hindi poems by jaishankar prasad

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कामायनी ('लजा' पिरछेद) कोमल िकसलय के अंचल नहीं किलका िछपती-सी, गोधुली के धूिमल पट दीपक के वर िदपती-सी। मंजुल वनओं की िवःमृित मन का उमाद िनखरता - सुरिभत लहर की छाया बुले का िवभव िबखरता - वैसी ही माया से िलपटी अधर पर उँ गली धरे हए , माधव के सरस कु तूहल का आँख पानी भरे हए। नीरव िनशीथ लितका-सी तुम कौन रही हो बढ़ती? कोमल-बाह फै लाये-सी आिलंगन का जाद पढ़ती ! िकन इंिजाल के फू ल से लेकर सुहाग-कण राग-भरे , िसर नीचा कर हो गूँथ रही माला िजससे मधु धार ढरे ? पुलिकत कदंब की माला-सी पहना देती हो अतर , झुक जाती है मन की डाली अपनी फलभरता के डर म। वरदान सश हो डाल रही नीली िकरन से बुना हआ , यह अंचल िकतना हका-सा िकतना सौरभ से सना हआ। सब अंग मोम से बनते कोमलता बल खाती हँ , िसमट रही-सी अपने पिरहास-गीत सुन पाती हँ। िमत बन जाती है तरल हँसी नयन भर कर बाँकपना, देखती हँ सब जो वह बनता जाता है सपना। मेरे सपन कलरव का संसार आँख जब खोल रहा, अनुराग समीर पर ितरता था इतराता-सा डोल रहा। अिभलाषा अपने यौवन उठती उस सुख के वागत को, जीवन भर के बल-वैभव से सकृ त करती दरागत को। िकरन की रजु समेट िलया िजसका अवलबन ले चढ़ती,

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