ek baaz ki jeevan

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बबब बबबब 70 बबबब बबबब बब, बबबबबब बबबब बबबब बब 40बबबबबबबबबब बबब बबब बबब बब बबबबबबबबबब बबबबबब बबबब बबबबब बबबब बबबबबब बबब बबबब बबबब बब बबब बबबबबब बबब बबबबबबबबबबब बबबब बबबब बबब- 1. बबबब बबबबब बब बबबबब बब बबबब बब ब बबबबब बब बबबब बबबबब बबब बबबबब बबबब बबबब बबबब 2. बबबब बब बब बबबब बबबब बब बब बबबब बबबबबबब बबब बबबबबबब बबबबबबब बबबब बबबब बब3. बबब बबबब बब बबबब बबब, बब बबबब बब बबबबबब बब बबबब बबबब बबब बबबब बबबब बबब, बबबबबबब बबबबब बबबबबब बबबबबबब बबबबबबब, बबबब बबबबबब बब बबबब बबबब.... बबबबब बबबबबबबबबबबब बबबब बबब बबबब बबबब बबबब बबबब बबब बबब बब बबबबबब बबबब बबब, बब बब बबब बबबबब बब, बब बबबब बबबबबबबबब बबबब बबबबब बब बबब बबबबबब बबबब बब बबबबबबब बबब... बब बबब बबबबब बब बबबबबबबबबबबब बबब, बबब बबबबबबबबबबबब बबबबबबबब बब बबब बबबबबबब बबबब बब बबबबबब बबब बब बबबबबब बबब, बबबबबब बबबबबबब बबबबबबबबब बब बबबबबबबब बबबबब बबबबब बब बब बबबबब बब बबबबबबबबबबबब बबबब बबब बब बबबब बबबब बबबबब बब बबबब बब, बबबबबब बबब बबबब बबबबबब बबबबब बब, बब बब बबबबबबबब बबबब बब बबबब बबबबबबबबबब बबबब बबबब बब बबबब बबबब बबबबबब बब बबब बबब बब बबबब बबबब बब..! बबबब बबबब बबबबबब बब बबबब बबबबबबबबब बबब बब बबबब बबबबबबबब बब बबबबब बब बब बबबबबबबबब बबबब बब बबबबबबबबबब बब बबब बबबबबब बबब बब बबबब बबबब बब बबब बबबबबब बबबब बबबब बब बब बबबबबबबबब बबबब बब बबबबब बब बबबब बब बबबबबब बबबब बब बबबब बबब बब बबब बब बबबब बबबब बबबबब बब बब बब बब बबबब बब बबबबबबब बब बब बबबबबबबबब बबबब बबबबब बब बबबब बब बबब150 बबब बब बबबबब बब बबबबबबबबब... बब बब बबब बबबबब बब बबब बबबब बब बबबब बबबबब, बबबब बबबब बबबब बब बबबबबबबबबबबब बब बबब बब 30 बबब बब बबबब बब, बबबबब, बबबबबब बब बबबबब बब बबबब बबबबबबब बबबब बबबबबब बबबब बब- बबबब बबबब बब बबबबबब बबब, बबबब बबबबबबबब बब बब बबब बबबबबब बब बबबबबबब बबबब बबबब

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Page 1: Ek Baaz Ki Jeevan

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

Page 2: Ek Baaz Ki Jeevan

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...

Page 3: Ek Baaz Ki Jeevan

या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

Page 4: Ek Baaz Ki Jeevan

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

Page 5: Ek Baaz Ki Jeevan

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

Page 6: Ek Baaz Ki Jeevan

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

Page 7: Ek Baaz Ki Jeevan

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

Page 8: Ek Baaz Ki Jeevan

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

Page 9: Ek Baaz Ki Jeevan

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

Page 10: Ek Baaz Ki Jeevan

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

Page 11: Ek Baaz Ki Jeevan

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

Page 12: Ek Baaz Ki Jeevan

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

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सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

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बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

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इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...

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या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

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हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

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उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

Page 19: Ek Baaz Ki Jeevan

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

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हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

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वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

Page 22: Ek Baaz Ki Jeevan

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

Page 23: Ek Baaz Ki Jeevan

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

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भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

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हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

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सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

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बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

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इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...

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या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

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हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

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उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

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1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

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हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

Page 34: Ek Baaz Ki Jeevan

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

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150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

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इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

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भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

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हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

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सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

Page 40: Ek Baaz Ki Jeevan

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

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इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...

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या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

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हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

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उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

Page 45: Ek Baaz Ki Jeevan

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

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हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

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बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

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150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

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इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

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भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

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हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

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सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

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बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

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इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...

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या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

Page 56: Ek Baaz Ki Jeevan

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

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उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

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1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

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हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

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बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

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150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

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इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

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भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

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हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

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सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

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बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

Page 67: Ek Baaz Ki Jeevan

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...

Page 68: Ek Baaz Ki Jeevan

या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

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हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

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उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

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1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

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हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

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बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

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150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

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इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

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भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

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हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

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सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

Page 79: Ek Baaz Ki Jeevan

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

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इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...

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या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

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हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

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उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

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1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

Page 85: Ek Baaz Ki Jeevan

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

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बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

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150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

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इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

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भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

Page 90: Ek Baaz Ki Jeevan

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

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सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

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बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

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इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...

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या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

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हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

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उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

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1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

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हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

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बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

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150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

Page 101: Ek Baaz Ki Jeevan

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

Page 102: Ek Baaz Ki Jeevan

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

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हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

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सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

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बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

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इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...

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या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

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हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

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उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

Page 110: Ek Baaz Ki Jeevan

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

Page 111: Ek Baaz Ki Jeevan

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

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बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

Page 113: Ek Baaz Ki Jeevan

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

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इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

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भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

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हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

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सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

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बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

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इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...

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या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

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हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

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उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

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1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

Page 124: Ek Baaz Ki Jeevan

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

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बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

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150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

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इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

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भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

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हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

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सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

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बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

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इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...

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या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

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हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

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उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

Page 136: Ek Baaz Ki Jeevan

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

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हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

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बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

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150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

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इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

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भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

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हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

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सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!

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बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।

उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-

1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।

2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।

3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।

भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।

जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।

बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।

वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।

इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।

प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।

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इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।

इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।

हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!

हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।

हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"

हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"

150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!