण

पढन स मर दिल पर जो सस‍कार हए ह, व अगर गलत न हो, तो धमम-

राज अथवा राम-राज म भो सखती क साथ राज-दणड का परयोग---

अलबतता, आजकल की भाषा म, कानन और वयवसथा की रकषा क

लिए---आवशयक ह । म नही समझता कि यहदी, ईसाई या इसलाम-

धरम क शिकषण स हिनद-धरम का शिकषण भिनन परकार का ह ।

परनत इन विचारो क साथ-साथ हरएक धरम न एक दसर परकार

की भी ससकति का विकास किया ह| म उस 'सनत-ससकरति' कहता

ह और पहल परकार की ससकति को, इसस अलग पहचानन क लिए,

भदर ससकति' कहता ह । मरा यह आशय नही ह कि भदर ससकति

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२२ अदिस!-विवचन

दषट, शतानी या हिसा-यक‍त ही होती ह, बलकि यह भी मानना होगा

कि दनिया की बडी-बडी परजाओ की जो जगमगाती अमलदारिया ह, व

उसीकी बदौरत ह । भदर ससकति न अनक बड-बड कारय और पराकरम

किय ह : भवय समारक खड किय ह, अमर साहितय का निरमाण किया

ह और विजञान तथा कला का तरिकास किया ह, मनषय म छिपी हई

सजन और अभिवयकति की अदभत और अपार शकतियो क विकास म उसका बहत बडा हाथ रहा ह | परनत, जहा दखिए वहा, भदर ससकतति

हमशा वश, जाति, घन, सतता, विदया, धरम आदि क अभिमान पर ही

ठहरी होती ह और उसक साथ यह अभिमात कि हम शरषठ लोग ह, हमशा पनपता ह। हिनद-धरम म या दसर किसी धरम म भी उसन हिसा

का समपरण निषध नही कया ह । हिसा ओर बराई का निषष करन का काम तो हरएक दश की

सनत-ससकति न ही किया ह और हरएक दश की सन‍त-ससकति क ससथापक अकसर सामानय जनता म स ही उतपनन हए हो, तो भी व साधारण जनता क साथ ए करप हए दिखायी दग । मनपय-मनषय क बीच की उचचो-नोची शरणिया अचल ह---और रहनी चाहिए--यह भदद-ससकति का सिदधानत ह ओर य सारी शरणिय। नषट होनी चाहिए---यह सनत-ससकति का सिदधानत ह । उनक नाश क लिए सनत हिसा था जबरदसती स काम नही लत, बलकि अहिसा या भलाई क साधनो का ही परयोग करत ह।

हरएक समाज म य दोनो ससकतिया साथ-साथ ही धरवरतित हई माछम होती ह । सामानय समाज एक तरफ स भदर सकति क अवीन होकर रहता ह और चपचाप उसक पीछ जाता ह और साथ-ही-साथ सनत-ससकति की पजा करता ह तथा अपनी शकति क अनसार उस अपन जीवन म चरितारथ करन ही शरदधापवक कोशिश करता ह ।

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बयवदारय अहविसा रद

जब-जब सनतो का विरोध हआ ह या उनह-सताया गया ह, तब-तब उसक

छिए भदर ससकति ही सरवथा उततरदायो रही ह । परनत कछ समय क

बाद भदग ससकति क अभिभावक इतना विनय दिखात ह कि व सनन‍तो

की वाहयतः पजा करन म जनता का साथ दत ह ।

इस सार विवचन का सार यही निकलता ह कि सामानय जनसमह

को आमतौर पर हिसा और बराई स घगा ह और भलाई की तरफ

उसकी सवाभाविक परवतति ह तथा सनत-ससकति का मकाबला करन

क लिए भदर ससकति क पास सिवा बल क और कोई दलील नही ह ।

६ हिनदसतान की विशष परिसथिति

उपरिनिदिषट सामानय मनतवयो म हिनदसतान की परिसथिति की

कछ खात बात और जोड दनी चाहिए :--

(१) यह सच ह कि हिनद-धरम की भी भदर ससकति म हिसा और

लडाई का षध नही ह । परनत हिनदसमाज का चार बड-बड वरगो

म विभाजतव एक विशष वसत ह। उसक कारण हिसा और लडाई हिनद-

समाज क एक बहत छोट अश का वश-परमपरागत धनधा बन गया ।

अगरज-सरकार न हिनदसतान की जो हालत कर दी ह, उसी परकार की

घटता हिनद-काल म हई होती, तो ऐसा कहा जा सकता कि हिनद-

समाज क शासन-करताओ न शताबदियो पहल सिपाहीगिरी को एक ही

वरण का परमपरागत धनधा करार दकर हिनदओ क बड हिसस को नि'शसतर

बता दिया था। यथपि वासतव म बसा नही हआ ह, तथापि दोनो का

परिणाम एक ही ह । वरण-वयवसथा न जो बात अशत: और अधर रप

म की, वदी अपरज-सरकार न परी और पककी कर दी ह । उसन सारी

की सारी परजा को निशसतर कर दिया ह ।

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शह झहिसा-विवखन

नि.शसतरीकरण की इस परवतति का. हिनदनधम की सनत-ससकति स

कभी-कभी मकभाव स ही कयो न हो, सवागत ही किया ह । आजतक

बौदध, जन, वषणव, लिगायत और दसर सन‍तो दवारा सथापित बहत

स समपरदायो का हिनद-धरम म निरमाण हआ ह । उनम स कछ एक

नि शष हो गय, और कछ अबतक विदयमान ह । उत सबका उददशय अपनी

अपनी बदधि और शकति क अनसार समानता, अहिसा और नयाय क

सिदधानतो पर परसथापित ससकति का परचार करना ह । उनक उपदशो न

सिरफ लडाई स ही नही बलकि दसर पराणियो की हिसा और मासाहार स

भी घणा का ससकार पदा किया ह। हिनदसतान ही एकमातर ऐसा दश

ह जहा लाखो लोगो न मासाहार का तयाग किया ह और सकडो आदमी

साप को भी नही मारग ।

मतलब यह कि हिनदसतान की सथिति नीच लिख अनसार ह --

समाज-वयवसथा न हिनद-समाज क बहत बड हिसस को निःशसतर

कर दिया ह ।

समत-सलकति न लडनवाली जातियो क भी कई लोगो स इचछापरवक

शसतर-तयाग कराया ह। व एक तरह क अयदधवादी' बन गय। यह

परिवरतत भी कई सदियो स होता आया ह ।

१. हमार जन, बदणव परभति अहिसा-रघामियो को म न जानवपतकर 'एक परकार क अयदधवादी कहा ह । उनकी अईहसा सवय किसी की जान न हन अथवा दसर जोबो क पराण बचान तक ही मरयादित ह। बह जोवन क सभी कषतरो म वयापत नहो ह । लडाई क लिए उपयोगी वयापार या

उदयोगो म भाग न लन को या अपरतयकष रीति स भी लाई भ सदद न दन

की हद तक वह बढी नही ह। सकडो कषतरियवरगो न सवचछा स और

विचा रपरवक शलतरो को सयागकर अहिसक उदयोग-धनषो को सवीकार किया,

बह बशक अपदधबाद को विदा म एक बडा करम माता जा सकता ह ।

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बयवहारय अहिसा २५

राजय-वयवतया न हिनद और अहिनद सारी परजा को करीज सी

वरषो स लगभग निःशसतर कर डाला ह ।

दश को आशिक वयवसथा न इसस भी बड हिसस की, या यो

कह लीजिए कि सारी आबादी क बहत बड हिसस की, यह हालत कर

डाली ह कि उस शासतरो की कोई जररत ही नही रही, कयोकि उनक

पास ऐसी कोई निजी मिलकियत ही नही रही ह, जिस शतरओ या

लटरो स बचान की उनह चिनता रह।

(२) हिदसतान की परिसथिति म दसरी खास बात यह ह कि

हमारा दश बहत ही बडा ह, यान रस को छोडकर शष यरोप क

बराबर । पराचीत काल म उस दश क बदल यरोप की तरह खणड ही

कहत थ । इसक ससकत नाम--भारतवरष, भरतखणड, आरयावरत आदि

खणड-सचक ह। आज हम जिनह परान‍त कहत ह, उनकी गरिनती

जद-जद राषटरो म हआ करती थी। परनत कछ समय क बाद--और

अब उस भी हजारो वरष बीत गय ह--एक ही परकार की ससकति क

परचार क कारण वह खणड क बदल एक ही दश बन गया और उसम

बसनवाल सभी लोगो की एकमातर मातभमि माना जात छगा। उनम

आपस म झगरड-ठणट भल ही होत रहत हो, भिनन-भिनन भागो की उननति

और अवनति क रग भल ही बदलत रहत हो, जाति, धरम, भाषा

इतयादि की गतथिया भल ही उपसथित होती रहती हो, परनत तो भी

भारतवासियो और विदशियो क चितत पर यह सरकार पकका जम गया

ह कि वह अनक दशो का समह नही ॥3254, णड मौगो-

लिक परदश ह । इतना ही नही, यह 8 र परकारानत री

हआ । अरथात‌ विदशी विजताओ न भी एक घाथाहितसतातए आकर

बसन क बाद थोड ही समय क परचात: हिनदसतान की

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२६ अहिसा-विवचन

क पररशो पर अपना अधिकार जमान या बनाय रखन की जयादा

उतसकता नही दिखलायी। अधिक-पर-अ धिक अफगानिसतान तक हिनद-

सस‍तान की हद मानी जाती थी। हिनदमतान म सामराजय सथापित करन

की अभिलाषा करनवालो क लोभ की मरयादा इसस आग कवचित‌

ही बढी ह ।

(३) तीपरी बात हिनदसतान की लोक-सखया ह । हमार दश की

आबादी घनी ह।यह समभव नही ह कि सामराजय-लोभी दश हमार

दश म अअना राज कायम कर अपन दशवासियो को यहा लाकर

बसाय । हमार दश पर सदा क लिए अपना परभतव बनाय रखन की

उतकी आकाकषा क पीछ इस दश की साधन-सामगरी और हमारी परजा

की महतत स अनचित लाभ उठान का हत ही हो सकता ह । (४) चौथी बात यह ह कि अगर हिनदसतान यदधवादी बन जाय,

तो भी वरतमान यदध क दौरान म तो उसक लिए परिणामकारक रीति

स शसतर-सजज होना असमभव ह । भविषय म भी वह विदशी घत और

निषणातो की मदद स ही परगत होन की आजा कर सकता ह । लकिन

इस परकार तयार होत की शरत इतनी कडी होन की समावना ह कि उनक

बोझ क नोव हिनदसतान दब जाय और उसकी परण सवतनतरता नाम

मातर की ही रह जाय । सहायता करनवालो की नीयत हिनद'तान को

पसो स खरीदन की रहगी ।

साराश इस सारी वसत-सथिति स यह सार निकलता ह कि--

(१) इचछा या अनिचछा स निःशसतरीकरण की दिशा म हम इतन

अधिक आग बढ गय ह कि अब तो हम अपनी वरतमान परिसथिति म

स ही जीवन और समदधि का मारग खोजना चाहिए जिस शसतर-वदधि

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बयवहायय झअटहिसा २७

की नीति का हम ससार स तयाग कराना चाहत ह, उसी का अनसरण

करना हमार लिए निरथरथक होगा, हम अपनी इतनी विशारता बौर

घनी बसती क बावजद भी अगर शसतरासतरो क बिना अपनी सवतसतरता

की रकषा की आशा नही कर सकत, तो हम सीध-सीघ यह कबछ कर लना चाहिए कि नि.शसतरीकरण का आदरश मखतापरण और भयावह ह ।

(२) इसक अलावा उपरयकत वसतसथिति स ही परकट ह कि हमार

अपन दशी सिरराहियो को भरपर सहायता क बिना कोई भी आकरमण- कारी हमार दश क किसी भी हिसस पर हमशा क लिए कबजा नही

कर सकता ।

(३) उसी परकार कोई भी विदशी सतता रोजमररा क कारोबार

म साधारण जनता क नितय सहयोग क बिना एक दिन क लिए भी

राज नही कर सकती । और

(४) कोई भी विदशी सतता चाह वह कितता भी यनतरीकरण कयो

न कर, हमार दश की मजदरी की सहायता क बिना हमार दश की

साधन-सामगरी का उपयोग नही कर सकती ।

(५) इसलिए हिनदसतान अगर असहयोग की नीति पर परा-परा

अमल कर सक, तो अपनी रकषा क लिए वह उगली भी न उठाव, तो

भी कोई विदशी सतता उसपर कबजा नही कर सकती ।

यह किस दरज तक समभव ह, इसका विचार आग किया जायगा ।

यहा तो इतना ही कह दना काफी ह कि अगर हम परी तरह और

सन‍तोषजनक रीति स अहिसातमक तनतर का सगठन न कर सक, तो भी

याद रह कि हमारा हिसकतनतर भी अतयनत निबझ और हमारी अपनी

दषटि स भयकनारक रहगा, कयोरति अहिसक तन‍तर की अपकषा हिसक ततव

क लिए अतयनत मजबत आनतरिक सगठन कही अधिक आवदयक ह ४

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र८ झहिसा-विवचन

ऐस सगठन क बिना जो सनिक-आयोजन होगा, वह दश को सवतनकर

करन या रखन क बदल उस भीतरो कलहो और अवयवसथा म तथा

बाहर क राजयो क साथ षडयनतरो और साजिशो म उलझाय रखन म जयादा वयसत रहगा । पिछल हजार स अधिक वरषो का हमारा यही

अनभव ह । चीन का भी यही अनभव ह। इसलिए, जहातक मझ

समरण ह, सवतनतर चीन क पिता डॉ० सव-यात-सन का कथन था कि

अगरजी राज क कारण चीन की अपकषा हिनदसतान की हालत कई तरह

स बहतर ह कयोकि हिनदसतान को सिरफ एक ही विदशी सतता स लडना

ह, परनत ( उनक जमान म ) चीन कहन को तो सवतनतर राजय माना

जाता था, लकिन दरअसल वह अनक विदशी मालिको क कबज म था । हि

आकरमण और अराजकता हिनदसतान को किसी विदशी सतता दवारा सदा क लिए जीत जान

स बचान का अहिसक सगठन ही एकमातर उपाय ह, यह मन अबतक बतलाया । अगर अहिसा यह करन म सफल न हई, तो हिसा क सफल होन की आशा और भी कम ह ।

परनत यहा एक सवार पछा जा सकता ह 'महमद गजनवी, अहमदशाह अबदाली या बाबर न हिनदसतान पर जिस परकार क आकरमण किय, वस आकरमणो स कया अहिपा उस भविषय म बचा सकगी ? अथवा शिवाजी न जिस परकार सरत को लटा या नादिरशाह न दहली को लटा, उसी परकार कोई आकरमणकारी थोड दिन क लिए बमबई, कलकस और दहली पर कबजा कर ल और वहा क बको, भणडारो तथा गोदामो और लदघपतियो को लटना शर कर द, तो कया अहिसा स उसका परतिकार हो रकता ह ?!

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वयवहायय अटटिसा २६

इसक जवाब स म कहगा कि सिदधानत की दषटि स यह मानना ही पडगा कि समपरण अथवा आदरश अहिसा म इस परकार की शकति ह ।

परनत हम यहा इस परकार की आदरश अहिसा का विचार नही कर रह

ह; वयवहारय अहिसा का ही विचार कर रह ह । इसलिए मझ कबल

करना चाहिए कि इस परकार की अहिसा म ऐस आकरमणो को सपरण

रीति स रोकन की समभावना हम मान, तो भी वह बहत दर की मानी

जायगी । परनत इतना कहा जा सकता ह कि अगर हम सवयवसथित,

निषठावान और वीरतापरण वयवहाय अहिसा का सगठन कर सक, तो

इस परकार की चढाई क सिलसिल म जो कतल, जलम, समपतति का सर-

आम विधवस और दसर फौजी उपदरव आम तौर पर हआ करत ह,

उनक परिण।म और परकार कम होन का अशछा समभव रहगा । इसस

कई गना जयादा यह भी समभव ह कि ऐसी अहिसा क फल-सवरप

आकरमणकारियो म स कछ क हदय म पशचातताप और हाम की भावना

पदा हो । और इतना तो निशचित रप स कहा जा सकता ह कि इस

अकार की अहिपक बहादरी इतिहास म अमर कीति छोड जायगी । हिसक

परतिकार म भी इसस जयादा आशवासन नही मिलता । हिसा म कछ-न-कछ

आधयातमिक हानि होती ही ह। वह अहिसक वीरता म नही होती । परनत

यदि आप यह कह कि अहिसा जब किसी भी परकार का भौतिक नकसान

न होन दन का आशवासन द सकगी, तभी हम उसकी शकति सचची मानग,

तो मझ कहना होगा कि हिसक परतिकार म भी तो इस परकार का कोई

आइवासन नही दिया जा सकता । इसलिए अहिसा पर ऐसी शत रगाना

उचित नही ह । निरचयपरवक तो इतना ही कहा जा सकता ह कि असफलछ

हिसक परतिकार स होनवाली जान- माल की हानि की अपकषा अहिसक

अतिकार स होनवाला नकसान कभी भी कम ही रहगा ।

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३० अटिसा-विवचन

विदशी क आकरमण या चढाई का सामना अहिसा स जिस परकार

किया जा सकवता ह उसी परकार किसी पडोसी दशी नरश या लटर क

हमल का भी किया जा सकता ह । छ कित--चाह सनन म बात कछ

विपरीत लग तो भी--पहल की अपकषा यह दसरा काम अधिक मशकिल

ह । कारण कि दशी नरश या लटर की चढाई सनिक आकरमण क रप

की होत हए भी वासतव म वह हमारी भीतरी लडाइयो अथवा गनाही

की कोटि की ही होती ह । इस परकार की चढाई किस दिन और किस

तरफ स होगी, इसका कोई ठिकाना नही होता । यह भी नही कहा जा

सबता कि उसकी चतावनी हम मिलगी ही । उसम शामिल होनवाल

लोग हमार ही दश क होत ह। इस तरह क हललड का यही अरथ ह

कि हमार घर ही म भीतरी फट ह और हमार समाज-शरीर म किसी

रोग न घर कर लिया ह । यह रोग चाह निरकश सवारथ-वतति का हो,

अतयनत दरिदरता का हो या किसी अनय|य-जनित बर-बतति का हो, ह वह

भीतरी रोग ही, बाहरी आघात नहो ।

आज जो हमारी परिसथिति ह, उस दखत हए दशी राजयो क

आकरमण की चरचा करता वयरथ ह । इतना कहना काफी ह कि अगर

ऐसी परिसथिति उपसथित हो जाय, तो विदशियो का सामतरा जिन

अहिसक उपायो स कया जायगा, उनही अहिसक उपायो का और रिया- सती जनता अपनी रियासत म परतिनिधिक राजतनतर परापत करन क लिए जो उपाय काम म लायगी उन सब उपायो का परयोग करना होगा ।

लडरो और डाका डालनवालो क परशन को दसरी रीति स हल करना पडगा । वयवहाय अहिसा म यह नही माना गया ह कि साधारण परिस और उसक साधारण हथियार भी नही रहग । इसलिए मोट

सौर पर यह कहा जा सकता ह कि पलिस का जयादा परबध करना

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वयवहाय अहिसा ३१

पडगा । साधारण चोरियो का बनदोबसत करन क लिए यह परयापत माना

जा सकता ह, परनत बडी-बडी हसतरवारी टोलियो का मकाबिला करन म उनका जयादा उपयोग न होगा।

लकिन, पलिस क कामो म एक दसर तरह क काम का भी समावश

होता चाहिए । पलिस का असली काम यह होना चाहिए कि अपराधो

को होन ही न द । परनत वरतमान परणाली म पलिस गनाहो को रोक

नही सकती, सिरफ गनाहगारो पर निगरानी रखती ह और गनाहो क

हो जान पर गनहगार की तलाश करक उस गिरफतार करन और सजा

दिलान की कोशिश करती ह । गताहो को रोकन क लिए तो उनक

कारणो का अधययन होता चाहिए और उनह हटान की कोशिश होनी

चाहिए : कया भखमरापन या दसर किसो तरह का कषट ह ? अथवा

कया क.ननी मारग स अपना परषारथ परकट करन की सविधा का अभाव

ह? वर ह? वासतविक या कालपनिक अनयाय को दर करान म

असफल होन क कारण निराशा ह ? घाभिक जनन ह ? वश या जाति

स समबनध रखनवाली कोई लडाई ह ” --इन सब बातो की छात-बीत

करनी चाहिए ।

परनत साधारण पलिस क कारयकरम म इन बातो का.सथान नही होता ।

य तो रचनातमक कारयकरम की घाराए ह । इस तरफ राजतनतर या गरर-

सरकारी ससथाओ न अबतक परा-परा धयान नही दिया ह । इसलिए

अराजकता क वक‍त कछ-न-कछ दणड तो भगतना ही पडगा। घनिक

छोग अपनी माल-मिलकियत की रकषा क लिए पठानो या लठतो को

रखन क बदल अगर रचनातमक कारयकरम को उदारता स सहायता द और अपन आतामियो, काइतक,रो, मजदरो, नौकरो तथा गरीब लोगो

क साथ उदारता का वयवहार कर और उनक जीवन म अधिक समभाव

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शर अदिखा-विवचन

स दिलचसपी लन लग, तो यह दणड उस अश म कम हो जायगा।

भलाई का बदला तरनत ही भलाई क रप म नही दिखायी दता । खास

कर जब भलाई लाभ-हानि का हिसाब करक या भय क कारण की

जाती हो, तब उसक तातकालिक फल-सवरप सामनवाला जयादा गडा

भी हो सकता ह । लकिन उसका यह रख दर तक टिक नही' सकता ।

आखिर म तो न‍याय-वयवहार क फलरवरप परममय सबध ही कायम होत

ह । और वयवहारय अहिसा म अपन तथा पराय छोगो क साथ नयाय-

परण तथा उदार वयवहार की जररत तो ह ही ।

पर अरहिसक सगठन की समभावना और कठिनाइयॉ

अब अहिसक समठन की समभावना तथा कठिनाइयो पर विचार कर ।

इस विषथ म हमार हक म एक बडी बात यह ह कि कई यगो की आदत स हमम असहयोग का सगठन करन की लगभग जनम-सिदध कशलता आगयी ह । असहयोग का विचार करत समय हम ऐसा आतम- ह विशवास महसस करत ह कि वह आला दरज की यकतित ह । हमन असह- योग क हथियार का उपयोग बहत दफा किया ह--कभी तलवार क तौर पर, तो कभी ढाल क तौर पर, कभी वर वतति स, तो कभी सतयागरह- बतति स । बहिपकार की कठोर-स-कठोर रीति क परयोग स हमन हरिजनो को कस कचल डाला ह, इसका उदाहरण तो आज भी हमारी आखो क सामन मोजद ह | वह असहयोग का ही एक उपर रप ह । हरिजनो क खिलाफ इस हथियार का उपयोग करक इतनी सदिया गजर गयी ह कि किन गनाही क छिए उनपर यह शसतर चलाया गया था, यह भी आज हम जानत नही ह । समभव ह कि किसो कारणवश उनका कडा बहि- रकार किया गया हो और उपतक फलसवरप उनह उनक आज क नीच

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वयवहार अहिसा ३३

मान गय घनम ही सरवताशष स बचन क उपाय परतीत हए हो । असपशयता तो उस बहिषकार का सोमय-स-सौमय रप माना जा सकता ह । असपषय

वयकति की छाया का भी सपरश न हो और वह नजर क सामन भी न

आय, इस हदतक वह कही-कढी पहचा । जिस परकार जाति की रढि क

उललधन क लिए कभी-कभी वयकतियो या कटमबो को जाति स बाहर

कर दिया जाता ह, उसी परकार अगर यह अहिसक चतति स किया गया होता, तो जररत खतम हो जान पर हटा लिया जाता। हमारी अनक

जातिया, उपजातिया आदि असहयोग क शसतर क ही उचित या अनचित

भरयोग म स उपजी ह ।

मसलमान इस दश म विजताओ और धमरमपरिवरतत करानबाझो

क रप म आय, तोभी उनह हिनदओ की असहयोग कायम करन

की शकति सहन नही हई। जो हिनद डर या राभ क लारच क

अधीन हआ, उस हिनद-समाज न अपन रासत जान दिया, परनत

उसस सब तरह का सामाजिक बनधन तोड दिया गया। परतयकष हिसा

किय बिना असहयोग की मरयादा म रहकर जिस मातरा म हो सका,

उस मातरा तक खद विजता जातियो को भी समाज स बहिषकत रखा

गया । राणा परतापसिह और मानसिह का दःखपरण कषमडा--जिसक

कारण अकबर स वरषो लडाई ठनी--एक तरफ विवरमी विजता का

समपरण बहिषकार करन की और दसरी तरफ उसस मझ करन की

वततियो क कलह का उदाहरण ह । मानसिह न अकबर क साथ विवाह-

समबनध किया, इतन ही कारण क लिए जयपर राजय स लडाई छडन

की राणा परताप की इचछा नही थी। परनत मानसिह का बहिषकार करक

उसक कतय क निषध का अधिकार परताप को था। उस अधिकार कर

अमल करन का आगरह उसन दिखलाया। आज की भाषा म यो कह

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३४ आअहिसा-विवचन

सकत ह कि यह हरएक नागरिक क अधिकार की बात ह । परनत राजा

लोग कोई नागरिक नही होत। और जब किसी बलवान साथी क

खिलाफ किसी अधिकार क उपयोग करन का मोका आता ह, तब झगडा

हो ही जाता ह। इसक अलावा राणा परताप अहिता का कायल नही था,

बलकि लडाई को कषातरधरम का अग मानता था। इसलिए उनक बहिषकार

म स रकतपात और यदध पदा हो गया तो कया आइचय ह ?

परनत जहा असहयोग का हथियार सामानय नागरिको न बरता,

वहा वह परतयकष रक‍तपात स मकत रह, इतनी मरयादा समहाली। मसलमानो

और हरिजनो का एक हिससा अलग-अलग चनाव और पाकिसतान की जो

नयी माग कर रहा ह, वह भारी निराषषा का परिणाम ह। खन-

खराबी किय बिना सफल असहयोग करन की हिनदओ म जो सहज

शकति ह, उसक डर का यह परिणाम ह । एक वयकति दसर स अछता बन-

कर रह, ऐसी समाज-रचना की जररत अब नही रही ह। अब तो

एकतर होन की जररत ह । परनत परान अभिमान, घणाए और सकी-

णताए अब भी नषट नही होती और इसीलिए एक-दसर क साथ उचित

समबसध कायम करन क मारग खोजन म बाघाए उपसथित होती ह ।

परत यह बिषयानतर होगा ।

यहा यह भी कह दना जररी ह कि असहयोग की यह बदधि जनता

न इसलाम, ईसाई या सिकस आदि धरमो को अगरोकार करन पर भी गबाई नही ह । हरिजनो म तो वह भरपर ह । उलट यह भी कहा जा सकता ह कि पाकिसतान, अछतसतान आदि क आनदोलन हिनद-समाज

क अरग-अलग दल ( जमात ) बनान क सवभाव को अपनान क लकषण ह। अगर हिनदपत का यही आवशयक लकषण हो, तो कहना होगा

कि अब य पर-पर हिनद बन गय !

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वयवहाय अहिसा ३२

नयी परिसथिति क अनकछ बनान क लिए इस हासत को नय परकार स सजाना भर बरतना पडगा, यह सच ह। अहिसा क अधिक

सोधित सिदधानतो क अनसार उस शदध भी करना होमा। यहा मर

कहन का मतलब इतना ही ह कि हम इस शासतर स परिचित ह। और

उसक परयोग की कछा हम रगभग जनम स ही विदित ह। इसलिए

आवदयक इतना ही ह कि इस नीति-शञासतर क सशोधित सिदधानत उपसथित

किय जाय और उसक विधि-निषध बतछाथ जाय। य बात समझ म आत पर लोग अपनी सथानीय परिसथिति क अनसार उसक परयोग की

फटकर बयौर की बात अपन आप सोच लग ।

हमार लिए दसरी एक अन‌कल बात यह ह कि हमारा दश कोई

एक ऊनड भखणड नही ह, जिसम हम विदशी लोगो की मदद क

बिना जी ही न सक | बीसवी सदी क नवीनतम ढगक बड-बड

शहरो की सविधाए और भोग-बिलास हम भल ही तसीब न हो

सक; तो भी साधारण सविधा स रहना हमार लि नाममकिव नही

ह । हम यरोप और अमरीका क वग और चमक-दमक स कदम नही

बढा सक, तो भी सथिर कदम स आग बढत रहन क लिए हमार दश

म काफी कदरती साधन और मजदरो तथा बदधि का बल ह ।

यही नही, अगर समभाव और मितर-भाव स माग की जाय, तो आज भी अपन दश को मरयादित वग स आग बढान म हम

दसर दशो की परजाओ की मदद कर सकत ह। लकिन व अपन

बडपपन कौ डीग मारत हए, या हिसा की धमकी दत हए, मदद

पा नही सकत । इसक लिए ऐसा बराबरी का समबनध होना

चाहिए कि एक परजा दसरी परजा का सहयोग दोनो क हित क छिए

चाह । अहिसातमक असहयोग का अरथ दसरी परजाओ स अछग रहना ही

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£ 5] झहिसा-विवखन

नही ह । अलबतता दसरो क साथ सवाभिमान का समबनध कायम करन का

आगरह इसम ह। हार मानकर, लाचार होकर, विजता म विछीव हो

जान स वह इनकार करता ह। सवयपरणता का कारयकरम जड और निइचर

नही ह । वह हमशा बनद दरवाजोबाला किला नही ह । उसक दरवाज जररत होत पर खोल या बनद किय जा सकत ह ।

साधारण रीति स बल या घोड की सवारी म यातरा कर सक, अगीटी

या चलह पर पनी गरम करक मामली एकानत रखकर नहा सक और

दिन म एक बार अखबार मिठ, इतन स अगर हम सन‍तोष मानन को तयार हो, तो हम कवल अपन ही परिशरम स अपन दश की पनरचना करन का विधवास रख सकत ह । परत वजञानिक सभयता का जीवन तजी स अपनान की हमारी इचछा हो, तो हम पसोपश म डालनवाछी तरह-तरह की सपरसयाए जरर खडी होगी । सदियो की कठिन महनत स धीर-धीर बरी हई अहिसा-परधान ससकतिवाला हमारा समाज ही अहिपक रीति स इतनी तजञ पतरचना करन म एक बडी विकट पहली बन जायगा ।

मर शबदो को कोई गलत न समझ | म यह नही कहता कि हम आधनिक विजञान और उसकी मदद स होनवाली उतपतति, भोग तथा कदरती साधनो क उपयोग क लिए दरवाज बनद कर लन चाहिए । मरा निवदन इतना ही ह कि कदरत और यतरविदया क जञान की बदौलत जो-जो यानतरिक आविषकार या मजदरो की सखया घटान की यकतिया सझ, उन सबको जलदी-स-जलदी दाखिल करन फी घन हमपर सवार न होनी चाहिए । एक नवीनता दाखिल करन क पहल दख कि उसका समाज पर बया असर होता ह । ओर बाद म भो यह परख ल कि उसस लाभ ही हआ ह।उसप उतपनन हई परितयिति क अनरप हरफर कर छ,तब दसरी

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वयवहाय अहिसा ३५

नवीनता छान का विचार कर। पशचिम क दश विजञान क पीछ ऐस

हाथ घोकर पड ह कि अपन लकषय को पहचन क पहल ही गमराह हो

गय ह । और ऐसा करन म व एक-दसर स ऐस उलझ गय ह कि

किसका निमनतरण किसपर ह, यह निरणय करना भी कठिन हो गया ह ।

इस अठपट जाल म हमारा उलझ जाना जररी नही ह । सभय ससार क

विषय म जबतक उनक विचारो म परिवतन नही होता, तबतक हमार

भरसक दर रहन म ही भराई ह । उन‍नीसवी ही कया, हम कोई बारहवी

सदी म ही पड हए मान तो भी हम नही, उसीस सन‍तोष ह। विजञाल

क नय-स-नय आविषकार क अनसार सिनमा क चरचितर क समात बदलनवाड भोगमथ परनत उलझ हए और हिसक जीवन की अपकषा हम

परी खराक, कपडा और घर मिलता रह, तो वह सादी और नीरोग

तथा महनती लमबी आय हम विशष शरपसकर मालम होगी ।

&

कठिनाइयो ऊपर लिखी अनकलताए जहा ह, वहा कछ परतिकल परिसथितिया

भी ह, उनका भी विचार करता चाहिए।

बहत बडी जन-सरपा भी अपन-आपम कई अधविधाए पदा करती

ह । अखबारो स पता चलता ह कि जिन छोटी-छोटी और बहत सभय जातियो को हिटलर न परासत किवा, उनम भी दशदरोही छोगो

का बिलकल अभाव नही था | किसी का यह खयाल हो सकता ह कि जिनकी हाऊरत बहत बरी ह या जो बकार ह, ऐस छोग ही दशदरोही होत होग । परनत बदकिसमती स बहधा यह दरगण नता समझ जानवाल लोगो म भी पाया करता ह । हमार जस विशाल दश म तो अलग- अछय विचारो और आदशो को माननवाल कितन ही पकष ह तथा

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ड८ अहहिसा-विवर

परसपर अविशवास और सता तथा नोकरी का लोम भी ह । तब

अधहिसक सगठन का परयतन भला निविधत कस हो सकता ह ?

' परनत य पकष तथा वरग तो आखिर हिसा पर विशवास करनवाल

ह । इसलिए व अगर अहिसक रचना करनवालो क परयतन को निषफल

करता चाह तो कोई आशचरय नही ह । उनकी तो हम पहल स ही

गिनती कर लनी चाहिए । परनत इसस भी बढकर विघन उन लोगो की ओर स होता ह, जो खद तो हथियार उठात नही ह मगर अपन निजी

या अपन पकष क छाम क लिए हिमावादियो स सहयोग करत ह और

अहिसा की दरत पाछन नही करत ।

उसी परकार अहिसा म विशवास करत हए भी जिन छोगो की अपना

अलरग अडडा करन की वतति ह, व भी कई गतयिया उपसथित करत ह ।

इनकी असहयोग और सवतन‍तर विचार करन की बतति इतनी अधिक तीखर होती ह कि व अपन जस उददशयो को माननवाल लोगो क साथ भी परा-परा सहयोग नही कर सकत । परनत हिसक समाज की तरह अहिसक समाज क लिए भी यह कररी ह कि एक तरफ क लोग एक दिल स ही काम कर। भल तो होगी। लकिन मलो का नतीजा इतना ही होगा कि महनत घोडी जयादा करनी पडगी और सफलता म थोडी ढिलाई होगी ।

परनत दगावाजी, साजिश, बदधिमद और झगड-टणट तो सफलता को अशकय ही कर दत ह ओर कभी-कभी तो जीत को भी हार म बदल दत ह ।

दश क हम दो भाग मान एक व जो हिसा की नीव पर दश का सगठन करना चाहत ह, और दसर व जो कि सिदधानतरप स अयबा एक अनिवारय सयोग क रप म अहिस। को सवीकार कर उसकी बनियाद पर दकष का सगठन करना चाहत ह । दोनो क अपन-अपन खास नियम, निषठार और कारय करम होग । उतक अमर म जितना कचचापन रहगा,

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वयवहाय अहिसा ३३

उतन अश म मसीबतो और हार की समभावना अधिक होगी ।

जब किसी बलवान विपकषी का सामना करन क लिए सयठित

डोना हो, तब कछ कडी छझत ऊगान की, कछ तयाग करन की, कछ

वयकतिगत उदशयो को गौण मानन .की और कछ सवतनतरता छोडन की

भी जररत होती ह। हिसक सगठन म इन बातो म आवशयक आजञापालन

करान क लिए बलातकार ( दणड, सजा) करन का अधिकार दिया जाता

ह । अहिसा म अधिक-स-अधिक इतना ही दणड दिया जा सकता ह कि

आजञा न माननवाल को ससथा म स निकाल दिया जाय। लकिन वसा

करन स मशकिल दर नही होती । कागरस न जहा-जहा यह कारवाई

की, वहा जो कछ हआ उस स यह भी कहा जा सकता ह कि इसस

मशकिल बढ भी सकती ह । इसलिए अगर यह उपाय करना ही पड,

तो याद रखना चाहिए कि वह अपन ही शरीर का एक अवयब काटन

क समान ह । और उस अश म ससथा क लिए बह एक आपतति का ही

परसग ह । इसलिए आजञाभग करनवाल की बदधि और उचच भावनाओ

को जागरत करन क सब परयतन निषफल हो और उसकी उपकषा करन म

जोखिम हो, तभी इस उपाय स काम छना चाहिए | इसलिए जो छोग

अहिसातमक परतिकार सफल करना चाहत ह, उनह सभी महततव की

राषटरीय बातो म खद पसनद किय हए नताओ की इस छोटी-सी मणडली

की आजञा मानन को तयार रहना च।हिए। लोगो को एक ही वसत क

विषय म परा निशवव कर लना चाहिए । वह यह कि नता वयवहार-

कशल,चा रिवयवान‌ और परामाणिक ह और उनकी दशभकित शकातीत ह |

। ऐसी आजञाथीनता आवदयक ही ह | परनत उस चरितारथ करना

बहत मदिकिक भी ह । हमम सवभाव स ही जो असहयोग-वतति

ह, उसकी बदौलत खललमखलला आजञाभग न करत हए भी आड-टठढ

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डद अटहिसविवचन

तरीक स विधन करन की नीति काम म छायी जा सकती ह। उनकी आजञा

क खिलाफ आवाज नही उठायी जायगी; आजञा पालन स इनकार नही

किया जायगा, अहिसा क नताओ और अनयाधियो को किसी तरह

सताया भी नही जायगा। परनत उनकी सलाह तथा सचनाओ पर धयान

ही नही दिया जायगा तो मामझा खतम ह । “तम बकत हो, हम सनत

ह'-“-इस असहयोग स हम लोग खब अचछी तरह बाकिफ ह । सथानिक-

सवराज ससथाओ को और रचनातमक कारयकरताओ को जनता क ऐस

करिपाहीत असहयोग का खासा अनभव होता ह ।

यह सिरफ अजञात, निरकषरता या आलस की बदौलत नही होता ।

जान-बकषकर भी किया जाता ह । सावजनिक ससथाओ क कारय क परति अपनी अरचि बतान का यह एक तरीका ह । बिजली क लिए रबड

की परतो म स निकल जाना जितना सरल ह, उततना लोगो का यह

असहयोग भी हो, तो अहिसक सगठन करना आसान नही ह ।

परनत इन कठिनाइयो का सामना तो करना ही पडगा ।

१०

हिसक ओर अहिसक लडाई क सामानय अग हिसक तथा अहिसक लडाई म कछ अग समानरप स जररी ह,

उदाहरण क लिए :--

लडाई की तीबता और कषतर क विघतार क अनपात म दोनो म समाज क नितय जीवन म थोड-बहत अशञ म अवयवसथा, असविधा, तगी सगसमवधियो स वियोग, फिजल खब, औदयोगिक नकसान, नफ म कमी, राजी-खशी क या काननी टक‍स, जानमाल की जोखिम, काम का अधिक

बोझ, जिनकी आदत न हो, ऐस फरज अदा करना--इतयादि सहना पडता ह ।

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+ डयवहाय अहिसा डप

इसक अछावा मतय, यनतरणाए, मलयवान सपतति का नाश या

अपहरण और सतरियो पर अतयाचार आदि सकटो का सामना भी हिसक

और महिसक दोनो परजाओ को करना पडता ह ।

परनत, जरा विचार करन पर समझ म आ जाता ह कि जहा दोनो

ओर स हिसा का परयोग होता हो, उसकी अपकषा जहा एक ही ओर स

हिसा का परयोग हो रहा हो और दसरी तरफ स अहिसक परतिक/!र होता

हो, वहा इन सार खतरो का अवपात उभपर पकष म कम हो जाता ह।

जब अ करमणकारी यह जानता हो कि विपकषी क पास लडत क लिए

बनदरक भी नही ह, तो उस उतन ही टक, जगी हवाई जहाज, बड, बम'

वरगरा बनवान या लान पडग जितनो की वह अधहिसक परजा पर आतक

जमान क लिए जररत महसस करता हो । हिसा क साधनो स अरकषित

परजा का वह समल सहार कराता चाह और वह सहार अपनी आखो

स दखन की वयाकठता टालन क लिए अपन शिकार क सामन न आता

चाह, तोमी जिस मातरा म आज उसत यानतरिक सना का उपयोग करना

पडता ह, उतना नही करना पडगा । हिनदसतान तथा अमरिका

की जगली जातियो की जो सथिति हई ह, वही गति अहिसक परजा

की कर दी जायगी, यह आशका हो सकती ह । परनत निषफल हिसक

विरोध की अपकषा अहिसक विरोध स कया हमारी जयादा ददशा हो

सकती ह ? हिसा स विजय पान क लिए तमह शतर की अपकषा अधिक

भयकर हसि करनी चाहिए, अधकचरी य। निषफल हिसा स कछ नही

बन आयगा। अहिसा अगर सफऊक हो गयी, तो मानव-परिवार की

एक दसरी शाखा क साथ तमहारा शानति तथा परम का समबनध कायम

होगा । और अगर उसका कोई असर न हआ और जाध ससत म ही तम हिममत हार गय, तोभी १९१८ ई० म जरमती की

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४२ अहिसा-विषचवन

या १९४० ई० म फरास की जो दरगति हई, उसस बदतर तमहारा

हाल नही होगा ।

मतलब यह कि अहिसक लडाई म भी हिसक लडाई की तरह जोखिम

तो उठानी ही पडती ह । हिसा म सामनवाल को हरान क लिए कर

अहादरी को जररत होती ह । अहिसा म बिना हाथ उठाय जोखिम का

सामना करन को शानत बहादरी की जररत होती ह । शसतरघारी सिपाही

की कर बहादरी क पीछ हो सका तो लडाई की जोलखिमो स बच जान

की वतति होती ह । यह वतति कवल आतमरकषण या जान बचान की ही

नही होती, मारक और आतमरकषक दोनो तरह की होती ह । शञानत

बहादरी म जोखिम स भागन का तो परयतन ही नही होगा । इसलिए

बचन की वतति का सवाल ही नही ह । और मारक वतति तो हरगिजञ

हो ही नही सकती ! मधययग म अपनी निरदोषता सिदध करन क लिए

जिस परकार की अगनि-परीकषाए--जस कि तप हए छोह का गोला

उठाना आदि--ली जाती थी, उनस इस परसग की उपमा दी जा

मकती ह ।

इसक अलावा ऊरडाई की तयारी क रप और रडाई क दौरान म

भी हिसा और आहसा दोनो म वगवान रचनातमक कारयकरम की एक-सी

जररत होती ह | जसा कि विनोबाजी न अपन एक लख म कहा ह--

“यरोप की लडाई हिसक साधनो स हिसक उददशयो की परति क

लिए हो रही ह । हमारी लडाई अहिसक साधनो स अहिसक उददशय की परति क लिए होगी । इन दोनो म यह बहत बडा अनतर होत हए भी उस हिसक लडाई स हम कई बात सीख सकत ह । लडाई क साधन चाह जस कयो न हो, आजकल का यदध सामदाधिक तथा सरवागीण सहयोग का एक जबरदसत परयतन होता ह । यदयपि इस परयतन का फलित

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वयवहाय अहिसा 8]

विधवसक होता ह, और यदयपि यह भी मान लिया जाय कि

उसका उददशय भी विधसक होता ह, तथापि यह परयतन सवय पराय” सारा-

का-सारा विधायक ही होता ह । कहत ह कि जमनी न सततर रख

फौज खडी की ह । आठ करोड क राषटर का इतनी बडी फौज खडी

करना, उतन बड पमान पर लडाई क हथियार, औजार तथा साधन-

सामगरी परसतत करना, चन हए लोग फौज म भरती करन क बाद बाकी

क लोगो दवारा राषटरीय ससार चलाना, समपतति की घारा अवयाहत गति

स परवाहित रखन क लिए औदयोगिक योजनाए यथासमभव अखड जारी

रखना, तमाम पाठशालाए आदि बनद करना, नितय की जीवन-सामगरी

क वयकतिगत सवामितव क अधिकार पर सरकारी कबजा जमा लना,

जिस परकार विशवरप-दरशन म आख, कान, हाथ, पर, सिर, मह अननत

होत हए भी हदय एक ही दिखाया गया ह, उसी परकार, मानो सार

राषटर का हदय एक करना--यह सब इतना विशार और इतना सरवतो-

मख विधायक कारयकरम ह कि उसक सहारपरवण होत हए भी हम उसस

बहत कछ सीख सकत ह ।”

११ , अहिसा की शरत

अब अहिसक सगठन की शरतो का विचार कर ।

इसका विचार करत हए साधारण मनषय म जितनी अहिसा या

हदय की उदारता होती ह, उसस अधिक को उममीद मन नही की ह। जसा कि पहल अहिसा की वयाखया करत हए कहा जा चका | वयवहारय अहिसा म हिसा का अभाव औौर उदारता की ओर झकाव या

रख होता ह। इसम सवारथ-अतति का समपरण अभाव नही ह । परनत नयायी सवारथ-बदधि ह ।

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छड अहिसा-विवचन

मतलब यह कि जनता को नीच लिखी बात अचछी तरह समझ

लनी चाहिए :---

१. हर परिसथिति म--शसत क लिए चाह कितना ही बडा कारण

क‍यो न उतपनन हआ हो या हिसा करन या चोट पहचान की कितनी ही

अनकलता कयो न हो, उस हिसा स परहजञ ही रखना चाहिए।

२ विरोधी न चाह कितना ही खराब और दषटता का बरताव कयो

न किया हो, तोभी उसका बदला लन को या बदला लिया जायगा ऐसी

उममीद नही करनी चाहिए । उस अपनी उदारता बतान को तयार रहना

चाहिए और नता हमशा उदारता दिखायग ही, ऐसा मान लना चाहिए 8

३ सफलता मिलन पर भी करिसी परकार क अनचित लाभ उठान

की इचछा नही रखनी चाहिए ।

४ अगर ऐस अनचित लाभ या हक परापत हए हो जो विरोधी

क साथ या जनता क किसी वरग क साथ अनयाय करनवाल हो तो उनह

छोडन क लिए तयार हो जाना चाहिए ।

५ जिनकी सथिति अचछी हो, उनह अपनी दौलत अपन स कमनसीब

लोगो क साथ बाटकर भोगनो चाहिए। दलित और बकार जनता क

लाभ क सार कारयकरमो को उनह उदारता स बढाना चाहिए ।

६. जिस तरह का असहयोग जमानो स हमार दश म चलता आया

ह, उसम और जिस तरह का अहिसातमक असहयोग आज हमार सामन

वश किया गया ह उसम जो अनतर ह, वह भी लोगो को समझ लना

चाहिए । रढ असहयोग म शरीर पर परतयकष परहार किय बिना बिरोधी की जितनी हिसा की जा सक, उतनी को जाती थी। उसम विरोधी क परति परम, कदणा, उदारता जसी भावनाए नही थी। सखत दणड दिय बिना अथवा उस नीचा दिखाकर झकाय बिता, उसक खिलाफ असहयोग

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अटटिसा-विधचन ह ४३

बनद नही किया जा सकता था। विरोधी हमारा टढ रासत गया हआ

भाई ह और उस हम फिर-स सहो रासत पर छाना चाहिए, यह भावना

उसम नही थी । बलकि यही भावना थी कि वह हमारा दषमन ह और

उस कचल डालना चाहिए। अहिसातमक असहयोग म विरोधी की तरफ

कछ दसरी निगाह स दखना होता ह। यह कभी नही भलना चाहिए कि

अहिसातमक लडाई का मकसद परतिपकषी को कडी हार दना या उसपर

सोलह आन विजय पाना नही ह ; वरत‌, जिसम दोनो क आतम-गौरव

की रकषा हो, इस परकार की सथायी सलह सथापित करना ह। इसम

पडत-दर-पशत चलनवाली अदाबत कायम करन की वतति नही होती।

बलकि उचित परिसथिति उतपनन होत ही उस असहयोग को खतम करन

दन की मन‍शा होती ह । असहयोग की मातरा भी परि सथिति की जररत

क अनसार बढायो या घटायी जाती ह ।

७ जसा कि पहल कहा जा चका ह लोगो को अहिसातमक परतिकार म रही हई सलामती क बार म गलत कलपनाए नही करनी

चाहिए । यदध की सारी जोखिम इसम भी ह । लकिन बर या बदला

लिया गया, ऐसी बडाई मारन का सतोष परापत करन की आशा इसम

किसी कदर नही ह | गमभीर धीरज और दढता स अगनि-परीकषा दन की लोगो की तयारी होनी चाहिए ।

८. लोगो को अपन नताओ पर परा-परा भरोसा रखना चाहिए |

नताओ को पसनद न आय, ऐसा कोई समझौता उनह सवीकार नही करता

चाहिए और न किसी दसर की सलाह स उनक सझाय हए कारयकरम म

हर-फर ही करना चाहिए । उनको अपन नताओ म यह विशवास होना चाहिए कि न तो व दश को किसी क हाथ बचकर बरबाद करनवाल ह,

और न जनता को जररत स जयादा तकलीफ यथा जोबलिम म टाछनवाल ॥

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डर वयवहाय अहिसा

शर सचालको की योगयता

इतना तो हआ सामानय जनता क समझन क लिए ।

परनत'जब दशवयापी सगठन करना हो, तब परातीय और सथानीय

नताओ और कारयकरताओ का भी एक खासा सम‌ह होना चाहिए । दश

क नताओ दवारा ठहरायी गयी राषटरतीत और अहिसातमक छडाई क

सिदधानत उनह अचछी तरह समझन और हजम करन चाहिए । यही नही,

वरन‌ जनता को व बात समझाना और सथानीय परिसथिति क अनसार

उनह राग करन म खब शकति भी दिखानी चाहिए । गाधीजी का 'बलबघान की अहिसा' वाला सतर खासकर उनपर लाग ह ।

मरी समझ म उसका अरथ यह ह कि जो ऐसा मानत ह कि हमार पास हथियार और दतर साधन नही ह, इसलिए हम अहिसा का उपाय गरहण करना पडता ह, उनह इस आनदोलन क समझान का या मारगदरशन, सगठन या नियतरण का भार अपन ऊपर नही लना चाहिए ।

इस आनदोलन का सचालन उनहो वयकतियो दवारा होना चाहिए, जिनका विशवास ह कि अहिसा हिसा की बनिसवत कवल नतिक दषटि स ही नही बरन‌ वयावहारिक दषटि स भी बढिया ह और वह न सिफ हमार ही लिय, बलकि जो दश सिर स पर तक नय-स-तय हथियारो स लस ह, उनक लिय भो ह । और यह कि कमजोरी, आतम-विशवास का अभाव तथा लाचारी स अहिसा की नही, बलकि हिसा की वतति उसी तरह पदा होती ह, जस कि कोरी खदगरजी दवष स ।

सनन म बात कछ अटपटी भल ही रग, तोभी सच यह ह कि डर स भरा मनषय हमशा शरण ही नही लता, बलकि जननो (उनमतत) छडाका भी बन जाता ह। जब उसक अपन या उसक बचचो की जान का खतरा

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वयवदाय- अटटिसा ४७

हो, तब बिलली म कितना जनन पदा हो जाता ह, सो हम जानत ह।

फिर यह भी नही कि सिरफ कायर ही शरण चाहत हो | वीरो को भी

शरण म जान की नौबत आती ह। लडाई क शर म तो हरएक

परजा यही कहती ह कि जबतक हमारा एक भी आदमी जिनदा ह, तब-

तक हम बराबर रडत रहग । हम मरग, लकिन झकग नही । परनत

राजसथान क इतिहास क थोड-स उदाहरण छोड दिय जाय, तो दनिया

की तवारीख म अकष रश इस परकार क कितन उदाहरण पाय जायग ?

हा, हरएक दश और यग म मटठी-भर ऐस वीर तो पदा होत ही रहग,

जो बदनामी स जीना कभी पसनद नही करत । परनत सारी सना या परजा

क नाम पर ऐसी वीरता आम तोर पर पायी नही जाती | सनापति और

सिपाही सवाभिमान क लिए लडत तो ह । उसक लिए कछ दिन तक अपना

सारा तन, मन, धन जोखिम म भी डालत ह । और यह भी हो सकता ह

कि उस बचान की कोशिश करन पर भी उसकी आहति हो जाय । परलत सारी आशा नषट हो जान पर भी सवाभिमान क लिए जान दनवाल

लोगो की सखया बहत बडी नही होती । जयादातर लोगो म सवाभिमान

की अपकषा जीन की तषणा अधिक बलवान होती ह। और न हमशा

यह भी दखा गया हकि जो बहादरी क लिए मदहर ह; ऐस जशार

बतति क लोग भी सवाभिमान क बिना जीना पसनद ही नही करत । "सिर सलामत तो पगडी पचास'वाली कहावत म बहतर आदमियो का

विदवास होता ह और इसलिए दरअसल मर जान की बनिसवत बदनामी

स और कमरतोड महनत मशककत करक भी जिनदगी निवाह लना ही व

पसनद करत ह ।

मतलब यह कि ऐसा मानन क लिए कोई सबत नही ह कि जान-

बझकर निहतवमा रहकर मरन का निशचय करनवाल वीर की जपका

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धघ अहिसा-विवचन

शसतरधारी मनषय का उसी' परकार का निशचय अधिक बलवान होगा । लकिन जिस इसक बार म गक हो, उस अहिसक लडाई का अगआ नही

बनना चाहिए। बाहर सरकषित अनतर पर रहकर वह उदारता स

दसरी मदद दता रह, तो उसस भी वह आनदोलन और परजा की अधिक

सवा कर सकगा ।

दसर, सथानीय नता और कारयकरतता अगर छोगो क परम और इजजत क पातर न हो, तो वह आनदोलन लोकपरिय नही हो सकता ।

व अपरिय और परतिषठाहीन दो कारणो स हो सकत ह .--

लोगो का उनम यह विशवास नही कि व नि सवारथ, सचच और

अपन पकष स बईमानी न करग । अथवा सरकारी अधिकारियो या सनन‍यासियो की तरह व लोगो स अलग और दर रहत ह; उनक साथ मिल-जल कर नही । इसक कारण उनक और जनता क बीच एक गहरी खाई पदा हो जाती ह और ऐसा हो जाता ह कि मानो दोनो अपनी- अपनी जदी-जदी दनियाओ म रहत हो। कारयकरता जनता की कम- जोरियो को जानत तो ह, लकिन उसकी झपटो, हौसो और भावनाओ की व कदर नही कर सकत । राषटरीय आनदोलन स जनता क मक अस- हयोग का कारण कई बार कारयकरता और जनता क बीच पडा हआ फासला ही होता ह। जाहिर ह कि जबतक जनता क विशवास का परानन न बन सकनवाला पहला वरग दर नही होगा और जनता स अलछग रहनवाला दसरा बरग अपन बरताव म उचित सधार करक जनता क नजदीक नही आयगा, तबतक अहिसा का सन‍तोष-कारक सगठन नही ही सकगा ।

तीसर, वयवहाय अहिसा तथा अहिसातमक लडाई क कया मान ह यह अगर अचछी तरह समझ लिया जाय, तो कागरस की रचनातमक

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वयवदारय अटिसा झर‌

परवततियो को पककी बनियाद पर रखन और तजी स चलान का महतव समझन म महिकल नडी होगी। जनता प सवावछमबन का आगरह,

जातम-विशवास का बल ओर राषटर क जनदर छिपी हई आतमशकति का भान जागरत करना ह । अलग-अल‍रग कौमो म इस परकोर की एकता

कायम करनी ह कि जिसस थ एक ही शरीर क जद-जद अवययो की

तरह एक-दसर स जडी रह । समानता, नयाय और मल-मिछाप की बनियाद पर उनक आपसी समबनध मजबत करन ह। कही भी बडपपन था

छोटपन का खयाल न रहन पाय । न तो जनता म गणडपन स डरन या

सवाभिमान-शसय आजिजी करन की आदत रहनी चाहिए नस दसरो को

झकान का बदमिजाज या छाचार होकर अपमान सहलन को वतति रहनी

चाहिए, और न दमभ, धोखबाजी या खशामदी वतति ही रहनी चाहिए।

और यह सब तालीम बिना जबरदसती किय दनी ह। सिरफ कवायद म

ही नही, परनस अधिकारी वयकतियो क साथ सभी तरह क वयवहवार म

सीना तानकर खड होन की हिममत लोगो म आनी चाहिए--मगर

बिना अपनी शराफत छोड । दलित, भख, परितयकत और बर रासत पर

चलनवालो स भी भाईचारा कायम करना ह। धनवानो को समाज क

हित क लिए अपन भणडार खोलना सिखाना ह । यह सब तभी हो

सकता ह, जबकि रचनातमक कारयकरम को तजी स चलाया जाय और

घनी नता और कारयकरता खद तयाग, सादगी और हाथ खोलकर दान

करन की मिसाल पश कर।

चरखा चलाना तो रचनातमक कारममकरम को गति दन की कारयकरता

की ऊछगन का एक पहला कदम-सा ह। नताओ और कारयकरताओ क

लिए वह सवराजय की कीमत का उतका परा हिससा नही ह--सिरफ

बानगो ह । रचनातमक कारयकरम की जरी-जदी वियतो का परचार तथा

ह.

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० झअहिसा-विवचन

सधार करत रहकर उनह बाकी की कीमत चकानी ह। सवराज का

अरथ सिरफ विदशी सतता और हमार समबनधो का आखिरी फसछा करना

ही नही ह, वरन‌ दश क जद-जद राजय, परानत, कौमो तथा ससकति, भाषा, समाज-रचना और आधिक हितो क कारण अलग-अलछग वरमो

म बट हए लोगो क साथ हमारा अपना तथा उनका आपस का समबनध

ठीक करना भी ह । इतन पर भी जो सवराज और रचनातमक कारयकरम

का समबनध न समझ सकत हो, उनह कम-स-कम ऐसा सथान सवीकार

करना चाहिए, जिसस व परगति को रोकनवाल बरक न बन जाय |

१३ सरवोपरि मणडल

अब जनता क सरवोपरि मणडल क सवरप और कतवयो क बार म

थोडा विचार करता ह ।

अगर हिनदसतान को एक सवतनतर और अपन अहिसातमक राजय

तथा समाज-रचता क दवारा जगत को पदारथ-पाठ दनवाला दश बनाना

हो, तो हम ऐसी सथिति को पहचना चाहिए, जिसम परजा-हित

की हरएक बात म आखिरी मारयदशत करान का अधिकार किसी एक

सरवोतिरि सतता को दिया हआ हो। उसका सथान सन‌, मसा या महममद

क समान होना चाहिए । यह सरवोपरि सतता जनता क किसी एक ही

सरवमानय नता क हाथो म ह या समपरण सहयोग स काम करनवाल

किसी छोट-स मणडल को सौपी गयी ह--यह बहत महततव की बात

नही ह । अगर उस नता या नता-मणडल न अहिसा को अपनाया ह और अगर जनता क परम और आदर पर ही उसकी सतता की डोरिया

हिलगी हई ह, तो विशवास किया जा सकता ह कि वह नता या नता-

मणडल आन-बझकर कछोमो का अहित नही करगा ।

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धयवहाय अहिसा 6

इस सरवोपरि ससा की तरफ स कारय क बार म जो-जो सचनाए निकल, उनपर छोगो को बिना हर-फर किस विशवास और उतसाह स

अमल कटना चाहिए । फौजी तसतर म 'ऐसा कयो ?' पछत का भी

अधिकार नही होता । अहिसक तनतर म एक हदतक 'ऐसा कयो?”

सवाल किया जा सकता ह। झफिन जब अगआ विनती कर कि महर-

बानी करक अब सवाल पछता बस कीजिए, तो परइन बनद करन चाहिए

और अमल शर करना चाहिए । अहिसक नता जबरदसती कछ नही करा

सकता । इसलिए आमतौर पर बह अपनी सचनाओ क मलभत

(बनियादी) कारण भरसक सपषटता स समझान की कोशिश करगा ही ।

म समझता ह कि कोई भी वयकति या मणडल लगभग सारी परजा क सरवोपिरि पद पर तभी पहच सकता ह, जबकि सभी महततव की कौमो,

जातियो और वरगो क आनदोलन करनवाल मणडलो क बहत भारी बह-

मत का विशवास उस मिला हो । समभव ह कि आनदोलन करनवाली

एक ससथा जिस जाति या वरग क लिए बोलन का दावा करती हो, उसक

भी बहत बड हिसस क सचच हितो की हिफाजत दरअसल वह न करती हो । लकिन, फिर भी, वह अपन आदमियो म और दसर छोगो म शका,

ना-समझी, बदधि-भद और असपषट विचार पदा करन क छायक ताकत कमा लती ह । इसलिए या तो परामाणिक विरोधी स समझौता करन की

परी-परी कोशिश करनी तरा हिए या फिर उस मणडल की अपरामा गिकता

इतनी खल जावी चाहिए कि जिसस उसकी जाति क और दसर लोगो म

भी उसकी कोई बकत न रह ।

सगठन की जररत सगठित परयतनो की जररत विसतार क साथ समझान की भावशय-

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शर अहिसा-विषजन

कता नही होनी चाहिए । लकित कछ लोगो का यह खयाल ह कि

“अहिसा म समठन स जयादा फापदा नही होता--खासकर तब जबकि

उसका हत हिसा का विरोध करना हो; कयोकि बहादरी एक वयकति

का सवाभाविक तज ह और चाह वह वयकति अकला हो या एक झणड म

हो, उसका वह तज परकट हए बिता नही रहगा। लकिन डरपोकपन

एक मनषय म रहा हआ अधरा ह, इसलिए कई डरपोीक आदमियो की

बनी हई टोली म कल मिलाकर घना अधरा ही होगा । इसलिए सगठित

करन का परयतन न करन स ही अहिसा का अचछ-स-अचछा सगठन होता

ह ।” यह भी कहा जाता ह कि “सगठन कनदरीकरण (सनटरलइजशन)

की मोर शकर जाता ह, और उसका रख हिसा की ही तरफ होता ह।

इसलिए सगठन का झकाव हिसा की ओर होता ह और असगठत का

अहिसा की ओर |”

मर नमपर मत स य सबर विधान वाजिय स जयादा वयापक भाषा म

'पश किय गय ह। बहादरी और कायरता, ताकत और कपजोरी छत क

रोग जस ह । यह हो सकता ह कि दो जनो म अकल जोखिम म उतरन

की हिममत न हो। यदि व दोनो अपन अपन डर की पोटलिया लकर ही

जोखिम क मौक पर इकट‌9 हो और अपन साथी म जा कछ साहस-वतति हो,

उस घटान म हो उसका उपपरोग कर, तो इन दोनो क सगठन स उपजी

हई कायरता उनकी हरएक को कायरता स भी बढ सकती ह । लकिन अगर हरएक का हत जोखिम का सामना करन म एक-दसर स ताकत हासिल करना हो, तो उनक सगठन स कमजोरी घटगी और ताकत

बढगी । मतचब यह कि उचित वतति स और अचछी तरह किय हए सगठन म हरएक सदसय की वयकतिगत शकतियो क जोड की बनिसथत जयादा दाकति पदा होनी चाहिए।

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अयवदारथ अधदिसा शद

फिर कनदरीकरण (सनटरलाइडरशन) और विकनदरीकरण (डिलनटरकाइ-

जशन) क सिदधानत म स किसी एक ही को अपन म परा उसछ भान लना भछ ह । हरएक म कछ फायदा ह और कछ नकसान । न तो हम

फनदरीकरण की भवयता स चौधियाना चाहिए और न विकनदरीकरण की

सादगी पर रीकष जाना चाहिए । कनदरीकरण और बिकमदरीकरण क आखिरी

सिर छोडकर, जिस परिसथिति का सामना करना हो, उस परिसथिति म

जनता क लिए जयादा-स-जयादा हितकर कया होगा, इस दषटि स जीवन

क कषतर म और हरएक कदम पर इन दोनो का उचित मिलाप कहा करना

चाहिए, इसकी खोज करक उनम उचित फर-बदर करन चाहिए।

वयवहाय अहिसा म सवारथ -वतति का समपरण अभाव नही ह । इतना ही

कि वह अनयायी नही ह। और इसलिए यह शदध अहिसा अथवा अति

भछाई क नाम क लायक नही ह। छकिन उस तरफ को झकती ह,

इतना ही । वही बात अहिसक सगठन की भी ह। करदरीकरण और

विकनदरीकरण का उचित मिलाप करन की हमशा कोशिश करत रहता

होगा । यह मिलाप हरएक जगह ओर हरएक समय पर अलग-अलब

तरह का होगा । परनत, जब-कमी किसी धयय को सिदध करन क छिए

कोई जोरदार काम करना हो, तब सगठन क बिना काम ही नही

खलगा । कछ बातो म उसका सचालन और नियनतरण कनदर स करना

पडगा । कछ बातो म हरएक झाखा का मारग हवतनतर होगा ।

१४ छोट-स-छोटा सगठम

इसपर स हिनदसतान म छोट-स-छट सगठव क सवकप और कारथ- कषतर क विचार पर आता ह। इसकी निस‍वत म यहा शरो विचार रख रहा ह, उनह कोई मर आखिरी और पक हए विचार म भातर। इस समय मर

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8 अहिसा-विवचन

जो विचार ह, उनहीको परकट कर रहा ह, उनम हर-फर होन की परी

समभावना ह ।

कई कारणो स मरा ऐसा मत बनता जा रहा ह कि आम तौर पर

एक-एक गाव को सगठन या पञचायत का छोट-स-छोटा कषतर या इकाई

बनाना ठीक नही ह । एक कसबा ( करीब दस हजञार की आबादी

का ) और उसक आस-पास क गावो को इकाई का छोट-स-छोटा

हलका या महाल बनान म मझ कोई हज नही मालम होता। म यह

जररी समझता ह कि एक गराम-मणडल या महाल म दस या पदरह हजार स कम आबादी न हो और उतनी बसती क गावो क समदाय का एक ही कषतर हो । उसी परकार बड शहर और उनक आसपास की

बसतियो का एक ही मणडल मानना चाहिए ।

हरएक पराम-मणडल म कारयकरताओ क एक ही तन‍तर को सवा करनी चाहिए और उन सबको सममिलित जिममदारी स काम करना चाहिए । हा, व अपनी परवततियो क अलग-अलग महकम बना सकत ह और हरएक महकम की अलग-अलग समितिया भी बना सकत ह । उसी परकार गराम-मणडल क एक-दसरस जड हए उप-विभाग भी बनासकत ह ॥

यह जररी नही ह कि इस तन‍तर की रचना क लिए बाकायदा चनाव हो। व अपन आप ही मकरर हो जाय, तो कोई हज नही ह; कयोकि एक बात पकडी ह कि अगर जनता क सभी परमख दलो को गराम-मणडल म विशवास न हो और अगर वह नौजवानो को बडी तादाद म आकरषित न कर सकता हो, तो वह जयादा काम कर ही नही सकगा। लोग उसक कामो म योग द, यही उसक बाजापता चन हए होन की निशानी ह ।

जिला, परानतीय, मधयसथ जसो ऊपर की ससथाओ क उस मजरी दन की बाबत यह नीति हो सकती ह कि अगर एक ही गराम-मणडल म

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बयचडाय अडटिसा सर

काम करनवाल बहत-स तनतरो म नाम कमान क लिए होड हो रही

हो, तो एक को भी मजरी न दी जाय | हरएक स कह दिया जाय कि

यथा तो वह मजरी क बिना काम कर, या सब मिलकर काम करन का कोई रासता निकाल । सनन‍तर क मीतरी झगड उनह अपन आप निपटान

चाहिए, ऊपर की ससथा को उनम दखल दन स इनकार करना चाहिए

और जबतक व अपन झगड निपटात नही ह, तबतक किसी भी तन‍तर को

मजरी नही दती चाहिए ।

हरएक तनतर को अपना विधान और नियम बना ही लन पडग । मारग

दरशन क लिए कछ नमन सझाय जा सकत ह । लकिन उनम अपनी योगयता

क मताबिक हर-फर करन की आजादी हरएक को होनी चाहिए । कछ बनियादी सिदधानत बशक सबक लिए समान रहग ही । तनतर की परवततियो

म नीच लिखी परवततियो म स कछ तो बरर गिनी जायगी :--

१. अहिसा क पालन म चसत रहनवाक सवको कर एक दल बनाना,

जो जररत होन पर चौकी या पहरा द और लट-खसोट, हमला, हलछड,

आग, बाढ या दसर सकटो क भौक पर सवा कर;

२. गराम-मणडल का आथिक सगठन, यान उसकी पदावार आयात-

निरयात, उतपतति, बटवारा, बिकरी वरगरा का नियमन करना,

३. गराम-मणडल क खादी तथा दसर उचचोगो का सगरठन करना ;

४. बकारी मिटान क काम शर कराना;

५. बढ, बीमार, अपाहिज, कगराल वरगरा क लिए राहत क काम

यथा दान खोलना;

६. गणड, शराबी, बदचलन वरगरा को सधारन क काम श‌र करना;

७. हरिजन तथा दसर छोगमो की तरककी क काम करना जबलोए

उसकी सामाजिक तथा दसरी विक‍कत दर करना;

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३६ अहिसा-विवसन

८. [साकषरता-परचार क अलावा) लोगो का सामानय जान बढाना;

«, ( सरकारी या खास ससथाओ की परवततियो म रही हई कमी

को परा करन की गडझ स ) सतरी-शिकषण, १० ( इसी तरह कमी परी करन क लिए ) बनियादी तालीम

तथा साकषरता-परचार; ११ ( इसी तरह कमी परी करन क लिए ) दवा, सवासथय और

सफाई ( सनिटशन ) क काम ,

१२. परजा क चरितर को ऊपर उठाना,

१३ गराम-मणडल म बसनवाली अलग-अरग कौमो, जमातो और

दलो क आपसी समबनध सधारता ,

१४ जीक-दया ,

१५ छोक-परिय, ससत और नतिक दषटि स हितकर मनोरजब,

खल-कद, उतसव, कथा-कीतन, गायन, भजन, मल, परदरशिनियो वगरा का आयोजन करना,

१६. रासत, नाल, पल वगरा दरसत करन जस लोकोपयोगी काम

अपनी महनत स करना । ( यह सरकारी कामो क अलावा या उसकी

सदद लकर भी हो सकता ह );

१७. पडोस क गराम-मणडलो स सहयोग करना,

१८, ऊपरी ओर अधयसथ ससथाओ स निकट समबनध रखना ।

इसक साथ-साथ पसो या चीजो क रप म चन‍दा इकटठा करन का एक महततव का काम हरएक तनतर क जिमम रहगा। उसक लिए बराबर हिसाव-किताब और नोध ( विवरण ) रखना भी एक काम माना जा सकता ह ।

यह जररी नही ह कि हरएक तनतर इस तरह की हरएक विगत

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बयवहाय अदविसा २०

उठा छ | कषयर किसी गराम-मणडल म इनम स किसी काम म निपण कोई सवतनतर सनतोषजनक ससथा हो, तो वह मणडल उस काम को

अपनी सची म स कम कर सकता ह ।

१६ उपसदार

परचकर क किसी पराचीन काल म हिनदओ क परव जो न--वरण-वयवसथा स भिनन, मगर उसक अनकरण म--जञाति या जाति-वयवसथा जारी की । उसकी रचना कवल धनध पर नही, बलकि अनक भद-दरयोक निरमिततो

पर हई--जस, जाति ( रस ) बतन, धनधा, धरम, भाषा वगरा । कछ

अरस तक यह वयवसथा काठ क समान जड नही थी, बलकि रबष-

जसी लचीली थी। इसलिए विदशियो को हजम करक और समाज म

हरएक का उचित सथान तियत करक सारी जनता का एक ही महान

परजा क रप म पहचाना जाना समभव हआ । इस परकार बनी हई परजा

का पराचीन “आय! नाम ही जाता रहा और जातियो की एक-दसर स कछ हद तक बिलकल अलग रहन की खासियत होन पर भी सारी परजा न हिनद' नाम म एकतव पाया । आग चलकर--जसा कि सभी

सजीव शरीरो ओर हन‍यतो म होता ह--उस वयवसथा म बढाप की

खराबिया पदा हई। वह जीरण और शीरण होकर काठ क समान

कठिन हो गयी और बाद म आनवाल विदशियो को उचित रीति स

अपन आप म मिला छन की या जाति-वयवसथा क बाहर रह हए अथवा बहिषकत किय गय समहो को अपन आपम समा छन की शकति सवा बठी । इसलिए अब सधरी हई नीव पर भारतीय परजा की एक नबी

वयवसथा का निरमाण करता आवशयक हो गया ह ।

वरण-वयववसथा और जाति-वयवसथा की कलपना म अहिसा का ही

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शद झअहिसा-विवचन

बीज था; परनत वह वरायनाम था। समाज क कमजोर या रोषपातर

बचन हए लोगो का शोषण करता, उनक सवामिसान को ठस पह-

चाना या उनकी ढोरो जसी हालत कर डालना आदि की तरह की सकषम

हिसा का उसम निषध नही था। इसक अलावा सभी जातियो की

सामाजिक समानता और हरक मनषय की राजनतिक तथा नागरिक अधिकारो की समानता उसम मजर नही की गयी थी।

फिर भी, अहिसा की नीव पर समाज-रचना करन का वह परयतन

था और उसकी बदौलत नि'शसतर छोयो न सफल रीति स अपनी

ताकत दिखान की शकति पायी थी | सदियो तक वह वयवसथा उपयोगी

साबित हई ।

उस जमान म यातरा करन और सनदश भिजवान क साघनो की कमी

को दखत हए एक तरफ स इस जञाति-वयवसथा क अखिल भारतीय सवरप

पर और दसरी तरफ स उस वयवसथा क जगह-जगह पदा किय हए

रपो की विविधता पर हम अचमभा हए बिना नही रहता। इसका

अही अरथ ह कि किसी न एक नया विचार जनता क दिल म पदा कर दिया

और बाद म लोगो न उस विचार को सवय-पररणा शलौर सदबदधि स

वयवहार म विकसित किया। उसी विचार को नय और विशष शदध

रप म परजा म फिर स बोना चाहिए और यह विषवास रखना चाहिए

कि लोग उस समझग ओर बढायग ।

गीता म कहा गया ह कि हरएक को अपनी परकति दवारा नियोजित

कममारग का धाभिक रीति स अनसरण करना चाहिए । इसी को उसका

सवधरम कहना चाहिए । सवधरम क आचरण म यदि मतय आव, तो वह उस भी अचछा समझ , परनत परधरम को भयकर समझ । (अ० ३।३५ ) यह विचार परकति क नियमो क अनसार ही ह।

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वयवहान अहिसा ३

हरएक पराणी और योनि म एक अतःशकतति मौजद ह। उसकी

बदौलत बह अपन शरीर क अवययो स और अपनी जीवन-तिरवाह-पदधति,

रहन-सहन भीर वयवसथा म इस तरह क हर-फर कर सकता ह भौर

खास ढाच पदा कर सकता ह, कि जिसस इरद-गिरद की परिसथिति

म बह टिक सकता ह और शकतिमान होता ह। इतना ही नही, बरम‌

कछ दरज तक अपन शतरओ क सामन डट रहन की और उनका मकरा- बला करन की ताकत भी हासिल करता ह। ऐसा करन म वह पराणी

(या योनि) अपन परतिकल परिसथितियो का अनकरण नही करता ।

बलकि अनकल परिसथितियो स ही बोध लता ह । वह शतर क आयधो

और रीतियो को गरहण नही करता; वरन‌ बिलकल ही नयी और

कभी-कभी शतर स उलटी ही तरह की यकतितया खोजता ह । जस घास का टिडडा जिस तरह की पततियो म रहता हो, उसी तरह क रप-रग

धारण करता ह। साप और नवल क बीच सनातन बर माना जाता

ह। इसलिए हरएक न अपन-अपन खास तरीक और हिकमत खरोजी

ह, जिनकी बदौलत किसी का सरवथा नाश नही हो सकता ।

मनषय-मनषय क बीच इस तरह का योनि-मद तो नही ह । परनत जब कोई मानव-जाति ससकति की पसनदगी क कारण था बाहय परि-

सथितिवश शष मानवजाति स बिलकल जदी परिसथिति और समोगो म जा पडी हो, तब कहा जा सकता ह कि उस जाति क लिए एक

अलग तरह की नियति (भागय) या एक खास कततवय (मिशन) पदा

हो गया ह । इसलिए उस आकरमणकारी जातियो का सफलता स मका-

बला करन क लिए अपन जीवन-निरवाह‌ और समाज-वयवसथा क खास

तरीक का विकास करना चाहिए। कारण कि इस दषटि स बह एक

अलग ही योनि क पराणी जसी परिसथिति म ह। उसीक अमकरण

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६० अहटिसा-ववचन

स हम ताकत नही कमा सकत--खास कर जब हम ऐसा मालम होता

हो कि समगर मानव-जाति क हित म भी हम सौपा हआ विशष कततवय

(मिशन) अथवा हमार छिए नियत ससकति ही विशष उचित ह ।

ऐसी विशषता परकट करन की अतः:शकति हमार अनदर मौजद ह

ही --परकति क नियम स होनी ही चाहिए । परनत उलटी दिकषा म छ

जानवाल परलोभतो क बावजद भी जब हम दढता स उसम चिपट रहग

तमी वह बढ सकगी ।

अगर हम अपनी विशष नियति या मिशन म शरदधा हो, तो हम

निशचय ही यह आशा कर सकत ह कि ससार म स हिसा को बिलकल

मिटा दना ममकिन न हो तो भी, हिसा का सफल म‌काबला करन क

लायक शकति तो अहिसा म ह ही ।

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१ क ३

मनषय की सवभावगत अहिसागतति ह; ॥

भमिका | कई वरष बीत गय। शायद सन‌ १९२२या २३ की बात ह ।

अमलनर का तततवजञान-मनदिर दखन गया था। महाराषटर ' क एक परसिदध

अधयापक, जो अब दिवगत हो चक ह, उस वक‍त वहा काम करत थ ।

उनहोन मझस कहा कि उस ससथा म रहनवाल विदवान‌ पौरवातयः और

पारचातय तततवजञान का सकषम अधययन करक पौरवातय तततवशञान, विशष-

कर वदानत, कितना शरषठ और परण ह--यह सिदध करन का परयतन करत

ह। अपनी ससथा की बहत-सी जानकारी दन क बाद उनहोन मशनस सतयागरहाशरम का हाल पछा । मन बतलाया । बाद म व मझस कहन लग,

“दखिए, म सच कहता ह । आप बरा न मानिए । हम लोगो को आपकी

यह अहिसा बिछकल नही जचती | यह तो गाधीजी का एक खबत ह ।

यह मनषय सवभाव क विरदध ह ।” वगरा वगरा । ऐसा कहा जा सकता ह कि यह राय--अगर सारी महाराषटरीय जनता

क मत की नही, तो कम-स-कम जिस शिकषित वरग न आजतक महाराषदर का जनमत बनाया ह और उसका नततव किया ह--उस बरग क मत की

शरतिनिषधिरप ह ।

अपनी जो राय बन गयी हो उस साहितयिक और ताकिक धाकति

१. मह लकमाला मराठी परषारथ' मासिक क लिए मर मराठी म लिखी भयी थी, इसलिए इसम महाराषटर का उललख अधिक ह ।

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९२ अहिसा-विवचन

स बडी कशलतापरवक परतिपादन करन की कला म यह विदवान‌वरग सिदधहसत

ह । इसलिए लोगो म दसर किसी मत क परति शरदधा उतपनन करन क लिए

पहल इस विदवानवरग क मत म ऋनति कराना जररी हो जाता ह। जबतक

हम इनका मत-परिवरतन नही कर सकत तबतक चाह साधारण जन-सव-

भाव दसरी तरह का और अहिसा-शकति क अनऋल क‍यो न हो, तो भी

लोगो की सारी शकाओ का निराकरण हम नही कर सकत । चतनय की

सभी शकतियो का यह धर ह कि साशक अवसथा म व अपना परण और

बलवान सवरप परकट नही कर सकती । कारण सपषट ह । सवसथ शरीर

म किसी रोग क जनत पदा कर दना जितना आसान ह उतता आसान

उसका निरसत करना नही ह। इसी तरह भरम उपजा दना आसान ह,

हटाना कठिन ह । उसक लिए कवल साहितयिक और ताकिक कछा ही

काफी नही ह । बलकि बार-बार अनक परतयकष परयोगो दवारा अनभव करा दन की तथा लोगो की वततियो को भिनन सस‍कारो दवारा नय ढाच म ढालन की जररत होती ह । इसलिए इस काम क लिए अहिसा-शकति

का परतिपादन करनवाल साहितयकारो और ताकिको की अपकषा उस

हतषित क कशल सनापति अधिक योगय ह । उनह अपन अहिसा क परयोगो

दवारा विदवानो क मतपरिवरतन का परयतन करना चाहिए। व सफल ही

होग यह कहना तो मशकिल ह, कयोकि छटपन स जो मत कायम हो जाता ह वह एकाएक नही बदलता । और अगर मत बदल भी जाय तो भी सवभाव नही बदछता, और मत बदलन की चषटा करनवाल क परति मतसर का भाव पदा होना सभव ह । यह विषय कवल मत स समबनध रखनवाला नही ह । यह सवभाव का सवार ह। इसलिए मत-परिवरतन करान का परयतत करनवाल पर ऋरध भी आता ह । फिर भी, यदयवि बत- मान विदवानो का मत न बदल, तो भी अहिसा क सफल परयोग नयी पीढी

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मनषय की सवभावगत अहिसादतति ६३

क जीवन को नय ढाच म ढालन म सहायक होग और साधारण जनता

जलदी ही उनह मानय करन लगगी ।

मतरब यह ह कि जिनका आज अहिसा म थोडा-बहत विशवास ह, उनह जो विदवान उस नही मानत उनका साहितय और तक दवारा मत-

परिवतन करान की झशट म पडन की जररत नही ह। बलकि व अहिसा

क सफल परयोग कर दिखान का और नयी पीढी म अहिसा-बतति निरमाण

करन का परयतन कर | पथवी अपन, आपकी और सरय क चारो तरफ

घमती ह । ऐसा कहनवाल लोग किसी जमान म पागल समझ जात थ ६

किसी जमान क वजञानिको को यह असमभव परतीत होता था कि हवा

की अपकषा भारी पदारथ क बन हए विमान भी हवा म उड सकग । इसी

परकार आज क मानसशयास‍तरी और विजञानवतता इस बात पर जोर दत हए

पाय जात ह कि “अहिसा साधारण जनसवमाव क परतिकल ह,” और

“पराणिमातर म कदरती तौर पर रही हई आतमरकषा की पररणा म स हिसा

का उदभव हआ ह, इसलिए अहिसा कदरती नियम क विददध ह।”

लकिन इसक बावजद भी जिन लोगो की बदधि को अहिसा जचती ह,

अनभव की दिजञा म अपना कदम लगातार आग बढात रहना चाहिए ।

ब‌

सामाजिक विशषताओ क बार म अऋरम आजकल यह कहन का रिवाज जञोर पकड रहा ह कि “हर एक मनषय

की एक खास परकति होती ह और परतयक समाज की भी एक परकति-विशष

होती ह। महाराषटरीय सवभाव अम‌क परकार का होता ह, गजराती अमक

तरह का, बगाली ऐस होत ह, कानडी वस होत ह, मसलमान म फरला खाधि-

यत होनी ही चाहिए"--आदि-आदि तरह की बात हम आजकल जहत

जोरो स कहन रग ह । सारी की सारी कौम या परानत क विषय म इस

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छ आझअटहिसा-विवखन

तरह की कोई राय कायम कर छता अलप अनभव का परिणाम ह । समझ-

दार लोगो को ऐम विचार हरगिज नही फलान चाहिए। बलकि उनह वो

विषय म इस तरह कोई अपन परानत क लोगो की ऐसी धारणाए दर

करन की कोकषिश करनी चाहिए। ऐसी गलत घारणाओ की बदौलत परातो

म परसपर विदवष पदा होता ह । फिर य धारणाए बिलकल ऊपरी होती

ह | उनक कारण आकषपित समाज क छोगो का रवभाव बदलता हो, सो

बात नही । उदाहरण क लिए, महाराषटर म अगर यह धारणा हो कि

गजराती लोग भावना-अरवान होत ह या महाराषटर क दशसथ बराहमणो की

ऐसी धारणा हो कि कोकणसथ बराहमण भावनाणनय होत ह, अथवा कोक-

शसथ बराहमणो को यह घारणा हो कि दशधय फहड होत ह, तो उसकी

बदोलत जो गजराती वयवहारकशल ह जो कोकणसथ भावक ह, या जो

दधासथ वयवसथित ह उनका सवभाव बदलन की कोई समभावना नही ह ।

फिर, जब किसी समाज क लखक या वक‍ता अपन समाज क

विषय म यह फहन छगत ह कि “हम ऐस ह और वस ह, हम फलानी

चीज जचती ह और ढिमकरी हरगिज नही जच सकती, हमार खन म

यह ह ओर वह नही ह, हमारी परमपर! अमक ह” आदि-आदि- तब

एक खतरा पदा हो जाता ह, कयोकि ऐसी बात बार-बार दोहरान

स जो सरकार सवभावगत न हो, व भी उन बातो क लगातार

सनत रहन स पदा होन लगत ह । “गाघोजी गजरातो ह इसलिए हम

'पसनद नही ह; अदिसा भावनामय ह. इसलिए हम उसक खिलाफ ह; छोकमानय न अहिसा का परतिपादर नही किया, इसलिए उस हम नही

चाहत; शरी समरथ रामदास क साहितय म हिसा या मसलमानो क दवष को सथान ह इसलिए हम अहिसा और सामपरदायिक एकता की बात सनना नही चाहत; तकाराम महाराज न भी दषटो का नाकष करन क

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मनषय की शवमायगत अधिसाशतति ६९"

पकष म अपनी समकति दी ह, इसलिख अहिसा धरम हमार परानत क लिए

अनकल नही ह; अहिसा जनो भौर बौदधो को ह; वह हिनदओ की नही ह ।”-..इस परकार क ससकार करत रहन स, अहिसावतति उतपनन होना समभव और उचित हो, ती भी वह चितत म घर नही कर सकती ।

मतलब यह कि बदधिमान मनषय को यह उचित नही ह कि वह

हर एक सत‌ या असत‌ वतति को परानत-सवभाव बनान की चषटा कर।

अगर हिसा ही उचित हो तो उसकी नीव कवल महाराषटर म ही मजबत

हो, यह काफी नही ह । अगर अहिसा ही उचित हो तो कवल गजरात

म उसका विकास होन स काम नही चलगा। हिसा, अहिसा या दोनो

क कम-अधिक मल--जो कछ भी' मनषय-जाति क लिए उपयकत हो--

का विकास परतयक मनषय म कराम की कोशिश होनी चाहिए। हिसा-

अहिसा, दया-करोध, कषमा-दणड आदि गण-वततिया ह, न कि करम-वततिया या धनध-पश । गणो म वयकतिगत कम-जयादापन हो सकता ह । लकिन,

मौगोलिक या जातोय कारणो स विशषता नही होती चाहिए । कम स

कम वह पदा करन की कोशिश तो कमी नही करनी चाहिए । करम-

वततियो--धनधो--म वसा परयतत किया जा सकता ह | उदाहरण क

लिए समदर क किनार रहनवाक छोगो म परमपरा स नाविक-धिशया की

निपणता उतपनन की जाय तो उसम कोई दोष नही | समतल भमि पर

रहनवाल लोगो को खती-बाडी की कशलता सिखायी जाय तो हरज

सही । लकिन अहिसा, शौरथ, भय, उदारता, कपणता आदि गणो की

चततिया आम तौर पर सववतर विकसित होनी चाहिए । तातपय यह ह कि

अगर अहिसा एक हीन या हानिकारक वतति हो तो वह कही भी नही

होनी चाहिए ! और अगर कह उदातत और खाभदाबी हो,--सगर मही-

राषटर म उसक विकास: क लिए काफी कोशिश न की गयी हो*+-तो अब

घ‌

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६६ अहिसा-विवखचन

बह नषटा करनी चाहिए । कवल परानत या जाति क अभिमान स उसकी

अवगणना या निषध करना त तकसगत ह न सवारथसाधक ।

कवल पराकत पराणी काम, करोध, लोभ, भय आदि क समान अहिसा दया, कषमा, उदारता

आदि वततिया भी पराणिमातर म निसरगत. मौजद ह | ऐसा एक भी

जीव नही ह जिसम अहिसा लशमातर भी न हो। म यह भी सवीकार करता

ह कि हिसा का नाम निशान भी न हो ऐसा दह-घारी अबतक कभी पदा

नही हआ ह । मनषय को छोडकर दसर जीवो की हरएक योनि म विविध

वततियो का विकास विशष परकार स हआ ह । 'यह गाय सीधी ह, वह उदणड

ह', इस तरह क कछ वयकतिगत भद भल ही प।य जात हो, लकिन अकसर

य भद बहत छोट दायर म रहत ह । शायद य भद पालत जानवरो म ही

पदा होत ह । कौव, चिडिया, गीदड, चील वगरा आजाद पराणियो म

उनक जाति-सवभाव ही पाय जात ह। वयकतिगत सवभाव-भद कम-स-कम

इतन सपषट तो नही होत कि व नजजर आय ।

लकित मनषय की बात कछ और हो गयी ह । वहा परतयक वयकति तथा भौगोलिक, राजनतिक, घाभिक या जातीय बनधनो स सबदध मानव-

समह न इस वतति का विकास या हयास भिनन-भिनन परिमाण म किया हआ पाया जाता ह। मनषय कवल परकति क बस नही रह गया ह । बह अपनी वतति म परयतनपरवक फरक भी करता ह ।

फिर भी, एक पीढी या एक वयकति क जीवन म यह परिवरतन एक खास मरयादा म ही हो सकता ह । परकतिधम म आमल परिवतन नही किया जा सकता । इसीलिए योताकार को कहना पडा कि:-..-

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सनणय की सवसलायरत अविसाइतति हक

सहरश चषटल सवसथाः परकतशानवानपि । परकति यानति भतानि निगनहः कि करिषयति ॥

और अरजन का जाति-सवभाव जानकर उसस कहना पडा:-«--

यदहकारमाशितय न योतसय हति सन‍यस।

सिथयष बयवसायसत परकतिस‍था नियोचयति ॥ सवभावजन कौमतय नियदधः सवन करमणा। कत' नचछसि यममोहात‌ करिषयवशो5पि तत‌ ॥

तातपय यह कि मनषय म भिनन-भिनन परकार क सवमाव तथा वतति पदा करन का सतत परयतन पराचीन काल स ही होता आया ह । लकिन

एक अवधि म या वयकति म उस परयतन को मरयादित सफलता ही मिल

सकती ह । इसी परयतन क परयायवाचरी शबद ह--ससकति, ससकारधरम,

शिकषा, तालीम, सिविलिजञशन, कलचर आदि ।

इन परयततो की और भी एक मरयादा ह | ससकार बदलन का

कितना ही परयतन करन पर भी मल वततियो का आमछ उचछद कभी

नही हो सकता । अरथात‌ अगर अहिसा मानव-सवभाव की एक मलवतति हो तो उसका किसी एक वयकति या समाज स अतयनत उचछद होना

असमभव ह । वह अपन विकसित रप म भल ही न रह, किनत बीज रप

म तो अवशय रहगी | चाह यह बलि बहत बड कषतर म न फल, तो

भी बह अपन छोट-स नप-तल दायर म तो अवशय रहगी । उसम बड-

बड फल भल ही न लग, लकिन छोट अवशय लगग । एक पीढी म बह

सख गयी-सी मालम हो, तो भी दसरी पीढी म वह फिर पनपरगी । परलत

अहिसानशनय वयकति या समाज बन ही. नही सकता । उसी तरह अगर

हिसा भी मलवतति हो, तो उसक लिए भी यही कहना पडगा ।

तब हम सबस पहल इस बात की खोज-बीन करना जररी ह कि

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शथ अहिसा-विवखन

(हिसा और अहिसा म स मनषय की मल वतति कौन-सी ह ? ओर यदि

य दोनो उसकी मल वततिया हो, तो एक दसर स उनका मल कस

कराया जाय ?

इसका शोध करन क लिए “हिसा' और “अहिसा--दोनो शबदो को

एक निशचित अरथ दना जररी ह। अनयथा, बहत-सी चरचा फिजरल जायगी ।

“हिसा' और 'अरहिसा' की वयाखया बीज रप स दखा जाय तो अहिसा का अरथ ह--अपनी खद की

शारीरिक, वालिक या मानसिक इचछाए, कलपनाए, आदरश, सख,

आवदयकताए आदि का दमन कर दसर जीव का सख बढान दःख

छटान क लिए सतोषपरवक तयाग करन की वतति । और हिसा' का अरथ ह

दसर जीवो की शारीरिक, वाचिक यथा मानसिक इचछा, कलपना, आदरण

सख, आवशयकता आदि की परवाह न करत हए अपना ही सख बढान या

दःख घटान की वतति ।

इसम दो बात ह । अहिसा म दसर क लिए खद खपन की और

उसम सतोष मानन की सपषट वतति होती ह। हिसा क लिए दसर को दःख दन की, या उसत राजी होन की सपषट वतति आवशयक नही ह। कवल

अपन को सख हो, अथवा दख न हो ओर दसर क सख-द ख की परवाह

न हो, इतना काफी ह । यानी अहिसा म सपषट भावना खद कछ कषट

सहन की ह । और हिसा म सपषट भावता सवा-सिदधि की और जीवना-

ईमरलाषा की ह । जब जीवताभिलाया सगमता स सिदध नही होती तब इस छापरवाही म कठोरता पदा होती हः। यह कढोरता पराणिमातर म

जो सहज हिसा ह उसका परिसथिति क कारण बना हआ विकतरप ह । वह हमशा आवशयक नही होती । इसलिए यह नही कहा जा सकता कि जह पराणि-सवभाव ह ।

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सनषय की सवशावगत अहिसाथतति हदह

कोई पराणी जब दसरो क परति उदासीन या निषठर होता ह, तब

वह हिसक बनता ह। जब वह दसरो क परति मोहबश, करणा या

अनय किसी भावता स पररित होकर अपनी उदासीनता या कठोरता

छोडकर उसकी चिनता करन लगता ह, तब वह अहिसक बनता ह ।

हरएक पराणी म य दोनो वततिया निसगसिदध ह । दसरो क लिए तयाग

करन की वतति का अगर कदरत स ही अभाव होता और वह बचि

बाद म कतरिमरप स परापत को गयी होती, तो बसार म पराणि-सषठि

सभव ही न होती। जसतमरातन अपनी सतान क लिए, और कई बार

अपनी जाति तथा बनघओ क लिए, और कभी-कभी तो दसरी जातियो क लिए भी नितय या नमिततिक तयाग करता ह, इसीलिए पराणियो का

सजन और पालन हो सकता ह । जिन योनियो म सामहिक जीवन का

विकास हआ ह उनम यह वतति विशष परिमाण म बढी ह। इन पराणियो

म स मनषय एक ह ।

एक दषटि स दखा जाय तो मनषयतर पराणियो म सवारथसाधन की वतति की अपकषा तयाग की वतति अधिक बलवती पायी जाती ह। सवारथ- सिदधि क लिए व दसर पराणियो का नाश करत तो ह, लकिन उसम

बहत-सी मरयादाए होती ह । कभी-कभी एक ही जाति क दो वयकतियो भ

लडाई होकर व एक दसर की जान भी ल लत ह। परनत हिख पराणियो

म भी कभी ऐसा नही दखा जाता कि एक ही योनि क दो दल, एक दसर

पर आकरमण कर यदध कर रह हो । एक जाति क चह दसरी जाति क

चहो को भर ही मार डार; लकिन एक ही योनि क चहो का एक

समह सव-योनि क दसर समह स दछ' बनाकर लडाई नही करता । मत-

लव यह कि मनधयतर पराणियो क जीवन म आमतौर पर वयकतित हिसावतति ह। दसरी योनियो क पराणियो क नाश क लिए हिसा क

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० अहिसा-विवचन

तातकालिक सगठन भी कवचित‌ पाया जाता ह। परनत आमतौर पर

हिसक सगठ न अरथात‌ समठित हिसा नही पायी जाती ।

लकिन जिन पराणियो म समह-जीवन पाया जाता ह उनम थोड या

अधिक परिमाण म अहिसक सगठन होता ही ह । यह कहा जा सकता

ह कि अहिसावतति क विकास क बाद ही पराणियो म समह-जीवन की

योगयता पदा होती ह । या यो कह लीजिए कि किसी कारण स समह-

जीवन की अभिलाषा पदा होन पर अहिसक सगठन की आवशयकता

परतीत होन लगती ह । परलत पराणि-जीवन का निरीकषण करन स यह‌

निशचितरप स जञात हो जायगा कि अहिसक सगठनत और समाज-जीवन

का पारसपरिक समवाय-सबध ह |

अहिसक सगठन म मनषय कोई अपवादरप जनत नही ह । मनषय चाह बिलकल बरबर अवसथा म हो या बिलकल अदयतन “समयता' की

अवसथा म हो उसक लिए एक समाज क रप म जीवित रहना तभी

सभव ह जबकि वयकति वयकति तथा परिवार क लिए, परिवार जाति

क लिए, जाति राषटर क लिए और राषटर अखिल समाज क लिए, विवकबल

या भावनाबल स तयाग करता ह, चाह यो कह लीजिए कि वयवसथित

समाज की सथापना का ही दसरा नाम अहिसक सगठन ह ।

लकिन मनषय और दसर पराणियो म एक बडा भद ह। पाछत

जानवरो क सिवाय दसर सार पराणी कवल पराकत ह। व परकति की

परशणा स वयवहार करत ह और उसक नियमो क अधीन होकर रहत

ह। सवपरकति या बाहयपरकति म कोई परिवरतत करन की कोशिदा

नही करत। मनषय भी अनत म परकति की पररणाओ और नियमो क अधोन

डी तो ह। लकिन एक हदतक वह अपनी और बाहय परकतियो म परि- यततर कर सकता ह । यह परिवतन विकत और ससकत दोनो तरह का

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सजषय की सवभायगत अहिसाइतति ७३

हो सकता ह | अरथात‌ मनषय पराकत, विकत और ससकत--ऐसा जिविष

पराणी ह। जिगण (सततव, रज, तम) क समान परकति ससकति और

विकति भी हरएक मनषय म थोड या अधिक परिमाण म होती ही ह ।

इसलिए हर बात म मनषय का वयवहार दसर पराणियो की अपकषा

कछ भिनन रप का होता ह । उदाहरण क लिए म ऊपर कह आया

ह कि मनषयतर जीवो म नमिततिक सगठन करा अपवाद छोडकर हिसक सगठन नही होता । जीवनाभिलाषा होत हए भी आमतौर पर

सवजाति-शतरतव नही होता | बलकि उनक वयवहार स तो ऐसा परतीत

होता ह कि मानो अहिसक सगठन स ही जीवन का धारण-पोषण सचाद-

रप स हो सकता ह--ऐसी उनकी धारणा हो । अपन खादय पराणियो

क अतिरिकत दसर पराणियो को मारन की वतति उनम साधारण रप स

पदा नही होती परनत मनषय म जिस परकार अहिसक सगठन का विकास हआ ह उसी परकार हिसक सगठन का भी बहत बडा विकास हआ ह ।

सवयोनि-शतरतव-रपी विकति बहत भददी तरह स परकट हई ह । इसलिए

उस सगठन का उपयोग कवल खादय या पीडक जनतओ क सहार तक ही

सीमित न रहकर वह निरदोष पराणियो की हतया तथा सवयोनि क लिए

भी बहद काम म लाया जाता ह ।

हिसक सगठन का, यानी लडाई की तयारी का सवाल हमार सामन

कयो उपसथित होता ह ? इसका एक ही कारण ह । वह यह कि मनषय

म सवयोनि-धतरतव अमरयाद ह । हजारो वरषो क अनशीलन स मदषयो म

यह मण रढ हो गया ह । परनत इतना धयान म रखना आवशयक ह कि

यह गण चाह कितना ही पराचीन कयो न हो उसकी बदोलत परकति म

ससकति क बदल विकति ही हई ह । जिस परकार तपदिक या कोढ

भनषय-सभाज म वद-काल स विदयमान होत हए भी विकार ही ह,

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ज२ अहिसा-विवखन

विकार ही रहग और उखाड फकन क ही योगय समझ जायग; उसी

परकार सवयोनि-दतरतत भी, चाह बाबा आदम क जमान स ही कयो न

चला आता हो, एक विकार ही ह और उसकी जड खोदना ससकति

का उददशय ह ।

अहिसा, नयाय और साहायय उपरयकत सारी बात सवीकार करन पर भी एक परइन रह जाता

ह “जो दसर क लिए सतोषपरवक तयाग करता ह, उसक विषय म हम

कोई शिकायत नही ह। लकिन जब एक तरफ सवारथ-तधति की विकत

बतति हो और दसरी तरफ, सतोषपरवक नही, वरन‌ छाचारी स, तयाम

करन की परिसथिति हो, तो उस समय उस दसर पकष की सथिति न तो

बराक' कही जा सकती ह और न 'ससकत' ही । उस तो विकति ही

कहना होगा । आपकी ही थयाखया क अनसार जिसम तयाग हो परनत

सतोष न हो, उस अहिसा नही कह सकत । चाह उस 'भय' या 'नि सहा-

गरता' या और किसी दसर नाम स पकारिए । लकिन यह तो मानता

ही पडगा कि वह विकति ह । इस परकार जब उभयपकषो म विकरति हो

तब नयाय क रप म एक विवक पदा होता ह, जो सवारथ-साध पकष का

निगरह ओर तरसत पकष की सहायता क लिए नि सवारथी मनषय को पररित

करता ह । चिडिया बिलली का भकषय ह। इसलिए अगर बिलली चिडिया

को पकड ल तो दरअसल हम बिलली पर गससा आन का या दखल दत

का कोई कारण नही होना चाहिए । लकिन हम यह साफ दखत ह कि

चिडिया अपनी खशी स बिलली का शिकार नही बनती । बलकि विवशय

होकर अपनी पराण-हानि सहन कर लती ह ओर अधिक निक ह।

इसीलिए हमार अनदर एक नयाय-वतति जापरत होकर वह हम खिडिया

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मनषय की सवभावगत अहिसायतति.. फह

को बचान की गरज स बिलली का निमनह करन को पररित करती ह इसम

बिलली को बाज दफा एकाध घौल भी खानी पडती ह । यदि विवक

स दखा जाय तो बिलली पर मससा आन का कोई कारण नही ह उस»

पर भी दया ही बाती ह । लकिन फिर भी अगर दबारा वसा मौका

आय तो हम फिर बही करग जो अब किया ह, कयोकि जब बलवान

और निरबल म अपन-अपन सवारथ क छिए सघरष पदा होता ह, तो

बलवान का निगरह और निरबछ की मदद करन की एक बलवान बतति

हमार अनदर उठती ह । इस अहिसा कहा जाय या हिसा ? अब अगर

सयोग स हम या दसरी चिडियाए उस चिडिया क अनदर किसी उपाय

स बिलली को हराकर आतमरकषा बन का बल पदा कर सक, तो उस

बल को विकति क‍यो कहा जाय ? बलकि यह कयो न कहा जाय कि हस

या वह चिडिया अधिक ससस‍कारी बनी ?

यहा लिडिया ओर बिलली भिनन योनि क जनत ह, यह बात सही

ह । कदाचित‌ आप कहग कि उनक लिए दसरा नियम होगा

और मनषय मनषय क वयवहार क लिए दसरा, लकिन यह क‍यो ? अगर

आदमियो म भी एक वयकति या समह बिलली जसा बन गया हो और

दसरा चिडियो जसा तो वहा भी यही नियम कयो न छाग किया जाय ?

इसलिए आपक इस हिसा-अहिसा क पथककरण म नयाय-वतति का सथान

कहा ह ? सो तो समझाइए ।”

अब इसका विचार कर।

विचार करन स जञात होगा कि बयायवतति कवल मानषी वति ह ।

दसरी परकतिवदय पराणियो म न‍यायवतति जसी कोई परशणा नही ह, उनम

धाहायय-वतति की पररणा ह । खद कषट सहकर भी सवयोनि क या वसरी

योनियो क जनतओ की सहायता करन की वतति परणिमातर म पायी जाती

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छछ अहिसा-विवचन

ह। इसी क मानषरप को हम "नयायवतति” सजञा दत ह। मतरब यह कि नयाय-वतति पराणि मातर म पायी जानवाली साहायय-वतति का ही एक

रप ह ।

साहायय वतति क कषतर म वयकति कवल अपन लिए काम नही कर

सकता | दसर पराणी या दसरो क सतथ वह सवय आ सकता ह । कवल अपन लिए परयतन करना साहायय वतति नही ह। वह तो महज जीवना-

भिलाषा--परकति-धरम -गत हिसा--ह दसरो क लिए खपना साहायय वतति

ह । उसम सतोषपरवक खद तयाग करन की वतति ह। इसलिए वह अहिसा

क कषतर म आती ह।

लकिन दसरी सारी वततियो की तरह साहायय वतति त भी मानव- योनि म घिकत और ससस‍कत दोनो रप लिय ह | मलभत परदन यह नही ह कि नयायवतति अहिसक ह या हिसक, बलकि यह कि उसक कौन स रप पराकत ह, कौन स विकत और कौन स ससकत ? नन‍यायवतति-साहायय- बतति-अहिसा स भिनन नही ह । इसलिए अहिसा की शदधि, वदधि और ससकति म ही नयायवतति का परिपोष हो सकता ह ।

इसलिए यह परइन छोडकर हम अहिसक सगठन क मल परदन का ही विचार कर ।

रर‌

आतम-रकषा का परशन

इसपर भी पाठफ शायद पछग--.

“थोडी दर क छिए आपका यह सारा कथन मान भी ल तो भी हमार सामन सवार यह ह कि सवयोनि-शतरतव चाह एक विकार 'भछ ही हो परनत आज वह मनषय-समाज म बिछकछ दढ हो गया ह । इसलिए हम यह डर सदा बना रहता ह कि सनषयो की कोई न कोई

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मलषय की सवभावगत अहिसाइतति र

टोली हमपर धावा न बोल द । इन टोलियो पर दसरी तरह क ससकार

करन का कोई साधन हम परापत नही ह । उनक नता तो उनका यह

विकार बढान की ही कोशिश करत रहत ह और निबल टोलियो क

सहार क लिए बहत बडी तयारी करन म जट रहत ह । ऐसी दकषा म

सिवाय बलवान हिसक सगठत क हमार सामन दसरा चारा ही कौन

साह?”

यदि यह सवार आज हमार सामतल वयवहाय रप म उपसथित हो

जाय--यानी हम दरअसल परण सवराजय हासिल हो जाय और अपन

दश का भछा-बरा जो चाह सो करन की आजादी मिल जाय--तो म यह मानता ह कि दश की रकषा क लिए मौजदा हालत म हम किसी-न

किसी परिमाण म हिसक सगठन की आवशयकता रहगी, कयोकि दश की

रकषा क लिए जो विशष अहिसक सगठन चाहिए उसकी तयारी हम अब

तक नही कर पाय ह । इसलिए जिस परकार कागरस की परातीय सरकारो

को पलछिस की नितय और फौज की नमिततिक मदद लनी पड रही ह

और उस रप म हिसक सामगरी तयार रखनी पड रही ह उसी तरह

आदि आज ही सवराज मिल जाय तो अखिल भारतीय कागरस. सरकार

को भी-बावजद इसक कि उसका थयय अहिसक ह-वही करना पडगा ।

लकिन हमार सामन आज यह परदन उसक वयवहाय रप म परसतत

नही ह । आज जिनपर दश-रकषा की जिममदारी ह, उनका इस समबनध

म इतना निशचय ह कि भल ही भारतवरष एक आवाज स हिसक साधनो

का निषष कयो न करता रह और उस दिला म उनक परयतन म बाघा

कयो न डालता रह, तो भी व अपना सवारथ जानकर हिनदसतान को

विदशी आकरमण स बचान क सब आवशयक उपाय करग ।

इसलिए हमार सामन शरह परशन आज ही समाधान क लिए उपसथित

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हर अहिसा-विवखचन

मही ह | बलकि इस रप म पश ह कि भविषय म अगर अहिसा स उस

हल करना हो, तो वह कहा तक सभव ह और अगर सभव हो तो उसक

लिए आज ही स कौन-स उपाय करन चाहिए ?

इस समबनध म एक महततवपरण बात धयान म रखनी चाहिए । वह

यह कि जितना ही किसी परजा का अहिसक सगठन बलवान होगा उतना

ही उसका हिसक सगठन भी बलवान हो सकता ह। अगर अहिसा का

सगठन निरबल हो तो हिसा का सगठन भी निबल रहगा, कयोकि

जिस मातरा म कोई परजा ससगठित, वयवसथित, सवावलमबी और एक

होगी उसी मातरा म वह दसरी परजा का सामना करन क लिए ससग-

ठित, वयवसथित और एकदिल हो सकगी । जिस परजा म भीतरी

फट, अवयवसथा, परावरमबन, बहआखाबदधि आदि दोष हो वह बल-

थान हिसक सगठन भी नही कर सकगी । अगर हिदओ को मसर-

मानो क खिलाफ, मसमानो को हिनदओ क खिलाफ, या सार हिनद-

सतानियो को अगरजो क खिलाफ अथबरा सार सामराजय को जापान,

जमती आदि क खिलाफ हिसक उपाय काम स लान हो, तो हरएक को

अपन-अपन उददशय क अनसार अपन-अपन दायर म--यानी सार हिदओ

को, सार मसलमानो को, सार हिनदसतानियो को या सामराजयानतरगत

सारी परजाओ को आपस म--सचच दिल स एकता करनी पडगी।

अगर हिनदओ म आपस की फट हो, मसलमानो म भीतरी सघरष हो या हिनदसतानियो म आपसी झगड हो अथवा साममाजय की भिकच-भिनन

परजाओ म अनत कलह हो तो दशमस क खिलाफ बलवान हिसक सगठन

भी नही किया जा सकता +

मतलब यह कि जिस तरह असतय की कोई सवतनतर परतिषठा नही

ह उस किसी न किसी सतय क आधार पर ही खडा होना पडता ह उसी

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मनषय कीः सवभाधगत अधहिसाशतति कक

तरह हिसक सगठन की भी कोई सवततर परतिषठा नही ह। अशिसक सगरठन

की नीव पर ही उसका निरमाण हो सकता ह ।

इतना तो हम निविबाद रप स मानता ही पडगा कि सवाधीनता

परापत होन पर अफगा निसतात, रस, जम नी, जापान वगरा का मकाबका करन क लिए हम हिसक साधनो स काम लना पड था न पड, लो भी

हमार अपन दश का बलवान अहिसक सगठन करना नितान‍त आवदयक

ह। इसक बिना न तो हम हिसा का बलवान सगठन कर सकग और न

आतमरकषा ही ।

हिसा क सगठन स हम यदध का साज-सामान, फौजी तालीम भौर

सफादार फौज---इतना अरथ समझत ह । हसम यदध का साहितय कितना और किश परकार का हो यह तो उस जमान क बजञानिक आविषकार

धर निरभर रहगा । आखिर वह निरजीव साधन ह । वहा सवाल सिरफ चस का और भडार भरन का ही ह। छकिन फौज जीवित साथम ह ।

इसलिए उसका उचित परकार स शिकषित होना मखय चरीज ह। अगर

आजञा पाकत करनवाल शिकषापरापत निषठावान सिपाही न हो तो सार

अदयतन साधनो क होत हए भी विजय परापत नही हो सऊती ।

किसी भी दश म इस परकार क सनिको की सखया कल जनससया

का एक छोटा-सा अश ही होती ह । लडाई छिड जान पर भी परतयकष

धदध-कारय म लग हए सनिक या सना क साथवाल लोग बहत नही होत । उनस कई गन जयादा सनिकतर नागरिक अपन-अपन घरो म

होत ह । व कई तरह की असविधाए सहकर और कई परकोर को

सफाोग करक सारा काम चलात ह और सनिको की मदद कर ह ।

सनिक वरग म आम तौर पर कवल हटट-कटट नौजवान ही होत ह, शष

सार माबालबदध जनता अहिसक सगठन क दवारा, लकिन हिसो म

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८ अदिसा-विवचन

शरदधा हो जान क कारण यदध जारी रखन म मदद करती ह । खद

तयाग करक सहायता करन की आम जनता की यह ततपरता ही बहत

बडी मातरा म यदध की सफलता का कारण होती ह । हिसक यदध क लिए भी असनिक जनता का यह अहिसक सगठन अनिवाय ह ।

आकड दखन स विदित होगा कि सौ म पचचीस आदमी भी हिसा

क परतयकष कारय म भाग नही लत। लकिनइन पचचीस नौजबानो

को मोका आन पर खन करन को परवतत करन क लिए हम जनता क

दिल म यह विकार निरनतर पदा करना पडता ह कि मानो हिसा ही

जीवन-निरवाह की कजो हो। सनन म मजदार मालम हो, ऐसी यदध-

कथाए रचकर जिनह हमन अपना दशमन मान लिया ह उनक परति

बचपन स ही दवष पदा करन क लिए सचची और झठी बात गढ

कर दवष-बदधि स ओतपरोत वातावरण बनाना पडता ह । इस सार परयास

का फल इतना ही निकलता ह कि होनहार तरणो का एक ऐसा छोटा-

सा दल तयार होता ह जो विपकष क जितन आदमो हाथ उठा सक

उनक परति आततायी क जसा वयवहार करन क लिए परवतत होता ह

और मनषयो म सवयोनि-शतरतव रपी विकति जीवित रखता ह । यह

विकति परकति विरदध, नीतिविरदध, और अधयातमविरदध ह ।

अब मान लीजिए कि वयापक हिसा करन क लिए परजा म जिस अहिसक सगठन की आवशयकता ह, वह सब हम अचछी तरह कर रह ह ।

सारी परजा म एकता सथापित करत ह । आपस क घासिक, परानतीय,

जातीय और आधथिक कलह और अनयाय निपटात ह । जनता को सवाव-

लमबन स अपन सार काम करन की शिकषा और पररणा दत ह । उस

सयम ओर परिशरमशीलता की आदत डालत ह । एक दसर क लिए

सथास करन की निसगदतत वतति का सिचन और अनकीलन कर उस पषट

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मनषय की सवभावगत अहिसाबतति ७६-

करत ह । “मनषय जाति को दसर पराणियो की अपकषा समति, तक, विवक, भाषा आदि की जो विशष दन मिली ह उसका उददशय मनषय-

जाति क एक छोट-स अश क भोग-विलास की सिदधि नही ह। बलकि

उसक दवारा समगर सानव-जाति का और दसर पराणियो का भी हित-

समपादन होता चाहिए ।”---इस परकार क ससस‍कार भी दत जा रह ह तो

जिस परकार हिसक राजय हिसक सना क लिए विकारवदश जनता म स

कछ बहादर और साहसी सिपाही पान की उममीद रखत ह, उसी परकार

ऐस सस‍कारी जनता म स कछ बहादर, साहसी परनत अहिसक सनिक

पान की आशा कयो न की जाय ?

“पराणासतयकवा धतानि च' की वततिवाल बहादरो की। जररत

दोनो तरह क सगठनो क लिए होगी। दोनो म सवदशभविति की

जररत समान होगी । परनत जहा हिसक फौज को, जिस उसन अपना

छतर माना ह उस जनता क परति घोर दवषबदधि स विकत होना पडता

ह, वहा अहिसक सना को अतर क परति भी करणा तथा दया की ओर

उसक हित क लिए तयाग करन की परफललतर वतति का विकास अपन

अनदर करना पडगा। उचित पदधति स परयतन करन पर यह असमभव कयो

माना जाय ?

शरता सिरफ हिसा म ही बसनवाला गण नही ह । वह एक सवततरवतति

ह । वह हिसक मनषय म भी हो सकती ह और अहिसक मनषय म भी । हमार दश क सतो न यह भद बहत परान जमान म ही जान लिया था +

सती, शर अर सत का, तीनो का पक तार ।

जर, मर, सख परिहर, तब रीक करतार ॥ तथ रीक करतार, सब ससार सहाय । नहि तो होत खबार, हार जित सब ही जाव ॥#

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झा झदहिसा-विवचन

दाखत अदयाननद महा हढ अचल मती का ।

तीनो का एक तार, शर अर सत, सती का #

द‌ अहिसक सगठन की अमलयता

लकिन इतन स शायद पाठक को सतोष नही होगा | वह कहगा

कि, “मान लीजिए कि सन‍तो क वनद बनान क अभिपराय स आपन

सिपाहियो की सता नही बनायी । कछकिन आपकी अधहिसा-निषठ सना

परसतत होन स पहल ही कोई शतर हमार दश पर धावा बोल द तो दश

की कया हालत होगी ? आप तो लोगो को अहिसा की ही सीख दत

रहग और उनपर उसी क ससकार करत रहग, तब सिपाहियत क लिए

'कठोरता क जिन गणो की जररत ह, उनका विकास कस होगा और 'शसी सथिति म कया हमारी फजीहत नही होगी ?”

थोडा विचार करन स मालम होगा कि इस परकार का अनदशा करन की वजह नही ह। अहिसक समठन जितना दढ होगा, उतना ही, उसकी बदौलत, मौका पडन पर, सदासतर फौज तयार करना आसान होगा, न कि महिकल, कयोकि जनता म एकता, सहयोग, तयागवतति, सवावलमबन आदि गणो का विकास हआ होगा और जसा कि ऊपर कहा जा चका ह, अनशासनयकत वीरता का भी उसम उतकष हआ होगा । ऐसी जनता क लिए यदध का कतघय उपसथित ही हो जाय तो उस सजजित होन म दर नही लगगी । अबतक सन‍तो की सना नही बन सकी, इसका इतना ही अरथ ह कि लोगो म किसी न किसी अझष म मारकवतति विदयमान ह ।

इसक अछाबा, सकषम हिसा, यानी जीवनाभिलाषा, दहघारियो म स “कभी परणरष स सपट नही होगी । वह अनशासन म रह सकती ह, विकत

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मनषय की सवमाययत ऋटटिसाइसि घयप

भी: हो सकती ह, किनत नषट नही होगी। ससकति की अपकषा चिकति म एक बडी भारी कषमता यह ह कि उसका वग यणाकार पदधति स

बढता ह । ऊपर चढन क लिए हर कदम पर परिशरम करना पडता ह,

शकति लगानी पडती ह, लकिन नीच गिरन क लिए कवल एक धवका

काफी ह । बाकी को सारी किया उततरोततर अधिक वग स अपन आप

होती ह । आवशयकता तो उस बग क नियमन की होती ह । मतलब

यह कि विकति को अनशासन क बनधन की जररत ह। ससगठित जनता म अहिसा का अनशासन थोडा-सा शियिलर होत ही हिसा अपन

आप जोर पकडती ह । इसलिए अहिसा क ससकार की बदौलत हिसक

शकति नषट होन का अनदशा कतई नही ह ।

सच तो यह ह कि पराणिमानन को जिस वसत का जञान अनजान,

सवाभाविक रप स, मिलता रहता ह,उसका महततव तथा उसक विकास म

पायी हई सफलता या रही हई तरटिया, व विचार क बिना महसस नही

करत । परनत जिस चीज क पीछ उनहोन कतरिमरप स बहत महनत

की हो उसका महततव और उसम की हई परगति व कभी तही भछत ।

हम अपनी मातभाषा बालयावसथा स ही अनजान सीखत रहत ह । अनय

भाषाभाषी पडोसी हो तो उनकी भाषा भी बोलन लगत ह; लकिन

उसका महततव या उसम की हई तरककी का अनदाज लगान की हम

कभी नही सझती । लकिन अगरजी भाषा हम बडी महनत स सीखत ह इसलिए उसका महतव महसस करत ह और उसम की हई तरककी भी

समय-समय पर नापत ह ।

अवोधपधरवक हई परगति और जञानवदधि क विषय म हम इतना अजञान

होता ह कि उसम बदधियवक परमति करन की बात छडनवालो को कभी- कभी विरोध का सामना करना पढता ह | जिसक दोनो पर साबित ह,

घ‌

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८२ अहहिसा-विवखन

उसक लिए चलना, दौडना या अटारी पर चढना सहज ह। वह समझता

ह कि इसम सीखन की कोई बात ही नही। इसलिए अगर कोई वयायाम-

विशारद यह कहन लग कि चलतता, दौडना और चढना भी एक करा

ह, जो हम परिशरम स सिदध करनी चाहिए, तो कई छोग उसपर हसग ।

परनत बिचछचाल चलना, तरना, घोड पर सवारी करना, साइकिल चलाना आदि शरमसाधय कराओ का महततव हमारी समझ म तरनत आ

जाता ह ।

अहिसा-हिसा पर भी यही नियम घटित होता ह । ससार म अहिसा

की--दसर क लिए खद खपन की--एक बलवान पररणा जसतमातर म

सवभाव स ही ह । इसीलिए अनक पराणी झड बनाकर रह सकत ह और

दीमक, मघमकखी और चीटियो स लकर मनषय तक अनक जनत अपनी अपनी हतियत क अनसार वयवसथित समाजरचना तथा छोटी-बडी

रप-रचना भी करत ह । उन सबम नियमन, दड, शासन आदि होत ह

सही लकिन यह मानना गरत होगा कि हर घडी समाज इनही की बदौलत

चलता ह । य बात अपवाद रप ह और जिस मातरा म अहिसक सगठन

बलवान होगा उसी मातरा म य साधन कम काम म लाय जायग ।

इन उपायो क उपयोग की आवशयकता दवा या इजकशन की आव-

इयकता क समान विकरति का लकषण ह । कभी-कभी विकति सकरामक

बीमारी की तरह फल सकती ह । उस मौक पर इन उपायो को बड

पमान पर और वयवसथित रप म छान की नौबत आती ह । लकिन

इन कभी-कभी ह।नवाली विकतियो का इलाज करन क लिए मनषय-

समाज न हद स जयादा महनत की ह। इसलिए उसकी ऐसी शरदधा हो

गयी ह कि विकति का इलाज करना दवी अधयातम ह, वही धरम ह और वही विजञान ह, वही एकमातर जीवनकला ह, समाज-वयवसथा और राज-

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मनषय की सवसावगत अहिसावतति द

कारण म वही नीति ह। दणडनीति और यदध-कला क बड-बड जबरदतत

शासतर मनषयो न बनाय ह ।

म मानता ह कि मनषय न बडी महतत और सकडो साल क

तजरब स य शासतर बचाय ह। लकिन यह परशत अवशय विचारणीय ह कि

समाज स जो दोष नषट करन क लिए यह उपाय-योजना करनी पडती

ह, व दोष अबतक नषठ कयो नही होत ” कहा जाता ह कि यरोप स

कौढ रोग बिलकछ मिट गया, चचक भी जाता रहा ह । इसलिए म यह

मानन को तयार ह कि जिन उपायो स य बीमारिया नषट हई उनम

कछ उपाय-योजना थी । लकिन सवयोनि-शतरतव क मरज पर ऐसा कोई असर होता हआ नजर नही आता | इसलिए मरी यह धारणा ह कि

इसम कोई-न-कोई गलती जरर ह ।

यह नकस कौन-सा हो सकता ह ? हमार समाज-जीवन की नीव

ही, जिसपर हमन यह सारा हिसक सगठन का ढाचा खडा किया,

कमजोर ह । उसपर इमारत बनान क पहल जितनी महकत ली गयी,

जिन पतथरो स उपत पादा गया और जिन तततवो स उन पतथरो की

जडाई की गयी--वह सारा सामान रही था, उसका बजञानिक शोध भी ठीक-ठीक नही हआ। उसपर महनत तो बहत ही कम छी गयी । फल-

सवरप जिसपरकार नालनदा क विशव विदयालय की इमारतो की अटारियो

और ऊपर क हिससो म भवय और विशाल रचना होत हए भी नीव की

जमीन ही कचची होन क कारण कई बार इमारत बनान पर भी व सब

निकममी ठहरी और उनको छोड दता पडा। उसीतरह हमारी समाज-

रचना तथा ससकति का बाहय रप भरवय और शोभनीय दिखायी दता ह;

लकिन जयोही बह परणत को पहचना चाहता ह, तयोही अपन ही बोझ स

दबकर ढह जाता ह ।

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सछ अहिसा-विवचन

इसलिए हम ससकति की बनियाद का ही विचार करना चाहिए जोर

उसीका शासतर पहल सीखना चाहिए। और अचछी तरह समझ लना

चाहिए कि समाज-रपी मदिर की सरकषितता उसक अहिसक सगठन पर

निरभर ह न कि हिसक समठत पर | हरएक आदमी चल और दोड सकता

ह, लकिन फिर भी चलन दौडन का एक खास शासतर ह ही। उसी तरह

पराणिमातर की कदरती अहिसा-वतति का शासतरीय ढग स अनशीरन

होना और समाज-रचना म उसका शासतरीय ढग स सगठन होना जररी

ह । उसपर बनायी हई इमारत भल ही दखन म सीधी-सादी छग तो भी

वह टिकाऊ और सखदायी होगी, लकिन कचची बनियाद पर बनी हई

खबसरत लगनवाली इमारत न तो मजबत होगी और न आरामदह ।

चशमा, बट-सट, बत और अपटडट वष-भषा स सज हए किसो

चिररोगी यवक क विषय म यह कहना कि वह सलोना दीखता ह,

विरप को सरप कहन क बराबर ह । उसी परकार मनषयो की हिसा पर

मनषयो न जिस समाज-रचना का निरमाण किया ह, उस ससकति क नाम

स पकारना विकति को ही ससकति मानना ह ।

सब पराणियो म हिसावतति भी ह ही । जीवनाभिलाषा का ही वह

दसरा नाम ह। लकिन उसका इलाज हिसातमक सगठन नही बलकि शासतर-

शदध अहिसातमक सगठन ह। उचित उपायो और उचित ढग स हरएक

को जीवननिरवाह का सयोग मिल तो यह हिसा-बतति सतषट हो जाती ह। किसी वयकति म एकाध मरज की तरह, या बाज दफा, सार समाज म

छत की बीमारी की तरह, वह फट पड तो उसका निवारण करना

चाहिए । लकिन ऐसा करन म भी ऊपर-ऊपर क उगर उपचार करन की

अपकषा, वयकति अथवा समाज की नीव म कहा कमजोरी पदा हो गयी

ह-.-इसी की धय स खोज करनी चाहिए ।

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सनषय की सवभावगत अहिसावतति घर

हि

वीरता ओर अहिसा हम लोगो म इस वहम न घर कर लिया ह कि हिसावतति और

शरता एफ ही गण ह और हिनदसतान म अहिसा पर ही बहद कलोर' दिया

गया, इसलिए वह पराघीन होता गया ।

म ऊपर कह चका ह कि हिसा और शौय य दोनो बिलकल भिनन वततिया ह । कोई जीव हिसक होकर भी कायर हो सकता ह भौर

अहिसक होकर भी बहादर हो सकता ह | बहधा ऐसा दखा गया ह कि

जहा हिसा होती ह वहा मय भी ह । जिसम सपषट साहसिकता ह ऐसी

शरता शायद अहिसा क साथ हमशा न पायी जाय । लकिन वह अहिसा

क साथ होती ही नही ऐसी बात नही ह। हिसा, अहिसा, साहस,

शौरय आदि एक वतति क रप म मनषय म सहज ह । लकिन गण क रप

म व महनत क साथ किय हए अनशीलन स ही परकट होत ह ।

यह कोई नही साबित कर सकता कि हमार दश म किसी भी

जमान म वीरता का गण बहत कम रहा हो । कम-स-कम खास जातियो

न निरनतर परिशरमपरवक उसका विकास किया | लकिन अहिसा--विशष-

कर सगठित सामाजिक अहिसा--क गण की कमी हमशा पायी गयी ह ।

चाह महाभारत-काल का, चाह राजपतो का, चाह मगलो का, चाह सिक‍खो

या मराठो का इतिहास ल छीजिए । आप यही पायग कि अशवतथामा- करण विवाद, शलय-करण विव।द, जयचनदी फट की परमपरा अविचछिनतरप

स चली आयी ह । करकषतर क यदध स लकर पानीपत क यदधतक सतापति

क मरन पर सना म अनधाधनधी, आपस म लडाई और अनत म

परायन--यही हमारा इतिहास रहा ह । इसम वयकति की हसियत स सनापति या सनिको म बीरता का अमाव नही दिखायी दता + बहादरी

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३ अपिसा-विवखन

और हिममत की कमी नही ह । परनत परम, अनशासन और कतवयबदधि

की वयापकता तथा उतका सगठन बिलकल नदारद ह ।

वह नताओ म ही नही ह, इसलिए जनता म भी नही ह। बदधि-

भद और वमनसय पदा करनवाला तककौशल सदा सलभ रहा ह।

लकिन सबस मल करनवाली बदधि और करमकौशर सदा दलभ रहा ह;

कयोकि हमार अनदर आम तोर पर अहिसा एक अससकत और मढवतति

क रप म होत हए भी उसका सामाजिक अनशीलन कभी नही किया गया ।

हम बड गयव स कहत ह कि हमार दश म 'अहिसा परमोधरम *

'सतयमव जयत' भादि घोष ( नार ) विदयमान ह । हमार सनतो न

अहयचरय, सयम, इनदरियनिगरह, आतमानातमविवक, भतदया, वरासय आदि का बार-बार और जोर स उपदश किया ह । इसलिए साधारण रप स

हमारी ऐसी धारणा हो गयी ह कि हमारी आधयातमिक ससकति दश-

वयापी ह। कोई-कोई तो ऐसा भी मानत ह कि हमन इन गणो का

अतिरक ही कर डाला ह ।

लकिन इन उपदशो का एक दसरी दषटि स भी विचार किया जा सकता ह । जो गण किसी समाज म वयापक रप म पाय जात हो, उनका

बार-बार उपदश करन की परवतति साघारणत नही होनी चाहिए। जिन

गणो का समाज म अधिक अनभव नही होता, मगर जिनकी आवशयकता तो परतीत होती ह, उनही पर उपदशक जञोर दगा । उपरयकत गणो का

सन‍तो न निरनतर उपदश दिया, इसका यही कारण हो सकता ह कि

उनहोन समाज म इन गणो का असतितव परयापत परिमाण म नही पाया।

यह उपदश करनवाल सन‍तो न दसरी भी कछ बात समय-समय पर कही

ह। उनहोन कहा ह कि “ससार सवारथमय ह, हमार आतमीय और सग-

समबनधी सभी अपना-अपना सवारथ दखत ह, कोई किसी का नि सवारथ

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मनषय की सवभावणत अटिसापसि 9

आपत नही ह । इसस यह पता चलता ह कि उनह जीवन म क‍या

अनभव होता था, पारमाथिक विततवालो क लिए उस वतति क विकापत क रासत म हमरा समाज कौन कौन-सी कठिनाइया उपसथित करता

था और इसलिए सबका तयाग करता ही एकमातर मारग कयो समझा सया ?

इसक विपरीत हम उन गणो का भी विचार करता चाहिए जो हमम नही थ और न जिनक लिए हमारी भाषा म कोई शबद ही थ ।

बलकि जिनक समान वततियो का हमार सन‍तो न निषध भो किया।

उदाहरण क लिए, 'सवदशभकति' या 'सवदशाभिमान' शबद हमार परान

साहितय म नही पाय जात । वरणाभिमान, जातयभिमान आदि का सन‍तो न

परबल निषध किया ह, कयोकि इस दश म ऐसा विरला ही' कोई रहा

होगा जो अपनी भमि स परम न करता हो । अपना खत, अपना गाव था

अपना परानत छोडन की वतति हमम बडी मशकिल स पदा होती ह । इनस बिछडन म हम अतयधिक द ख होता ह ।

किसानो म तो इतना जबरदसत भमिपरम पाया जाता ह कि खत

की काननी मालकियत स हाथ थो बठन पर भी उसपर अपना कबजा

जमाय रखन क छिए व अपनी जान लडा दग। हमारा वरषाभिमान

और जातयमिमान तो मशहर ही ह। समतरिकारो न उसका इतना जबर-

दसत शासतर बना रखा ह कि बदध और महावीर स लकर आजतक हर-

एक सनत क उसकी निन‍दा करन पर भी, हमार समाज स उसकी परबलता

नषट नही हई ।

बदध स लकर गाधी तक इस दश म जो महान‌ परवतक हए उन

सबन साधारण जनता क लिए पाच ही नियम बतलाय ह ।--चोरी न

करो, वयभिचार न करो, शराब न पिजो, मास न खाओ, झठ न बोलो ।

इस पाच म स मास का निषघर करत की तो आज किसी की हिममत ही

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घघ अहिसा-विषचन

नही होती । और अगर कोई हिममत कर भी तो उसकी कोई मानगा

नही । लकिन इसपर स कि ढाई हजार वरषो स हम लगातार इन पाच

ही नियमो का उपदश करना पड रहा ह, हमारी सरवसाधारण ससकति

क रप का पता चलता ह ।

मतलब यह कि, अहिसा, बरहमचरय, असतय आदि क विथय म हमार

दश म विपल साहितय और परचर उपदश उपलबध ह। इसस यह

अनमान करना गलत होगा कि सततवगणसपनन समपतति हमारी जनता की

परकति ही ह । इतना ही कहा जा सकता ह कि हमारी परकति को इन

गणो दवारा ससकत करन का परयास सकडो वरषो स हो रहा ह। अनक

महापरषो न इसक लिए अपनी सारी उमर बिता दी। लकिन फिर भी यह नही कहा जा सकता कि हमन कोई विशष परगति की । कारण यह

कि उनक कारय म विकतिगरसत लोगो न विधत डालन म कछ उठा नही रक‍खा । तथापि अहिसा-पर रित मनषय उस परयतन को छोड नही सकत ।

पद

वासतविक आवशयकता “अगर जमनी या जापान का आकरमण हो जाय तो हम कौन-सा

अहिसक इलाज कर यह आज ही बतलाओ ।'”--ऐसा परशन अपरासगरिक

ह । आज हमार सामन जो परइव उपसथित ह वह तो यह ह कि ““अगरजो

क ओर हमार बीच परतनतरता का जो बनधन ह बह कस काटा

जाय, और हम सवाधीन किस तरह बन ?” हिसाबादी भी यह महसस

करत ह कि इसका कोई वयवहारय हिसक उपाय अबतक परापत नही

हआ ह | यह उनह भी हमारी अहिसा शदध भल ही न रही हो, लकिन

मानता पडगा कि जसी कछ अशदध और सथल अहिसा का हमन परयोग

किया उसकी बदौलत हम थोडी बहत सफलता भी मिली । इसलिए

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मनषय की सवभावगत झहिसाजतति पप३

वयवहारचातरय तो इसी म ह कि समझदार लोग हिसा क बार की

खाल निकालन क बदल अहिसा क सनापति क बतलाय हए तरीक स

उस शदध और सगठित करन की कोशिश म जट जाय । अगर हम आजपएदी चाहत ह तो सारा दश एक होना चाहिए +

जात, पात, वरण, धरम और परानत क दवष नषट होन चाहिए, परजा का

आनतरिक वयवहार नयाय और नीति क अनसार चलना चाहिए। बलबानो को निरबलो क लिए खपना चाहिए। उनक शोषण स बाज आना चाहिए ॥

हरएक को पटभर रोटी, शरीर-भर कपडा और आरामभर मकान मिलत

का परबनध करन म सार समझदार लोगो को एकमत हो जाना जाहिए ।

यह सब जटान करन क लिए वयकतिगत तथा समाजवयापी अवहसा

की, यानी दसर क लिए सन‍तोष, करततवयबदधि और परम स खपन की

आवदयकता ह, न कि हिसा या दवष की, जररत निःसवारथबदधि की ह, न कि सवारथबदधि की। सरववयापी ममता की ह, न कि तग दडबो म बनद

किय हए अह-ममतव क भाव की ।

यदि हम अपन जीवन तथा सलकारो म इस परकार की करानति कर

सक तो जननी या जापान क आकरमण स अपना बचाव करन की

अहिसक योजना भी हम अपन आप सझ जायगी, कयोकि यह करानति

तो अहिसा क अनशीलन स ही हो सकगी। तबतक आज कितना ही

सिर कयो न खजाय, तो भी वह तरीका नही सझगा । जो कछ सझाया

जायगा वह अबोध कलपना म शमार होगा; कयोकि उसको सझान क

लिए जिस परव-परिसथिति की आवशयकता ह, बही आज नही ह । आज

बतार क तार स एक कषण म एक शबद सार ससार म भजा जा सकना

ह । अब अगर कोई पछ बठ कि फरज कीजिए कि शबद क समान एक विनाशक किरण मी दनिया भर म फलायी जा सक तो उसस अपनी

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३७० अदिसा-विवचन

"रकषा का कौन-सा उपाय किया जाय ?--तो समझदार वजञानिक इतना

ही जवाब द सकगा कि पहल उस तरह का यनतर तो बनन दो, तब मर

दिमाग म विचार आन लगग ।

आज हिसक साधनो स हम अपनी रकषा करत ह । लकिन उसक

लिए हमार पास कितनी सना ह, किस किसम की कितनी तोप, वाययान,

जहरीली वाय‌ क गोल, मासक आदि साधन ह, व कहा-कहा रकख गय

ह, अचछी हालत म ह या नही ?--इसकी चरचा या जाच-पडताल हम

कहा करत ह ? हिनदसतान क सरकारी सनापति स इस समबनध म कितनी

जानकारी मागत ह ” हम' तो यही मानत ह कि जो लोग यदधकला क

विशवासपातर विशषजञ ह व उचित परबनध करग ही, और इस विशवास स

यदध क दिनो म भी निशचिनत होकर सोत ह ।

अगर अहिसा क कषतर म भी इसी परकार हमारी एक विशष साधना

हो जाय तो क‍या उसक भी कछ विशषजञ पदा नही होग ? हमार दश

म अहिसाधम म परवीग और अहिसा स जनता की रकषा कर सकन का

आतमविशवास रखनवाला जो वीरपरष होगा उसीको हम अपना

यदधमतरी बनायग और उसकी सचनाओ पर चलग । तातपय यह कि, 'जमनी क खिलाफ अहिसक योजना क‍या हो ?'“--यह सवालर उतना

महततव नही रखता जितना महतव यह सवाल रखता ह कि हम अपन

नितय क जीवन क छोट-बड कलह अहिसा स किस परकार मिटाय ?

अगर दो आदमियो म यदध करत क शासतर, का आविषकार हो जाय तो

सकडो और छझाखो की लडाई का शासतर भी खोजा जा सकगा । यही

नियम अहिसा पर भी छाग ह ।

अनत म “गाधी-विचार-दोहन” स इस समबसध म दो परिचछद उदधत

करक यह लमबा लख समापत करता ह --

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मनषय की सवसावगत अदिसाबतति |

“अहिसा म तीबर कारयसाघक शकति भरी हई ह । इस अमोघ शकति

की अबतक परी-परी खोज नही हई ह ! 'अहिसा क समीष सार बर-

भाव शानत हो जात ह',--यह सतर शासतरो का कोरा पाढितय ही नही

ह, बलकि ऋषियो का अनभव-वाकय ह । इस शकति का समपरण विकास

और सब अवसरो ओर कारथो म इसक परयोग का सारय अबतक सपषट नही

हआ ह । हिसा क मारगो क सशोधनाथ मनषय न जितना सदी उदयोग किया ह औरः उसक फलसवरप हिसा को बहत बड परिमाण म एक

विजञानशासतर-सा बना दिया ह; उतना उदयोग यदि अहिसा-शकति क

सशोधन म किया जाय, तो मनषयजाति क द खो क निवारणाथ यह

एक अनमोल, अधयरथ तथा अनत म उभय पकषो का कलयाण करनवाला

साधन सिदध होगा ।

“जिस शरदधा और अधयवसाय स वजञानिक परकति क बलो की खोज-

बीन करत ह और उसक नियमो को विविध रप स वयवहार म लान

का परयतन करत ह, उतनी ही शरदधा और अधयवसाय स अहिसा की यकति

का अनवषण तथा उसक नियमो को वयवहार म लान का परयतन करन

की आवशयकता ह |!

न नम-ननननमननन-मनमम--म-+म.

१. “गाधी-विचार-बोहन' : अहिसा १०,११

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१ ऐ १६

सामाजिक अहिसा की बनियाद

१ अहिसा या बनियागिरी ९

१९३०-३२ क सतयागरह क दरमियान तथा बारदोली आदि क

सतयागरह म लोगो न अहिसक वीरता क जो सबत दिय, उनकी तारीफ

सनकर एक मितर बोल, “जबतक हम यह तारीफ सिरफ विदशी लोगो को

सनान क लिए करत ह, तबतक तो ठीक ह। लकिन जब हम अपन घर

म बठकर बात करत ह, तब महरबानी करक इस बीरता की सराहना

न कीजिएगा । सच पछिए तो लडाई म जिस परकार की बहादरी की

जररत होती ह, उसका आपको खयाल हो नही । उदाहरणाथ, चारो तरफ

दशमन क विमान (हवाई जहाज) मडरा रह ह, ऐसी हालत म एक

नौजवान अपना विमान लकर अफला उनक बीच घसा चला जाता ह ।

और यह जानत हए भी कि उसका जिनदा वापस आना नाममकिन ह, कवल दातर क एक या दो विमानो क नाश करन की आशा स ही वह

इतना साहस करता ह । अथवा, जिस बहादरी स सबमरीन (पनडबबी)

म डबकी लगाता ह, उसकी बहादरी क साथ आपक धारासणा क 'बीर'

परषी का क‍या मकाबला कर ? आज हमार दश म स कितन नौजवान

सबमरीन या विमानी सनिक की सिरफ तालीम लन क लिए भी तयार

होग ? दसर क बदन स खन निकलता हआ दख बहोश हो जानवाल

हम बआहयण और बनिय अहिसक वीरता तक पहच गय, इसका इतना ही

मतलब समझना चाहिए कि हम कायरता स सिरफ एक कदम आग बढ ह ।

“अशोक की तरह स जो लोग हिसातमक जीवन म स अहिसा की

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सामाजिक अरिसा की बनियाद ३३

ओर गय, उन जस अगर आप भी कषतरिय होत तो आपकी अहिसा

मझ अदभत लगती । छकिन जिस अहिसा की आज आप तारीफ कर

रह ह, वह सिरफ आपकी हिसा-शकति क अभाव का उपनाम ह । मझ

दशक ह कि जब हिसा का सवाद आपको मिलगा तब आपकी यह अहिसा

कहा तक टिकगी ? ”

सवय गानधीजी क बार म भी इसी परकार की हका दसर रप म

परगट की गयी ह । हार ही म सर स० राधाकषणन‌ दवारा समपादित

“गानघी-अभिननदन गर५' म शरी एडवरड टामसन लिखत ह.---

“वह गानधी गजराती ह अरथात‌ ऐसी जाति म उतपनन हए ह जो

यदधपरिय नही रही ह और जो विशषतया मराठो दवारा बहधा पददलित

की गयी और लटी गयी ह ।'*'वह अहिसा को जो इतना महततव दत ह,

वह उनक एक शानतिपरिय जाति म जनम लन का लकषण ह। मरा विचार

ह कि मराठ इस बात को कभी नही भलत कि व मराठ ह और गाघी

गजरातोी ह । राजपतो क बार म भी यही बात कही जा सकतो ह,

नयोकि वह भी एक यदधपरिय जाति ह ।”

यह दलील बलकि उलाहना मन पहिली बार नही सना, इसलिए

मन खद अपन आपस यह परशन कई बार पछा ह, कि गाधीजी जिस अहिसा का परचार कर रह ह और जो मझन जस अनक लोगो को मानो

सवभाव ही स पसनद आती ह, और हिसा क परति जो घणा पदा होती

ह, यह क‍या मझम जनमत: रही हई बनिय की डरपोक वतति तथा वषणव ससकारो का परिणाम ह, या अहिसा का--यानी मतरी, परम, करणा आदि कोमल गणो का--परिपाक ह ?”

कछ हद तक इस सवाल पर मनथन करन क बाद म जिस नतीज

पर पहचा ह वह परसतत करता ह ।

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४७ झहिसा-विवचन

यह तो म बिना सकोच क सवीकार करगा कि यदध-विरोध अथवा

शानतिपरियता कई पीढियो स मरा खन क दवारा उतरा हआ सवभाव

ह । उसक अनशीलत क लिए, सवय मझ अशोक क जस अनभवी म स जान की या बदधि को बहत कसन की जररत नही हई। मर जिन परवजो न सकडो वरष परव हिसक विचारो को छोडकर बौदध या जन या

वषणद सपरदाय को सवीकार किया होगा, व बशक इरादतन हिसा स

अहिसा की ओर गय होग । अनक पीढियो तक अपन इस परिवरतन को

हदय म दढ करत-करत मर इन पवजो न अहिसावतति की जड अपन

सवभाव म इतनी मजबत जमा दी कि बाद म वह मर छिए एक हद तक

अपन परयतन स परापत करन की समपतति नही रही बलकि पवजोपाजित

समपतति क रप म मझ विरासत म मिली । परनत समपतति पवजोपाजित होन ही स बह कोई कसपतति या विपतति

तो नही ही जाती, और न उसम शरमान जसी ही कोई बात होती ह ।

हमार लिए अपनी कोशिश स उस समपतति को बढाना शकय ह।

वसा न किया जाय तो दसरी भौतिक समपततियो की तरह यह भी कषीण

हो सकती ह, और जिस तरह परखो क जमान का बतन धीर-धीर घिस-

घिसकर फट जाता ह और फिर वह सिरफ एक समारक का काम दता ह, उसी तरह यह भी एक कषीण और दबल सरकार बनकर रह सकता ह ।

तब मर लिए गौर करन का सवाल यह ह कि, क‍या म इस सहज-

परापत सवभाव का ही अधिक विकास कर, या फिर स उस हिसक सवभाव को परापत करन की कोशिश कर जिसका उस एक कसमपतति समझकर

भर पवजो न सोच-समझकर तयाग किया था ? क‍या हिसा स अहिसाकी ओर जान म मर परवजो न कछ अमानषिकता (मरइसानियत) की ?

यह सच ह कि कछ लोगो का ऐसा ही खयाल ह । व मानत ह

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सामाजिक अहिसा की बनियाद 8५

कि आज एक ऐसा जमाना आया ह कि जिसम हिनदसतान या दसरी

किसी भी कौम का उदधार हिसक बनन स ही हो सकता ह ॥ लकिन

कोई भी मानव-हितचितक इस विचार का नही ह । हिसा म रही हई

भीषण पशता को पजनवाला वरग इना-गिना ही ह, हिनदसतान म भी

उतका कषतर साफ नषट नही हआ ह । आज भी हिनदसतान म लडाक‌ जातिया ह । कई लोगो का कहना ह कि जिनम लडाई की वतति और करा

ह ऐस लोगो क अभाव और नयनता क कारण ही हिनदसतान परतनतर हआ | लकिन इस कथन म कछ भी ऐतिहासिक सतय नही ह । इसलिए

हिसा दवारा दश का उदधार करन क समपरदाय की तरफदारी क लिए कोई

जोरदार कारण नही ह । सचचा रासता तो आज भी वही ह जो सदियो

पहल हमार बडो न बताया था | वह ह--“खन न करो, कयोकि “अहिसा

ही परम धम ह ।'

मतलब यह कि उन वश और ससकार दवारा आपत अहिसावतति क

लिए शरमान की कोई वजह नही । बलकि जनम ही स यह विरासत पान

क लिए ईईइवर और अपन परवजो क परति कतजञता भाव रखन क लिए

परयापत कारण ह ।

फिर भी मझ यह भी कबल करना होगा कि मर अहिसक सवभाव क

क साथ मझम बहत-सी फमिया भी पदा हो गयी ह । व ऐसी ह कि

ऊपर-ऊपर स व अहिसावतति का ही परिणाम मालम होती ह। डरपोक-

पन और दयारीरिक साहस करन की हिममत का अभाव इन कमियो म

मखय ह। हिसक आहार-विहार तथा जगल क नजदीक की बसती म

इन कमियो को दर करन क कदरती मौक मिल जात ह । शिकार और

लडाई-झगडो क बीच जिनदगी बितानवाल सतरी-परष अपना या दसर का

रकक‍तपात दखन क बचपन स ही आदी हो जात ह। उस तरह का साहस

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२३६ झआहिसा-विवखन

उनका रोज का जीवन हो जाता ह। उनक लिए डरपोकपन और असाहस

शरमान योगय चीज हो जाती ह, और उनक समाज म बस वयकतियो का

तिरसकार होगा। लकिन बराहमग-बनियो क समाज म अगर कोई

आदमी हिममत करक अपना हाथ तोड ल या खतर की जगह दौड

कर चला जाय तो उतपतकी हिममत क लिए उसका जयकार तही किया

जायगा । बलकि उसस कहा जायगा कि कयो इतनी बवकफी करन गय ?

डन समाजो म बचचो को हौए और अधर क डर म, और 'अर गिर

जायगा' “अर, लग जायगा' जसी सावधानी की सचनाओ क साथ ही

बढाया जाता ह । इसका परिणाम यह हआ ह कि हमारा यह समाज कछ

का परष सा बन गया ह। इसम शक नही कि यह बडी शरम की बात ह ।

परनत हम ठीक-ठीक सोचग तो पता चलगा कि य कमिया अहिसा

का आवशयक परिणाम नही ह। हमार परवजो न अहिसा को सवीकार

किया यह तो अचछा ही किया, लकिन उपसत वक‍त उनह यह बात न सझी,

ओर उस जमान म सझ भी नही सकती थी, कि जिस तरह हिसक

आहार-विहार क साथ साहस और शौरय आदि गणो का पोषण होता ह और उनक सगठन का शासतर निरमाण होता ह, उसी तरह अहिसक जीवन क अपरतिकल तरीको स इनही गणो क विकास क निमितत इनक सगठ न का जषास‍तर भी खोजना होगा ।

इस कछ विसतार स समझ लना चाहिए ।

र अहिसा की वशलानिक शिकषा

अगर हम यडधो क इतिहास बारीकी स पढ तो मालम होगा कि किसी भी लडाई म जीवन क लिए सिरफ सिपाहियो की बडी सखया,

उनकी वयकतिगत बहादरी और लडाई का अचछ-स-अचछा सरजाम

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सामाजिक भरहिसा की बनियात‌ ३७

काफी नही ह | जीत क लिए एक बहत ही महततव की बात ह सनिको

का सगठन । यदध की परिमाषा म उस उमदा फोजी तालीम, कशल

सनापतितव और चतर वयह-रचना कहा जायगा। एक ओर बडी

बहादर और अचछी तरह स साधन-समपनन, मगर बिन। ताजीम और

बिना सनापति की दस हजजार सिपाहियो की सना हो, और दसरी

तरफ एक हजार ही सिपाहियो की फौजध हो पर वह अचछी तालीम

पायी हई और कशल सनापति क नततव म हो तो इतिहास म ऐस कई

उदाहरण पाय जायग कि जहा छोटी सना न बडी सना को हरा दिया।

हिनदसतान म कितनी ही लडाइयो म इनही कारणो स अगरजो की

जीत हई थी । फिर बहादरी भी कोई वयकतिगत गण नही ह। 'प' 'फ'

“ब' भ--सभी थोड-योड बहादर भल ही हो लकिन अगर व चारो

लडाई की तालीम परापत कर और कशल सनापति क नततव म एक

होकर लड तो उनकी बहादरी का जोड सिरफ चौगना ही नही बलकि

कई गना हो जायगा। इसक विपरीत व वयकतिगत रप स बड ही शर-वीर कयो न हो फिर भी अगर हरएक आदमी अपन धमणड क

खमार म रहकर ही लडना पसनद कर तो वयकति क नात बढिया परा-

करम दिखान पर भी व हारग, और उनका कल पराकरम पहल चार की

अपकषा कम होगा । शायद एकाघ उसम स निराश- भी हो जायगा। मत-

रब यह ह कि इस तरह हिसा का भी एक विजञान ह और उसक अन-

कल उसका विकास करना पडता ह। सब लडाक जातिया इस बात को अचछी तरह समझती ह और इसीलिए तरह-तरह क उपायो स यदध

विजञान का विकास करन क लिए सकडो वरषो स महनत उठायी गयी ह ।

जिस तरह एक हिसापरायण समाज म बचपन स ही लोगो म

हिसक वतति पदा करन, बडी उमर म लडाई की तालीम दन और यदध

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डघ अधहिसा-विवचन

क समय उनह सगठित करन की जररत होती ह, और इसलिए उसका

वयवसथित शासतर बनाना पडता ह, उसी तरह एक अहिसा-परायण

समाज को भी अपन लोगो म बचपन स अहिसावतति का पदधतिपरवक विकास करन, उसकी तालीम दन और जब-जब परसग उतपनन हो तब-तब

उनह सगठित करन की जररत ह । परनत यह बात अहिसको क धयान

म भरी भाति आयी नही ह । उलट अहिसा-घरमी न आमतोर पर एकाकी

और निवततिमय जीवन बिताना ही पसनद किया ह । निवतति म नमरता,

अभिमानशतयता, अपमान, बलातकार आदि की जानबझकर तितिकषा

इतयादि अहिसा-पोषक वततियो को बढाल का परयतन जयादा आसान होता

ह । परवततिमय जीवन म यह साधना कठिन होती ह । इसलिए योगय

तालीम क अभाव म जब परवततिमय जीवन बितानवाल अहिसक छोग

इन वततियो क अनकल बरताव करन लग, तब उसस कछ विपरीत परिणाम निकल । इन विपरीत परिणामो को हम “बनियागिरी' क तिरसकारसचक नाम स पकारन ह । इस शबद स जिसस शरीर को भय हो वस किसी भी परकार क साहस क परति अरचि, भय-सथानो का दरर ही स तयाग, शरीर और समपतति बचान क लिए. चाह जितनी अपमान- जनक सथिति म रहन की तयारी वगरा कायरता क गणो का समावश किया जाता ह। निबतति स रहनवाला अहिसक यह जिन‍ता करता ह कि दसरो की हिसा न हो, लकिन परवतति म पडा हआ अहिसा-धरमी खद अपन दारीर की हिसा न हो, इस रीति स अपन जीवन की रचना करता ह। भय स दस कोस दर रहकर ही वह अपना अहिसा-षरम सभारता ह। इसका नतीजा यह हआ कि अहिसक को चाह जो तमाचा जड द, गालिया द द या लट छ, वह 'बचारा' बनकर चप रहता ह ।

मगर ऐसा सवभाव होत हए भी परवततिपरायण अहिसा-धरमी को

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सामाजिक अहिसा की बनियाद ६६

ससार म टिकन की इचछा तो ह ही | इसलिए बाहर स अधहिसा

का तयाग किय बिना सकषम हिसा करन की कछ रीतिया उसन खोज की

ह । खती, गोपालन और (विशषकर ) वयापार क दवारा धन बढान की

कला म उसन निपणता परापत की ह। और उसम हिसा का यमान करन-

बाल को उसक भिधयाभिमान दवारा ही मिठास क साथ लटन, बिना खन बहाय ही खन चसन, कटिल नीति स परासत करन, और वयकतिगत कम-

खरजी और हिसाबी दान करन की यकतिया निकाली ह । इन सबका भी

बनियागिरी म समावश होता ह । इस परकार की अनियागिरी का

भाभास दनवाली बहत-सी लोककथाए भी ह । मतलब थह कि 'बनिया-

गिरी” शबद कायरता और चालाकी का भिलाप बतातता ह । य सब

अहिसा क वयवसथित विकास क अभाव क परिणाम ह ।

इसका हम सशोधन करना होगा और जो लोग सवभाव स, धरम क

ससस‍कार स, अपनी सारासार विवक-बदधि स या आखिर दसरो दवारा

जबरदसती ही नि शसतर किय जान स अहिसक बनकर रह ह, उनह

अपनी उस अहिसा का एक बल क रप म परिवततत करन का

विजञान निरमाण करना होगा | चतनय का यह सवभाव ही ह कि

वह चाह जितनी कठिन परिसथिति म मल सवभाव को बिना

छोड अपना सवतव बराबर बनाय रखन की, अपना समपरण विकास सिदध

करन की और अपन धयय को परापत करन की अचक पदधति खोज

ही सकता ह। इस शोध म अपन मखय सवभाव पर बिलकल दढ रहन

क बजाय यदि वह उस बदलन और दसर किसी सवभाव को वयरथ जप-

नान की चषटा करता ह, तो उतनी हदतक उस खोज म वह निषफल

होता ह । चाह आप डाविन का “उतकरानति-शासतर', करोपाटकिन का

“सघरष या सहयोग”, मटरलिक का 'दीमक” या 'मघमकखी का जीवन

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१००७ अहिसा-विवखन

बढ या किसी भी पराणी क जीवन का अवलोकन कर, आप यही

पायग कि चततय की इस शकति क दवारा ही इस ससार म विविध

योनियो क जीव अपना-अपना जीवन बिता रह ह । जो लायक हो वह

जीव (सरवाइवल आब द फिटसट) का मतलब जो शरीर स बलवान हो,

बही जी सकता ह इतना सकचित नही ह, बलकि ईहवर-दतत परकति का

एक शकति क रप म परिवततन करक जो अपनी परिसथिति का सामना

कर सकता ह, “वही जी सकता ह” ऐसा होता ह ।

तातपय यह ह कि मझ या मझ-जस दसर सबो को हमार सवभाव

म वश-परमपरागत उतरी हई अहिसा का ही विकास करना चाहिए । इस

अहिसा का विकास करक सवाभिमान, निरमयता और सफलतापरवक हिसा-

वतति क मनषय या पराणी का सामना करन का मारग हम खोजना चाहिए।

अब हम इसी का आग विचार करग ।

३. अहिसा क पराथमिक नियम अहिसा-विजञान की खोज म नीच लिखी बात मरी समझ म पराथ-

मिक नियमो क रप म मानी जानी चाहिए।

(१) अहिसा क ही विकास और ससस‍कार-दवारा शकति पदा करन

का हमारा निशचय होना चाहिए। ततकालीन लाभ-हानि की (षटिस

हिसा क तरीक आजमान स या हिसा-वतति पदा करन की चषटा करन स

यह शकति उतपनन नही की जा सकती ।

(२) अहिसा का डरपोकपन, असाहस आदि स तलाक कराना चाहिए और बचपन स ही अहिसक साहस और वीरता बढान क उपायो

की योजना करनी चाहिए ।

(३) अहिसा का एक वयकतिगत गण या विभति क रप म ही

नही, बलकि सामाजिक शकति क रप म विकास होना चाहिए। एक उदा-

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सामाजिक अहिसा की बनियाद १७३

हरण दकर इस समझाता ह । 'दरदशत' 'दरशरवण” आदि सिदधिया योगा-

भयास की विभति क रप म कोई वयकति परापत करता ह, यह भराषसि

उसकी अपनी वयकतिगत ही रहती ह; परनत विजञान-दवारा परापत तार,

टलीफोन, रडियो आदि सिदधिया सामाजिक ह । अथवा एक दसरा दषटानत

लीजिए । महाभारत म 'मोहासतर', 'आगनयासतर', 'वरणासतर' आदि अनक

असतरो का जिकर ह। भिनन-भिनन मनतरो क अधीन होन क कारण इन

सब असतरो का उपयोग उसी वयकतिति दवारा हो सकता था, जिसन व मनतर

सिदध किय हो। परमत आज क हिस। क साधन वजञानिक होन क कारण

उनकी अपकषा बहत जयादा समाजगत ह । इसी तरह जिस अहिसा को

हम सिदध करना ह वह किसी “राग-दवषविषातिरहित” "परण विरागी

परष दवारा सिदध किय हए गण क रप म नही, लकिन सामाजिक जीवन

वयतीत करनवाल, काम-करोधादिक विकारो स कछ न कछ परामत होन-

वाल और फिर भी सवभाव और बदधि दोनो स शानति चाहनवाल लोग

जिस तरह रडियो या फोन का उपयोग कर सकत ह, उस तरह जिसका

उपयोग कर सक ऐसी अहिसा सिदध करनी ह ।

(४) सगठन स पदा होनवाली हरएक सामाजिक दाकति की

एक मरयादा हम भलनी न चाहिए । हमारा सगठन हिसक हो या अहि-

सक, एक हदतक उसम जान-माल का खतरा रहता ही ह । जब हम

फौज दवारा अपनी रकषा करन की सोचत ह तब हम यह अपकषा नही

करत कि हमार दश क एक भी वयकति की मतय क बिना और दश की

कछ भी हानि हए बिना ही उसका बचाव हो जायगा। ककिन इस

शरदधा स हम इन साधनो को जटात ह कि थोडी-सी हानि सहन कर हछन

स बहत बडा लाभ होगा, अथवा सरवसव-नाश स बचन क लिए इतनी

हामि सहना अनिवाय ह । अहिसक सगठन क विषय म भी इसी तरह

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१३७२ अहिसा-विवचन

सोचना चाहिए | अब उचित वयवहाय सवार तो यह ह कि समाज को

अहिसक सगठन स जयादा खतरा ह या हिसक सगठत स ? यदयपि इसका

निशचित उततर तबतक नही दिया जा सकता जबतक कि हम एक

निषठावान, कशल और अहिसक शिकषण पाया हआ समाज निरमाण नही

कर सक ह, तो भी, इतना तो जरर कह सकत ह कि इसम हम और

हमार छातर को भी आथिक और शारीरिक कलशो का कम स कम

खतरा ह ।

(५) आज की परिसथिति म हमार दश म एक हदतक हिसा

और अहिसा को साथ-साथ चलना होगा । सखया म अहिसक समाज बडा

होन पर भी, हिसक समाज बिलकल ही नगणय नही ह, और बह साधनो

स ससमपनन ह । सामराजयवाद, वरग-विगरह आदि नामो स हम जिस पह-

चानत ह उसका सचचा सवरप यदि दखा जाय तो हिसा क साधनो स

समपननता और उसका अभाव ही हिसक और अहिसक समाजो की परि-

सथितियो क बीच का भद ह । जो लोग हिसा क साधनो स समपनन ह

उनकी रकषा की जिममदारी की चिनता करन की अहिसक समाज को

जररत नही, बलकि जररत तो यह ह कि अगर वह साधन अहिसक

समाज क विरदध परयकत किया जाय तो वह निकममा किस परकार किया

जा सकता ह ?

इसका जयादा सपषटरप स विचार किया जाय तो शसतर, धन, शरीर-

बल, अधिकार, उपप, लिग, कौम, विदया, बदधि, धरम या दसर किसी बल

का उपयोग, जो लोग उन बलो स वचित ह, उनकी सवा और भलाई क

लिए किय जान क बदल जब उन कमजोर लोगो का दमन करन क

लिए किया जाता हो, तो अहिसक समाज क पास ऐसी शकति होती

चाहिए, कि जिसस वह उस गलत रासत स जानवाली शकति को निकममा

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सामाजिक अहिसा की बनियाद १०३

ठहरा सक । यान निःशसतर, निरधन, तिबल, पराधीन, बारक, सतरी, दलित, अनपढ, मदबदधि, साध आदि छोगो की वह विशष परिसथिति

एक कमी क रप म नही बलकि एक शकति क रप म परकट होनी

चाहिए ॥ यह अनभव तो थोडा बहत सभी को ह कि बालक, सतरी और

साध अपनी सथिति का शकति क रप म सफल उपयोग कर सकत ह । बाज दफा वह उपयोग शकति क भान स नही बलकि लाचारी की भावना

स होता ह । कभी-कभी कपट स भी होता ह। इसलिए उसम गससा,

दःख, दमभ आदि दोष भी होत ह | शायद इस ओर हमारा खयाल नही

गया कि मनषय समाज म निबछ, अपग और निरधन लोग अकसर अपनी

उस कमी को बदौलत ही अपना जीवन टिका सकत ह। साग और

नीरोग भिखारी की अपकषा अधघ, लल, लगड, रोगी भिखारियो को कयो

जयादा दान मिलता ह ? चारो ओर बकारी हो तो भी इनकी यह

अपगता ही इनह जिलान म समरथ होती ह। बहतर भिखारी यह जानत ह

कि अपगता भी एक शकति ह, इसलिए जान-बझकर अपग बनन या

अपन बालको को अपग करन की यवितरया भी व काम म छात ह । लकिन य सब मारग अजञान और वयकतिक सकचित दषटि स खोज गय

ह । उनका जञानपरवक और समाज-हित की दषटि स शोधन नही हआ ।

फिर भी, इन विकत यकतियो की एक निशचित अनभव पर रचना हई

ह । वह यह कि परतयक मनषय म कोमलता और समभाव होता ह, दीन क

परति बनधभाव और आदरभाव होता ह, और जो उस जामनत कर सकता

ह वह जीवन म निभ सकता ह । कभी-कभी उसक बल पर अनयायय और

अनचित माग भी परी करा ली जाती ह । तब जहा अपन पकष म नयाग

हो वहा सफलता क विषय म सदह की कम गजाइश ह।

एक उपभा दकर इस सपषट करता ह । अहिसक कलरह अथवा सतया-

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१०४ अहिसा-विवचन

गरह एक परष और उसकी मानिनी सतरी क झगड की तरह ह । मानिनी

अपन पतति स रठती ह, लकिन उसस दवष नही करती । अपन पति क

अहित की इचछा तो वह तनिक भी नही कर सकती । उसका तयाग

करन क लिए नही बलकि उस और भी जयादा वश म करन क लिए वह

उसस रठती ह। लकिन इसक लिए वह उसक परो पडना, आजिजी

करना, भीख मागना या अपना सवाभिमान खोना आदि उपाय नही

करती । इस मल बात को पकडकर कि उसका पतति उसस या वह अपन

पति स परम करती ह वह जपनी शकति परकट करती ह । मतलब यह

कि जिस बात को हमारा परतिपकषी एक विपतति या नि सहायता समझता

ह उसीको अपनी शकति बनान म हमारी सफलता की कजी ह ।

(६) विगरह चाह हिसक हो या अहिसक, अनत म जीत किस तरह

होती ह ? शदध द-यदधो क कछ परसग छोड द, तो दसर सब झगडो क

अवलोकन स पता चलगा कि जीत का अनतिम आधार किसी पकष का

सथल बल नही, बलकि जस-जस विगरह बढता जाय वस-बस परतिपकषी क दिल म हमारी शकति क परति आदर और खद अपन परति अशवदधा या शका आदि की वदधि ह। अगरज, दशी नरश या किसी कोम क हदय म हमस लडत हए भी अगर हमार परति आदर बढता रह तो हम यह

निशवय मानल कि अनत म जीत हमारी ही होगी । मगर यदि उनक

दिल म हमार परति अनादर बढता जाय तो एकाध बार व हमारी शरण म आ भी जाय तो भी हम समझना चाहिए कि व फिर लडन खड होग । यह आदरबदधि हिसक ओर अहिसक साधनो क अनसार अलग-अलग निमिततो स पदा हई ह । हिसक साधनो म जिन निमिततो क जरिय सवताकष का डर पद! होता ह, उनक कारण आदर बढता ह । अहिसक साधनो म हमार चारिशय का परिचय होन स

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सामाजिक अहिसा की बनियाद १७२

भादर बढता ह। “आदर-बदधि” को ससकत म “भय” भी कहत ह

(अगरजी म इसक लिए “ओऑ (4७८ ) शबद ह) इसी अरथ म ईशवर को

“भयाना भय” कहा ह--अरथात‌ आदरणीयो क भी आदरणीय । यही अरथ

इस कहावत का भी ह कि “भय बिन होह न परीति'र | आजकल हम “भय

शबद स सिरफ “आपतति का डर” ही समझत ह | पर यह सकचित अथ

ह । दशरथ-सा बाप और राम-सा पतर हो तब भी पतर क मन म पिता क

लिए एक तरह का आदर-यकत भय रहता ह । गर इनाम दनवाल ह,

यह जानत हए भी विदयारथी उनक पास जात हए अकसर कापता ह ७

इस तरह अपन स शरषठ परष क लिए आदर क कारण डर होता ह,

ऐसा आदर-रप भय होन म दोष नही ह और आखिर म हस परकार का

भय ही कलह का अनत करता ह । इस अरथ म 'भय बिन होइ न परीति” वाली कहावत ठीक ही ह । यदि कागरस की ओर दख तो साफ मालम

होगा कि जितन अश म उसक परति विपकषी या जनता क दिल म आदर

ह, उतनी ही उसकी शकति ह ।

मतलब यह कि हिसक दल की तरह अहिसा का धयय भी परतिपकषी

क दिल म भादर उतपनन करता ह । इसक लिए शरीर, मन और वाणी'

का सयम, धन ओर सतरी क विषय म उचच शील, सरलता, बगपतता,

परतिपकषी को समपरण अभय दान अपन पकष क अनशासन का उतकषट

पालन, उदयोगिता, विविध तयाग, कषट-सहन आदि उसक साथन ह ।

और कयोकि इनम पशबल का तयाग ह इसलिए य ही अहिसा क साधन

ह । इसम वाणी का जहर, गपत चालबाजी, परतिपकषी को धोखा दन,. डरान, परशान करन आदि की हिकमत, आलस, चोरी, तिकडम, सवारथ-

साधन आदि बाजियी का परयोग सफल हो जाय तो भी य सब छल-परपच

अनादर उतपनन करनवाल होन क कारण अहिसक यदध म आखिर हमारी

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१०६ अहिसा-विवचन

ही हानि करत ह। इस तरह अहिसक यदध म उचच चरितर जीत क लिए

अनिवाय ह ।

(७) और एक महततव की बात यह ह कि अधहििसक मारग पर रहन-

वाल समाज को अपन मन म यह खब अचछी तरह समझना चाहिए कि

कितना ही विकट और जीवत-मतय का विगरह कयो न हो उसम शरतिपकषी क अहित की इचछा नही की जा सकती, जिसस उसक मन म हमार परति

ऋकरीध, तिरसकार या बर पदा हो ऐसी' भाषा या वयवहार लडाई क दोरान

म भी नही किया जा सकता । उसका जान-माल खततर म ह, ऐसी

दहशत उसक दिल म नही पदा की जा सकती ।

(८) और अत म सबस बडी बात ह चतनय म शरदधा । सब बाहय

दकतियो का उदभव चतनय स ह और उसीम उसकी सथिति ह । बाहय

साधनो की वह माता ह, और उतपर परभतव रखती ह। किसी भी परि-

सथिति को वश म करन क लिए आवशयक रप म बाहय शकति परकट

करन की वह कषमता रखती ह । जो एकागरता स उसकी खोज करता ह

उसक दवारा वह परकट होती ह और फछती ह। हिसक साधनो की खोज क

लिए महनत उठानवालो क सामन उन रपो म वह परकट हई ह, अहिसक

सप करनवालो क सामन उनक अनकल रपो म परकट होगी ।

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$ ४ $

अहिसा की कछ पहलिया अहिसा क बार म कभी-कभी गहर और जटिल सवाल किय जात

ह । इनम स कछ का म यहा थोडा विचार करना चाहता ह ।

(१) परइन--परणता परापत किय बगर समपरण अहिसा शकय नही

ह । गाघीजी खद भो अपनो अहिसा को अधरी मानत ह । तो फिर सार

समाज को या हमार जस अपरण वयकतियो को अहिसा की सिदधि किस

तरह मिल सकती ह ?

उततर--कभी-कभी बहत गहर विचार म उतर जान स हम गगन-

बिहारी बन जात ह । कसरत करनवाल‍ल हरएक वयकति दौडती हई

मोटर रोकन, या चार-पाच मन का पतथर छाती पर रखन, या गाभा

की बराबरी करन की शकतित परापत नही कर सकता । फिर भी, यह

ममकिन ह कि इन लोगो स भी बढकर कोई पहलवान दनिया म पदा

हो । अगर इनही को शारीरिक शकति का आदरश माना जाय तो साघारण

आदमी--चाह वह कितनी भी महतत स शरीर मजबत करन की

कोशिश कर, तो भी--अपरण ही रहगा । तब कया आम जनता क लिए

जो अखाड ह व बनद कर दिय जाय ? उततर साफ ह कि "नही, क‍योकि

अखाडो का मखय उददशय गामा-जस पहलवानो को ही निरमाण करना

नही ह, बलकि साधारण दनियादारी म सकडो आदमियो को जितन

और जिस परकार क शारीरिक विकास की जररत हो उतना और उस

परकार का विकास कराना ह । जो वयायामशाला यह करा सकती ह

उस हम सफल ससथा कहग, चाह उसक सौ साह क इतिहास म

उसम स एक भी गामा या राममरति भर ही न निकछा हो। इन अखाडो

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बणम अधिसा-वियखन

म गामा और राममतियो का सममान, तथा मारगदशक की हसियत स

उपयोग हो सकता ह, लकिन उन जसा बनन की सबकी महततवाकाकषा

नही हा सकती। उसक उसताद क लिए भी वह कसौटी नही हो सकती ।

एक दसरा उदाहरण ल लीजिए। सनापति म यदध-शासतर की जितनी काबलियत चाहिए उतनी हर एक छोट अमल म, तथा छोट

अमल जितनी काबलियत सामानय सिपाहियो म हो, ऐसी अपकषा

कोई नही करगा । उसी तरह अगर गाधीजी की अहिसावतति हर एक

कारयकरता अपन म पा न सक, अथवा कारयकरता की लियाकत साधारण

जनता म आना सममव न हो, तो इसम घबरान की कोई बात नही ।

इसस उलटी सथिति की अपकषा फरना ही गलत होगा । जररत तो यह

खोजन की ह कि अहिसा की कम-स-कम तालीम कितनी और किस

तरह की होनी चाहिए ” उसस अधिक लियाकत रखनवाला मनषय

एक छोटा नता, या गाधी या सवाई गाधी भी बन सकता ह। वसी'

सदभिलाषा वयकतियो क दिल म भल ही हो, लकिन जो उसतक नही

पहच सकता उस निराश होन की जररत नही । उसक लिए परीकषा

की कम-स-कम लियाकत हासिल करन का ही धयय रखना काफी ह ।

(२) परशन--जिस करोष आता हो, जो गसस म कभी बचचो को

पीट भी लता हो, जिसकी किसी क साथ बोल-चाल भी हो जाती हो,

ऐसा शखस कया यह कह सकता ह कि उसकी अहिसा-धरम म शरदधा ह ?

उततर--हम इस वक‍त जिस परकार की और जिस कषतर की अहिसा

का विचार कर रह ह उसम “गसस क मानी म करोध” और “'दष

बर, जहर, क मानी म करोष” का भद समझना जररी ह । मा, बाप,

शिकषक आदि कमी-कभो बचचो पर गससा करत ह ओर उनह सजा भी

दत ह । रासत पर पानी क नल या कए पर कभी-कभी सतरियो म

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अरदटिसा की कछ पदलियो १०६

बोलचार हो जाती ह । पडोसियो म एक का कचरा दसर क घर म उडन जसी छोटी-सी बात पर भी झगडा हो जाता ह । बढाप या बीमारी

म अनक लोग बदमिजाज हो जात ह और छोटी-छोटी बातो स चिढत

ह । यह सब कोध ही ह और दरगण भी ह । फिर भी, इतन स हम इन लोगो को दवषी, जहरील, या वरवततिवाल नही कहग। उछट कई बार

यह भी पाया जायगा कि खल दिल क और सरल सवभाव क लोगो म

हो इस परकार का करोध जयादा होता ह और कपटी आदमी जयादा सयम

बतात ह । इस परकार का गससा जिसक परति परम और मितरभाव हो

उसपर भी होता ह। बलकि उसीपर जयादा जलदी होता ह; पराय आदमी

पर कम होता ह। यह सवभाव शिकषा, ससकार वगरा की कमी का

परिणाम ह, हषबतति का नही। अहिसा-धरम म परगति करन और

उसक एक आदरपातर सवक और अगआ बनन क लिए यह तरटि जरर

दर होनी चाहिए । लकिन ऐसा नही कि ऐसी तरटि होन क कारण कोई

आदमी अहिसा-धरम का सिपाही भी नही हो सकता । अहिसा क लिए

जो वसत महततव की ह वह ह अदवष या अवरवतति । किसी न कछ

नकसान या अपमान किया हो तब उसका बदला किस तरह छ, उस

नकसान किस तरह पहचाय, आदि क विचार जिसक मन म आत रहत

ह और जो उस बात को भल ही नही सकता बलकि बदला लन क

मोक ही ढढता रहता ह और उस आदमी का कछ अनिषट हो तो

खश होता ह, उसक दिल न हिसा, दवषया वर की वतति ह। करोध

आय, शोक भी हो, फिर भी, अगर मन म ऐस भाव न उठ सक तो

यह अहिसा ह । नकसान करनवाल का बरान चाहन की शभ वतति जिसक दिल म ह वह परसगवशात‌ करोधवश होता हो, तो भी वह अहिसा-

धरम का उममीदवार हो सकता ह। यह दसरी बात ह कि जितनी

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११० अहिसा-विवचन

हदतक वह अपन गस‍स को रोकना सीखगा उतना ही वह अहिसा म

जयादा दाकति हासिल करगा । ताततविक दषटि स यह कह सकत ह कि

इस 'चिढ क करोध! और 'वर क कोध' म सिरफ भातरा का ही भद ह ।

फिर भी यह भद उतना ही बडा और महततव का ह जितना कि नहान

लायक गरम पानी और उबलत हए गरम पानी क बीच का ह ।

(३) परशत--बहस या भाषणो म परतिपकषी का मजाक उडान,

वागवाण चलान या तिरसकार की भाषा इसतमाल करन म जो अहिसा-

भग होता ह वह किस हदतक निरदोष माना जाय ?

उसर--मान लीजिए कि हिसा का सादा अरथ ह घाव करना । जो

परहार दसर को घाव क जसा मालम होता ह, वह हिसा ह; फिर वह

हाथ-पर या शसतर स किया हो, या दिल म छिपी हई बद दआ स

हो । सथल घाव जब सीधी छरी का होता ह तो कम चोट करता ह ।

टढी बरछी का हो तो बदन का जयादा हिससा चीर डालता ह। तकली

की तरह नकीला शसतर हो तो उसका धाव और भी जयादा खतरनाक

होता ह । उसती तरह शबदो का घाव सीधा हो तो जितनी इजञा दता ह

उसस बाहय दषटि स विनोदातमक, लकिन तिरसकार और वतकरतायकत

शबद जयादा चोट पहचाता ह। जो परतिपकषी क नाजक भाग को जखम

पहचाता ह, वह घाव ही ह । ओर यह तो हम जान सकत ह कि हमारा

दाबद किसी आदमी को महज विनोद मालम होगा या परहार । इसलिए

अहिसा म ऐस परहार करना अनचित ह ।

(४) परदन---अहहिसा म अपनी वयकतिगत अथवा ससथा की रकषा, अशवा नयाय क लिए पलिस या कचहरी की मदद ली जा सकती ह या

नही ? चोर, डाक‌ या गणडो क हमल का सामना बल स कर सकत ह या नही ” अहिसावादी सतरी अपनी इजजत पर आकरमण करनवाल

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अहिसा की कछ पहलिया ११%

पर परहार कर सकती ह या नही ?

उततर--यहा पर सामानय जनता और परयतलपरवक अहिसा की उपा-

सना करनवाल म कछ भद करना चाहिए ) जो अपकषा एक विचा रशीछ

अहिसक कारयकरमी स की जाती ह वह सामानय जनता स नही की जाती +

मतलब, सामानय जनता क लिए अहिसा की मरयादा कछ मोटी होना अति-

वाय ह । इसलिए अगर हम इतना ही विचार कर कि सामानय जनता क

लिए अहिसा-धरम का कब और कितना पालन जररी समझना चाहिए तो

काफी होगा । समझदार “वयकति अपनी-अपनी शकषित क मताबिक इसस भाग बढ सकत ह ।

इस दषटि स, अहिसा क विकास क मानी ह जगल क कानन म स सभयता अथवा काननी वयवसथा की ओर परयाण । अगर हर एक आदमी

अपन भय-दाता या अनयायकरता क सामन हमशा बनदक उठाकर या

भादमियो को इकटठा करक ही खडा होता रह तो बह जगल का कायदाः

कहा जायगा । इसलिए जहा पलिस या कचहरी का आशरय हछन क

लि भरपर समय या अनकलता हो वहा जो दारस अिसा की उचच

मरयादा का पालन नही कर सकता वह उनका आशरय ल तो समाज क

लिए आवशयक अहिसा की मरयादा का पालन हआ मानता जायगा । जहा

वसा आशरय लन की गजाइश न हो ( जस कि जब चोर या हमरा

करनवाला परतयकष सामन आया हो ) वहा वह अपनी आतमरकषा क

लिए ओर गनहगार को पलिस क हवाल करन की गरज स उस अपन

वश म लान क लिए, जितना आवशयक हो उतन हो बल का उपयोग

कर तो उसम होनवाली हिसा कषमय मानी जायगी। मगर बात यह ह

कि आमतौर पर छोग उतन ही बल का परयोग नही करत | कबज

म भाग हए गनहगार को बरी-बरी गालिया दत ह और तनी बरी

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4११२ अहिसा-विवधन

तरह पोटत ह कि बाजष दफा वह अधमरा होजाता ह। यह हिसा अकषमय

ह; यह हवानियत ह। समाज को ऐस बरताव स परहज रखन की

तालीम दना छररी ह । अहिसा-पसनद समाज क लिए यह समझ लना

जहरी ह कि हरक गनहगार को एक परकार का रोगी ही मानना

चाहिए । जिस तरह तलवार लकर दौडत हए किसी पागल को या सचनि-

पात म उदडता करनवाल किसी रोगी को जबरदसती करक भी वश

म लाना पडता ह, उसी तरह चोर, लटर या अतयाचारी को पकड तो

लता होगा, लकिन पागर या सननिपातवाल मरीजञ को वकष म करन क

बाद हम उस पीटत नही रहत । उलट, उसको रहम की दषटि स दखत

ह । यही दषटि दसर गनहगारो क परति भी होनी चाहिए। उस हम

पलिस को सौपत ह इसक मानी य ह कि वस रोगियो का इलाज करन-

वाली ससस‍था क हाथ म हम उस द दत ह । यह सच ह कि यह ससथा

भी आज ऐस ही अजञानी उसतादो की बनी हई ह, जो परान जमान क

शिकषको की तरह यह मानत ह कि “चमोटी लाग चमचम, विदया आव

झमझम । लकिन यह दोष समाज-विजञान क ओर अहिसा क विकास क

साथ सधरनवाली चीज ह। यह ससथा सधरकर एक परकार की असपताल,

पाठशाला या खास बसती भल ही बन जाय और उसका नाम भी भल

ही बदल दिया जाय, फिर भी गनहगारो का कबजा लनवाली ससथा तो

चही रहगी ।

सामाजिक दषटि स हिसा-अहिसा का जो वाद ह, उस इस तरह की

अनिवारय आतम-रकषा क विषय म छडन की जररत नही ह। परनत सचच,

या मान हए, हको की परापति और कतवयो की जदाई क बार म ही

इसका विचार करन की जररत ह। हम हिनदसतानी लोग कहत ह

“सतराजय हमारा जनमसिदध अधिकार ह।” मसलमान कहत ह, गाय, की

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अहिलसा की ऋछ पहलिया ११३

करबानी करना हमारा हक ह ।” अथवा 'मसजिद क आसपास शाति

रखना हमारा कतवय ह ।' हिनद कहत ह, 'बाज बजाना हमारा हक ह'

या 'गो-हतया रोकना हमारा कतवय ह । सबरण कहत ह, 'हरिजनो को

दर रखना हमारा धरम ह ।! हरिजन पकषपाती कहत ह, 'समानता उनका

हक ह'---इसो तरह मजदर, किसान, मालिक, जमीदार, राजा, परजा,

ओर भिनन-भिनन राषटर अपन हक या कतवय का दावा एक दसर क सामन

पश करत ह ।

हक या कतवय की यह बदधि वयकतिगत हो, छोटी या बडी कौम

की हो या सार राषटर की हो, उसका फसछा करन का अनतिम साधन

कौन सा ह ? जबरदसतो मारपीट ? यदध ? अगर हम यह कह कि

हमारा विशवास अहिसा म ही ह, तो उसक मानी होत ह, इन साधनो

का तयाग । किसी भी हक को हासिल करन, या कतवय को अदा करन

क लिए गाली-गलौज, जबरदसती, मारपीट, यदध, तोडफोड, आगर-अगार

आदि नही किय जा सकत | परतिपकषी क परति तिरसकार नही बताया

जा सकता और उसक दिल म दहशत भी नही पदा की जा सकती ।

इतनी बातो को अचछी तरह समझकर तदनसार बरताव करन का नाम ह

“अहिसा की तालीम' । यह तालीम यदि कारयकरतता और आम जनता को मिल जाय तो कह सकत ह कि लोग अहिसातमक आनदोलन क लिए

तयार ह । १९३० क, तथा चमपारन, बारडोली, बोरसद आदि क

सतयागरहो म साधारण जनता इस बात को इशार स ही समझ गयी थी ।

उसन एक खासी हदतक उसी तरह बरताव भी रक‍खा था । उस वक‍त

इस शरत की हसी करनवाल या उसकी आवशयकता पर शका करनवाल,

या उसस असगत आनदोलन करनवाल कोई नता न थ । आज वह वाय-

मणडल नही ह। उस वायमणडल को फिर स पदा करना और लोगो म

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११४ झअहटसा-वियचन

ऐसी एक बलवान निषठा कायम करना कि जिसस कितनी ही विपरीत

बात कही जान पर भी व किसी भी हक या धरम क लिए अहिसा की

मरयादा न तोड अहिसावादी सवक का धयय ह। आम लोगो क लिए

अहिसा-धरम की इसस अधिक गहरी वयाखया म उतरन की जररत नही ।

अहिसा-शकषित क परयोग की खोज करनवाल सवको को बशक जयादा

गहर अरथ म उतरना होगा । इसलिए जिन परसगरो म आम लोगो को

पलिस, कचहरी या बल का आशरय लन की छट हो सकती ह, गहा

पर भी वह अहिसक इलाज को ही आजमान का, या नकसान सहन कर

लन का सकल‍प कर सकता ह । जब यह सकलप बह अपन वयकतिगत

समबनध म करगा तभी तो अपनी सस‍या क लिए करन का अधिकार

उस हो सकता ह । बलकि यह भी हो सकता ह कि वयकतिगत मामलो

म इस सकलप पर चलत हए भी अपन अधीन सारवजनिक ससथा क समबनध म वह उसपर न चल । यह बात हरएक कारयकरतता की अपनी

अहिसावतति और परयोग क परति निषठा की दढता पर अवरबित ह ।

(५) परशन--जहा कौमी झगड न हो वहा अहिसा को मखय काम

किस तरह बनाया जा सकता ह, ओर अहिसक इलाज की खोज किस

तरह की जा सकती ह ?

उततर--कोमी झगड का अरथ सिरफ हिनद-मसलमानो का झगडा ही न

किया जाय, बलकि झगडा-झमला करनवाल दो पकष जहापर ह बहा कौमी

झगड का असतितव माना जाय । इस अरथ म हमार कमतसीब दश म शायद

ही कोई ऐसा कषतर मिलगा जहा यह सथिति न हो | फिर जहापर सबल

निरषल को सताता ह वहा दो पकष पदा हए न हो तो भी अहिसक इछाज की

खोज क लिए कषतर ह। उदाहरणारथ, कछ सथानो म परमपरागत पराचीन हढि स कलीन मानी गयी जातिया, नीच कही जानवाली जातियो पर

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झहिसा की कछ पदखियो ११२

इस परकार पदधतिपरवक हकम चलाती ह, और उनको एसी दहशत म रखती आयी ह कि उन दलित जातियो म अपना एक पकष निरमाण

करन की भी हिममत नही ह । बाहरी दषटि स कह सकत ह कि यहा न

कौमी झगड ह न व पकष । लकिन सचमतर म यह सथिति झगड स भी

जयादा भयकर ह और कभी न कभी तीवर झयमड का सवरप क लगी ।

यहापर दलित वरग म अहिसा-यक‍त जागति करना और अधिकारभोगी

बग म कतवय का भान पदा करना सवक क कारयकषतर म आ जाता ह ।

जो इसका इलाज ढढ सकगा वह हिनद-मसछमानो क झगडो का अनत

करन क इलाज की शोध स भी अपना हिससा अदा करगा ।

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४ ६६५४

अहिसा की मरयादाए “बया अहिसा की दाकति अपरिमित ह ? हम जो-जो उददषय अपन

सामन रख, व सब कया अहिसा स सिदध हो सकत ह ? क‍या एक मरयादा

क बाद हम कामयाबी क लिए हिसा का सहारा नही लना पडगा ?”

विशवविदयालय क अधयापको की एक खानगी सभा म सझस इन

सवालो क जवाब दन को कहा गया था।

सरा जवाब इस परकार था --

म मानता ह कि अहिसा क वयवहार की कछ सवभावसिदध मरयादाए

ह । जस--दसरो को नकसान पहचानवाल हक आप अहिसा स न तो हासिल कर सकत ह ओर न उनको कायम ही रख सकत ह । मसलन‌

यदि आप किसी ऐसी राजनतिक वयवसथा की सथापना या रकषा करना

चाह, जिसम अगरज, मसलमान, हिनद या दशी राजा अथवा किन‍ही

लाथिफ वरगो की हकमत दसरो पर चल, तो आप अहिसा स काम नही

ल सकत। जो बात राजनतिक वयवसथा पर लाग ह, वही दसरी सारी

वयवसथाओ क लिए भी उतनी ही लाग ह। लकिन, यदि आप ऐसी राज-

नतिक, सामाजिक और आथिक वयवसथा कायम करना चाह, जिसका

उददशय हर एक वयवित क समान रतब ओर समान सयोगो का उपभोग

करन म आनवाली रकावटो को दर करना हो, तो ऐसी धयवसथा जाप

समपरण रप स कवल अहिसा क दवारा सथापित कर सकत ह ।

दषटता क परयोग या रकषा क लिए मनषय न हमशा हिसा स ही

काम लिया ह। कमी-कभी बराई क परतिकार क लिए भी उसन हिसा

का परयोग किया ह । जो दषटता की रकषा या परयोग करना चाहता ह,

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अहिसा की सरयादाए १३७

वह कभी अहिसक करिया का बनधन नही मानगा | अगर वह अधिसा का

शरय लन का दम भी भरना चाहगा, तो वह ऐसी परिसथिति पदा करगा

कि उसक लिए परतयकष हिसा क परयोग की जररत ही न रह और उसक

विपकषी क लिए हिसा का परयोग निषफल हो । यान वह शसतरासतरो स

इतना लस और घसजजित हो जायगा कि उसक परतिपकषी क लिए

उसका सामना करन या बदका कन की कलपना भी करना दषवार हो

जाय । उसक धरम-शासतर म बिना बदला लिय कषट-सहन का कोई सथान

नही हो सकता ।

इसलिए कोई भी सामराजय-निरमाता--चाह यह नाजी, फसी अथवा

बरिटिश पदधति का हो या जापानी, मसलमानी गौर हिनद-पदधति का---

अहिसा का मखौल किय बिना नही रह सकता । वह हिसा का करतवय

साबित करन क लिए हर एक धरम क शासतरो म स भरमाण उपसथित करगा ।

लकिन, कछ ऐस सामराजय-विरोधी सचच जिजञास भी ह, जो अहिसा

की कारयकषमता क विषय म निसदिगध विशवास परापत करना चाहत

ह । 'कया अहिसा अपन-आप म मनषय क न‍यायय अधिकारो की परापति

और रकषा का, या यो कहिए कि मनषय जिन अनयायो को अनभव करता

ह और जिनक विषय म किसी को कोई सनदह नही रह गया ह, उन

अनयायो क निवारण का, परयापत आयध ह ?' वह जिललास हिसा स उकता गया ह और दसर कारगर उपाय की सलाण म ह | वह रासता

टटोरता हआ अहिसा की तरफ बढता ह, लकिन हर कदम पर उस

सनदह होता ह कि कया सचमच यह राह उस मखिल-मकसद पर

पहचा दगी ?

सतयागरह क जनक का तो यह दावा ह कि सतयागरह अपन-आप म

क समपरण असतर ह, जो नयाय और समानता पर खडी हई दनिया की

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१६८ अहिसा-विवचन

नवरजना कायम कर सकता ह और इस विधान की रकषा क लिए हिसा

की सहायता की जररत नही रहगी। हम जानत ह कि एक हद तक सारी

दनिया न उस दाव को मान लिया ह| यह सवीकति हिसा और बहिसा

क गण-दोषो की तातविक चरचा का ही परिणाम नही ह । बलकि यह

परतयकष अनभव का परिणाम ह कि अहिसक परतिकार न बरिटिश सतता

की जड हिला दी ह । परनत अभी बहत-कछ करना बाकी ह । तबतक (हिसा क एक काय-

कषम परयाय क रप म अहिसा का परा-परा सवीकार नही होगा । दनिया

म अभतपरव हिसा क इस आकरमण क सामन बहादर स बहादर दिल

भी काप उठ इसम आशचय नही ।

सतयागरह का परवतक कहता ह कि उसक सिदधानत म उसका विशवास

इतना दढ कमी नही था जितना कि आज ह । उस ऐसा परतीत होता ह

कि हिसा क पर अब उखड गय ह । यदयपि हमम इतनी अदभत शरदधा न

हो तो भी यह कारय जितना उसका ह, उतना ही हमारा भी ह। इसलिए

उसकी आजञाए बजा राकर हम उसकी मदद कर सकत ह; कयोकि उसक

मारग क अलावा दसरा विकल‍प तो हिसा का ही हो सकता ह । और हम

रोज दख रह ह कि न‍याययकक‍त वयवसथा कायम करन म हिसा निषफल

साबित हो रही ह । उतनी उजजवल शरदधा और जञान स नही, तो कम-

स-कम सचची महनत स हम उसका उपाय भाजमाय, तो हज तो हर-

यिज नही हो सकता । उसक पकष म सार ससार क घाभिक परषो का

अनभव ह । हम उस तजछ न समझ ।

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'मणडल” का गाधी-साहितय महातमा गाधी की रचनाए

१. आतमकथा : विजव-साहितय का एक अनमोर रहत ॥ उपनिषदो- जसा पवितर और उपनयासो-असा रोचक; बाप दवारा सतय की साधना क पतर की रप-रखा ॥ नवीन और ससता सस‍करण १) : विशष ससकरण श१॥) सकषिपत ससकरण ( पाठयकरम क लिए ) ॥)

२. दकषिण शरफीका का सतयापरह : 'सतयागरह' की उतपतति और दकषिण अफरीका म उसक परथम परयोगो का इतिहास >>. १॥)

३. अनीति की राह पर : सयम और बरहमचय पर लिख हए उनक लख (की

४७. अदयचरय : सयम और बरहमचय पर लिख हए नय लख... ॥] ४. हमारा कलक : अपरापय इसका अगरजी ससकरण 'बलीडिग

बणड' मणडल स मिरता ह । १) ६- सवदशी : परामोदयोग : सवदशी और परामोदोग पर लिख

हए लख )) ७. यदध और अहिसा : यदध और अहिसा पर लिख हए लख ॥॥] ८. गीताबोध : गीता का सरल तातपय ”) ६. मगल-परभात : सतय, जहिसा, बरहम बरय आदि एकादश बरतो

पर परवचन र १०. अनासकषियोग : गीता की सरल दीका ८) शलोक-सहित &)

सजिलद |) ११. सरवोदिय : रसकिन क 'अनट दिस छासट' का रपानतर -) १२. हिनद-रबराज : सवराज की हमारी समसया पर लिखी परानी

पसतिका, जो आज भी ताजी ह च) 9३० परामसवा : गरामसवा पर लिखा हआ मिबनध न‍) १४- सतयबीर सकरात : यनान क महापरष सकरात क मकदम

और उनक बयान का राचक और शिकषापरद वरणन -)

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(२०)

१४- सतयापरह : क‍यो, कब और कस ? : सतयागरह कयो कब, और कस शर किया जाय इसपर लिख हए लख छ)

गाधी-समबनधी गरनथ १. गाधी-विचार-दोहन : शरी किशोरछार च० मशरबाहा--

इसम महातमा गाभी क विदवारो को विषयानसार वरगीकरण दवारा सकलित किया गया ह. ॥)

२. इगलखड म महातमाजी शरी महादव ह० दसाई--गाघीजी की दसरी गोलमज परिषद क समय की यातरा का सनदर सरस वरणन ॥॥॥)

३. गाधी-शरभिननदन-मनध समपादक-शरी सरवपलली राधाकषणन‌ इसम विदशी और भारतीय सतो विचारको, विदवानो और लोकनताओ क गाधीजी पर छिल गय तातविक लख ह । मल-गरथ की अनतरराषटरीय खयाति ह । उसीका हिनदी अनवाद १), २)

४. बाप : शरी घनशयामदास बिडला-गाधीजी का अतयनत निकट स किया हआ अधययन, रोचक समरणीय परसगो स पण, कई भाषाओ म अनवादित; दश म सरवपरशसित; १३ सनदर चितरो सहित ॥&), सजिलद १), हाथ कागज पर छपा २)

६- डायरी क पनन . शरी घनशयामदास बिडछा-गाधीजी क साथ दसरी गोलसश परिषद स हई लखक की यातरा का रोचक, जञानवरधक

यरणन, गोलमज-नाटक क नपथय का परिचय ! अनक चितरो सहित ॥॥) सजिलद १॥)

७. महातमा गाधी शरी रामनाय 'समन'--अपरापय

सोल-एजसी परकाशन

८. गाधीयाद की रपरखा . शरी रामनाथ “समत'--गाधीबाद का गभीर और मननीय विवचन श

खिला

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बोर सवा मनदिर _ 232 शहर जा पा कक पर

तबर मचाफवासगपरालिशोष छह वयठ