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BRAHMA-SUTRA-BHASHYA Of SHRI SHANKARACHARYA IN HINDI (CHAPTER I.1) Translated by Sudhanshu Shekhar

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  • BRAHMA-SUTRA-BHASHYA

    Of

    SHRI SHANKARACHARYA

    IN HINDI

    (CHAPTER I.1)

    Translated by

    Sudhanshu Shekhar

  • 2

    Table of Contents PREAMBLE ....................................................................................................................................................... 3

    DELIBERATION ON BRAHMAN ............................................................................................................................ 6

    ORIGIN ETC. OF THE UNIVERSE .......................................................................................................................... 9

    SCRIPTURE AS SOURCE OF KNOWLEDGE OF BRAHMAN ....................................................................................... 12

    UPASNISHADS REVEAL BRAHMAN .................................................................................................................... 13

    FIRST CAUSE WAS CONSCIOUS.......................................................................................................................... 24

    THE BLISSFULL ONE ........................................................................................................................................ 33

    THE BEING INSIDE .......................................................................................................................................... 42

    SPACE ........................................................................................................................................................... 45

    PRANA .......................................................................................................................................................... 48

    LIGHT ............................................................................................................................................................ 51

    PRATARDAN ................................................................................................................................................... 57

  • 3

    PREAMBLE ऄध्यास भाष्य

    तुम और मैं प्रत्ययगोचर ििषय और ििषयी का, जो ऄंधकार और प्रकाश के समान ििरुद्ध स्िभाि िाल ेहैं, तादात््य युक्त

    नहीं ह,ै ऐसा िसद्ध होन ेपर, ईनके धमों का भी तादात््य िनतरा ंनहीं बन सकता, यह िसद्ध ही ह ै।

    आसिलए मैं प्रत्ययगोचर, जो िचदात्मक ििषयी ह,ै ईसमे तुम प्रत्ययगोचर, जो ििषय ह,ै ईसका एिं ईसके धमो का

    ऄध्यास तथा आसके ििपरीत ििषय में ििषयी तथा ईसके धमों का ऄध्यास िमथ्या ह,ै ऐसा युक्त ह।ै

    तो भी धमम और धमी, जो कक ऄत्यंत िभन्न हैं, आनका परस्पर भेद न समझकर, ऄन्योन्य में ऄन्योन्य के स्िरूप और ऄन्योन्य

    के धमम का ऄध्यास करके, सत्य (ऄपररितमनशील) और ऄनृत (पररितमनशील) का िमथुनीकरण करके, मैं यह और मेरा यह,

    ऐसा िमथ्याज्ञानिनिमत्त यह नैसर्गगक लोकव्यिहार चलता ह।ै

    पूछत ेहैं कक यह ऄध्यास क्या ह ै? आसपर कहत ेहैं—स्मृितरूप पूिमदषृ्ट का दसूरे में जो ऄिभास ह,ै िही ऄध्यास ह ै।

    कुछ लोग एक में दसूरे के धमम के अरोप को ऄध्यास कहत ेहैं । कुछ लोग कहत ेहैं कक िजसमें िजसका ऄध्यास ह,ै ईनका भेद

    न समझन ेके कारण होन ेिाला भ्रम ऄध्यास ह ै। कुछ लोग िजसमें िजसका ऄध्यास ह ैईसमे ििरुद्ध धममिाल ेके भाि की

    कल्पना को ऄध्यास कहत ेहैं ।

    किर भी, सभी मतों में ‘ऄन्य में ऄन्य के धमम का ऄिभास’ आसका व्यिभचार नही ह ै।

    आसी प्रकार, लोकव्यिहार मे भी यही ऄनुभि ह ैकक शुिक्त ही रजत के समान ऄिभािसत होती ह ैतथा एक चंद्रमा ही दसूरे

    के साथ मालूम पड़ता ह ै।

    ऄििषय प्रत्यगात्मा में ििषय और ििषय के धमों का ऄध्यास कैस ेहो सकता ह ै? सब लोग पुरोिती ििषय मे ही ऄन्य

    ििषय का ऄध्यास करत ेहैं । क्या ऐसा कहत ेहो कक ‘तुम’ आस प्रत्यय के ऄयोग्य प्रत्यगात्मा ऄििषय ह ै?

    सुनो – यह प्रत्यगात्मा ऄििषय नही ह ैक्योंकक यह मैं प्रत्यय का ििषय होन ेके कारण तथा ऄपरोक्ष होन ेके कारण प्रिसद्ध

    ह ै।

    और ऐसा कोइ िनयम भी नही ह ैकक पुरोिती ििषय मे ही दसूरे ििषय का ऄध्यास हो सकता ह ै। ऄप्रत्यक्ष होन ेपर भी

    अकाश में बालक तलमिलनता का ऄध्यास करत ेही हैं ।

    आस प्रकार प्रत्यगात्मा में ऄनात्मा का ऄध्यास ऄििरुद्ध ह ै।

  • 4

    आस लक्षण िाल ेऄध्यास को ही पंिडत ऄििद्या मानत ेहैं, और िििेक करके िस्तुस्िरूप के िनधामरण को ििद्या कहत ेहैं ।

    ऐसा होन ेपर िजसमें िजसका ऄध्यास ह ैईसके गुण ऄथिा दोष के साथ ईसका ऄणु मात्र भी संबंध नही होता ह ै।

    अत्मा और ऄनात्मा के ऄििद्या नामक परस्पर ऄध्यास को िनिमत्त मानकर सब लौककक और िैकदक प्रमाण प्रमेय का

    व्यिहार प्रिृत्त हुअ ह ैऔर सब िििध िनषेध परक तथा मोक्ष परक शास्त्र प्रिृत्त हुए हैं। किर ऄििद्याित ्ििषय में प्रत्यक्ष

    और शास्त्र प्रमाण कैस?े आस पर कहत ेहैं – दहे और आंकद्रय में मैं और मेरा आस ऄिभमान रिहत पुरुष का प्रमातृत्ि ऄिसद्ध

    होन ेपर (प्रमाता के ऄिसद्ध होन ेके कारण) प्रमाण की प्रिृित्त भी ऄिसद्ध होती ह।ै िबना आंकद्रयों को ईपादान बनाए प्रत्यक्ष

    अकद व्यिहार संभि ही नहीं हैं। और िबना ऄिधष्ठान के आंकद्रयों का व्यिहार संभि नहीं ह।ै िजसमे अत्मभाि ऄध्यस्त नहीं

    ह,ै ईस दहे स ेकोइ व्यिहार नहीं हो सकता। ऄगर यह ऄध्यास न हो तो ऄसंग अत्मा प्रमाता नहीं हो सकता तथा िबना

    प्रमाता के प्रमाण की प्रिृित्त ही नहीं होती। आसिलए प्रत्यक्ष और शास्त्र अकद प्रमाण का अश्रय ऄििद्यािान ्पुरुष मे ही हैं।

    और पशु अकद के व्यिहार से िििेकी पुरुष के व्यिहार मे ििशेषता नहीं ह।ै जैस ेपशु अकद शब्द अकद का श्रिण अकद स े

    संबंध होन ेपर शब्द अकद का ज्ञान प्रितकूल होन ेपर ईसस ेिनिृत्त होत ेहैं तथा ऄनुकूल हो तो प्रिृत्त होत ेहैं। जैस ेककसी

    पुरुष को हाथ मे दण्ड ईठाए दखे कर ‘यह मुझे मारना चाहता ह’ै ऐसा समझकर भागन ेलगत ेहैं पर यकद ईसके हाथ मे

    हरी घास हो तो ईसके स्मुख हो जात ेहैं। आसी प्रकार िििेकी पुरुष भी कू्ररदिृष्ट िाल,े हाथ मे खड्ग ईठाए, िचल्लात ेहुय े

    बलिान पुरुषों को दखेकर ईनस ेहट जात ेहैं और ईनस ेििपरीत पुरुषों की ओर प्रिृत्त होत ेहैं। आसिलए िििेकी पुरुषों का

    भी प्रमाण और प्रमेय व्यिहार पशुओं के समान ही ह।ै और पशुओं का प्रत्यक्ष अकद व्यिहार ऄिििेकपूिमक ह,ै यह तो

    प्रिसद्ध ही ह।ै पशु अकद के साथ सादशृ्य कदखाइ दतेा ह,ै आसिलए िििेकी पुरुषों का भी प्रत्यक्ष अकद व्यिहार, ईस काल

    में, समान ह ैऐसा िनिित होता ह।ै

    शास्त्रीय व्यिहार मे तो परलोक के साथ अत्मा का संबंध जान ेिबना यद्यिप िििेकी पुरुष ऄिधकृत नही होता, किर भी

    िजस अत्मतत्ि का ज्ञान िेदान्त स ेप्राप्त होता ह,ै िजसका क्षुधा अकद स ेकोइ संबंध नहीं ह,ै िजसमे ब्राह्मण क्षित्रय अकद

    भेद नहीं ह,ै ऐसे ऄसंसरी अत्मतत्ि की कमामिधकार मे ऄपेक्षा नहीं ह,ै क्योंकक ईसमे अत्मतत्ि का ऄनुपयोग ह ैतथा

    ऄिधकार का ििरोध ह।ै आस प्रकार के अत्मज्ञान के पूिम में प्रितममान शस्त्र ऄििद्यािान पुरुष का ही अश्रय ह।ै जैस ेकक-

    ‘ब्राह्मण को यज्ञ करना चािहए’ अकद शास्त्र अत्मा से िभन्न िणम, अश्रम, िय, ऄिस्था अकद का ऄध्यास कर के ही प्रिृत्त

    होत ेहैं।

    ‘िजसमें जो नहीं ह,ै ईसमें िह ह’ै ऐसी बुिद्ध ऄध्यास ह।ै िह ऄध्यास आस प्रकार ह-ै पुत्र, भायाम अकद के ऄपूणम और पूणम होन े

    पर मैं ही ऄपूणम और पूणम हूँ, ऐसा बाह्य पदाथों के धमों का स्िय ंमे ऄध्यास करता ह।ै आसी प्रकार अत्मा मे दहे के धमों का

    ऄध्यास करके कहता ह-ै ‘मैं मोटा हूँ’ ‘मैं पतला हूँ’ ‘मैं गोरा हूँ’ ‘मैं खड़ा हूँ’ ‘मैं जाता हूँ’ ‘मैं लांघता हूँ’। आसी प्रकार आंकद्रयों

    के धमों का ऄध्यास करके कहता ह ैकक ‘मैं गंूगा हूँ’ ‘मैं काना हूँ’ ‘मैं नपुंसक हूँ’ ‘मैं बहरा हूँ’ ‘मैं ऄंधा हूँ’। आसी प्रकार काम,

    संकल्प, संशय, िनिय अकद ऄंत:करण के धमों का अत्मा में ऄध्यास करत ेहैं। एिं मैं प्रत्यय ईत्पन्न करन ेिाले ऄंत:करण

  • 5

    का- ऄंत:करण की सब िृित्तयों के साक्षी प्रत्यागात्मा में तथा आसके ििपरीत ईस सिमसाक्षी प्रत्यगात्मा का ऄंत:करण मे

    ऄध्यास करत ेहैं।

    आस प्रकार यह ऄनाकद, ऄनंत, नैसर्गगक िमथ्याप्रत्ययरूप ऄध्यास, जो कक कतृमत्ि और भोकृ्तत्ि का प्रितमक ह,ै सकल लोक

    प्रत्यक्ष ह।ै आस ऄध्यास का समूल नाश करन ेके िलए ऄथामत ्अत्मैकत्ि ििद्या कक प्रािप्त के िलए सभी िेदान्त प्रार्भ ककए

    जात ेहैं। सब िेदांतों का िजस प्रकार ब्रह्मात्मैकत्ि ििषय ह,ै ईस प्रकार को हम आस शारीरक मीमांसा में कदखाएगें।

  • 6

    DELIBERATION ON BRAHMAN 1.1.1

    1.1.1

    ऄथातो ब्रह्मिजज्ञासा

    िजस िेदान्त मीमांसा शास्त्र कक हम व्याख्या करना चाहत ेहैं, ईसका यह अकद सूत्र ह।ै यहाूँ ऄथ शब्द क्रम के ऄथम मे

    समझा जाना चािहए न कक अरंभ के ऄथम में, क्योंकक ब्रह्म िजज्ञासा कोइ िस्त ुनहीं िजसका अरंभ ककया जा सके। और

    ‘मंगल’ऄथम का तो िाक्य के ऄथम मे समन्िय ही नहीं होता। आसिलए ऄन्य ऄथम में प्रयुक्त हुअ ऄथ शब्द श्रिण द्वारा मंगल

    का प्रयोजक होता ह।ै

    जब यह िनिय हो गया कक ऄथ शब्द क्रम के ऄथम में प्रयुक्ता हुअ ह ैतो यह भी कहना चािहए कक ब्रह्म िजज्ञासा का

    पूिमप्रकृत क्या ह ैऄथामत ्िह क्या ह ैिजसके होन ेपर ही ब्रह्म िजज्ञासा संभि ह।ै जैस ेधमम िजज्ञासा पूिम प्रकृत के रूप में

    िेदाध्ययन कक ऄपेक्षा रखती ह,ै ईसी प्रकार ब्रह्मिजज्ञासा भी िनयम स ेपूिम मे रहन ेिाली िजस िस्त ुकी ऄपेक्षा रखती ह,ै

    ईस ेकहना चािहए। यहाूँ स्िाध्याय को पूिमप्रकृत नहीं कह सकत ेक्योंकक िह तो ब्रह्मिजज्ञासा और धममिजज्ञासा दोनों मे ही

    समान ह।ै

    प-ू कममकांड के ज्ञान को ब्रह्मिजज्ञासा का पूिमप्रकृत माना जा सकता ह।ै

    िस- नहीं। िजसन ेिेदान्त का ऄध्ययन ककया ह,ै ईसमे धममिजज्ञासा के पहल ेभी ब्रह्मिजज्ञासा ईत्पन्न हो सकती ह।ै और यहाूँ

    ईस प्रकार के ककसी क्रम की ऄपेक्षा नहीं ह ैजैसा हृदय अकद के ऄिदान (बली दते ेसमय ऄंगों को अहुित मे डालन ेका

    क्रम) में, क्योंकक िहाूँ क्रम का अदशे ह।ै ऐसा आसिलए क्योंकक धममिजज्ञासा और ब्रह्मिजज्ञासा में शेषशेषीभाि (पूणम और

    ईसके भाग का भाि) या ऄिधकृतािधकार (एक मे िसिद्ध से दसूरे मे िसिद्ध) को मानन ेका कोइ प्रमाण नहीं ह।ै

    ब्रह्मिजज्ञासा और धममिजज्ञासा के िल और िजज्ञास्य (ििषय) में भेद ह।ै धममज्ञान का िल तो ऄभ्युदय (भौितक समृिद्ध) ह ै

    और िह ऄनुष्ठान की ऄपेक्षा रखता ह।ै परंत ुब्रह्मििज्ञान का िल तो िन:शे्रयस (मोक्ष) ह ैतथा ईस ेऄन्य ऄनुष्ठान की ऄपेक्षा

    भी नहीं ह।ै धममिजज्ञास्य जो ह,ै िह िह ज्ञान काल मे नहीं होता, िह ईत्पन्न होन ेिाला ह ैतथा पुरुष के प्रयत्न पर िनभमर

    ह।ै लेककन ब्रह्मिजज्ञास्य जो ह,ै िह तो िनत्य ह ैतथा पुरुष के प्रयत्न के ऄधीन नहीं ह ै(क्योंकक िह पहल ेस ेही ईपिस्थत

    सत्य ह)ै।

    िेदिाक्यों की प्रिृित्त के भेद के कारण भी। जो िेदिाक्य धमम में प्रमाण हैं, िे पुरुष को धमम में प्रिृत्त करात ेहुये ही बोध

    करात ेहैं। िेदिाक्य तो पुरुष को बोध ही करात ेहैं। बोध िेदिाक्य स ेही हो जान ेपर, िे पुरुष को बोध में प्रिृत्त नहीं

    करते। जैस ेआंकद्रय और ििषय के स्पशम स ेही पदाथम ज्ञान हो जाता ह,ै ईसी प्रकार। आसिलए, िजसके बाद ब्रह्मिजज्ञासा का

    ईपदशे ककया जाता ह,ै ऐसा कोइ ऄसाधारण कारण कहना चािहए।

  • 7

    आस संदभम मे कहत ेहैं- िनत्या-ऄिनत्य िस्त ुिििेक, आस लोक और परलोक में ििषय-भोग के प्रित ििराग, शम, दम अकद

    साधन संपित्त तथा मुमुक्षुत्ि। यकद यह हो तो धममिजज्ञासा के पहल ेया बाद में भी ब्रह्मिजज्ञासा हो सकती ह ैऔर ब्रह्मज्ञान

    भी हो सकता ह।ै आन चार साधनो के िबना दोनों ही नहीं हो सकते। आसिलए ऄथ शब्द पूिोक्त साधन संपित्त स ेक्रम का

    ईपदशे करता ह।ै

    ऄत: शब्द हतेुिाचक ह।ै ‘जैस ेखेती स ेईपार्गजत भोग्य पदाथम क्षी हो जात ेहैं, ईसी प्रकार परलोक मे पुण्य स ेप्राप्त ककए हुय े

    लोकों का क्षय हो जाता ह’ै (छान्दोग्य 8.1.6) आत्याकद शु्रित िाक्यों कल्याण के साधक ऄििहोत्र अकद के िल स्िगम अकद

    की ऄिनत्यता कदखलात ेहैं। आसी प्रकार, ‘ब्रह्मििद ्परम् को प्राप्त करता ह’ै (त ै2.1) आत्याकद शु्रितयाूँ ब्रह्मििज्ञान स ेही परम

    पुरुषाथम की प्रािप्त कदखलाती हैं। आसिलए ईपरोक्त साधन संपित्त की प्रािप्त के ऄनंतर ही ब्रह्म िजज्ञासा करनी चािहए।

    ब्रह्म की िजज्ञासा ब्रह्मिजज्ञासा ह।ै अगे ‘जन्माद्यस्य यत:’ आस सूत्र में िजसका लक्षण कहा जाएगा िह ब्रह्म ही ह।ै आस करण

    स ेयह संशय नही करना चािहय ेकक ब्रह्म शब्द का ब्राह्मण जाित अकद कोइ दसूरा ऄथम ह।ै

    ‘ब्रह्मण:’ यह कममिाचक षष्ठी ह ैशेषिाचक (संबंध) नहीं। क्योंकक िजयासा को िजज्ञास्य की ऄपेक्षा रहती ह ैऔर ब्रह्म के

    िसिा ककसी ऄन्य िजज्ञास्य का िनदशे भी नहीं ह।ै

    प-ू शेषिाचक षष्ठी लेन े पर भी कोइ ििरोध नहीं, क्योंकक सामन्य संबंध तो ििशेष संबंध (जैस े कक कममिाचक) को

    कदखलाता ही ह।ै

    िस- तो आस प्रकार भी ब्रह्म के प्रत्यक्ष कममत्ि को छोडकर सामान्य संबंध द्वारा परोक्ष कममत्ि की कल्पना करन ेका प्रयास

    व्यथम होगा।

    प-ू नहीं, यह प्रयास व्यथम नहीं ह ैक्योंकक ब्रह्म के अिश्रत सभी सभी पदाथों के ििचार कक प्रितज्ञ करना प्रयोजन ह।ै

    िस- नहीं। क्योंकक प्रधान की प्रािप्त होन ेपर, ईसकी ऄपेक्षा रखन ेिाल ेसभी पदाथों कक स्िीकृित हो जाती ह।ै ब्रह्म, ज्ञान स े

    प्राप्त होन ेके िलए आष्टतम (कमम) ह,ै ऄत: िह प्रधान ह।ै िजज्ञासा के कमम ईस प्रधान का ग्रहण होत ेही िजनकी िजज्ञासा हुये

    िबना ब्रह्म कक िजज्ञासा नहीं होती, ईन सबकी स्िीकृित हो जातीह,ै आसिलए सूत्र मे ईन्ह ेऄलग स ेकहन ेकी अिश्यकता

    नहीं ह।ै जैस े ‘यह राजा जाता ह’ै ऐसा कहन ेसे ही पररिारसिहत राजा के गमन का कथन हो जाता ह,ै आसके ऄनुसार।

    आसी प्रकार शु्रित के साथ सूत्र का संबंध करन ेसे भी कममिाचक षष्ठी ह।ै

    ‘यतो ि आमािन भूतािन जायन्त’े (त ै3.1) आत्याकद शु्रितयाूँ ‘तिद्विजज्ञासस्ि, तद ्ब्रह्म’ (ईसकी िजज्ञासा कर, िह ब्रह्म ह)ै

    आस प्रकार ब्रह्म ही िजज्ञासा का कमम ह,ै ऐसा प्रत्यक्ष कदखलाती हैं और कममिाचक षष्ठी मानन ेस ेही सूत्र के साथ शु्रित कक

    एकिाक्यता होती ह।ै आसिलए ‘ब्रह्मण:’ यह कममिाचक षष्ठी ह।ै

  • 8

    जानन ेकी आच्छा िजज्ञासा ह।ै ऄनुभि तक का ज्ञान सन ्िाच्य आच्छा का कमम ह,ै क्योंकक आच्छा का ििषय िल ह।ै ब्रह्म का

    ऄनुभि ज्ञान प्रमाण स ेआष्ट ह।ै ब्रह्म का ऄनुभि ही पुरुषाथम ह।ै क्योंकक ईसस ेिन:शेष संसार कक बीजरूप ऄििद्या अकद

    ऄनथों का नाश होता ह।ै आसिलए ब्रह्म कक िजज्ञासा करनी चािहए।

    प-ू िह ब्रह्म प्रिसद्ध ह ैया ऄप्रिसद्ध ह?ै यकद प्रिसद्ध ह ैतो ईसकी िजज्ञासा करन ेकक अिश्यकता नहीं ह,ै यकद ऄप्रिसद्ध ह ै

    तो ईसकी िजज्ञासा ही नहीं हो सकती।

    िस- िनत्यशुद्ध, िनत्यबुद्ध, िनत्यमुक्त स्िभाि, सिमज्ञ और सिमशिक्तसंपन्न ब्रह्म प्रिसद्ध ह।ै ब्रह्म षंड कक व्युत्पित्त स े‘बृह्’ धात ु

    के ऄथम के ऄनुसार िनत्यशुद्ध ऄथम अकद की प्रतीित होती ह ैऔर सब की अत्मा होन ेस ेब्रह्म का ऄिस्तत्ि प्रिसद्ध ह।ै सबको

    अत्मा के ऄिस्तत्ि का ज्ञान होता ह,ै ‘मैं नहीं हूँ’ ऐसा ज्ञान ककसी को नहीं होता। यकद अत्मा का ऄिस्तत्ि प्रिसद्ध नहीं

    होता, तो सब लोगो को ‘मैं नहीं हूँ’ ऐसा ज्ञान होता। अत्मा ही ब्रह्म ह।ै

    प-ू यकद ब्रह्म अत्मा होन ेस ेप्रिसद्ध ह,ै तो िह ज्ञात ही ह।ै आसिलय ेईसकी िजज्ञासा नहीं बनती ह।ै

    िस- नहीं। क्योंकक ईसके ििशेष ज्ञान मे मतभेद ह।ै सामान्य जन तथा लोकायितक मानत ेहैं कक चैतन्य शरीर ही अत्मा ह।ै

    ऄन्य कहत ेहैं कक चेतन आंकद्रयाूँ अत्मा हैं। ऄन्य कहत ेहैं कक मन ही अत्मा ह।ै कोइ कहत ेहैं कक क्षिणक ििज्ञान मात्र अत्मा

    ह।ै ऄन्य के ऄनुसार अत्मा शून्य ह।ै ऄन्यानुसार, शरीराकद स ेिभन्न अत्मा संसारी, कताम तथा भोक्ता ह।ै ऄन्यानुसार अत्मा

    केिल भोक्ता ही ह,ै कताम नहीं। ककसी के ऄनुसार, जीि स ेिभन्न इश्वर सिमज्ञ और सिमशिक्तसंपन्न ह।ै अत्मा भोक्ता ह,ै ऐसा

    ऄन्य मानत ेहैं। आस प्रकार, युिक्त, िाक्य और ईनके अभास के अधार पर बहुत से मतभेद हैं। ईनका ििचार ककए िबना

    चाह ेिजस मत को ग्रहण करन ेिाल ेमोक्ष से हट जाएगें तथा ईन्ह ेऄनथम भी प्राप्त होगा। आसिलए ब्रह्म िजज्ञासा के कथन

    द्वारा, िजसमे ईपिनषद स ेऄििरुद्ध तकम साधन हैं और िजसका प्रयोजन मोक्ष ह,ै ऐस े िेदांतिाक्यों की मीमांसा अरंभ

    करत ेहैं।

  • 9

    ORIGIN ETC. OF THE UNIVERSE 1.1.2

    1.1.2

    जन्माद्यस्य यत:

    ऐसा कहा गया कक ब्रह्म की िजज्ञासा करनी चािहए। किर ईस ब्रह्म के लक्षण क्या हैं? भगिान सूत्रकार कहत ेहैं- जन्म

    ऄथामत ्ईत्पित्त ह ै िजनके अकद में, िे जन्म अकद। यह तद्गुणसंििज्ञान बहुव्रीिह समास ह।ै और आस समास का ऄथम ह,ै

    जन्म-िस्थित-नाश। जन्म का ईल्लेख पहल ेककया गया ह ैक्योंकक यह सामान्य िस्थित के ऄनुसार ह ैतथा शु्रित िाक्यों के

    ऄनुसार भी। जैसा कक शु्रित कहती ह-ै ‘यतो िा आमािन भूतािन जायन्त’े (त ै3.1)। आस िाक्य में जन्म, िस्थित और लय का

    क्रमश: दशमन होता ह।ै सामान्य िस्थित भी ऐसी ही ह ैक्योंकक जन्म से ऄिस्तत्ि मे अए हुय ेधमों की ही िस्थित और लय

    का होना संभि ह।ै

    ऄस्य (आदम् का) जो कक आद ंका रूप ह,ै ईसस ेईस पदाथम का िनदशे ह ैजो प्रत्यक्ष ईपिस्थत ह ै(ब्रह्मांड)। षष्ठी ििभिक्त जन्म

    अकद धमम स ेधमी के संबंध को बताती ह।ै

    यत: स ेकारण का िनदशे ह।ै नाम रूप स ेव्याकृत (प्रकट हुअ), ऄनेक कताम भोक्ता स ेसंयुक्त,कक्रया और िल का अश्रय

    अधार, िजसमें दशे, काल और िनिमत्त (space, time and causation) िनयिमत व्यििस्थत हैं, मन स ेभी िजसकी

    रचना के स्िरूप का ििचार नहीं हो सकता, ऐस ेजगत ्की ईत्पित्त, िस्थित और नाश िजस सिमज्ञ, सिमशिक्तमान ्कारण स े

    होत ेहैं, ‘िह ब्रह्म ह’ै यह समझना चािहए।

    ऄन्य भाि ििकारों का भी आन तीनों मे ही (जन्म, िस्थित और लय) ऄंतभामि ह,ै आसिलए आन तीनों का ही यहाूँ ग्रहण ककया

    गया ह।ै यास्क मुिन के द्वारा ‘जायत,े ऄिस्त’ (जन्म लेता ह,ै िस्थत ह,ै बढ़ता ह ैआत्याकद) आत्याकद छ: ििकारों को ग्रहण

    ककया जाए तो यह अशंका हो सकती ह ैकक य ेतो केिल जगत के िस्थित काल मे ही संभि हैं और आसिलए मूल कारण स े

    जगत के जन्म, िस्थित और लय को आंिगत नहीं ककया गया ह।ै कोइ यह शंका न करे, आसिलए िजस ब्रह्म से आस जगत का

    जन्म, िजसमे आसकी िस्थित तथा िजसमें आसका लय कहा गया, िे ही, जन्म, िस्थित और लय यहाूँ गृहीत होत ेहैं।

    पूिोक्त ििशेषणों स ेयुक्त जगत ्की, ईक्त ििशेषण इश्वर को छोड़ ऄन्य स-े ऄचेतन प्रधान से, ऄचेतन परमाणुओं से, ऄभाि

    स े (शून्य स)े, संसारी (िहरण्यगभम) स,े ईत्पित्त अकद की संभािना नहीं की जा सकती। आसी प्रकार स्िभाि स ेभी (ऄपन े

    अप)जगत ्की ईत्पित्त नहीं मानी जा सकती क्योंकक िे पुरुष जो कायम करना चाहत े हैं, ईन्ह े िििशष्ट दशे, काल और

    िनिमत्त पर अिश्रत होना पड़ता ह।ै

    इश्वर को जगत ्का कारण मानन ेिाल े(नयैाियक), आसी ऄनुमान (inference) को, संसारी (जीि) स ेिभन्न इश्वर की सत्ता

    ह,ै आसका साधन मानत ेहैं।

  • 10

    प-ू क्या आस जन्माकद सूत्र में भी ईसी ऄनुमान को प्रस्तुत नहीं ककया गया ह?ै

    िस- नहीं। िेदान्त िाक्यों रूपी िूलों को गूूँथना सूत्रों का प्रयोजन ह।ै सूत्रों स े िेदान्त िाक्यों का ईदाहरण दकेर ििचार

    ककया जाता ह।ै िाक्याथम ििचार स ेजो तात्पयम िनिित होता ह,ै ईसस ेब्रह्मानुभि प्राप्त होता ह,ै ऄनुमान अकद प्रमाणों स े

    नहीं।

    लेककन जगत ्के जन्म अकद को बतान ेिाल ेिेदान्त िाक्यों के रहन ेपर, ईनके ऄथम में दढ़ृता के िलए, ईन िाक्यों के ऄनुकूल

    ऄनुमान प्रमाण हैं क्योंकक शु्रित न ेखुद सहायता के िलए तकम को ऄंगीकार ककया ह।ै जैस ेकक- ‘श्रिण करन ेयोग्य ह,ै मनन

    करन ेयोग्य ह'ै(बृ 2.4.5)- यह शु्रित और ‘जैस ेपंिडत और मेधािी गांधार दशे को प्राप्त करत ेहैं, ईसी प्रकार अचायमिान ्

    पुरुष ज्ञान प्राप्त करता ह’ै (छा 6.14.2) यह शु्रित ऄपन ेप्रित पुरुष बुिद्ध को सहायक कदखाती ह।ै धममिजज्ञासा मे शु्रित

    अकद ही प्रमाण हैं पर ब्रह्मिजज्ञासा में यथासंभि शु्रित अकद और ऄनुभि अकद प्रमाण हैं क्योंकक ब्रह्मज्ञान

    िसद्धिस्तुििषयक ह ै(ऐसी िस्त ुजो पहल ेस ेही ह)ै और ब्रह्मज्ञान की चरम सीमा ऄनुभि ह।ै धमम में ऄनुभि अकद प्रमाण

    नहीं हैं पर ईसमें शु्रित अकद ही प्रमाण हैं। आसके ऄितररक्त, कतमव्य की ईत्पित्त पुरुष के ऄधीन ह।ै आसिलए लौककक कमम

    करना या न करना या दसूरे प्रकार से करना करता के ऄधीन ह।ै जैस ेघोड़ ेपर जाता ह ैया पैदल जाता ह ैया ऄन्य प्रकार स े

    जाता ह ैया नहीं जाता ह।ै ऄित रात्र मे षोडशी को ग्रहण करता ह ैया नहीं ग्रहण करता ह ैया सूयोदय स ेपहल ेहोम करता

    ह ैया सूयोदय के बाद होम करता ह।ै आस प्रकार िििध, िनषेध, ििकल्प, ईत्सगम (सामान्य िनयम) तथा ऄपिाद धमम के

    ििषय में ऄथमयुक्त हैं। परंत ुिसद्धिस्त ुआस प्रकार ह ैया आस प्रकर नहीं ह,ै ह ैऄथिा नहीं ह,ै ऐस ेििकल्पों का ििषय नहीं ह।ै

    ििकल्प पुरुष बुिद्ध की ऄपेक्षा करत ेहैं। िसद्ध िस्त ुका यथाथम ज्ञान पुरुष बुिद्ध की ऄपेक्षा नहीं करता, िह तो िसद्ध िस्त ुके

    ऄधीन ह।ै एक स्थाणु मे स्थाणु ह ैया पुरुष ह ैया ऄन्य ह,ै यह ज्ञान यथाथम ज्ञान नहीं होता। यह िमथ्या ज्ञान ह।ै स्थाणु ही

    ह ैयह तत्ि ज्ञान ह ैक्योंकक िह िस्तु के ऄधीन ह।ै ईसी प्रकार, िसद्ध िस्त ुका प्रामाण्य िस्त ुके ऄधीन ह।ै ऄत: िसद्ध हुअ

    कक ब्रह्मज्ञान भी िस्त ुके ऄधीन ही ह,ै क्योंकक ईसका ििषय िसद्धिस्त ुही ह।ै

    प-ू यकद ब्रह्म िसद्ध िस्त ुह ैतो िह ऄन्य प्रमाणो का ििषय तो ह ैही, आसिलए िेदान्त िाक्यों का ििचार तो ऄनथमक ही ह।ै

    िस- नहीं। चूंकक ब्रह्म आंकद्रयों का ििषय नहीं ह,ै आसिलए ऄन्य प्रमाणो के द्वारा ब्रह्म का जगत ् के साथ संबंध पता नहीं

    चलता। आंकद्रय ििषयों को तो समझ लेती हैं पर ब्रह्म को नहीं। ऄगर ब्रह्म आंकद्रयों का ििषय होता तो जगत ्ब्रह्म स ेसंबद्ध

    ह,ै यह ज्ञान होता। और यह जगत ्जब आंकद्रयों के द्वारा गृहीत होता भी ह ैतब भी ईसका संबंध ब्रह्म के साथ ह ैऄथिा

    ककसी और के साथ, ऐसा िनिय नहीं ककया जा सकता। आसिलए ‘जन्माकद’ सूत्र ऄनुमान दर्गशत करन ेके िलए नहीं बिल्क

    िेदांतिाकयों के प्रदशमन के िलए ह।ै

    िे कौन स ेिाक्य हैं जजका ब्रह्म के लक्षणरूप से ििचार करना ऄभीष्ट ह?ै ‘भृगु िारुिण िपता िरुण के पास गया और कहा-

    भगिन!् ब्रह्म का ईपदशे कीिजय’े ऐसा ईपक्रम करके कहत ेहैं – ‘यतो िा- िजसस ेयह भूत ईत्पन्न होत ेहैं, ईत्पन्न होकर

    िजसमें जीत ेहैं, िजसके प्रित जात ेहैं और िजसमें प्रिेश करत ेहैं, ईसको ठीक-ठीक जानन ेकी आच्छा का, िह ब्रह्म ह’ै (त ै

  • 11

    3.1)। ईसका िनणमय िाक्य यह ह-ै‘अनंद से ही िन: संदहे भूत ईत्पन्न होत ेहैं, जन्म लेकर अनंद स ेपािलत होत ेहैं और

    अनंद मे ही लीन होत ेहैं’ (त ै3.6)। िनत्य शुद्ध, िनत्य बुद्ध और िनत्य मुक्त सिमज्ञ स्िरूप जो कारण ह,ै ईसके ििषय मे आस

    प्रकार के स्िरूप लक्षणों का िनदशे करन ेिाल ेदसूरे िाक्य भी ईद्धृत करन ेचािहए।

  • 12

    SCRIPTURE AS SOURCE OF KNOWLEDGE OF BRAHMAN 1.1.3

    1.1.3

    शास्त्रयोिनत्िात ्

    ब्रह्म में जगत ् का कारणत्ि कदखलान े से ईसकी सिमज्ञता सूिचत हुयी, ऄब ईसी को दढ़ृ करत े हुय े कहत े हैं- ऄनेक

    ििद्यास्थानों से ईपकृत, दीपक के समान सब ऄथों के प्रकाशन में समथम और सिमज्ञकल्प महान ्ऊग्िेद अकद शास्त्र का

    योिन ऄथामत ्कारण ब्रह्म ह।ै ऊग्िेद अकद रूप सिमज्ञगुणसंपन्न शास्त्र कक ईत्पित्त सिमज्ञ को छोड़ कर ऄन्य से संभि ही नहीं

    ह।ै यह तो लोकप्रिसद्ध ह ैजब कोइ शास्त्र ककसी व्यिक्त ििशेष स ेरचा जाता ह ैतो िह व्यिक्त ईस शास्त्र से ज्यादा ज्ञानिान ्

    होता ह ैक्योंकक शास्त्र तो ईस व्यिक्त के कुछ भाग को ही िनरूिपत कर रहा ह।ै तो किर ईस महान ्सत्ययोिन के स्पूणम

    सिमज्ञत्ि और सिमशिक्तमत्त्ि के बारे मे कहना ही क्या जब ऄनेक शाखा भेद स ेिभन्न दिे, पशु, मनुष्य, िणम, अश्रम का हते,ु

    सिमज्ञान का अकार, ऊग्िेद ऄनायास ही लीलपूिमक ईसके िन:श्वास के समान संभूत होता ह ैजैसा कक (बृ 2.4.10) आस

    शु्रित स ेिसद्ध ह।ै

    ऄथिा, पूिोक्त ऊग्िेद अकद शास्त्र ब्रह्म के यथाथम स्िरूप के ज्ञान मे योिन- कारण ऄथामत ्प्रमाण हैं, आसिलए ब्रह्म केिल

    िेद स ेही जाना जाता ह।ै शास्त्र प्रमाण स ेही यह समझा जाता ह ैकक ब्रह्म जगत ्अकद का कारण ह,ै यह ऄिभप्राय ह।ै पूिम

    सूत्रों मे ‘यतो िा’ का ईदाहरण कदया गया था।

    प-ू जब पहल ेऐस ेशास्त्र का ईदाहरण दते ेहुय ेसूत्रकार न ेब्रह्म शास्त्रयोिन ह ैऐसा कह कदया ह,ै तब किर आस सूत्र का

    प्रयोजन ही क्या ह?ै

    िस- आसपर कहत ेहैं कक पूिमसूत्र में शास्त्र का स्पष्ट ईल्लेख नहीं था और कोइ यह शंका कर सकता था कक जगत ्के जन्म का

    ऄनुमान रूप से िनरूपण ह।ै आस शंका को दरू करन ेके िलए यह ‘शास्त्रयोिनत्िात’् सूत्र प्रिृत्त हुअ ह।ै

  • 13

    UPASNISHADS REVEAL BRAHMAN 1.1.4

    1.1.4

    तत्त ुसमन्ियात ्

    पू॰ – शास्त्र ब्रह्म के िलए प्रमाण हैं, ऐसा कैस ेकहत ेहो? क्योंकक ज.ैसू. 1.2.1 के ऄनुसार िेद तो कक्रयाथमक हैं, आसिलए

    ऄकक्रयाथमक िाक्य तो ऄथमहीन हुये। िेदान्त तो ऄकक्रयाथमक ह,ै आसिलए ऄथमहीन हुये। या किर, कताम, दिेता अकद के बारे मे

    बताना िेदान्त का प्रयोजन ह,ै आसिलए िे कक्रया िििधिाक्यों (injunctions) के ऄंग हैं। या किर ईपासना अकद ऄन्य

    कक्रयाओं का ििधान िेदान्त का प्रयोजन ह।ै िसद्ध िस्त ुका प्रितपादन करना तो िेदान्त का प्रयोजन हो ही नहीं सकता

    क्योंकक िसद्ध िस्त ु तो प्रत्यक्ष अकद प्रमाणो का ििषय ह ै और आसीिलए ईसका प्रितपादन न तो स्िीकायम ह ै न ही

    त्याज्य। आसी कारण स े ‘सोऽरोदीत’् (िह रोया) आत्याकद िाक्य ऄथमहीन न हों, आसिलए ‘िििधना’ (ऄथमिाद-

    corroborative statements- और िििधिाक्यों मे एकिाक्यता ह ैक्योंकक ऄथमिाद ििधेय- जो िििध का ईद्दशे्य ह-ै की

    स्तुित ह)ै, ज.ैस.ू 1.2.7। आसिलए, ‘सोऽरोदीत’् आत्याकद िाक्य साथमक ह ैक्योंकक िे स्तुित ऄथमक हैं। जहा ंतक मंत्रों का प्रश्न

    ह,ै जैस ेकक ‘आषेत्िा’(ऄन्न के िलए तुझे काटता हूँ), िे या तो कक्रया या किर ईसके साधन स ेसंबद्ध हैं। कहीं भी िििधिाक्यों

    स ेसंबंध के िबना िेदिाक्यों कक ऄथमित्ता न तो दखेन ेमे अइ ह ैऔर न ही ईपपन्न ह।ै िसद्ध िस्त ुके स्िरूप मे िििध नहीं हो

    सकती, क्योंकक िििध तो कक्रयाििषयक ह।ै आसिलए कमम के िलए ऄपेिक्षत कताम के स्िरूप, दिेता अकद का प्रकाशन करन े

    के कारण िेदान्त कक्रयािििध के ऄंग या िहस्सा हैं। यकद ककसी ऄन्य कारण स ेयह न भी माना जाय ेकिर भी िेदान्त िाक्यों

    मे ईपासना कममपरक ह।ै आसिलए, ब्रह्म शास्त्रप्रमाणक नहीं ह।ै

    आसके ईत्तर मे यह सूत्र कहा गया।

    िस॰ – ‘त’ु पूिमपक्ष के मत के खंडन के िलए ह।ै सिमज्ञ, सिमशिक्तमत् और जगत ्की ईत्पित्त, िस्थित और लय का कारण, िह

    ब्रह्म िेदान्त शास्त्र से ही जाना जाता ह।ै ककस प्रकार? समन्िय के द्वारा। क्योंकक सभी िेदांतिाक्यों का समन्िय तभी हो

    पाता ह ै जब ईन्हें ब्रह्म को ऄपन े तात्पयम के रूप मे माना जाय। जैसा कक ‘सदिे॰’, ‘एकम्॰’, ‘अत्मा॰’, ‘तदतेद॰्’,

    ‘ऄयमात्मा॰’ आत्याकद द्वारा स्पष्ट ह।ै आसके ऄलािा, जब ईपिनषद के ऄथों का समन्िय ईनके ब्रह्मस्िरूप के ििषय मे होन े

    स े हो जाता ह,ै किर ककसी ऄन्य ऄथम की ऄपेक्षा करना ठीक नहीं, क्योंकक ऐसा करन ेसे शु्रित प्रितपाकदत ऄथम की हानी

    तथा शु्रित स ेऄप्रितपाकदत ऄथम की कल्पना करनी पड़गेी।

    िेदांतिाक्यों का तात्पयम कताम के स्िरूप का प्रितपादन करना ह,ै ऐसा नहीं ह,ै क्योंकक ‘तत्केन कम् पश्येत’् (बृ 2.4.13)

    आत्याकद कक्रया, कारक और िल का िनराकरण करन ेिाली शु्रितयाूँ हैं (ईस काल में- ऄथामत ्ििद्या काल में- कौन कताम

    ककस करण स े ककस ििषय को दखेे)। ब्रह्म यद्यिप िसद्ध िस्त ुह,ै किर भी प्रत्यक्ष अकद प्रमाणों के िबना जाना नहीं जा

    सकता क्योंकक ‘तत ्त्िम् ऄिस’ आस शास्त्र के िबना ब्रह्मात्मभाि समझ मे नहीं अता। यह जो संशय था कक ब्रह्म हये और

    ईपादये स े िभन्न ह,ै आसिलए ऄथमहीन ह,ै ईसके ईत्तर मे कहत े हैं कक यह दोष नहीं ह ै क्योंकक हये ईपादये रिहत

    ब्रह्मात्मभाि समझन ेस ेसभी क्लेशों का नाश होकर पुरुषाथमिसिद्ध होती ह।ै यकद दिेता अकद का प्रितपादन करन ेिाल े

  • 14

    िाक्य, िेदांतिाक्य के ऄंदर ईपासना के ऄंग हों, तो भी ििरोध नहीं ह।ै परंत ुब्रह्म ईपासना िििध का ऄंग नहीं हो सकता।

    एकत्ि का ििज्ञान होन ेपर ब्रह्म हये ईपादये शून्य होन ेके करण कक्रया, कारक अकद द्वतै ििज्ञान का नाश होना सिमथा युक्त

    ह।ै एकत्ि के ििज्ञान स ेनष्ट हुय ेद्वतै ििज्ञान का पुन: संभि नहीं ह ै कक ब्रह्म ईपासना िििध का ऄंग ह ैऐसा प्रितपादन

    ककया जाये। यद्यिप ऄन्य जगहों पर िबना िििधिाक्यों के िेदिाक्यों का प्रमाणत्ि नहीं दीखता, किर भी अत्मििज्ञान का

    िल (मोक्ष) होन ेके कारण ईस ििषय की चचाम करन ेिाल ेशास्त्र के प्रामाण्य को ऄनदखेा नही ककया जा सकता। शास्त्र का

    प्रामाण्य ऄनुमानग्य नहीं ह ैकी िह ऄन्य दषृ्टांतों की ऄपेक्षा करे। आसस ेयह िसद्ध हुअ कक ब्रह्म शास्त्रप्रमाणक ह ै(ऄथामत ्

    ब्रह्म के ििषाय में शास्त्र प्रमाण हैं)।

    पू॰ – ऄन्य कहत ेहैं कक यद्यिप ब्रह्म के िलए शास्त्र प्रमाण हैं, किर भी ब्रह्म िििध के ििषय ईपासना का ऄंग ह,ैऐसा शास्त्र

    प्रस्तुत करता ह।ै जैस ेकक, यूप और अहिनीय ऄिि, जो कक लौककक जीिन में यद्यिप ऄज्ञात हैं, किर भी िििधके ऄंग के

    रूप मे शास्त्रो में प्रस्तुत ककए जात ेहैं। ऐसा कैस ेहो सकता ह ै(कक ब्रह्म ईपासना का ऄंग हो जाए)? ऐसा आसिलए क्योंकक

    जो शास्त्रतात्पयमििद ्हैं, ईनके ऄनुसार शास्त्रों का ईद्दशे्य कायों में प्रिृित्त या िनिृित्त ह।ै “िेदों का तात्पयम (कतमव्य) कमम का

    ज्ञान कराना ह”ै “चोदना (िििध) से तात्पयम कक्रया (कतमव्य) मे प्रिृत्त करना ह”ै “िििध िह ह ैजो आनका (पुण्य कमों) ज्ञान द”े

    “चूंकक िेद (कतमव्य) कक्रया करन े(या न करन)े के िलए हैं, आसिलए िे िेद िाक्य िजनका तात्पयम यह नहीं ह,ै िे ऄथमहीन हैं”।

    आसिलए िेदिाक्य तभी साथमक हैं जब िे पुरुष को या तो ककसी ईद्दशे्य के िलए कक्रया मे प्रिृत्त करें या िनिृत्त करें, ऄथमिाद

    ऐस ेिेदिाक्यों के ऄंग बनकर ईपयोगी हैं। और चूंकक िेदान्त िाक्य की ऐसे िेद िाक्यों के साथ समानता ह,ै आसिलए िे

    िसिम आसी प्रकार स ेऄथमयुक्त हैं। जब यह िसद्ध हुअ की िेदान्त िाक्य भी िििधपरक हैं, तो यह भी युक्त ह ैकक जैस ेस्िगम की

    कामना करन ेिालों के िलए ऄििहोत्र अकद कममकांड अकद का ििधान ह,ै ईसी प्रकार ऄमृतत्ि कक कामना करन ेिालों के

    िलए ब्रह्म ज्ञान का ििधान ह।ै

    प्रितकार॰ – क्या यह कहा नही गया था कक िजज्ञास्य मे ऄंतर ह?ै कममकांड में धमम (धार्गमक कक्रयाएूँ, क्या करना चािहए

    और क्या नही) िजज्ञास्य ह,ै िजसकी ईत्पित्त नही हुइ ह,ै पर यहाूँ तो ब्रह्म िजज्ञास्य ह ैजो कक िसद्ध सत्य ह ैऔर हमेशा स े

    ईपिस्थत ह।ै आसिलए ब्रह्मज्ञान का िल धममज्ञान, िजस ेऄनुष्ठान अकद की ऄपेक्षा ह,ै के िल (स्िगम अकद) स ेििलक्षण होना

    चािहए।

    पू॰ – नहीं। क्योंकक, ब्रह्म तो कायम की िििध मे ऄंग के रूप में प्रस्ततु ह।ै जैस ेकक ििधान हैं , “अत्मा द्रष्टव्य ह”ै “िह अत्मा

    जो िनष्पाप ह,ै िह ऄन्िेष्टव्य ह ैऔर िजज्ञािसतव्य ह”ै “अत्मा पर ही ईपासना करनी चािहए” “अत्मा के लोक की ही

    ईपासना करे” “जो ब्रह्म को जनता ह ैिह ब्रह्म ही हो जाता ह”ै। आस प्रकार यह अत्मा क्या ह,ै िह ब्रह्म क्या ह,ै ऐसी

    अकांक्षा होन ेपर ईसके स्िरूप का बोध करान ेके िलए “िनत्य, सिमज्ञ, सिमगत, िनत्यतृप्त, िनत्यशुद्धबुद्धस्िभाि, ििज्ञान

    स्िरूप और अनंदस्िरूप ब्रह्म” एिम् ऄन्य दसूरे िाक्य हैं। ईस ईपासना स ेमोक्ष का िल होता ह ैजो कक यूूँ तो ऄदषृ्ट ह ैपर

    शास्त्रो स ेज्ञात होता ह।ै पर ऄगर िेदांतिाक्यों को कक्रयाओं (कतमव्य) की िििध का ऄंग न मानें और िे िस्त ुमात्र का कथन

    करत ेहैं, ऐसा जानें तो िे ऄथमहीन हो जाएगें और स्िीकृित और ऄस्िीकृित का कोइ स्थान नहीं रहगेा। जैस ेकक, “पृथ्िी

    सात द्वीपों से बनी ह”ै “राजा जाता ह”ै।

  • 15

    प्रितकार॰ – िस्त ुमात्र का कथन जैस ेकक “यह रस्सी ह ैसाूँप नहीं” भ्रम से ईत्पन्न भय को दरू कर साथमक िसद्ध होता ह।ै

    ईसी प्रकार ऄसंसारी अत्मिस्त ुके कथन द्वारा संसार रूपी भ्रम को दरू कर िेदांतिाक्य साथमक हैं।

    पू॰ – यह तब हो सकता, जब कक जैस ेिस्तुस्िरूप का श्रिण करन ेस ेसपम का भय समाप्त हो जाता ह,ै िैस ेही ब्रह्मस्िरूप के

    श्रिण मात्र से सांसररत्ि का भ्रम समाप्त हो जाता। पर ऐसा तो नहीं होता, क्योंकक िजन्होन ेब्रह्म का श्रिण ककया ह,ै ईनमें

    भी पूिमित ्सुख, दखु अकद संसार के धमम दखेन ेमे अत ेहैं। “श्रिण, मनन और िनकदध्यासन करना चािहए” आस शु्रित में

    श्रिण के बाद मनन और िनकदध्यासन अत ेहैं, आसिलए ऐसा मानना चािहए कक ईपासना कक िििध के ििषय के रूप में

    ब्रह्म शास्त्रप्रमाणक ह ै(ब्रह्म शास्त्र मे प्रस्तुत ह)ै।

    िस ॰ – नहीं। क्योंकक कमम और ििद्या के िल ऄलग-ऄलग हैं। धर्म के द्वारा ईन शरीर, िाणी और मन स ेककए जान ेिाल े

    कमों का ज्ञान होता ह ैजो शु्रित और स्मृित से िसद्ध हैं, तथा िजसके ििषय मे िजज्ञासा “ऄथातो धमम िजज्ञासा” (जै॰सू॰) आस

    सूत्र में कही गयी ह।ै जहसा अकद ऄधमम की भी िजज्ञासा करनी चािहए ताकक ईन्ह ेछोड़ा जा सके क्योंकक िे िेदों में िनषेध

    िाक्यों के द्वारा कह ेगए हैं। सुख और दखु धमम और ऄधमम के िल हैं जो कक ऄथम और ऄनथम स ेबन ेहैं, िजनके बारे में

    िेदिाक्य प्रमाण हैं। य ेसुख और दखु, ििषय और आंकद्रयों के संयोग स ेप्रत्यक्षत: ब्रह्मा से स्थािर तक शरीर, िाणी तथा मन

    के द्वारा ऄनुभि ककए जात ेहैं। मनुष्य से ब्रह्मा तक सुख का क्रम शु्रित करती ह।ै ईसस ेईसके हते ुधमम का क्रम ज्ञात होता

    ह।ै धमम के क्रम स ेधमम के ऄिधकारी (competent) पुरुषों का क्रम ज्ञात होता ह।ै यह तो प्रिसद्ध ही ह ैकक ऄिधकाररता

    सामथ्यम और महत्िाकाकं्षा के अधार पर मांपी जाती ह।ै जैस े कक, यज्ञ और ऄनुष्ठान करन ेिाल े ििद्या रूपी समािध के

    कारण ईत्तर पथ स ेजात ेहैं। और केिल आष्ट, पूतम तथा दत्त साधन िाल ेधूम अकद क्रम स ेदिक्षण पथ स ेजात ेहैं। िहाूँ भी

    (चन्द्र के लोक में) सुख और ईसके साधनों का क्रम “िे िहाूँ जब तक ईनके कक्रयाओं का िल रहता ह,ै तब तक रहत ेह”ै ऐसे

    शास्त्र स ेजाना जाता ह।ै आसी प्रकार, मनुष्य स ेलेकर स्थािर तथा नारकीय जीिों तक जो छोटे सुख िगीकृत हैं, ईन्हें भी

    धमम से ईत्पन्न जानना चािहए, िजनके ििषय मे िेदिाक्य प्रमाण हैं। तथा उूँ चे और नीच ेप्रािणयों मे दखु का क्रम दखे कर

    यह साि ह ै कक ईनके कारण, जो कक ऄधमम ह,ै में भी क्रम ह ैतथा िे िेदिाक्यों के द्वारा िर्गजत हैं। ईसी प्रकार ईनके

    ऄनुष्ठान करन ेिालों मे भी यह क्रम ज्ञात होता ह।ै आस प्रकार यह िेद, स्मृित तथा न्याय में प्रिसद्ध ह ै कक यह ऄिनत्य

    ससंार सुख और दखु के क्रम से बना ह ैतथा यह क्रम ईन्ही लोगो को प्राप्त होता ह ैजो की ऄििद्या अकद दोषों स ेयुक्त हैं

    तथा यह क्रम ईन्हें शरीर ग्रहण के बाद धमम और ऄधमम के ऄनुरूप िमलता ह।ै यह आस शु्रित स ेसमर्गथत ह ै“यह िनिित ह ै

    कक सशरीर (embodied being) के िलए िप्रय और ऄिप्रय स ेमुिक्त संभि नही”, यह शु्रित पूिमिर्गणत संसार की प्रकृित का

    एक ऄनुिाद (corroborative statement) ह।ै “ऄशरीरी को िप्रय और ऄिप्रय का स्पशम ही नहीं ह”ै आस शु्रित द्वारा िप्रय

    और ऄिप्रय के स्पशम का िनषेध कर िस्तुत: ऄशरीरत्ि जो कक मोक्ष ही ह,ै ईसके धमम स ेईत्पन्न होन ेका िनषेध ककया ह ै

    (i.e. moksh cannot be the result of virtuous deeds). क्योंकक ऄगर मोक्ष को धमम स ेईत्पन्न मानें तो ईसमे िप्रय

    और ऄिप्रय के स्पशम का िनषेध ऄसंगत ह।ै

    प ू॰ – ऄशरीरत्ि धमम का िल तो हो ही सकता ह ैन?

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    िस ॰ – नहीं, क्योंकक य ेशु्रित “अत्मा को शरीरों के बीच ऄशरीरी, ऄिनत्यों के बीच ऄिनत्य, महान ्तथा सिमव्यापक मान

    कर ििद्वान ्शोक नही करत ेहैं” “िह ऄप्राण, ऄमना तथा शुभ्र ह”ै “यह पुरुष ऄसंग ह”ै ऄशरीरत्ि को स्िाभाििक बताती

    हैं। आस कारण ऄनुष्ठये कमम के िल से ऄलग मोक्ष नामक ऄशरीरत्ि िनत्य ह,ै यह िसद्ध हुअ। (िनत्य दो प्रकार का होता ह,ै

    पररणामी िनत्य और पारमार्गथक िनत्य) पररणामी िनत्य िह ह ैिजसके ििकृत होन ेपर भी “िही यह ह”ै ऐसी बुिद्ध का

    नाश नही होता, जैस ेकक जगत िनत्य ह ैऐसा कहन ेिालों के मत मे पृथ्िी अकद और जैस ेकक संख्यों के मत में गुण अकद।

    परंत ुयह (मोक्ष) पारमार्गथक िनत्य ह ैजो कक कूटस्थ, व्योमित ्सिमव्यापी, सभी कक्रयाओं स ेरिहत, िनत्य तृप्त, िनरियि,

    स्िय ंज्योित स्िभाि ह।ै यही िह मोक्ष नामक ऄशरीरत्ि ह ैजहा ंधमम ऄधमम ऄपन ेकायों के साथ (सुख दखु) नहीं हैं तथा

    कालतर्य भी नहीं ह,ै जैसा कक शु्रित मे ह ै“ईसके बारे मे कहो जो धमम – ऄधमम स े, कायम-कारण स,े भूत-भििष्य-ितममान स े

    पृथक् ह”ै। (चूूँकक मोक्ष धमम-ऄधमम से पृथक् होन ेके कारण, कक्रया के िल स ेपृथक् ह)ै आसिलए मोक्ष ही ब्रह्म ह ैिजसके बारे

    में िजज्ञासा प्रस्तुत थी। यकद मोक्ष कतमव्य कमम के पूरक (supplementary) के रूप में ईपकदष्ट होता या किर साध्य होता

    (something to be achieved), तो किर ऄिनत्य हो जाता। ऐसा होन ेपर, मोक्ष ऄन्य बहुत सारे क्रम स ेसज्ज ऄिनत्य

    कममिलों के बीच िस्थत एक प्रकार का बहुत ऄच्छा िल हो जाता। लेककन जो मोक्ष मे ििश्वास करत ेहैं िे तो आस ेिनत्य

    मानत ेहैं। आसिलए कायम के ऄंग के रूप में ब्रह्म का ईपदशे करना ऄयुक्त ह।ै

    और, “ब्रह्म को जानन ेिाला ब्रह्म हो जाता ह”ै “पर (िहरण्यगभम) भी िजसस ेऄिर ह,ै ईस ब्रह्म को दखेने पर सभी कमों का

    नाश हो जाता ह”ै “िह जो ब्रह्म के अनंद (जो कक ब्रह्म का स्िरूप ह)ै को जनता ह,ै ककसी स ेभय नहीं करता” “जनक, तुमन े

    ऄभय (ब्रह्म) प्राप्त ककया ह”ै “आसन ेऄपन ेको ही ‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा जाना, और यह सिम हो गया” “एकत्ि दशी को मोह और

    शोक कहाूँ” य ेशु्रितयाूँ ब्रहििद्या के बाद मोक्ष कदखाती हैं तथा बीच मे ककसी भी ऄन्य कक्रया की ऄनुपिस्थित बताती हैं।

    आसी प्रकार ब्रह्मदशमन और सिामत्मभाि के मध्य कतमव्य की ऄनुपिस्थित ईदाहृत ह,ै “आस े(अत्मा को) होकर गाता ह’ै आसमें

    खड़ ेहोन ेऔर गान ेकी कक्रयाओं के बीच मे ईस कताम न ेऄन्य कोइ कक्रया नहीं की, ऐसा पता चलता ह।ै “अप हमारे िपता

    हैं और अप हमें ऄििद्या रूप सागर के पार पहुूँचात ेहैं” “मैंन ेभग्ित्तुल्य पुरुषों स ेकेिल सुना ह ै(ऄनुभि नही) कक अत्मा

    को जानन ेिाला शोक स ेपार हो जाता ह।ै भगिन मैं शोक कताम हूँ, मुझे शोक स ेपार कर दीिजय”े “भगिान सनत्कुमार न े

    दग्धपाप (नारद) को तमस (ऄििद्या) के पार (ब्रह्म) कदखाया” आन शु्रितयों के द्वारा यह दर्गशत ह ैकक अत्मज्ञान का िल और

    कुछ नहीं, बस मोक्ष के प्रितबंध की िनिृित्त ह।ै आसी प्रकार न्याय स ेसमर्गथत अचायम गौतम का सूत्र ह ै“दखु, जन्म, प्रिृित्त-

    धमम और ऄधमम, दोष (मोह अकद) एिम् िमथ्या ऄज्ञान, आनमें बाद िाल ेकारण का नाश होन ेपर पहलेिाल ेकायम का नाश

    होता ह”ै। ब्रह्म और अत्मा के ऐक्य के ििज्ञान स ेिमथ्या ऄज्ञान का नाश होता ह।ै

    पर यह ब्रह्म अत्मैक्य ििज्ञान संपद ्(एक प्रकार की ईपासना) नही ह।ै “मन ऄनंत ह,ै ििश्वेदिे ऄनंत हैं, (आसिलए मन मे

    ििश्वेदिे कक दिृष्ट करन ेके कारण) आसके द्वारा िह ऄनंतलोक जीतता ह”ै आस शु्रित के ऄनुसार मन में ििश्वेदिे दिृष्ट संपद ह।ै

    यह एकत्ि ििज्ञान ऄध्यास रूप भी नही ह,ै जैस ेकक, “मन ब्रह्म ह,ै ऐसी ईपासना करो” “अकदत्य ब्रह्म ह-ै ऐसा अदशे ह”ै

    आनके द्वारा मन एिम् अकदत्य में ब्रह्म दिृष्ट ऄध्यास ह।ै यह ििज्ञान ककसी ििशेष कक्रया पर अधृत ईपासना भी नही ह,ै

    जैस ेकक “िाय ुिनिय ही ििलय का स्थान ह”ै “प्राण िनिय ही ििलय का स्थान ह”ै। न ही यह (अत्मैकत्ि ििज्ञान) यज्ञ में

    प्रयुक्त ककसी ऄंग की ककसी प्रकार की शुिद्ध ह,ै जैस े कक ऄर्घयम को दखेना (by the wife of sacrificer for the

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    purification of oblation). यकद ब्रह्म अत्मैक्य ििज्ञान को एक प्रकार का संपद ्माना जाय तो ‘तत ्त्िम् ऄिस’’ऄहम्

    ब्रह्म ऄिस्म’ ‘ऄयम् अत्मा ब्रह्म’आत्याकद िाक्य िजनका तात्पयम बहम और अत्मा के एकत्ि को बताना ह,ै आन शु्रितयों के

    शब्दो का ऄथम बािधत होगा। तथा ‘िभद्यत ेहृदय गं्रिथ:’ अकद िाक्य जो (ब्रह्म अत्मैक्य ििज्ञान के)ऄििद्या िनिृित्त रूपी

    िल का बोध करात ेहैं, ईनका ििरोध हो जाएगा। “जो ब्रह्म को जानता ह,ै िह ब्रह्म हो जाता ह”ै ऐस ेिाक्य जो अत्मा के

    ब्रह्मभाि को बतात ेहैं, संपद ्अकद की दिृष्ट स ेऄयुक्त हो जाएगें। आसिलए, ब्रह्म अत्मैक्य ििज्ञान संपद ्रूप नहीं ह।ै आसी

    कारण ब्रह्मििद्या पुरुष के कायम पर अिश्रत नही ह।ै

    तब ककस पर अिश्रत ह?ै

    प्रत्यक्ष अकद प्रमाण में िस्तुज्ञान के समान, िस्त ुपर ही अिश्रत ह ै(प्रत्यक्ष में, हम एक घर को घर ही दखेत ेहैं कुछ और

    नही क्योंकक ज्ञान िस्त,ु घर, पर अिश्रत ह।ै ब्रह्म या ब्रह्मज्ञान की ककसी प्रकार कायम के साथ संबंध की कल्पना भी नहीं की

    जा सकती।

    ब्रह्म जानना, आस कक्रया, का कमम ह,ै आसिलए ब्रह्म का कायम के साथ संबंध हो सकता ह।ै नहीं, क्योंकक शु्रित ह,ै “िह जान े

    हुय ेस ेऄलग ह,ै िह न जान ेहुय ेस ेभी ऄलग ह”ै “िजसके द्वारा यह सब जाना जाता ह,ै ईस ेककस प्रकार जान”े। आनके द्वारा

    ब्रह्म जानना आस कक्रया का कमम ह,ै आसका िनषेध ककया गया ह।ै आसी प्रकार ब्रह्म के ईपासना कक्रया का कमम होन ेका भी

    िनषेध ह।ै जैस ेकक “िह जो िाक् से नहीं कहा जाता, िह िजसस ेिाक् प्रेररत होती ह”ै आस शु्रित स ेब्रह्म को आंकद्रयों का

    ऄििषय बताया गया और किर “ईसी को त ूब्रह्म जान, ईस ेनही िजसकी लोग ईपासना करत ेहैं”।

    प ू॰ – यकद ब्रह्म (ज्ञान का) ििषय नहीं ह ैतो ब्रह्म शास्त्र द्वारा प्रस्तुत (शास्त्रयोिनत्िात)् ह,ै यह कहना ऄयुक्त हुअ न।

    िस ॰ – नहीं। क्योंकक शास्त्र का ईद्दशे्य ऄििद्या से किल्पत भेद को हटाना ह।ै शास्त्र ब्रह्म को ‘आदम्’ रूप स ेज्ञान के ििषय के

    रूप में बताना नहीं चाहता, िरन ्ब्रह्म प्रत्यगात्मा होन े के कारण ऄििषय ह ैऐसा बतात ेहुय ेऄििद्या के द्वारा किल्पत

    िेद्य-िेकदत-ृिेदना (knowable-knower-knowledge) भेद को दरू करता ह।ै और शु्रित भी ह ै“जो ऐसा समझता ह ैकक

    ‘ब्रह्म ज्ञात नहीं ह’ै ईसन ेब्रह्म को ठीक स ेजाना ह ैऔर जो ऐसा समझता ह ैकक ‘मैंन ेब्रह्म को जान िलया ह’ै ईसन ेब्रह्म को

    जाना ही नहीं” “दिृष्ट के साक्षी को त ूदखे नहीं सकेगा और ज्ञान को जो जानन ेिाला ह ैईस ेत ूजान नहीं सकेगा” आत्याकद।

    मोक्ष के तो ऄिनत्य होन ेका प्रश्न ही नहीं ईठता क्योंकक आसी स ेऄििद्या के द्वारा किल्पत संसाररत्ि (जन्म मृत्यु का बंधन)

    दरू होकर अत्मा का िनत्य मुक्त स्िरूप ज्ञात होता ह।ै

    िजनके मत में मोक्ष ईत्पाद्य (ककसी कक्रया का िल) ह,ै ईनके िलए मोक्ष का मानिसक, िािचक, शारीररक कमों की ऄपेक्षा

    रखना तकम पूणम ह।ै ऄगर मोक्ष ककसी का ििकार माना जाए, ईनके िलए भी यही मत तकम पणूम रहगेा। आन दोनों मतों में

    (ईत्पाद्य, ििकायम) मोक्ष िनिित रूप स ेऄिनत्य रहगेा। क्योंकक दही अकद ििकार या घट अकद ईत्पाद तो ऄिनत्य ही होत े

    हैं। और िजस मत में ब्रह्म प्राप्य िस्तु ह,ै ईस मत में भी मोक्ष को कायम की ऄपेक्�