भारतीय संगीत में गुु शिष्य परंपरा...

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भारतीय संगीत म गुर-शिय परंपरा Dr. Prem Sagar Associate Professor and HOD Vocal Music (HMV) भू-लोक को काशित करने म जो थान सूयय का है , जीवन को ान से आलोᳰकत करने म वही थान गुर का है। गुर म सागर कᳱ गहराई, आकाि कᳱ ऊँ चाई और धरती कᳱ शवराटता है। गुर एक महान उपाशध है शजसका अशधकारी कोई शवरला शि ही होता है। ईर-द शतभा, गुर साशिय से ा ान, सतत् साधना, परोपकार, समपयण, याग और वचनबता जैसे उ मानवीय गुण से गुर के शलए अपेशित है। गुर के गुण को िद कᳱ सीमा म बाँधना सभव नह, गुर कᳱ महानता िदातीत है। गुर म जीवन को सवाँरने और जीवन का कायाकप करने कᳱ िमता होती है , गुर शवधादान देकर जीवन को जीने योय तथा साथयक बनाने हेतु दृशि दे देता है। शस दाियशनक अरतु के िद म- शििक जो ᳰक शवधाᳶथय को जीवन जीने का ान देता है , जीशवकोपाजयन के शलए नर शसखाता है , उसका थान माता-शपता से भी अशधक समाननीय है यᳰक माता-शपता तो जम देते है ᳰकतु शििक जीवन को सही ढंग से जीने कᳱ शवशध शसखाता है। 1 (भावानुवाद) शिय तैयार करना तथा उह सफलता के मुकाम पर पँचाना बत दु रह कायय है। शजस तरह माता अपने नह शििु कᳱ देखभाल करती है , उसकᳱ येक साँस से माता कᳱ ममता और चंता जुडी रहती है , उसी कार सा गुर अपने शिय के सवयशवध शहत से जुडा है। शजस कार शपता अपना शवकास अपने पु के ᳰियाकलाप म देखता है , उसी कार गुर अपने शिय कᳱ उिशत म हय और सुख का अनुभव करता है। भारतीय संगीत कᳱ गुर शिय परपराशवय का शतपादन करने हेतु गुर कᳱ उपमा तथा उपाशध से सबशधत दियन- ि, ाकरण-िाᳫ और भारतीय िाᳫीय संगीत कᳱ उ गुर-शिय परपरा के संदभय म शवचार-शचतन तुत करना अभीि तीत होता है । इससे संगीत अययन से जुडे ए लोग को शिय और गुर दोन रप म अपने आपको पोशत करने कᳱ ᳰदिा शमलेगी। 1.1 .भारतीय संकृशत म गुर का थान तथा तत् सबधी शचतन

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Page 1: भारतीय संगीत में गुु शिष्य परंपरा VOCAL_11… · प्रशतभा, गुु साशिध्य से प्राप्त

भारतीय संगीत में गुरु-शिष्य परंपरा

Dr. Prem Sagar Associate Professor and HOD

Vocal Music (HMV)

भ-ूलोक को प्रकाशित करने में जो स्थान सूयय का ह,ै जीवन को ज्ञान स ेआलोककत करने में

वही स्थान गुरु का ह।ै गुरु में सागर की गहराई, आकाि की ऊँचाई और धरती की शवराटता

ह।ै गुरु एक महान उपाशध ह ैशजसका अशधकारी कोई शवरला व्यशि ही होता ह।ै ईश्वर-प्रदत्त

प्रशतभा, गुरु साशिध्य स ेप्राप्त ज्ञान, सतत् साधना, परोपकार, समपयण, त्याग और

वचनबद्धता जैसे उच्च मानवीय गुण सचे्च गुरु के शलए अपेशित ह।ै गुरु के गुणों को िब्दों की

सीमा में बाँधना सम्भव नहीं, गुरु की महानता िब्दातीत ह।ै गुरु में जीवन को सवाँरने और

जीवन का कायाकल्प करने की िमता होती ह,ै गुरु शवद्यादान दकेर जीवन को जीने योग्य

तथा साथयक बनाने हतुे दशृि द ेदतेा ह।ै प्रशसद्ध दाियशनक अरस्तु के िब्दों में-

“शििक जो कक शवद्यार्थययों को जीवन जीने का ज्ञान दतेा ह,ै जीशवकोपाजयन के शलए हुनर

शसखाता ह,ै उसका स्थान माता-शपता से भी अशधक सम्माननीय ह ैक्योंकक माता-शपता तो

जन्म दतेे ह ैककन्तु शििक जीवन को सही ढंग स ेजीने की शवशध शसखाता है। ”1(भावानुवाद)

शिष्य तैयार करना तथा उन्हें सफलता के मुकाम पर पहुचँाना बहुत दरुुह कायय ह।ै शजस तरह

माता अपने नन्हें शििु की दखेभाल करती ह,ै उसकी प्रत्येक साँस स ेमाता की ममता और

चचंता जुडी रहती ह,ै उसी प्रकार सच्चा गुरु अपने शिष्य के सवयशवध शहत से जुडा ह।ै शजस

प्रकार शपता अपना शवकास अपने पुत्र के कियाकलापों में दखेता ह,ै उसी प्रकार गुरु अपने

शिष्य की उिशत में हर्य और सखु का अनुभव करता ह।ै ‘भारतीय संगीत की गुरु शिष्य

परम्परा’ शवर्य का प्रशतपादन करने हतुे गुरु की उपमा तथा उपाशध स ेसम्बशन्धत दियन-

िास्त्र, व्याकरण-िास्त्र और भारतीय िास्त्रीय सगंीत की उच्च गुरु-शिष्य परम्परा के संदभय में

शवचार-शचन्तन प्रस्तुत करना अभीि प्रतीत होता ह ै। इससे संगीत अध्ययन से जुड ेहुए लोगों

को शिष्य और गुरु दोनों रुप में अपने आपको पोशर्त करने की कदिा शमलगेी।

1.1 .भारतीय संस्कृशत में गुरु का स्थान तथा तत् सम्बन्धी शचन्तन

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भारतीय संस्कृशत के संदभय में यह बात सुशनशित ह ैकक अध्यात्म, दियन, योग, शचककत्सा,

साशहत्य, कला तथा शवज्ञान आकद जीवन का कोई भी िेत्र हो, सद्गुरु की भूशमका अपेशित

और महान् ह।ै इशतहास बताता ह ैकक गुरु वशिष्ठ को पाकर श्री राम, अिावि को पाकर

राजा जनक, गुरु संदीपनी को पाकर श्री कृष्ण, गुरु नानक दवे को पाकर अंगद दवे, बाबा

हररदास को पाकर तानसेन, स्वामी शवरजानंद को पाकर दयानन्द, स्वामी रामकृष्ण

परमहसं को पाकर शववकेाननंद, बाबा अलाऊद्दीन खाँ को पाकर रशविंकर धन्य हो गय े

महान् हो गय ेऔर स्वयं गुरु हो गये। सच तो यह ह ैगुरु की मशहमा अपरम्पार ह-ै

“गुरु शबनु भवशनशध तरह न कोई।

जो शबरंशच संकर सम होई। । ”2

अथायत कोई भी व्यशि गुरु के मागयदियन के शबना अपने जीवन में सफल नहीं हो सकता, चाह े

वह ब्रह्मा और महिे जैस ेमहान् दवेताओं के समान ही हो। अत:गुरु का साशिध्य ऋशर्-

मुशनयों के शलए भी आवश्यक ह।ै गुरु एक ऐसा शवद्वान बुशद्धजीवी व्यशित्व ह ैजो उपलब्ध

ज्ञान को पहले आत्मसात् करता ह,ै कफर प्राप्त ज्ञान और स्वशचन्तन के फलस्वरुप उपजे ज्ञान-

सार को अपने शिष्यों को ह्रदयंगम करवाता ह।ै शिष्यों को संस्कार प्रदान करके उनकी

जीवन-िैली को पररष्कृत करने वाले महानुभाव को भारतीय संस्कृशत में गुरु अथवा आचायय

की उपाशध दी गई ह।ै भारतीय संस्कृशत की प्राचीन गुरु-शिष्य परम्परा के संदभय में

डॉ.शनवेकदता चसंह शलखती ह-ै

“प्राचीन भारत में संगीत ही नहीं अशपतु अध्ययन की सभी िाखाओं के शििण-प्रशििण का

यज्ञ गुरु-शिष्य प्रणाली द्वारा सम्पि ककया जाता था। साशहत्य, कला, धमय, दियन, राजनीशत-

िास्त्र और और्शध-शवज्ञान आकद-आकद अध्ययन की सभी शवधाओं का ज्ञान गुरु-शिष्य

प्रणाली द्वारा प्रदान ककया जाता था। ”3 (भावानुवाद)

गुरु केवल ज्ञान-दान ही नहीं करते अशपतु शिष्य की चेतना को जागृत कर दतेे ह।ै ज्ञान की

गररमा का बोध करवाकर ज्ञान-शपपासा को तीव्र कर दतेे ह।ै शजसके फलस्वरुप शिष्य अपने

गुरु से तो ज्ञान लेता ही ह,ै चेतना जागृत होने पर आजीवन ज्ञान-प्राशप्त एवं आत्मिुशद्ध के

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शलए तत्पर और प्रयन्तिील हो जाता ह।ै अत:गुरु की मशहमा और उसकी भूशमका अपरम्पार

ह।ै

1.2 गुरु –स्तुशत से सम्बशन्धत कशतपय ऋशर्-वाक्य

जीवन में गुरु की महत्वपूणय भूशमका का अनुभव करते हुए दाियशनकों ने तत्सम्बन्धी अपने

अमूल्य शवचार अंककत ककये हैं। पद्मपुराण में गुरु की मशहमा का वणयन करते हुए कहा गया

ह-ै

“कदवा प्रकािक:सूयय:ििी रात्रौ प्रकािक:।

गृहप्रकािको दीपस्तमोनािकर:सदा। ।

रात्रो कदवा गृहस्यान्ते गुरु: शिष्यं सदवै शह।

अज्ञानास्यं तमस्तस्य गुरु: सवे प्रणाियेत्।

तस्माद गुरु: पर तीथे शिष्याणामवनीयते। ”4

अथायत सूयय कदन में प्रकाि करता ह,ै चन्रमा राशत्र में और दीपक घर में उजाला करता ह ै

तथा सदा घर के अंधेरे का नाि करता ह ैपरन्तु गुरु अपने शिष्य के ह्रदय में रात-कदन सदा

ही प्रकाि फैलाता रहता ह।ै वह शिष्य के अज्ञान रुपी अंधकार का नाि कर दतेा ह।ै

गुरु साशहबान तथा अन्य सन्त-भिों को कदव्य वाणी के महान संग्रह ‘गुरु गं्रथ साशहब’ में गुरु

मशहमा स ेसम्बशन्धत अनेक पद संकशलत ह।ै उनमें से एक यहाँ उद्धृत ककया जा रहा ह-ै

“जे सउ चंदा उगवशह, सूरज चडशह हजार।

एते चानण होंकदआं, गुरु शबनु घोर अधंार। ”5

नानक ज्योशत के दसूरे अवतार श्री गुरु अंगद दवे जी प्रस्तुत श्लोक में गुरु की मशहमा का बडा

सुन्दर शचत्रण करत ेहुए कहते हैं कक चाह ेसौ चन्रमा उदय हो जायें, हजार सूयय प्रकािमान

हो जायें, इन सबके रहत ेहुए भी गुरु के शबना जीवन में अंधकार ही रहता ह ैभावाथय यह ह ै

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कक सूयय, चन्रमा तो बाह्य जगत को प्रकाशित करते ह,ै आंतररक ज्ञान तो गुरु के साशिध्य से

ही प्राप्त हो सकता ह।ै

उपरोि श्लोक का अथय शवद्वज्जन इस तरह भी बताते ह ैकक सूयय, चाँद तो िास्त्रों के प्रतीक ह।ै

कोई व्यशि िास्त्रों का अध्ययन करके ज्ञानवान् तो हो सकता ह,ै परन्तु शववेक-बुशद्ध गुरु के

साशिध्य में गूढ़ तथ्यों को आत्मसात् करके ही प्राप्त की जा सकती ह।ै रामचररतमानस के

रचशयता महाकशव तुलसीदास जी ने सद्गुरु की मशहमा में अशत सुन्दर चौपाईयों और सोरठों

का उच्चारण ककया ह,ै उनमें स ेएक यहाँ रिव्य ह-ै

“कृपा शसन्ध ुनर रुप हरर, बंदऊँ गुरु पद कंज।

जासु वचन रशव कर शनकर, महामोह तम पुंज। । ”6

अथायत् मैं गुरुदवे के कमल स्वरुपी चरणों की वंदना करता ह ँजो दया के समुर और मनुष्य

रुप में श्री हरर ही हैं और शजनका वचन सदा अज्ञान रुपी घने अधंकार को नाि करने के

शनशमत्त सूयय के ककरणों का समूह ह।ै

दशुनयाँ को सच्चाई और सादगी का ज्ञान करवाने वाले युगप्रवतयक श्री गुरु नानक दवे जी गुरु

की मशहमा इस प्रकार गाते हैं-

“कंुभ ेबधा जलु रह ैजल शबनु कंुभ ुन होइ।

शगआन का बधा मनु रह ैगुर शबनु शगआन न होइ। ”7

अथायत् जल को घड ेमें ही संशचत करके रखा जा सकता ह,ै शबना पात्र के जल को बांध कर

रखना सम्भव नहीं ह।ै इसी प्रकार मन का शनयंत्रण ज्ञान स ेही हो सकता ह ैऔर ज्ञान गुरु के

शबना प्राप्त नहीं हो सकता। भावाथय यह ह ैकक जीवन को सुचारु ढंग स ेसचंाशलत करने के

शलए ज्ञान आवश्यक ह ैऔर ज्ञान प्राशप्त के शलए सद्गुरु का साशिध्य परम आवश्यक ह।ै गुरु

की मशहमा में उच्चाररत सुपररशचत श्लोक यहाँ रिव्य ह-ै

“गुरुब्रयह्मा गुरुर्वयष्णु गुरुदवेो महशे्वर:।

गुरुसायिात् परब्रह्मम, तस्मै श्री गुरवे नम:। ”8

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सृशि की सृजना, पोर्ण तथा शवलय करने वाली तीन महान् िशियाँ ब्रह्मा, शवष्णु और महिे

मानी गयी ह।ै उपरोि श्लोक में इन तीनों िशियों का समावेि गुरु में कदखाया गया ह।ै

भावाथय यह ह ैकक गुरु के पास वह शसशद्ध ह,ै जो परमतत्त्व परमात्मा से व्यशि को एकाकार

कर दतेी ह,ै शजसके फलस्वरुप यह तीनों िशियाँ गुरु के द्वारा साधक के अदंर साकार हो

जाती ह।ै यही कारण ह ैकक गुरु को सािात् परम ब्रह्म कहा गया ह।ै इसशलए गुरु को

बारम्बार नमस्कार ह।ै उपरोि ऋशर् वाक्यों में वर्णयत गुरु मशहमा को सारांि रुप में इस

तरह व्यि ककया जा सकता ह-ैवास्तव में परमचेतना, परमतत्त्व सवयत्र प्रवाशहत हो रहा ह।ै

यकद उस सत्ता स ेहमारा तारतम्य स्थाशपत हो जाता ह ैतो सारी िशियाँ मनुष्य के शनयंत्रण

में आ जाती ह।ै सद्गुरु(सच के साथ एकाकारता रखने वाला) परमचेतना से तारतम्य

स्थाशपत करने में हमारा मागयदियन करता ह।ै

श्री गुरु नानक दवे जी ने वाह ेगुरु गुरुमंत्र दकेर मनुष्य को यह बोध करवाने का प्रयत्न ककया

कक गुरु की सवयदा सवयत्र जय ह ैतथा वह परमचेतना सब गुरुओं की भी गुरु ह ैअथायत् हम

अपने अंदर प्रवाहमान हो रह ेपरमतत्त्व से अपना तारगम्य स्थाशपत करके रखें, अपने भीतर

के गुरु को सुनते रह,े साधकों की संगत में ज्ञानाजयन करते रह ेतो सािात् परमब्रह्म का संग

हमें प्राप्त रहगेा। हम जीवन में सन्मागय पर चलते हुए अपेशित िुभ कमय करेंगे, फलत: सुख

और संतोर् की प्राशप्त होगी।

गुरु का महत्त्व अध्यात्म या केवल ककसी शविेर् िेत्र में नहीं, अशपतु जीवन के सभी पहलुओं

में पल-पल गुरु तत्त्व से जुडकर शवचरण करना सखुदायक शसद्ध होता ह।ै गुरु तत्व से जुड े

रहने के शलए साधक लोगों का संग आवश्यक ह।ै सच्चाई, ईमानदारी, साधना, शचन्तन तथा

जीवन के अन्य शसद्धांत ये सब गुरु रुप ही ह,ै इनकी प्राशप्त तथा आदत में इनका िाशमल होना

साधकों की संगत से ही सम्भव होता ह।ै इसशलए कबीर साशहब न ेगुरु को गोचवंद से भी

ऊँचा स्थान कदया ह।ै दसूरे िब्दों में यकद कहा जाये तो गुरु अथायत् जागरुकता को प्राप्त

करना, अपनी प्राकृशतक िशियों को जागृत करना ही गोचवंद को पाना ह।ै

1.2 व्याकरण िास्त्र की दशृि से गुरु िब्द वु्यत्पशत्त तथा तत्सम्बशन्ध शचन्तन

भार्ा शवज्ञान की दशृि स ेगुरु िब्द की वु्यत्पशत्त दो िब्दों के योग से हुई ह-ैगु+रु, ‘गु’ का अथय

ह ैअंधकार और ‘रु’ का अथय दरू करना।

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“गु िब्दस्तु अंधकार: रु िब्दस्तुशिरोधक:।

तयोऐयक्यम् परब्रह्म, गुरुररत्यशभधीयते। । ”9

अथायत् जो अज्ञान रुपी अन्धकार को शवनि कर ज्ञान रुपी प्रकाि करता ह,ै वही गुरु ह।ै

व्याकरण िास्त्र की दशृि से गुरु िब्द सम्बन्धी अलग-अलग िब्द कोर्ों में कदये गये अथों को

उद्धत ककया जा रहा ह।ै

पद्मचन्रकोि10

गुरु शव.(गृ+कु, उत्वम)् का अथय ह-ैसींचना, तर करना, बतलाना, वणयन करना, पढ़ाना

इत्याकद। इसी कोर् में गुरु िब्द के अथय इस प्रकार बताये गये हैं-गुरु, महत्त्वपूणय, प्रिस्त,

धार्मयक अथवा आध्याशत्मक गुरु, आदरणीय या पूज्य, ककसी नये शसद्धांत का व्याख्याता या

प्रवत्तयक इत्याकद।

शहन्दी शवश्वकोर्11

गुरु, सम्प्रदाय प्रवत्तयक, धमोपदिेक, ककसी कला में शनष्णात् व्यशि, िान्त-दान्त, कुलीन,

शवनीत, िुद्धवेर्ी, िुद्धाचारी, सुप्रशतशष्ठत, पशवत्र, दि, आश्रम व्यवस्था को मानने वाला,

ध्यान में लीन, मंत्र-तंत्र का ज्ञाता, शनग्रह और अनुग्रह में समथय व्यशि।

SKT.-ENG.DICTIONARY12

‘GURU’-great, large, high in degree, important, valuable, respectable,

spiritual, parent or preceptor from whom a youth receives the initiatory

mantra or prayer who instructs up to that of investiture which is

performed by the acharyajan.

संस्कृत-शहन्दी टीका द्वयोपेतम्13

य आतृणन्त्यशवतधेन कणायव द:ुखं कुवयिमृतं सम्प्रयच्छन्।

तं मन्येत शपतरं मातरं च तस्मै न दहुयेत् कतमच्चनाह। ।

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गुरु वह ह ैजो सत्य वेद ज्ञान से जरा भी कि न पहुचँाता हुआ अथायत् जो शवनम्र हो, मोि

प्राशप्त हतुे ज्ञान को दतेा हुआ दोनों कानों को खोल दतेा ह ैऔर माता-शपता के समान कभी

रोह न करने योग्य होता ह।ै

गुरुिबद रतनाकर-महान् कोर्14(ENCYCLOPEDIA OF SIKH LITERATURE)

गुरु(सं-धमय उपदिेक, धमय का आचायय) नानक ज्योशत के छठे अवतार श्री गुरु हरगोचबंद

साशहब का हवाला दतेे हुये भाई काह्न चसंह नाभा ने गुरु के चार प्रकार बताये है-

क.भृंगी गुरु:-भृंग वास्तव में एक कीट ह ैजो अपनी जाशत के कीट पतंगों को स्पिय से अपने

जैसा बना लेता ह।ै परंतु अन्य वगों के कीटों को नहीं। अत:भृंगी गुरु वह गुरु ह ैजो कुछ

सीमत लोगों को अपना गुण द ेसकता ह।ै

ख.वामन चंदन गुरु:-वामन चंदन शहमालय में पाया जाने वाला एक ऐसा वृि ह ैशजसकी

ऊँचाई बावन हाथ की होती ह।ै इसकी शविेर्ता ह ैकक यह ककसी खास ऋतु वृि में अपनी

आस-पास की वनस्पशत को सुवाशसत कर दतेा ह,ै ककन्तु प्रत्येक ऋतु में नहीं और यह बाँस के

वृि को कभी भी सुवाशसत नहीं कर सकता, अत: वामन चंदन गुरु को पूणय गुरु की संज्ञा नहीं

दी जा सकती।

ग.पारस गुरु-जैसा कक सवयशवकदत ह ैपारस एक ऐसी दलुयभ धातु ह ैजो अपने स्पिय स ेककसी

भी धातु को सोने में बदल देती ह ैपरन्तु ककसी भी धातु को अपने जैसा अथायत् पारस नहीं

बना सकती अथायत् पारस गुरु ऐसा गुरु ह ैजो शिष्य को गुणवान तो बना सकता ह ैपरन्तु

अपने तुल्य नहीं बना सकता।

घ.दीपक गुरु:-दीपक की यह शविेर्ता ह ैकक वह एक-एक करके सभी प्रकािहीन दीपों को

ज्योशतमायन कर दतेा ह,ै जो आगे भी असंख्य बेनूर शचरागों को रोिन कर सकते हैं अत:

दीपक गुरु ही सवयश्रेष्ठ ह।ै

1.2.1 गुरु के पयाययवाची िब्द

मुरिद, उस्ताद, रशहबर, आचायय, शििक य ेसभी गुरु के पयाययवाची ह।ै गुरु और मरुिद

शविेर् रुप स ेजीवन के आध्याशत्मक पि स ेजुड ेहुए िब्द ह।ै ‘उस्ताद’ िब्द ककसी

हुनर(कला) की तालीम और तरशबयत(गहन संस्कार) दनेे वाल ेव्यशि शविेर् को कहने की

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परम्परा ह।ै संगीत के सदंभय में ये िब्द मुगल समय की घरानेदारी परम्परा से जुडा हुआ ह।ै

‘आचायय’ िब्द भारत में प्राचीन काल स े‘शवद्या-िेत्र’ स ेसम्बद्ध रहा ह।ै भारतीय संस्कृशत में

गुरु पद के शलए प्रयिु होने वाला दसूरा िब्द ह ैआचायय। आचायय िब्द चर्15 धातु से बना ह ै

शजसका अथय ह-ैव्यवहार अथवा आचरण।

‘आचरम् गृह्णाशत इशत आचायय:’ अथायत जो आचरण अथवा व्यवहार में दि बनाये वही

आचायय ह ैक्योंकक आचायय पूरे समाज को आचार संशहता में प्रशिशित करता ह,ै इसशलए वह

स्वयं एक आदिय नैशतक जीवन व्यतीत करता ह ैताकक वह अपने अनुयाशयओं के शलए

अनुकरणीय बन सके।

मानक अग्रेंजी-शहन्दी-कोर्16के अनुसार-Teacher-सं.1.शििक*(प्र.भी), अध्यापक*(मा.2

भी), मुदर्रयस;2.उपदिेक, पीर, उस्ताद।

िब्दकोर् की दशृि से तो शििक और अध्यापक गरुु िब्द के ही समानाथी ह,ै परन्तु

व्यावहाररक दशृि स ेदोनों की काययिलैी और फलस्वरुप होने वाली गुणवत्ता में अंतर कदखाई

दतेा ह।ै अध्यापक अथवा शििक स्कूल, कालेज और शवश्वशवद्यालय में रहकर वहाँ की

व्यवस्था के अनुसार अपना कायय करता ह,ै जबकक गुरु शनजी मान्यता अनुसार केवल और

केवल गुणवत्ता के उद्देश्य स ेप्रशििण प्रदान करता ह।ै इसशलए आवश्यकता इस बात की ह ै

कक शििक अथवा टीचर को गुरु होने का ध्येय अपने सामने रखना चाशहए। इसशलए जहाँ

उसे स्वसाधना को समदृ्ध करना ह,ै स्वज्ञान को पोशर्त करना ह ैवहीं नैशतक दशृि स ेअपने

आप को समृद्ध करते हुए गुरु पद की कत्तयव्य परायणता और वचन बद्धता को भी अपने

चररत्र में समाशहत करना ह।ै

प्रस्तुत िोध-पत्र ‘भारतीय संगीत की गुरु –शिष्य-परम्परा’ शवर्य पर शलखा जा रहा ह ै

इसशलए दियन िास्त्र और व्याकरण िास्त्र के प्रकाि में गुरु की उपाशध तथा उसके बहुशवध

महत्त्व के अध्ययन के बाद भारतीय िास्त्रीय संगीत की गुरु-शिष्य-परम्परा का उल्लेख संदभय

–संगत ह ैअत:भारतीय िास्त्रीय संगीत की गुरु-शिष्य-परम्परा का संशिप्त उल्लखे यहाँ

प्रस्तुत ह।ै

2.भारतीय िास्त्रीय संगीत की गुरु शिष्य परम्परा की पृष्ठभूशम तथा शवलिणता

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भारतवर्य की गुरु-शिष्य –परम्परा के अन्तगयत सम्बशन्धत शवर्य में शनष्णात गुरु-सच्ची शनष्ठा

और वचनबद्धता स ेसुपात्र शिष्यों को शवद्यादान दतेे थे। सुपात्र शिष्य भी गुरु द्वारा प्रदत्त

ज्ञान को पूरी आत्मसात् करते थ।े अध्ययन-अध्यापन की यह प्रणाली वाचन और श्रवण की

शवलिण शविेर्ता स ेसम्पि होती थी शजस ेआमतौर पर गुरु-शिष्य प्रणाली की मौशखक

परम्परा के रुप में जाना जाता ह।ै वाचन और श्रवण की शवलिण शवशध(features of oral

and aural tradition)प्राचीन गुरु-शिष्य प्रणाली में ज्ञान-संचार का मखु्य माध्यम अथवा

साधन रही। गुरु-मुख से शनस्सृत होने वाले गूढ़-ज्ञान रहस्यों को शजज्ञास ुऔर शपपास ुशिष्य

एकाग्रशचत श्रवण द्वारा ह्दयंगम करते थे। शवद्यादान दनेे वाले मनीशर्यों की यह सत्यपरख

अनुभव शसद्ध अवधारणा थी कक गुरु द्वारा उच्चररत वाक्यों का शनरन्तर श्रवण शिष्य के ह्रदय

में ज्ञान को स्थाशयत्व प्रदान करता ह।ै प्रस्तुत शवचार शबन्द ुकी पुशि हतुे शनम्नशलशखत उद्धरण

संदभय –संगत ह-ै

“शवर्य के बारम्बार श्रवण स ेप्रज्ञा जागृत हो जाती ह,ै पाठ्यवस्तु को ह्रदयंगम कराती ह।ै

प्रज्ञा बल स ेपाठ्य शवर्य के सम्बन्ध में अशधकाशधक मनोयोग उत्पि होता ह ैऔर अशवरत

मनोयोग में शवद्या आत्मसात् हो जाती ह।ै ”17

वाचन और श्रवण पर आधाररत अध्ययन-अध्यापन की यह मौशखक परम्परा वैस ेतो

शवद्याध्ययन की सभी िाखाओं स ेसकिय रही, परन्तु भाव जन्य नाद और गशत अथायत् स्वर

और लय के सूक्ष्म तत्त्वों से शनष्पि और सम्पि सगंीत कला की तरशबयत(गहन प्रशििण)हतुे

ऊपरवर्णयत वाचन-श्रवण पर अवलशम्बत गुरु-शिष्य प्रणाली सवायशधक अनुकूल तथा

फलदायक शसद्ध हुई।

“सकदयों स ेभारतीय संगीत कला गुरु-शिष्य परम्परा के माध्यम स ेही जीशवत रही ह।ै अपने

शिष्य को संगीत कला की बारीककयाँ शसखाने और आत्मसात् करवाने के शलए गुरु लम्बे

समय तक साधना करता ह।ै शजसमें शिष्य कठोर अभ्यास द्वारा शनखार पदैा करके कला का

लाशलत्यपूणय रुप प्रस्तुत करता ह।ै अत: भारतीय-संगीत परम्परा में गुरु-शिष्य सम्बन्ध को

शपता-पुत्र के नाते से भी ऊपर सवोच्च स्थान कदया गया ह।ै ”18(भावानुवाद)

संगीत ऐसी गुरुमुखी शवद्या ह ैशजसमें स्वर, लय, बशन्दि, आलाप, तान, गायन-िैली,

रचनात्मक-सौन्दयय-बोध आकद सब कुछ प्रत्यि गुरु मुख स ेसुनकर आत्मसात् ककया जाता ह ै

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तथा सीना-ब-सीना तालीम द्वारा तरशबयत होती ह,ै इस कला में गुरु का महत्त्व िब्दातीत

ह।ै

“गान शवद्या मूलत:मौशखक शवद्या ह ैऔर उसका यथाथय ज्ञान अशधकारी गुरु के मखु से सम्भव

ह ैतथाशप गान-िास्त्र के शबना वह अपूणय तथा एकांगी शसद्ध.............संगीत का अध्ययन

केवल गं्रथ के आश्रय स ेअभीि नहीं। स्वर-िास्त्र के प्रायोशगक पि के पररज्ञान कक शलए गुरु

सशिशध अत्यावश्यक ह।ै गुरु की पारम्पररक शििा के शबना केवल गं्रथ मात्र से स्वर-िास्त्र

सीखने वाला व्यशि शवद्त्सभा में उसी प्रकार िोभाशवहीन शसद्ध होता ह ैजैसे स्त्री का जार

पशत। ”19

संगीत गुरु, शिष्य को केवल जानकारी ही प्रदान नहीं करता अशपतु प्रदत्त जानकारी को

शिष्य की आदत में ढालता ह ैऔर उसकी अन्तदृयशि को जागृत कर दतेा ह ैताकक शिष्य स्वयं

रचना करने के योग्य हो जाये।

“नाद और गशत अथायत् स्वर और लय के सूक्ष्म तत्त्वों से शनष्पि और सम्पि संगीत कला

पूणयरुपेण गुरु आशश्रत अथवा गुरुमुखी शवद्या ह।ै इस नाते इस कला को सीखने-शसखाने में गुरु

की भूशमका अत्यन्त महत्वपूणय ह।ै गुरु कला की परम्परा को एक पीढ़ी से दसूरी पीढी तक

पहुचँाने में अशद्वतीय कडी का काम करता ह,ै गुरु ज्ञान का वाहक ह,ै पोर्क तथा सम्प्रेर्क ह।ै

इसशलए गुरु का स्थान सवोच्च आदर का पात्र ह।ै सीखने-शसखाने की यह मौशखक परम्परा,

ज्ञान परम्परा की सिि शवशध ह ैजो कक सम्बशन्धत शवर्य की जानकारी को ज्ञान में तथा

ज्ञान को अन्तदृयशि का रुप प्रदान करती ह।ै ”20(भावानुवाद)

भारतवर्य एक ऐसा दिे ह ैशजसमें संगीत कला और संगीत गुरुओं की समदृ्ध परम्परा रही ह।ै

बाबा हररदास, बाबा अलाऊद्दीन खा,ँ पंशडत शवष्णु कदगम्बर पलुस्कर, पंशडत शवष्णु नारायण

भातखण्ड,े उस्ताद रजब अली खाँ, पंशडत भोलानाथ की भट्ट, उस्ताद शवलायत हुसैन खाँ,

पंशडत जगिाथ बुआ परुोशहत, प्रो.लाल मशण शमश्र, पंशडत शवनयचन्र मौदगल्य, पंशडत

गोकुलोत्सव िंकर लाल जो शमश्र ‘सुभरंग’, पंशडत लछमन दास, पंशडत कंुज लाल, पंशडत

लछमन चसहं सीन आकद कुछ ऐसे नाम ह ैशजन्होनें अपने जीवन में संगीत-गुरु की भूशमका

शनभाने के शलए तप-साधना की ह,ै ये ऐसे व्यशित्व ह ैशजनका जीवन चररत और नाम आज

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भी संगीत साधना से जुड ेहुये लोगों को उच्च साधना और समपयण की भावना की प्रेरणा दतेा

ह ैऔर सकदयों तक दतेा रहगेा।

भारतीय संगीत की गुरु-शिष्य परम्परा की प्रशििण प्रणाली को आत्मसात् करने स ेयह तथ्य

भली-भांशत उजागर हो जाता ह ैकक समथय और समर्पयत गुरु शिष्यों के चेतन और अवचेतन

मन में राग, बंकदि और गायकी की बारीककयों को पूणयत:स्थाशपत करने के शलए नानाशवशध

प्रयत्न करत ेह।ै सचे्च गुरु की भूशमका में कला-ममय को अगली पीढ़ी तक पहुचँाने का यज्ञ बडी

गररमा स ेसम्पि करत ेह।ै इस संदभय में शसद्ध संगीत-गुरु एवं कुिल वाग्गेयकार पंशडत गनेि

प्रसाद जी िमाय ‘नादरस’ का शनम्नशलशखत कथन न्याय संगत ह,ै

“हमारा िास्त्रीय संगीत पारम्पररक ह,ै परन्तु कभी पुराना नहीं होता, शनत्य नूतन रहता ह।ै

इसकी जडें परम्परा में ह,ै परन्तु तना, पत्त,े फूल-फल शनत्य-प्रशत जीवन से नई रंगत

िालीनतापूवयक अर्जयत करते रहते ह ैऔर सदवै जीवन को सुरशभत रखते ह।ै मेरे पास सौ वर्य

का अनुभव ह,ै इसका अशभप्राय यह नहीं कक मेरी आयु सौ वर्य की ह ैतात्पयय यह ह ैकक मैंने

तीन पीकढ़यों के ज्ञान-अनुभव स ेअपने आप को वाककफ रखा ह ैअथायत्-मेरे गुरुजनों की पीढ़ी,

मेरी खुद की पीढ़ी तथा आज की पीढ़ी। इन तीनों के जोड स ेजो अनुभव मरेे पास संशचत ह ै

उसे मैं अपने शिष्यों तक पहुचँाने का दाशयत्व पूरी गम्भीरता से शनभाते हतुे हरदम

प्रयत्निील ह ँ। पंशडत जी का कहना ह,ै “गुरु वहीं ह ैजो शिष्य भी ह ैऔर शिष्य भी सद्गुरु

का। ”21

पंशडत जी के उपरोि कथन के सम्पोर्ण हतुे गुरुदवे रबीन्रनाथ ठाकुर के शनम्नशलशखत कथन

को उद्धत करना न्याय सगंत ह,ै

“अध्यापन कायय के यज्ञ को सचे्च अथों में सम्पि करने के शलए यह शनतान्त आवश्यक ह ैकक

अध्यापक अपनी अध्ययन प्रकिया को शनरन्तर बनाए रखे, शजस तरह एक जलता हुआ

प्रकािमान दीपक ही ककसी प्रकािहीन दीये को जगमगा सकता ह,ै उसी प्रकार स्व-अध्ययन

की लौ को प्रचण्ड रखने वाला शििक ही शवद्यार्थययों को ज्ञानवान् बनाने में अपनी भूशमका

शनभा सकता ह।ै ”22

2.1 भारतीय संगीत परम्परा में शिष्य का स्थान

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शिष्य गुरु की पहचान तथा उपलशब्ध होते हैं। उनकी सफलता में गुरु का गौरव तथा कौिल

पररलशित होता ह।ै भारतीय संस्कृशत अथवा सामाशजक व्यवस्था के अन्तगयत पररवार में इस

बात की शविेर् तडप रहती ह ैकक योग्य संतान हो, जो कुल-पररवार की मयायदा तथा सब

प्रकार की सम्पशत्त की वाररस बन सके। यही शस्थशत गुरु-शिष्य परम्परा में भी शवद्यमान ह।ै

भारतीय गुरु-शिष्य परम्परा में गुरु-शिष्य के बीच शपता-पुत्र की घशनष्ठता और आत्मीयता

का सम्बन्ध रहता ह।ै शजस तरह आज्ञाकारी पतु्र, शपता का दायाँ हाथ बनके कुल-पररवार को

उित करता ह,ै शपता अपने जीवन की सारी पूँजी को योग्य संतान के हाथों सौंपकर सखु-

सुकून तथा शनशिन्तता का अनुभव करता ह,ै उसी प्रकार योग्य शिष्य भी जहाँ एक तरफ

गुरु-परम्परा को सम्भालते ह ैवहीं गुरु ऐस ेशिष्यों के हाथों संशचत ज्ञान कर शनशिन्त और

आश्वस्त हो जाता ह ैकक उसकी कला साधना पल्लशवत, पुशष्पत और फलीभूत होगी।

शजस तरह एक शपता की हार्दयक कामना होती ह ैकक उसकी संतान उससे भी आगे शनकल

जाये, उसस ेभी समदृ्ध हो अथायत् बहेतर शस्थशत में हो, उसी प्रकार सच्ची गुरु-शिष्य –परम्परा

में गुरु सदवै यही कामना करता ह ैकक उसका शिष्य कला साधना के िेत्र में अपने गुरु स ेभी

अशधक शसशद्ध और प्रशतष्ठा प्राप्त करे।

“भारतीय-संगीत परम्परा में गुरु-शिष्य सम्बन्ध को शपता-पुत्र के नाते स ेभी ऊपर सवोच्च

स्थान कदया गया ह।ै ”23(भावानुवाद)

ऐसा अक्सर दखेने को शमल जाता ह ैकक शिष्य गुरु से बहेतर गाने बजाने लगता ह,ै तो सच्चा

गुरु इस में अपना शवकास समझता ह ैतथा प्रफुशल्लत होता ह।ै अत:शजस प्रकार शिष्यों को

सद्गुरु का शमलना आवश्यक ह ैउसी प्रकार गुरु को भी सचे्च शिष्यों का शमलना शनतान्त

आवश्यक ह।ै कई बार यह दखेा गया ह ैकक स्थाशपत संगीत-गुरु स्वयं कुिल मंचीय कलाकार

नहीं होते परन्तु अपने प्रशििण-कौिल, शनष्ठा तथा शनिय स ेवे सुपात्र शिष्यों को मंचीय

कलाकार बनाने में सफल हो जाते ह,ै इसके शवपररत कुछ ऐस ेसंगीतज्ञ जो कक स्वयं कुिल

मंचीय कलाकार तो होते ह ैपरन्तु संगीत प्रशििण के शलए वांशछत समय और धैयय आकद गुण

कम होने की शस्थशत में शिष्य शनष्पादन का कायय उतनी सफलता स ेसम्पि नहीं कर पाते,

इस संदभय में एक तथ्य का उदघाटन सत्य को प्रकाशित करेगा कक समथय और सचे्च गुरु के

शलए यह जरुरी नहीं कक वह बहुत अच्छा गवैया हो, गुरु सहज कशण्ठत हो तो उस ेअपने

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शिष्य को शसखाना आसान होगा परन्तु इसस ेभी ज्यादा जरूरी यह ह ैकक गुरु का ज्ञान सच्चा

हो, अनुभव प्रौढ़ हो, समपयण और त्याग की भावना सुदढृ़ हो तो गुरु, शिष्य-शनष्पादन के यज्ञ

में सफल हो सकता ह।ै गुरु एक शिल्पी की तरह शिष्य के अन्तमयन को तरािता ह,ै तभी

शिष्य सघुढ़ गवैया बन पाता ह।ै

“भरताचायय ने आचायय के अनेक गुणों में एक गुण ‘शिष्य-शनष्पादन’ बताया ह।ै अच्छे शिष्य

ही गुरु-परम्परा को वास्तशवक रुप में सुरशित रखने में समथय होते ह ैऔर ऐसे शिष्य को

तैयार करने की िमता अच्छे आचायय की अपेिा रखती ह।ै शवद्यादान करने वाल ेगुरु और

प्रशतभािाली शिष्य होने पर ही ‘सम्प्रदाय’ या ‘घराने’ का जन्म होता ह।ै ”24

3.भारतीय संगीत में गुरु-शिष्य परम्परा की व्यापकता

शन:संदहे भारतीय िास्त्रीय संगीत में गुरु-शिष्य परम्परा बहुत दढृ़ और सनातन ह ैपरन्तु

िास्त्रीय संगीत के साथ-साथ लोक संगीत, भशि संगीत, शचत्रपट संगीत, नाट्य संगीत तथा

सुगम संगीत के अन्य प्रकारों जैसे की गीत गजल आकद सब में गुरु-शिष्य परम्परा के तत्व

ककसी न ककसी रुप में सकिय रहत ेह।ै शविेर् रुप से लोक संगीत में तो परम्परा को सीना-ब-

सीना अगली पीकढ़यों तक पहुचँाया जाता ह।ै यही अनुभव संगीत की अन्य शवधाओं में भी

आत्मसात ककया जा सकता ह।ै जैसे भशि-संगीत के अन्तगयत िबद गायन की अलग-अलग

िैशलयाँ भजन-गायन, कव्वाली, काफी और नात गायन की परम्परा, इसी प्रकार गजल

गायन के िते्र में बेगम अख्तर, फरीदा खानम, उस्ताद मेहदंी हसन, गुलाम अली और श्री

जगजीत चसंह अपनी-अपनी शविेर्ताओं के कारण अलग पहचान रखते ह ैऔर इनके

अनुयाशययों की भी शविाल परम्परा समाज में अनुभव की जा सकती ह,ै इसी प्रकार शचत्रपट

संगीत के अन्तगयत के.एल.सहगल, तलत महमूद, मिा ड,े मुकेि, मोहम्मद रफी, ककिोर

कुमार, सुरैया, श्मिाद बगेम, लता मंगेश्कर, आिा भोसल ेआकद प्रशतभा सम्पि गायक-

गाशयकाओं ने अपनी-अपनी आवाज़ के गुणों के आधार पर अलग-अलग िैशलयाँ स्थाशपत कर

ली ह ैइन सब को अनुकरण करन ेवाले कला साधकों का भी एक शविाल वगय ह ैजो गुरु-

शिष्य परम्परा की संजीदगी को धारण करके गाये गये गीतों के लाशलत्य को स्थाशपत करने

हतुे साधनारत रहते हैं। यहाँ तक कक संगीत वाद्यों के नव शनमायण और मरम्मत के कायय िते्र

में भी उस्ताद-िाशगदय की परम्परा जीशवत ह।ै

4.शवद्यालयीय संगीत शििा की उिशत हतुे गुरु-शिष्य परम्परा की उपयोशगता

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वतयमान समय में शवद्यालयों, महाशवद्यालयों और शवश्वशवद्यालयों में संगीत कला को ऐशच्छक

शवर्य के रुप में मान्यता कदलवाने का श्रेय शवष्णद्व-ैपंशडत शवष्णु कदगम्बर पलुस्कर, पंशडत

शवष्णु नारायण भातखण्ड ेतथा उनके शिष्य वगय को जाता ह।ै िुरु िुरु में शवद्यालयीय संगीत

शििण की बागडोर ऐस ेलोगों के हाथों में रही जो गुरु शिष्य प्रणाली के अधीन प्रशिशित थे।

सांगीशतक गुणवत्ता के साथ-साथ वचनबद्धता, साधना-शप्रयता, शनष्ठा तथा जबाव दहेी के

नैशतक गुण भी उन लोगों में भरपरू मात्रा में रह ेशजस वजह स ेशवद्यालयीय संगीत शििा के

माध्यम से भी संगीत-कला शवकास के मागय पर अग्रसर होती रही परन्तु आज के कदन

शवद्यालयीय संगीत शििा की शस्थशत संतोर्जनक नज़र नहीं आ रही ह,ै अन्य कारणों के

अलावा आज के शवद्यालयीय संगीत शििकों में नैशतक गुणों का हास्य नज़र आ रहा ह।ै

साधना की कमी, पररश्रम स ेअलगाव, वचनबद्धता और जवाबदहेी स ेमुहँ फेरना आकद सब

वै्यशिक दोर् शवद्यालयीय संगीत शििा के वतयमान को िोचनीय बनाते हुए भशवष्य का

शनरािाजनक पहलू कदखा रह ेह।ै इस शस्थशत स ेउबरने के शलए भारतीय सगंीत की गुरु-

शिष्य परम्परा की सांगीशतक शवशििाओं के साथ-साथ संगीत गुरुओं के व्यशित्व का अध्ययन

सहायक शसद्ध हो सकता ह ैभारतीय संगीत की गुरु-शिष्य परम्परा शवद्याथी की अशभरुशच

तथा िमता का अन्वेर्ण, व्यशिशनष्ठ संगीत-शििण, संगीत में भावपि और कलापि का

सामंजस्य, शनयशमत पठन-पाठन को प्रोत्साहन, मंच-प्रदियन हतुे प्रेरणा, शनयशमत अभ्यास

और संगीत श्रवण हतुे प्रोत्साहन, राग और गायन-िैली की िदु्धता पर ध्यान, िब्दोच्चार और

स्वर लगाव में काकु पर शविेर् बल, साफ, खलुी व सहज आवाज का प्रयोग, बशन्दि शििा

पर शविेर् बल आकद मनोवैज्ञाशनक और तकनीकी तत्वों पर अवलशम्बत थी। चररत्र की

उच्चता, ईमानदारी तथा समाज के प्रशत जवाबदहेी-संगीत गुरुओं के व्यशित्व का गहना था।

संगीत की गुरु-शिष्य परम्परा की उपरोि शविेर्ताओं को यकद शवद्यालयीय शििा में पुन:

िाशमल करने का संकल्प हम सब संगीत जीवी लोग करें तो शनशित ही वतयमान किदायक

शस्थशत को पररवर्तयत और पररष्कृत करन ेमें सहायता शमल सकती ह।ै

1 डॉ.एच.एस.डॉली और एच.एस.डडम्पल, मात भाषा की ससखिया,प.ृ276 से अनुवादित सामग्री। 2 गोस्वामी तुलसीिास, रामचररतमानस, उत्तरकाण्ड,92/3,प.ृ921 3 In Ancient India the educational embodied the method of oral teachings…….in India, oral tradition spreads over a wide range and covers almost all the disciplines of education-from music to medicine, philosophy to the

science of politics-Nivedita Singh, Tradition of Hindustani music, P.70 से उद्त और अनुदित। 4 डॉ.प्रकाशचन्द्र गंगराड,े दिन्द्िओंु के रीतत-ररवाज तथा मान्द्यताएँ,प.ृ49

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5 आदि ग्रन्द्थ, आसा िी वार, प.ृ462 6 गोस्वामी तुलसीिास, रामचररतमानस, बालकाण्ड, प.ृ27 7 आदि ग्रंथ, आसा िी वार, प.ृ469. 8 गुरु गीता, सद्गुरु की मदिमा, प.ृ17/1. 9 भेंटवाताा,सुपररचचत ज्योततषाचाया दिवंगत पं.िगुाानन्द्ि जी के सुपुत्र श्री शंभुित्त शास्त्री(संस्कृत ववद्वान) से प्राप्त श्लोक,स्थान-तलवाडा,नंगलडमै,पंजाब, 09-07-2012. 10 डॉ.धमेन्द्र कुमार गुप्त तथा वववपन चन्द्र बन्द्धु, पद्मचन्द्रकोश,प.ृ212,270,272. 11 रामप्रसाि त्रत्रपाठी, दिन्द्िी ववश्वकोष,प.ृ467. 12 Monier Williams,Skt.-Eng.Dictionary,P.xz. 13 छज्जुराम शास्त्री, भगीरथ शास्त्री, तनरुक्तम: संस्कृत-दिन्द्िी टीका द्वयोपेतम,्प.ृ72-73 14 भाई काह्न ससिं नाभा, गुरुशबि रतनाकर-मिान कोष,प.ृ314 पर उपलब्ध सादित्य का भावानुवाि। 15 The teacher who nurtures the students is known in indian tradition as guru or acharya, the paragon of model conduct……..Acharya comes from the word ‘char’ to behave and means-one who trains up others in good

behaviour (acharayam grahayati iti acharya).-Nivedita singh, Tradition of Hindustani music.PP.73-74 से उद्धतृ। 16 सम्पािक, सत्यप्रकाश और बलभर प्रसाि समश्र,मानक अंगे्रजी-दिन्द्िी-कोश,प.ृ2379 17 डॉ.शरच्चन्द्र श्रीधर परांजपे, भारतीय संगीत का इततिास, प.ृ131. 18 18. Our music tradition has survived through 'Guru-Shishya' parampara. Guru spends several hours imparting training and teaching the intricacies of the art form to the shishya, which a shishya'with his hard practice and sadhana polishes up to present the most sublime art form. Thus the relation between Guru -Shishaya has been given the utmost importance in Indian music. Even the son- father relation becomes secondary in this art form. - Pandit Debu Chaudhari, Indian

Music and Ustad Mushtaq Ali Khan, PPreface.से उद्धतृ । 19 डॉ.शरच्चन्द्र श्रीधर परांजपे, भारतीय संगीत का इततिास, प.ृ129,130 20 The music-teaching is totally guru-oriented and guru has a special role to play, he being an indispensable link in the process of communication of tradition. In the whole tradition guru emerges as an institution and the significance of word and importance of listening provides him the supremacy in the process. Being the bearer, preserver and disseminator of knowledge the office of the guru demands the highest veneration. Oral tradition gives due recognition to this unique relationship which is also a communication and at the same time aims at transmuting facts into information, information into knowledge and knowledge into deeper insight.-Nivedita

singh, Tradition of Hindustani music,P.72 से उद्धतृ। 21 भेंटवाताा,पं.गनेश प्रसाि जी शमाा,214,अजीत नगर, अम्बाला छावनी, गुरु पूखणामा का अवसर, ततचथ 3.07.2012. 22 “A teacher can never truly teach unless he is still learning himself. A lamp can never light another lamp unless if continues to burn it’s own flame.”- Dr.J.S.Walia,School management and pedagogics of education

P.64 से उद्धतृ। 23 Thus the relation of the ‘Guru-Shishaya’ has been given utmost importance in Indian music. Even the Son-father relation becomes secondary in this art form.-Pandit Dabu chaudhari, Indian music and Ustad Mushtaq

Ali Khan, preface, से उद्धतृ और अनुदित। 24 डॉ.एस.एन.रातांजन्द्कर,संगीत सशक्षा की प्राचीन परम्परागत प्रणाली और आधुतनक संस्थागत संगीत-सशक्षण: तुलनात्मक अध्ययन,संगीत अभ्यास अंक 1984,प.ृ9,10